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( २१० ) स्नेह भंग कीधउ नहीं रे, अविनय न कोयउ कोइ । सरदहजे मत सुंहणई, पियु सील खड्यउ पणि होइ ||८पि० अथवा कत तुम्हें कदे रे, विण अविचास्यो काज । कीधो नहिं पणि माहरा के, पाप प्रगट थया आज पि०॥ अथवा मई भवि पाछिलई रे, व्रत भागउ चिर पालि। रतन उदाल्यो केहनउ के, मां थो विछोह्या वाल ॥१०॥पिoll अथवा किणही साध नई रे, दोधो कुडउ आल। अस्त्री नई भरतारसुमई, पाड्यो विछोहउ विचाल ॥११शापि०॥ एहवा पाप कीधा घणारे, तिण ए अवस्था लाध । नहि तरि मुझनई वालहउ किम, छोडइ विण अपराध ||१२||पि०l अथवा दोस देऊं किसा रे, नहिं छइ केहनो दोस। दोस छइ माहरा कर्म नो, हिव रांम सुं केहो रोस ।।१३शापि०ll कीधा करम न छूटीयइ रे, विण भोगव्या कदेय । तीर्थकर चक्रवर्ति पणि सहु, भोगवि छूटी तेय ||१४||पि०॥ सुख दुख केहनइ को न घरे, छइ अपना किया कम । दोस नहीं हिव केहनो रे, वात तणो ए मर्म ॥१शापि०॥ धन धन नारी ते भली रे, तेहनो जनम प्रमाण । बालपणइ संयम लीयो जिण, छोड्यो प्रेम बंधाण ॥१६॥पिका प्रेम कादम खूता नहीं रे, विषय थकी मन वालि । काज समाऱ्या आपणा रे, तेहनई वादु त्रिकाल ॥१७॥पिना इम विलाप करती थकी रे, सीता रान मझार। 'तिहा बीहती वइसी रही रे, समरंती नउकार ॥१८॥पि०॥