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( १८३ ) इन्द्रधनुष सरिखी रिधि जाणो, अथिर अनित्य संसार रे। आसू ना आभला सरीखा, प्रिय संगम परिवार रे ॥४॥ द्य० ॥ काम भोग गाढा अति भंडा, जेहवा फल किंपाक रे। मुख मीठा परिणामइ कडुया, जेहवो नींव नइ आक रे ॥॥ द्य० ॥ विरह वियोग दुख नानाविध, सोग संताप सदाई रे । सोलह रोग समाकुल काया, कारिमी सहु ठकुराई रे ।। ६॥ द्य० ॥ जरा राक्षसी प्रतिदिन पीडइ, मरणे आवई नेडउ रे। छाया मिस माणस तिण मुफ्या, जमराणा नो तेडउ रे ॥णा द्य० । मायाजाल जंजाल मुकि द्यो, वलि मुंको विषवाद रे। वलि मानव भव लहतां दोहिलो, म करो धरम प्रमाद रे ॥८॥ ध०॥ विषय थाकी विरमउ तुम्हें प्राणी, विषय थकी दुख होइ रे। सीतासंगम बाछा करतो, राणो रावण जोई रे॥६॥ द्य० ॥ साधतणी देसना सांभलि, ऊपनो परम वयराग रे। कुंभकरण मेघनाद इन्द्रजित, इण लाधो भलौ लाग रे ।। १०॥ द्य०॥ परम संवेगइ केवलि पासई, लोधो संयम भार रे। मन्दोदरि पति पुत्र वियोगइ, दुखु करई वार वार रे ।। ११ ।। द्य० ॥ संयमसिरी पहुतणो प्रतिबोधी, पाम्यो परम संवेग रे। मन्दोदरि पणि दीक्षा लीधी, अलगुं टल्यो उदेग रे ।। १२ ।। द्य० ॥ सहस अठावन दीक्षा लीधी, चन्द्रनखादिक नारी रे। तप जप सूधो संयम पालई, आतम हित सुखकारी रे ॥१३ द्य० ॥ प्रतिबूधा बहुला तिहां प्राणी, साभलि ध्रम उपदेसा रे। समयसुन्दर कहइ ए ढाल चउथी, सातमा खण्डनी एसा रे ॥१४॥१०॥
सर्वगाथा ॥१७३ ॥