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( १०२ ) बांधव वात सुणीकरी रे, पालो आयो राम रे। सीता तिहा देखइ नहीं रे ला, जोई सगली ठाम रे ।। ४५। च०॥ चउथी ढाल पूरी थई रे, पाचमा खण्डनी एहरे । राम विपलाप जिके कीया रे ला, समयसुन्दर कहइ तेह रे ॥ ४६ ।च०
[ सर्वगाथा १५८]
दूहा ८ ध्रसकइ स्यु धरती पड्यो, मुरछागत थयो राम । खिण पाछी वली चेतना, विरह विलाप करइ ताम ॥१॥ हाहा प्रिया तू किहां गई, अति उतावलि एह । विरह खम्यो जायइ नहीं, मुमनइ दरसण देहि ।।२।। म करि रामति छांनी रही, मइ तू नयणे दोठ। हांसो मकरि सभागिणी, बोलि वचन वे मीठ ॥ ३ ॥ प्रांण छुटई तो वाहिरा, तूं मुझ जीवन प्राण। तुम पाखइ जीवू नहीं, भावई जांणि म जांणि ॥४॥ इम विलाप करता थकां पंखी दीठो तेह । सीता हरण जणावतो, मरतां तणो सनेह ॥५॥ रामनइ करुणा ऊपनी, दीधो मंत्र नउकार । पंखी सुधो सरदाउ, ए भुझनइ आधार ॥ ६॥ तिरजंच देही छोडिनइ, पामी देही दिव्य । देवलोक सुख भोगवई, जीव जटायुध भव्य ॥ ७॥ सीता विरहे रामवलि, करइ विलाप अनेक । जीवनप्राण गयो पछी, किहांथी रहइ विवेक ।।८।।
सर्वगाथा ॥१६७॥