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( १५२ ) वानरे आपणई कटक मईजीहो, आणिया राक्षस बांधणे वंधि के । इण अवसरि विभीपण प्रतइ जीहो, क्रोध करी नइ कहई दसकंध के || सहि तुं प्रहार एक माहरो जीहो, जो रणसुर छः सबल जूमार के। कहई विभीषण एक घाइ सुजीहो, मुंकि प्रहार अनेक प्रकार के l वांधव मारण मकियो जीहो, रावणई सवल त्रिसूल हथियार के। लखमण आवतो ते हण्यो जीहो, वांगसुं चपु पुण्यप्रकार के ||८|| कोपीयई रावणई करि लीयो, अमोघ विजय महा सगति हथियार के। आगलि दीठे ऊभउ रह्यो जीहो, मरकत मणि छवि वरण उदार के 118|| श्रीवछ करि सोभित हियो जीहो, गरजध्वज लखमण महासूर के। लंकापति कहई फ्यु ऊभ रह्यो जीहो, रे धीठ माहरी दृष्टि हजर के 1१०1 गजचडी लखमण माडियो जीहो, संग्राम रावण सुं ततकाल के । सकति मुंकि राणइं रावणइंजीहो, ऊछली अगनिनी झाल असराल के।११ लखमण नई लागी होयई जीहो, ऊछली वेदना सहिय न जाय के। धुसकि नइधरणी उपरि पडयो जीहो,मुरछित थयो गया नयण मीचायके लखमणनइ धरती पड्यो जीहो, देखिनई राम काई रण घोर के। छत्र धनुप रथ छेदिया जीहो, दीया दस सिर नई प्रहार कठोर के।।१३।। लंकपति भय करी कांपियो जीहो, मालि सकइ नहीं धनुप हथियारके । नवे-नवे वाहने झूझतो जीहो, राम कीधो रथ रहित छवार के ॥१४॥ मार सिक्युं नहि मूलथी जीहो, पिणि निभ्रंछियो वचन विशेषि के। रे रे त लखमणनई हण्यो जीहो,हिवाई हुतुनइ करुयते देखि के।।१।। रथ थकी रावण उसख्यो जीहो, पउठो लंकापुरी मांहि तुरन्त के । मई माहरो रिपु मारीयो जीहो, तेण हरपित थयो तेहनो चित्त के ॥१६॥