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( ११७ ) साते दिवस माहे देखो, निरति आणिसि लेज्यो लेखो। नहि तरि आगि मां पइसुं, वोल्युं पालिसि अइसु ॥ १७ ।। एह वचन अभिराम, सुणि हरषित थयो राम । सुग्रीव सार्थ तुरत्त, किंकिंध नगरी संपत्त ।। १८ ॥ आवतो सांभलि एम, झूठो सुग्रीव तेम ।। आडइ थई नइ जुद्ध, करिवा लागो ते क्रुद्ध ॥ १६ ॥ माया सुग्रीव सीधउ, सत सुग्रीवनइं दीधो। सबल गदानो प्रहार, पाड्यो धरती निरधार ॥ २० ॥ मूर्छित थयो ते अचेतन, खिण माहि वलिय सचेतन । पहुतउ रामनईपासई', मननी वात प्रकासई ॥ २२ ॥ किम न करी मुझ भीर, तुम्हें हुँता मुझ तीर । राम कहइ नहि निरति, कुणत्त, छइ कुण कुदरति ॥ २२ ॥ तिण मइ तेह न मात्यो, हिवतुंइहा रहि हास्यो । हुं एकलो तिहां जाइसि, तुझ वयरीनईहूं घाइसि ॥ २३ ॥ इम कहि श्रीराम तेथि, गया ते सुग्रीव जेथि । रामनो तेज प्रताप, सहिन सकई तेह आप ॥ २४ ॥ तुरत विद्या गइ नासी, मूलगी देह प्रकासी । साहसगति नामइ लेह, विद्याधर हुतो जेह ।। २५॥ लोके ओलख्यउ तुरत्त, एतो तेहीज कुदरत । देखि बानरपति ऋद्ध, तिण सेती माड्यो युद्ध ॥३६॥ बिढतो वानर राय, वास्यो लखमण धाय । साहसगति करी गर्व, वानर बल भागो सर्व ॥ २७ ॥