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जउ तुं हंसि बोलड नही, तो पणि करि एक काम । दे निज चरण प्रहार तुं, मुझ तन आवई ठाम ॥५॥ सीता सुंदरि देखि तु, पृथिवी समुद्रासीम। तेहनो हुँ अधिराजीयो, भाजु दुरजण भीम ॥ ६ ॥ राजरिद्धि अति रूयड़ी, तु भोगवि भरपूर । इंद्र इंद्राणीनी परई, पणि मुझ वंछित पूरि ॥ ७ ॥ इम वेखास घणा कीया, रावण कामी राय ! सीता उपराठी रही, कहइ कोपातुर थाय ।। ८ ।। हा हतास हा पापमति, हा निरलज निरभाग। पररमणी वांछईजिको, ते तो कालो काग ।।४॥ आज पछी मुझ एहवी, मत कहइ बात सपाप ॥ कां मइलो करइ बंस नई, कां लाजविईमाबाप ॥ १०॥ नरग पडई का बापडा, काइ लगाइ खोडि । रावण हुयो कुसीलियो, कहिस्य कवियण कोडि ।। ११ ।। कां तु परणी आपणी, छोडि कूलीनी नारि। परणी बांछइ पारकी, मूरख हियइ विचारि॥ १२ ॥ इण परि घणु निभ्रंछियो, राणो रावण सीति । बार-बार पाए पडई, कहइ मुझसु करि प्रीति ॥ १३ ॥ सीताइ तृण सरिखउ गिण्यउं, सीधो उत्तर दिद्ध। तो पणि लंका ले गयो, रावण आसा वद्ध ।। १४ ॥ देवरमण उद्यानमई, मुंकी सीता नारि। आडंबरखें आप ' पिण, पहुतो भवन मझारि ।। १५ ।।
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