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( १४० ) सीता भणी पाछी संप्रेडि, नहीतरि न छोडई राम केडि । इम सुणि विभीपण तणा वोल, कहई इन्द्रजीत तु रहई अबोल ।। २७|| इहाँ तुझ ऊपरि नहिं बंधाण, बीहा तो वइसी रहि अयाण । संग्राम करि बहु सुभट मारि, आणी जिणइ ए सीत नारि ॥२८॥ रावण तिको किम तजइ तेह, परमान्न भूख्यो जेम एह । किम अमृत मुंकई त्रिष्यो जेह, दससीस तिम सीता सनेह ।। २६ ।। वलतो विभीषण कहइ एम, तुं सत्रुभूत सुत थयो केम। जे वचन तु एहबा जंपेइ, ते आगि मांहि इंधण खिवेइ ॥३०॥ लंका तणो गढ़ भाजि भूक, करि महल मंदिर ट्रक-ट्रक । जदि आवि लखमण कीघ हेल, तदि सीत देस्यो मुंकि खेल ॥३१॥ एकलो राम जीतो न जाय, लखमण सहित किम युद्ध थाय । एक सीहनई पाखस्यो होइ, कुण सकइ साम्हो तास जोइ ।। ३२ ।। ए मिल्या सुभट मिल्या अनेक कोडि, सुग्रीव हनुमंत साथ जोडि । नलनील अंगद अनलवेग, तेहनी अति आकरीज तेग ।। ३३ ।। पाछी सीता देता ज भव्य, आपणो राखो जीवितव्य । हुँ कहुँ केती अधिक बात, बीजी न सूझई काईधात ।। ३४ ॥ इम सुणी विभीषण कठिन बोल, कोपीयो रावण अति निटोल। उठीयो आपणो खडग काढि, मारु विभीपण सोस वाढि ।। ३५॥ तेतइ विभीषण वकि, सूरवीर साम्हो थयो सटक्कि' । उनमूलि थयो थंभ एक, मार दसानन टलइ उदेग ।। ३६ ।। १-~मटकि