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( २०८ ) मत चिंता करई मातजी, इणि परि धीरप देइ । नदी लांधि पइलइ तटई, गयो सीत नई लेइ ॥१७॥ रथ थी ऊतारी करी, कहइ सारथि कर जोडि।
आंख आँसू नाखतो, वसि इहीं रथ छोडि ॥१८॥ हीन भाग्य सीता निसुणि, बात किसी कहुँ तुज्म । रामचंद ठइ थकई, हुक्म कीयो ए मुझ ||१|| सीता नई तुं छांडिजो, अटवी डंडाकार। सीता एह वचन सुण्यो, लागो वन प्रहार ।।२०ll मुरछागत धरणी पडी, वलि खिण थई सचेत । कहि रे सारथि मुज्म नई, इहा आणी किण हेत |२|| कहि रे अयोध्या केतलई, जई नई आपुं साच । सारथि कहइ अलगी रही, राम नी विरुई वाच ॥२२॥ राम कृतांत जिसर कुप्यो, न जुयइ साम्हउ तुज्म । कठिन करम आया उदय, तुं छोडी वन मज्झि ।।२३।। हुँ निरदय हुँ पापीयो, जे करूं एहवो काम । कीधा विण पणि किम सरई, सामि रीसायइ राम ||२४|| चाकर कूकर सारिखा, घिग ए सेवा वृत्ति। सामि हुकम मारइ सयण, बांप नई बांधव झत्ति ।।२।। सीता छोड़ी रांन मई, सारथि पाछउ जाइ । विरह विलाप सीता किया, ते केतला कहवाय ॥२६॥
सर्वगाथा ॥७॥