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निरधार सीतल पवन योगई चेतना पामी वली। मोहिनी करम सनेह जाग्यो ऊठियो वलि झलफली ।। , आपणा हाथ सुं देह फरसी चिकिच्छा करि बहु परी। वलि मुंयो जांणिनईथयो मुरछित रामई मुयो जाणी करी ॥ १० ॥ वलि रामइ चेतन लही, करिवा माड्या विलापो जी। हा बछ हा वांधव मुझ, मुझनइ देहि अलापो जी ।। अलाप मुझनइ देहि तुम बिण, प्रांण छूटई माहरा। बोलावि मुझनई कही बाधव विरह न खमुं ताहरा ॥ लखमण अजी तुं किम न बोलइ, किम रह्यो तुं हठ ग्रही। ' इम रामचन्द विलाप कीधा वलि रामइ चेतन लही ।। ११ ।। इम हाहारव सांभली, लखमण केरी नारो जी। एकठी मिली आची तिहा, करई आक्रंद पोकारो जी।। पोकार करता हीयो फूटइ, हार नोडइ आपणा । आभरण देहथकी उतारइ, झरई आंसु अतिघणा ।। वलि पडड धरती दुखु करती, थई आकुल व्याकुली । हा नाथ हा प्रीतम गयो किहां इम हाहारव सांभली ।। १२॥ हे प्रियु का दीसइ नही, निरसत नयणाणंदो जी। द्यइ दरसण दसरथसुत, राघव वंस दिणदो जी।। दिणद सुदर रूप ताहरो सूरवीरपणो किहां । गुण ताहरा केथेन दीसई, प्राणजीवण जग इहां ॥ किम अपहत्यो तुझनइ ते कुण छई देवता पापी सही। इणपरि विलाप अनेक कीधा हे प्रियु कां दीसइ नहीं ॥ १३ ॥