________________
( १६० ) ते पाणी तणइ प्रभावि हो, सहिय सहोदर लखमण जीविस्य । इम जाण्यो भेद ते जीव हो, अति घणउ रामनई संतोप ऊपनो ||३१|| ए छठ्ठा खंडनी ढाल हो, छट्ठी पूरी थई वात छती कही। ते सुणता सखर रसाल हो, समयसुंदर कहइ चतुर सुजाण न३ ॥३२॥ रा०
सर्वगाथा ||४०३||
दूहा १३ जंबु नदादिक मत्रि सुं, आलोची नइ राम । भामंडल मुंक्यो तिहा, नगर अयोध्या ठाम ॥ १॥ भरत देखि नइ ऊठियो, पूछइ कुशल नइ खेम । ते कहई कुशल किहा थकी, वात थई छइ एम ॥ २॥ सीता रावण अपहरी, सबलउ थयो सग्राम । लखमण नइ लागी सकति, दुखियो वरतराम ॥३॥ भरत वात ए साभली, कोप चड्यो ततकाल । ऊठ्यो अति उतावलो, करि झाली करवाल ॥४॥ रे रे किहां रावण तिको, ते देखाडो मुज्झ । जिण मुम वांधव नइ हण्यो, तिण सेती करु झुज्झ ॥५॥ भामंडल आडइ पड़ी, भरत नै वरिज्यो ताम। विषम समुद्र खाई विषम, विषमो लंका ठाम ॥ ६ ॥ भरत कहइ तो स्यु करु, भामंडल कहइ एम । आणि विसल्या स्नानजल, जीवइ भाई जेम ॥७॥ भरत कहइ ए केतलो, न्हवणोदक नी बात । जावो विसल्या ले तुम्हे, जल जोखीम कहात ॥ ८ ॥