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( १७१ ) ' वालि कहइ रावण देखि तु, तुम वाल्हेसर नारि । हुँ वानर पति थाइसुं, धिगधिग तुझ अवतार ।। १६ ।। हीयो हाथ सुं ढाकती, खोस्या आभ्रणचीर । आँखे आंसू नाखती, देखि तुं नारि दिलगीर ॥ १७ ।। करई विलाप मंदोदरो, हे वाल्हेसर सार। वानर जायई अपहरी, करि बाहर भरतार ।। १८ ।। लका गढनो तुं धणी, इवडी ताहरी रिद्धि । वलि मांडो त साधना, केही थास्यइ सिद्धि ।।१६।। का वइठी तु मौन करि, अठि - ऊठि प्रीउ वेगि। छेदि सीस वानरतणो, जेम मुझ टलइ उदेग॥ २० ॥ इम विलाप मन्दोदरी, कीधा अनेक प्रकार । रावण सुणि डोल्यो नहीं, ध्यान थी एक लिगार ॥२१॥ अडिग रह्यो रोवण इहा, जाणे मेरु गिरिंद। साहसोक सिरोमणी, रतनाश्रव कुलचन्द ।। २२ ।।
ढाल १
। राग रामगिरी ॥ 'छानो नइ छिपी नइ वाल्हो किहा रहिउ' एगीतनी ढाल । विद्या नई सीधीरे बहुरूपिणी, रांवण पुण्य विशेपिरे। सबल रावण साहस करी, मेरु अडिग मन देखिरे ।।१।। वि०।। प्रगट थई परमेसरी, कई करजोडी एमरे । दसमुख द्यइ मुझ आगन्या, तुं कहइ ते करूं तेमरे ।। २ ॥ वि०॥