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तेजोलेश्या रे मुंकी तेण, नगर वाल्यो सहिजेण । राजाराणी रे बल्यो सहु कोइ, सर्वत्र समसान होइ ॥३०॥ सा० देश बल्यो रे सहु ते ठाम, दंडकारण्य थयो नाम । दंडकी राजा रे भमी संसार, दंडकारण्य ममार ॥३१।। सा० पंखी हूयो रे गृद्ध कुबंध, करम करो दुरगंध । अम्हनइ देखी रे थयो सुभ ध्यान, जातीसमरण न्यान ॥३२॥ सा० ए प्रतिवूधो रे वंदना कीध, त्रिणहि प्रदक्षिणा दीध । धरम प्रभावइ रे सुंदर देह, थई पखी वात एह ॥३३।। सा० . रामनइ सुणी रे साध वचन्न, रोमंचित थयो तन्न । कहइ तुम्हें वारुरे कह्यो विरतांत, अम्हनई साध महांत ॥३४॥ सा० मुनि प्रतिबोध्यो रे पंखी गृद्ध, आदत्यो जिनध्रम सुद्ध । पाडूया जाण्या कर्म विपाक, जेहवा फल किंपाक ॥३शा सा० सूधउ पालइ रे समकित धर्म, न करइं हिंसा कर्म । मूठ न बोलइ रे पालइ सील, परिग्रह नही विण डील ॥३६॥ सा० राति न खायइ वरज्जइ मंस, न करइ पाप नो अंस। ए ध्रम पालइ रे आतम साध, मुगति तणइ अभिलाष ॥३७॥ सा० साध भलायो रे पंखी तेह, सीतानइ सुसनेह । सार सुधि करिजे रे एहनी नित्य, सीता कहइ पूज्य सत्य ॥३८॥ सा० साध सिधाया रे आपणी ठाम जप तप करई हितकाम । सीता कीधी रे तसु सुजगीस, परिचरिजा निसिदीस ॥३९। सा० पंखी थयो रे सीता सखाय, मनगमतो सुखदाय । तस तनु सोहई रे जटा अभिराम, पंखी जटायुध नाम ॥४०॥ सा०