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( १८७ ) रामचंद्र परिचाविया रे, सहू सोकातुर तेह रे । सोक मुंकी ऊठी करी रे, पहुता निज निज गेह रे ॥२८॥ लं० इण अवसरि विभीषणइ रे, सपरिवार श्रीराम रे। आपणई घर पधराविया रे, सहस रमणी अभिराम रे ॥२६॥ लंक स्नान मज्जन भोजन भला रे, भगति जुगति सुविचित्र रे । सहु मिली कीधी वीनती रे, राज्याभिषेक निमित्त रे ॥३०॥ लंक रामचंद कहइ माहरइ रे, राज सु केहो काज रे। पंच मिलीनईथापीयो रे, भरत करइ छइ राज रे॥३शा लं० रामचंद लंका रह्या रे, सीता सु काम भोग रे। इंद्र इंद्राणी नी परई रे, सुख भोगवइ सुर लोग रे ॥३२॥ लं० लखमण पणि सुख भोगवइ रे, राणी विसल्या साथ रे। बीजा विद्याधर वहू रे, पासि रहइ ले आथि रे ॥३३।। ल. राम अनइ लखमण वली रे, दे आपणो सहिनाण रे। पूरवली कन्या सहू रे, आणावी अति जाण रे ॥३४|| लं० ते सगली परणी तिहां रे, के लखमण के राम रे। सुख भोगवई लंकापुरी रे, राज करई अभिराम रे ॥३।। लंक पचमी ढाल पूरी थई रे, सातमा खंडनी एह रे। कहई (समय) 'सुदर' सीलवंतनी रे, पग तणी हुँ छु खेहरे ॥३६॥ालं..
सर्वगाथा ॥२०॥
दूहा १७ अन्य दिवस नारद रिषी, कलिकारक परसिद्ध । वलकल वस्त्र दीरघ जटा, हाथ कमंडल किद्ध ।।१।।