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घोडउ उडि गयउ आकासइ, जनक नइ मु क्यउ तेथि । चंद्रगत्ति विद्याधर अपरणउ, सामी बइठउ जेथि ।।५।। आदर देइ कहइ विद्याधर, मत डर मन मइ आणे । छलकरि नइ ज्यागउ छइ इहाँ तु, परिण मुझ वचन प्रमाणे ॥ भामडल बेटा नइ आपउ, पापणी सीता कन्या । आग्रह करि मांगा छां एतउ, वात नही का अन्या ॥६।। दसरथराय तणउ सुत कहियइ, रामचद परिसिद्ध । पहली सीता दीधी तेह नइ, हिवए वात निपिद्ध ।। ते सरिखउ नर आज न कोई, रूपवत बलवत । विद्याधर सगला मिलि आया, जनक नइ एम कहत ||७|| भो ! भो ! खेचर आगइ भूचर जाणे कीड पतग : विद्याधर विद्यावलि अधिका, वात म तारिण एकग । अथवा अछता परिण गुण भाखइ, रागी माणस रागड । गुण फेडी नइ अवगुण दाखइ, दोषी लोका आगइ॥८॥ कहइ विद्याधर' केहउ झगडउ, एह प्रतिज्ञा कीजइ । देवताधिष्ठित धनुष चढावइ, राम तउ सीता दीजइ ।। सगला मिलि आया विद्याधर, मिथिलापुर पाराम ! हाथ बाथ हथियारे पूरा विद्यावल अभिराम ।।६।। जनकराय आयउ अपणे घरि, परिण मन मइ दिलगीर । सहु विरतांत कह्यउ राणी नइ. परिण सीता मन धीर ।।
१. चन्द्रगति