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( ७८ ) जा लगि भूत पिसाच, अम्हे त्रासवां, इम कहि रामनइ लखमणाए । लाठी लीधी हाथि, अनइ आफाली ऊंची, तेभूत नाठा ततखिणाए ॥१४॥ उपसर्ग-कारी देव, जाण्यो ए नर, राम अनइ लखमण सहीए। जोर न चालइ मुज्झ तुरत नासी करी,अपणइं ठामि गयो वहीए ॥१५॥ ते मुनिवर तिणराति, सुकल ध्यान नई चड्या, घातिक करम नउखय
कीयोए। पाम्यो केवलन्यान, भाण समोपम, लोकालोक प्रकासीयोए ॥ १६ ॥ कनक कमल वइसारि, वाई ढुंदुभी, केवल महिमा सुरकरइए । राम कहइ कर जोडि, कहउ तुम्हें भगवन, ए कुण सुर द्वष कां धरइए । छट्ठो ढाल रसाल, चउथा खडनी, साधुनइ केवल ऊपनोए। समयसुन्दर कहइ एम, द्वेपनो कारण, भिलो सहु को इकमनोए ।।१८।।
[ सर्वगाथा ५२] ढाल ७ (७) कपूरहुवइ अति ऊजलोरे वलि रे अनूपम गध एगीतनी ढाल ॥ राम सीता लखमण सुणउरे, पांछला भवनो वयर । विजय परवत राजा हूं तोरे, उपभोगा तसु वयर ॥ १॥ पूरव वयर केवलि एम कह ति, एतउ उपसर्ग साधु सहति । पू० । कीधा करम न छूटीयइरे, सुख-दुख सहुको सहति ।। २ पू० ला० ॥ अमृतसर राजा तणउरे, दूत हुतउ सुविचित्र । राणीसुलुबघउ रहइरे, वसुभूति नामइ मित्र ।। ३ पू०॥ भूप हुकम्मि वसुभूति सु रे, दूत चाल्यो परदेश । विप्रइ दूतनइ मारियोरे, पापी पाडुई लेस ।। ४ । पू० ।।