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( २४६ ) राग द्वप वाह्या थका, विषय सुख आसक्त। अस्त्री काजई अधमनर, धा मारइ आरक्त !|४|| माहो माहे मारिनइ, मूढ भमई संसारि । दुख देखइं दुरगति गया, पाडता पोकार ||५|| राग द्वेष मुंकी करी, सुधो आदरइ धम्मै । । पाप अढारइ परिहरई, भाजइ मिथ्या भर्म ॥६॥ संयम पालई तप तपई, साधनइ श्रावक जेह । पुण्यं तणई परभाव थी, सुभगति पामइ तेह ||७|| इत्यादिक ध्रम देसणा, सुणि परिहरि परमाद। , प्रसन विभीषण नृप करइ, भगवन करउ प्रसाद ।।८। राम अनइ लखमण तणइ, रावण सुं रण एम । सीता सम्बन्धइ थयो, कहउ ते कारण केम् ।। . सकलभूषण श्री केवली, भाषइ न्यान अनन्त । रांम अनई रावण तणो, पूरव भव विरतंत ॥१०॥
सर्वगाथा ॥१४॥ ढाल ४ ॥ राग हुसेनी धन्यासिरी मिश्र ॥ दिल्ली के दरबार मइ , लख आवई लख जाइ। एक न आवई नवरगखान, जाकी पघरी ढलि-ढलि जावइवे ॥१॥
नवरंग वइरागीलाल । ए गीतनी ढाल । क्षेमपुरी नगरी हुँतो, व्यापारी नयदत्त ।। तास सुनंदा भारिजा, सुविवेक कला सुपवित्त वेशा