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( १३० ) तुम विरहइ मुझ प्रियु दुख मानई, अधिको दुखु नरगथी। वेधक जन कहई प्रीतम संगम, अधिको सुखु सरगथी ।। १० सी० तिण कारण मुनिवर वाछह नही, प्रीतम संगम कोई। जे भणी प्रीतम विरह दुखनो, पालण पछइ न होई ।। ११॥ सी० कहइ सीता सुणि ए वात इम हीज. तउपणि विरला ते नर । न करई प्रेम तणो जे प्रतिबंध, पणि हुं नहि साहसधर ।। १२ ॥ सी० बलि आखे आसू नाखती, कहा सीता हनुमंतनई। लखमण सहित रामचंदकहितउ, किहां दीठो मुझ कंतन ।। १३ ।। सी० सरीर समाधि अछंइ मुझ प्रियुनइ, के मुद्रडी पडि पाई। कहइ हनुमंत सांभलि तुं सामिणि, आरति म करे काई ।। १४ ।। सी० कुशल खेम तुझ प्रीतमनई छइ, वसई किकिंध विशेप । पणि प्रियुनइ एतो छइ अकुसल, तुम मुख कमल न देखई ।।१५।। सी० पणि श्रीराम कह्यो छई इमरे, जाना तुझ पास। तुझ सरिपा कहि सुभट किता तिहा, वलि सीता इम भास३ ॥१६॥सी० कहइ हनुमंत मुझ माहे तउ छइ, सुभटपणो निज गेहई । राम समीपि जे सुभट अभंग भड, तेह तणइ हुं छेहइ ।।१७।। सी० इण अवसरि मन्दोदरी वोली, सुणि एहन बल एतल । रावण आगइ वरुणादिक रिपु, मारि भाज्या एकलमल ।।१८।। सी० ए सरिखो कोई सुभट नहीं इहा, तुष्टमान थयो रावण । चंद्रनखा निज भगिनी तनया, परगावी सुखपावन ।।१६।। सी० १-नगरी