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(६४ ) इणपरि आपो निंदतो, करतो पश्चात्ताप । राम समीपइ आवियो, खडग लेइ नई आप ।। ७ ।। रामभणी लखमण कह्यो, ते सगलो विरतांत । राम कहइ कीजइ नहीं, ए अनरथ एकांत ।। ८॥ तीथंकर प्रतिषेधियो, अनरथदंड एकति । आज पछई तुं मत करई, एहवउ पाप अभ्रांत ।।६।। चंद्रनखा आवी तिहां, प्रति जागरण निमित्त । मुयो देखि निज पुत्र नइ, धरती ढली तुरत्त॥१०॥ मूर्छागत थई मावडी, दोहिलो पुत्र वियोगि। वलि पाछी वलि चेतना, करिवा लागी सोग ।। ११ ।। करम विटंबइ मोहनी, करई अनेक विलाप । चंद्रनखा विलिखी थई, व्याप्यो सोग संताप ॥ १२ ॥
सर्वगाथा ॥१०॥
ढाल ३ तोरा नडउ रज्यो रे लाषीरण जाती 'ए गीतनी ढाल' तोरा कीजइ म्हांका लाल दारू पिअइजी, पड़वइ पधारठ म्हाकालाल । लसकर लेज्योंजी तोरी अजब सूरति म्हाको मनड़उ रज्योरे लोभी लज्यो जा॥ बोलडउ देयो संवुक्क पुत्र, साम्हो जोवो जी । विद्यापूरी साधउ पुत्र, कां तुम सोयो जी। तोरी मावडी झूरेरे पुत्र जी बोलड़ो द्यो जी। हा पुत्र हा अंगजात हा हा वालेसर जी ।। १॥
१---दुखिनी