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( २०७ ) सारथि थयउ उतावलो, खेडयो पवन नइ वेगि। सीता सममि पडइ नहीं, पणि मन मई उद्वेग ।।७।। आगइ जातां देखीयो, सुका रूंख नी डालि। कालउ काग करुंकतो, पांख वे ऊँची वालि ॥८॥ नारी वलि निरखी तिहां, करति कोडि विलाप। रवि साम्ही ऊभी रही, छूटे केस कलाप || फेकारी पणि बोलती, सुणि सीतायई कानि । अशुभ जणावइ अपशकुन, निरती वाद निदान ॥१०॥ भवितव्यता टलिस्यइ नहीं, किसी करु हिव सोच । गाम नगर गिरि निरखती, चली चित्त संकोच ॥१२॥ 'पहुती सीता अनुक्रमइ, अटवी माहि उदास । अंव कदंबक आबिली, ऊँचा ताल आकास ।।१२।। चांपड मरुयउ केवडउ, कुंद अनइ मचकुंद । खयर खजूरी नारियल, बकुल अनइ अरविंद ॥१३॥ भार अढार वनस्पति, गुहिर गभीर कराल । सीह बाघ नइ चीतरा, भीपण शबद भयाल ॥१४॥ एहवी अटवी देखती, कहइ सारथि नई एम। किम आणी मुझ एकली, राम न दीसई केम ॥१॥ नहिं पूठइ परिवार को, ए कुण बात विचार। कहइ सारथि पूठइ थकी, आविस्यइ तुझ परिवार ॥१६॥