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[ ५० ] अन्त में लिखा है
द्रोपदी नी ए चउपइ मै, वृद्धपणइ प्रणि कीधी रे । शिष्य तणइ आग्रह करी, मई लाभ ऊपरि मति दीधी रे ।। एक सती वलि साधवी, ए बात येऊ घणु मोटी रे।
द्रूपढी नाम लेता थका, तिण कर्म नी तूटइ कोटी रे ।। इस चौपाई के लेखन और संशोधन में उनकी वृद्धावस्था के कारण हर्षनन्दन और हपेकुशल से सहायता मिली थी, इसका इन्होंने स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है
वाचक हर्पनन्दन वलि, हर्षकुशलइ सानिध नीधी रे।
लिखन शोधन साहाय्य थकी, तिण तुरत पूरी करि दीधी रे ।। अपने शिष्य-प्रशिष्यों के प्रोत्साहन के लिये तथा कृतज्ञता-ज्ञापन की अपनी सहज वृत्ति के कारण उनसे थोडा भी सहयोग किसी कार्य मे प्राप्त करने पर इन्होंने उसका निम्संकोच उल्लेख कई अवसरों पर किया है। पर ये बड़े स्पष्टवक्ता भी थे। दुष्काल के समय जिन शिष्यों ने इनकी सेवा की थी उनकी इन्होंने प्रशंसा की है, परन्तु उसके पश्चात् शिष्यों के तथाविध सेवा-शुश्रूषा न करने का इन्हें मार्मिक दुःख था। इस विषय मे अपने स्पष्ट उद्गार इन्होंने 'दुःखित-गुरुवचनम्' के श्लोकों में प्रकट किए हैं।
मृत्यु---'द्रोपदी चौपाई के वाद की इनकी कोई रचना उपलब्ध नहीं है । इन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन साहित्य-साधना एवं धर्मप्रचार में बिताया। सं० १७०२ में चैत्र शुक्ल १३ ( भगवान् महावीर के जन्म-दिन) के दिन ये अहमदाबाद में अनशन-आराधनापूर्वक स्वर्गवासी हुए, जिसका उल्लेख राजसोम कृन गीत में है