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[ सर्वगाथा ६३]
दूहा ४ हूं तिहाथी फिरतउ थकउ, पृथिवी मांहि अपल्ल ।। कौतुक मंगल नगर मइ, आयउ एकल मल्ल ॥१॥ सुभमति रायनी भारिजा, पृथिवी कूखि उपन्न । केकेइ नामइ तिहां, कन्या एक रतन्न ॥२॥ संवरा मंडप माडियट, वइठा बहु राजान । हूं पणितिहाछानउ थकउ, वइठउ एकइ थान ॥३॥ रूपवन्त कन्या अधिक, चउसठ कला निधान । सोल शृङ्गार सजि करी, आवी भर जूवान ॥४॥
[ सर्वगाथा ६७]
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ढाल चौथी देसी-वरसालउ सांभरइ, अथवा-हरिया मन लागो एतउ कुमरी सहुनइ देखती, वहि आवि माहरइ पासिरे।। केकेइ वर लाधउ । तू साभलि वेटा एमरे । के० एतउ मुझ नइ देखि मोहि रही, मृगली जाणे पडी पासिरे ॥१॥०।। एतउ भ्र भमरी लागी रही, मुम वदन कमल रस माहिरे। के० एतउ वरमाला माहरइ गलइ, घाली बिहुं हाथे साहि रे ॥२॥०॥ एतउ राजा तूर वजाडियां, भलउ कुमरी वस्यउ भरतार रे ॥०॥ एतउ रूठा वीजा राजवी, कहइ आणि घणउ अहंकार रे ॥
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