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[ ४४ ] गुरुदेव के अंतिम दर्शन न कर सके, जिसका उन्हें बड़ा खेद रहा। आलिजा गीत मे इन्होंने अपने गुरु-विरहको व्यक्त किया है। यथा
बालू मास वलि यावियो पूज जी, यायो दीवाली पर्व । काती चौमासौ बावियर पूज जी, याया अवसर नर्व ।। तुम बावो हो सीरियादे का नदन, तुम विन घड़िय न जाय ।
बालिनो मिलवा अति घणउ, बायउ सिंघ थी एथ। नगर ग्राम सहु निरखिया, कहो किम न दीसइ पूज्य केथ ।।
मूयउ कहइ ते मूढ़ नर, जीवइ जिनचद्रसूरि । जग जंपइ नस तेहनउ हो, पुहवी कीरति पद्धरि ।। चतुर्विध संघ चितारत्यइ, जां जीवस्यइ ता सीम !
वीसार्या किम वीसरइ हो, निर्मल जप तप नीम || सं० १६७१ का चातुर्मास्य इन्होंने वीकानेर में किया और यहीं 'अनुयोग द्वार' एवं 'प्रश्नव्याकरण' की प्रतियां अपने प्रशिष्य जयकीर्ति को पठनार्थ अर्पित की, जिनके पुष्पिका-लेखों मे इसका उल्लेख है। लवेरा (जोधपुर) मे श्री जिनसिंहसूरि ने इन्हें 'उपाध्याय' पद से अलंकृत किया था, जिसका उल्लेख राजसोम गणि ने अपने गुरुगीत में किया है - "श्री जिनसिंहसूरिंद सहर लवेरइ हो पाठक पद कीय'। इसमें संवत् का उल्लेख नहीं है, परन्तु 'अनुयोगद्वार' (१६७१) की पुष्पिका में 'वाचक' और 'ऋषिमंडल वृत्ति' ( १६७२ ) की पुष्पिका में 'उपाध्याय' पद उल्लिखित होने से इसी बीच इनका