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( १७३ ) सुणि रावण सीता भणइं, मुझ ऊपरितु ताहरु सनेह रे । थोडोई पणि जो धरइ, जाणि परमारथ एह रे ॥१४॥वि०|| लखमण राम भामंडला, जा जीविस्यइ ता सीम रे । हुँपणि जीविसि तां लगी, एहवो जाणिजो नीम रे ।।१५।।वि०॥ इम कहती धरणो ढली, ए ए मोहनी कर्म रे। मरण समान सीता थई, रावण जाण्यो ते मर्म रे ॥१६॥वि०|| अवसर देखिनई इम कहई, हा हा मई कीधउ अन्याय रे । निरमल कुल मइ कलंकियो, कुमति ऊपनी मुझ काइ रे॥१णावि०॥ अत्यन्त राग मगन थका, हा हा विछोह्या सीता राम रे । भाई विभीषण दूहव्यो, मइ कीधो भुण्डो काम रे ॥१८॥वि०|| जउ हुँ सीतानइ पाछीसुपस्यु, तऊ लोक जाणिस्य उ आम रे । देखो लंकापति वीहतई, ए कीधो असमत्थ काम रे ॥१६॥वि०॥ हिव मुझ इम जुगतो अछइ, संग्राम करू एक वार रे । लखमण राम मॅकीकरी, वीजा नो करूं संहार रे ॥२०॥वि०॥ इम मन मइ अटकल करी, उठ्यो संग्राम निमित्त रे। तिणि समईतिहा उपद्रव हुवा, भूकंपा दिग्दाह नित्त रे॥२शावि० आडउ कालउ साप ऊतस्यो, चालता पड्यो सिर छत्र रे । सेठ सेनापति मंत्रवी, वारीजतो यत्र तत्र रे ॥ २२ ॥ वि०॥ नगरी लंका थकी नीसस्यो, सजि संग्रामनो साज रे। बहुरूपिणि इन्द्ररथ सज्यो, तिहां बइठो जाणे सुरराज रे।।२३।।वि० आगइ हजार हाथी कीया, पाँच पूरे हथियार रे। माथइ मुगट रतने जड्यो, काने कुडल अति सार रे ||२४||वि०॥