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[ ४६ ] जिन मन्दिरों को वन्दनकर लौटते हुए किसी विद्याधर ने उससे कहा कि मैं तुम्हें पिता के यहां पहुंचा दूं? अनंगसुन्दरी के अस्वीकार करने पर उसने चक्रवर्ती को जाकर कहा । चक्रवर्ती जब तक पहुंचा उसे अजगर निकल चुका था। चक्रवर्ती को पुत्री के दुख से वैराग्य हो गया, उसने बाईस हजार पुत्रों के साथ संयम मागे ग्रहण कर लिया। अनंगसुन्दरी यदि चाहती तो आत्मशक्ति से अजगर को रोक सकती थी पर उसने शान्ति से उपसर्ग सहा और अनशन आराधना से मर कर देवी हुई। पुणवसु विद्याधर भी विरक्त परिणामों से दीक्षित हो कर तप के प्रभाव से देव हुआ। वही देवी च्यवकर द्रोणमुख की पुत्री विशल्या और देव च्यवकर लक्ष्मण के रूप मे उत्पन्न हुआ है। पूर्व तपश्चर्या के प्रभाव से उसके स्नानोदक से सभी प्रकार के रोग दूर हो जाते हैं। भरत द्वारा महामारी रोग पैदा होने का कारण पूछने पर मुनिराज ने कहागजपुर के विमउ वणिक का भंसा अतिभार से रुग्ण होकर गिर पड़ा। पर किसी ने उसकी सार सम्भार नहीं की। वह अकाम निर्जरा से मर कर वायुकुमार देव हुआ। वह जातिस्मरण से पूर्वभव का वृतान्त ज्ञात कर कुपित हुआ और महामारी रोग फैला दिया। किन्तु कन्या के न्हवण से जैसे सव के रोग गए वैसे ही विद्याधर ने कहा कि लक्ष्मण भी जीवित हो जायगा। रामचन्द्र ने जम्बुनदादि मन्त्रियों की सलाह से भामंडल को तुरन्त अयोध्या भेजा।
भामंडल से जब भरत ने लक्ष्मण के शक्ति लगने की वात सुनी तो वह रावण पर कुपित होकर तलवार निकाल कर मारने दौड़ा। भामंडल ने कहा-रावण यहाँ कहाँ ? वह तो समुद्र पार है। तब