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( १७२ ) इम कहिनइ रे गई देवता, आपणइ ठाम आणंद रे। अठार सहस अन्तेउरी, तेहवई जाणावड ते दन्द रे ॥३॥वि० ॥ चरण नमी नइ करई वीनती, कंतजी सुणउ पोकार रे। अम्हानइ विगोइ इण वानरे, तुम सिर थकां भरतार रे॥४॥वि० ॥ कहइ रे रावण कोपइ चड्यो, तुम्हें करउ लील विलास रे । नाम फेडु रे वानर तणो, तउ मुझ देज्यो साबासिरे ।। ५॥ वि०॥ नीसस्यौ शाति ना चैत्य थी, स्नान मज्जन करि सार रे । पूजा कीधी वीतरागनी, आभ्रण पहिल्या उदार रे।। ६ ।। वि० ॥ भोजन कीधा रावण अति भला, सज्जन संतोष्या सहु कोइ रे । आनंद विनोद करतुं थकु, सुभट साथिइ थया सोइ रे ॥७॥वि०॥ विद्यानी परीक्षा करिवा गयो, रावण क्रीडा उद्यान रे । ह्य गय रथसुं परिवस्थर, मनि धरतउ अभिमान रे।। ८॥ वि० ॥ रांवण रूप कीधा घणां, महियल सुमारइ हाथि रे। पदम उद्यान माहे गयो, सेवक लीधा सहु साथि रे ॥॥ वि०॥ कटक देखी रांवणतणो, सीता वीहती चिंतवइ एम रे। इन्द्र पणि जीपी न सकइ एहनइ, मुझ प्रियु जीपिस्यइ केम रे॥१०॥विoll छूटीसि किम राक्षस थकी, सवल चिता करई सीत रे। तिण अवसरि रावण भणई, सुणि सुदरि सुविदीत रे ॥११॥वि०॥ राग मगन मई आणी इहा, पणि न सक्यो करी भोग रे। व्रत भंग थकी वीहतइ थकई, वलि विरुयो कहि लोग रे ॥१२॥वि०॥ पणि हिव भोगविस्युं सही, कारणि व्रत भंग जाणि रे । पुष्पविमान वइठी थकी, तु पणि मन सुख माणि रे ॥१३॥वि० ॥