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तिहां जे जिण पूजइ नमइ, साध वांदइ कर जोडि । सूधइ मनि जिन ध्रम करइ, मूढ मिथ्यामति छोडि |८ न०॥ कपिल भेद लहइ सांभली, जिन ध्रम सूधई चित्त । साध समीपि जायइ सदा, देव जुहारई नित्त । न०॥ प्रतिवूधड ध्रम साभली, कीधउ गांठिनउ भेद । श्रावकना व्रत आदस्था, समकित मूल उमेद ॥१० न०॥ लहि जिन धर्म खुसी थयो, दलिद्री जेम निधान । विप्र आयो घरि आपणइ, कहइ विरतांत विधान ॥११ न०॥ चउथा खंड तणी भणी, पहिली ढाल इम जोइ । समयसुन्दर कहइ पुण्यथी, रनि वेलाउल होइ ॥१२॥ न०।
[ सर्वगाथा २७ ]
दहा ६ वांभणी बात सुणी करी, संतोषाणी चित्त । कहइ प्रियुं मइ पिण आदस्यउ, जिन ध्रम साचउ तत्त ॥१॥ कपिल वांभण नै' वाभणी, वेडं श्रावक सिद्ध । देव जुहारई दान द्यइ, गुरु वचने प्रतिबुद्ध ॥२॥ अन्य दिवस अरथी थकउ, कपिल लेइ निज नारि । रामनो दरसण देखिवा, आव्यो नगर मझारि ॥३॥ धरम तणइ परभाव थी, रोक्यो नही किण लोकि । राजभुवनि आन्यो वही, रह्यो लखमण अवलोकि ॥४॥
१-अनइते