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( ४३ ) राम भणइ खत्री अम्हेजी, न तजउ अंगीकार । भरत करो राज आपण जी, अम्हें ग्राउ डंडाकार ॥१६म्हा०|| रामई भरतनइ तेडिनइंजी, दीधर हाथ सु राज । संतोपी संप्रेडीया जी, सहु करो आपणा काज ॥१७॥म्हा०॥ सातमी ढाल पूरी थई जी, राम रह्या वनवास । समयसुन्दर कहइ सहु मिली जी, भरतनइ द्यउ सावास ॥१८म्हा०॥ बीजउ खंड पूरठ थयो जी, संनिधि श्री जिनचंद। सकलचंद सुपसाउलइ जी, दिन २ अधिक आणंद ।।१हाम्हा०॥ श्री खरतर गछ राजीयोजी, श्रीजिनराजसुरीस' । समयसुन्दर पाठक कहइ जी, पूरवउ संघ जगीस।
[ सर्वगाथा १६३ ] इतिश्री सीताराम प्रवन्धे राम-सीता-वनवास वर्णने नाम द्वितीयः खण्डः सम्पूर्णः।
तीसरा खण्ड
दहा १२ त्रिण विन गीत न गाइयई, त्रिण विन मुक्ति न होई। कहुं त्रीजउ खंड ते भणी, जिम लह स्वाद सकोइ ।।१।। रामचन्द आश्रम रह्या, पहिली रात मझार। आवी आगलि चालता, अटवी डंडाकार ||२|| पंछी कोलाहल करई, सीह करई गुंजार । केसरि कुम्भ विदारिया, गजमोती अंबार ॥३।। १-श्री जिनसागरसूरीश।