Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 7
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मह॥ श्री शंणेश्वरपार्श्वनाथाय नमः । १४४४ ग्रन्थप्रणेता-जनशासनालंकार-तर्फसम्राट आचार्य श्री इरिभद्रसूरीश्वरजी विरचित ॐ शास्त्रवार्तासमुच्चय (स्यावादकल्पलतान्याख्याविभूषित ) स्तवक-७ [जैन-अनेकान्तवादयाना] ___व्याझ्याकार:-. न्यायाचार्य महोपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराज अभिवीक्षणकार :--- उन पस्त्री, न्यायदर्शनसावा परमपूज्य जैनाचार्य श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज 00000000000000000000000000 हिन्दी विवेचनकार :पड्दर्शनविशारद पंडितराज न्याय-घेदान्ताचार्य प्रो० श्री बदरीनाथ शुक्ल भूतपूर्व कुलपति संपूर्णानन्य संस्कृत विश्वविद्यालय, बनारस (पू. पो.) मूल्य २५-०० रूपये प्रकाशक: दिव्य दर्शन ट्रस्ट १८, गुलालबाड़ी, पम्बई-४००००४ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय दर्शनशास्त्र के अम्यासो न एवं जंतर वर्ग के कर कमल में इस प्रत्यरश्न का अर्पन करते हुए वर्णनीय आनंद का अनुभव हो रहा है। शास्त्रबार्ता समुच्चय के १ से ८ सबक पूर्व प्रकाशित है किन्तु उनमें सात अवशिष्ट या वह आम प्रकाशन की शिशि पर उदय प्राप्त कर रहा है। उसके उज्जवल प्रकाश से सारा नामिक जगत् आलोकित होगा इसमें कोई संदेह नहीं। २०१० और १२ तीन शेष रह जाते हैं उनको भी प्रभासोध प्रकाशित करने के लिम हो है, शासनवेव की कृपा से यह कार्य भी पूरा हो जायेगा । पूज्यपाद न्यायमिशारा भीमद् विजय भुवनभरनुवरश्री महाराज की महती कृपा हमारे प्रकाशन में सात अनुवर्तमान है इसे हम हमारा परम सौभाग्य समझते है। पंडितराज भी बदरीनाथजी शुक्ल महोदय भी हमी विवेचन के कार्य को मलो मांति निभा रहे हैं जो निःशंक मनाना है। तदुपरांत छोटे-बड़े न संघों की ओर से ऐसे बड़े अपराध के मुद्रण- प्रकाशन में जो आर्थिक सहयोग मिलता आया है उसको केसे मिसर जाय ? ! प० पू० मुनिराज श्री हेमरामविजयजी महाराज की प्रेरणा से इस सात स्तबक के सुरण में नागपुर (महाराष्ट्र ) वास्तवध प्रवे० ० जैन संघ के माननिधि में से हमें जो विराट् सहायता प्राप्त हुयी है एवं हम उनके प्रति कृतज्ञता अभिव्यक्त करते हैं। इस विभाग में जैन दर्शन के अनेकान्तवाद की सयुक्तिक प्रतिष्ठा की गयी है। उसके तलस्पर्शी अध्ययन से मुमुक्षु प्रवासी व आत्मश्रेय में आगे यही शुभेच्छा विष्य वर्शन ट्रस्ट की ओर से कु० वि० शाह Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रास्ताविक दिव्यदर्शन ट्रस्ट को घोर से विशालकाय शास्त्रवार्ता- समुचय के सातवें स्तबक का प्रकाशन अभिनन्दन - पात्र है। समग्र दार्शनिक सिद्धान्तों का मूल स्रोत है सर्वश भगवान तीर्थकरों की पिषवाणी । गणधर भगवंतों ने उसे सूत्रबद्धस्वरूप प्रदान किया, परम्परा के निगृह पंच महाव्रती साधार्यादि भगवंतों ने उनकी निर्मलता को सुरक्षित रखते हुए प्रवाहित किया। इस भूतगंगा में दिन रात इसे हुये पूज्यपाद माचार्य श्री श्री महाराज ने शास्त्रवार्ता- समुन्वय प्रवराज का प्रणयन किया, उपाध्याय श्री यशोविजय महाशन ने उसके ऊपर विस्तृत व्याख्या की रचना करके जैन के साहित्य में अपूर्व शोभाद्धि की हमारे लिए यह कोई कम आनंव की बात नहीं है। जनेतर वादीबृन्द एकान्त दृष्टि का सहारा लेकर अपने अपने दर्शनों का महल खड़ा कर देते हैं। एकान्तष्टि से वस्तुतस्य का संपूर्ण दर्शन हो नहीं पाता, सिर्फ किसी एक ही पहलु को देखा जा सकता है। वस्तु के किसी एक ही पहलु को देख कर यदि उसके आकार-प्रकार का वर्णन किया जाय तो वह काल तक भी अधूरा ही रहेगा। वस्तु का पूर्ण वर्णन करने के लिये तो उसके संभावित सभी पहलुओं को ओर गंभीर हृष्टिपात करना होगा। वस्तु का संपूर्ण दर्शन दो प्रकार से हो सकता है (१) हम स्वयं सर्व बन कर उसका अवलोकन करें, या (२) हमारी दृष्टि को अनेकान्त का दिव्य मत लगा दे। मानी किसी एक काल में भले ही वस्तु का कोई एक पहलू दृष्टिगोचर होता हो, फिर भी वस्तु के अन्य पहलुओं को भी अच्छी तरह जाँच लेने के बाद ही हम उसके लिये यथावसर कुछ कह सकते के लिये समर्थ हो सकते हैं। जब हम किसी औषध के गुण का वर्णन करेंगे उस वक्त उनके भारी दोषों को दृष्टि से ओमल कैसे रख सकेंगे ? औषध का कोई गुण दिखामा हो तो यह आवश्यक हो जाता है कि उसके दोषों को भी साथ साथ ही बतलाया जाए, अन्यथा भारी समर्थ की सम्भावना रहेगी। रष्टि में अनेकान्स का अंजन लगाये बिना उदार ही नहीं है। इस किये जैन दर्शन में किसी भी सिद्धान्त की स्वतंत्र प्रतिष्ठा नहीं की गयी किन्तु अनेकान्तवाद अनेकान्त सिद्धान्त की हो प्रतिष्ठा की गयी है। प्रस्तुत स्तथ में भी उसी का विस्तृत मिरूपण किया गया है। दानिक जगत् में विशेषत: जिन तस्थों को एकान्तवाद के सहारे निश्चित कर लिया गया है, ये तत्व अनेकान्तवाद के आश्रम से ही मुस्थापित किये जा सकते हैं अभ्यथा नहीं यहीं इस स्तबक का मूलध्वनि है। इस बात को दृष्टि में रखकर यदि इस स्तबक के विषयों का अवलोकन किया जाय तो उससे निम्नलिखित तथ्यों के बारे में तरोष प्राप्त होता - uttaratarane जगत् अकल्पित उत्पाद व्यय और प्रता से अभिव्याप्त है । उत्पाद के दो प्रकार है प्रायोगिक और वैखसिक पुरुषव्यापारजन्य उत्पाद प्रायोगिक है और उसे समृदयाव भी यह सकते हैं क्योंकि वह द्रव्य के अवयवों से जन्य होता है । पुरुषव्यापार मे राजन्य स्वाभाविक उत्पाद को ही वैसिक कहा जाता है उसके भी दो प्रकार हैं समुदयकृत और ऐक टिथक । गगन में बादल आदि की उत्पत्ति स्वाभाविक समुदय कृत होती है। धर्मास्तिकायादि तीन थ्यों की अन्य Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ पुल के गानादि पर्याय प्रयुक्त जो उत्पति होती है उसे ऐकविक उत्थान कहा जाता है । agnife अनैविक भी है क्योंकि पुद्गलादि द्रव्य और धर्मास्तिकायादि य के मिलने से यह उत्पन होता है। इस प्रसंग में व्याश्या में माकाशादि द्रम्य में सावयवत्व की सिद्धि की गयी है । उत्पाद की तरह नाश भी द्विविष है प्रायोगिक मोर स्वाभाविक । उसमें समृदयकृत दोनों प्रकार में शामिल है और वह समुदयविभागजन्य होता है जैसे घट के तन्तुओं का पृथक्करण। दूसरा अर्थान्तरगमन रूप विनाश है जैसे मृत्पिड का घट में रूपान्तरगमन 1 वस्तु का अपने स्वभाव से चलित न होना यह यता है । प्रत्येक वस्तु उत्पाद व्यय और धवला से भन्वित होती है। ये तीनों भी परस्पर में भिन्नाभिन्नरूप होते हैं। इस प्रकार एक ही वस्तु प्रत्येक क्षण में अनत अनंत पर्यायों से अनुविद्ध रहती है। वस्तु उत्पादादित्रयात्मक होती है इस तथ्य के उपपश्धन में ग्रन्थकार ने दूसरी कारिका में सुवर्ण के घट-मुकुट का मनोहारि दिखाया है। जब सुषण के घटको सो कर मुकुट बनाया जाता है उस वक्त घटार्थी को शोक, मुकुटार्थी को आनंद होता है जब कि सिर्फ सुवर्ण के वाहक को कुछ भी नहीं होता, वह तो मध्यस्थ रहता है। कार्य से बसु ने उपादाहती है। प्रसंग में व्यरूपाकार ने सम्मकिरण गाथा को साक्षि से अनेकान्त स्वयं भी अनेकान्तगर्भित होता है इस तथ्य का सयुक्तिक उपपाम किया है। अन्य एक रीति से अनेकान्सवाद के समर्थन में तीसरी कारिका में दूध यहीं और मोरसान्य के का दिया गया है। तात्पर्य यह है कि तुम और यहीं में एकान्त भेद नहीं है किन्तु गोरखाममा कचित् प्रभेद भी है इस लिये गोरस का स्थागी न दूध पीता है न हीं खाता दूध रूप से मोरस का बिनाया, वहीं रूप से उत्पाद और गोरसात्मना बता - इस प्रकार उत्पादादिजयरूपता को उपपत्ति होती है। यहाँ कपास्या में अतिरिक्त निश्य सामान्यवाद का विस्तार से रिन किया गया है। ( १०२१ से ५२ ) अन्त में वस्तु सामान्य विशेषोभयात्मक है यह स्थापित किया गया है। कारिका चार-पांच-छह में अनेकान्तवादविरोधियों का पूर्वपक्ष दिखाते हुए कहा है कि एक ही में एक समय में उत्पादादि का योग विरुद्ध है। शोकादि की जो बात कही गयी यह तो केजस मामूलक है। कारिका ७ और में भी दोष दिखाते हुए कहा है कि स्याद्वाद में, किसी वस्तु का पूरा निश्रय होता भसमय है क्योंकि प्रमाण भी इस मत में मप्रमाण होगा। तथा संसारी असंसारी भी होगा और मुक्त अमुक्त भी होगा। इस पूर्वपक्ष के प्रतिकार में का० ६-१० र ११ में विरोधावि उक्त दोषों का कैसे परिहार होता है यह कहा गया है। उपास्तिक और पर्यायास्तिक एकान्त नय के निराकरण से यहाँ अनेकान्त सिद्ध किया गया है। 'यदि प्रत्येक मय मिथ्या है तो नयसमुदाय कैसे सभ्य होगा ? इस वंका का व्याख्या में सुन्दर समाधान किया है ( पृ० ५८ ) । तथा नय को प्रमाण माने या न माने इसका भी स्पष्ट उत्तर दिया है कि नयवाक्य में संज्ञान में प्रकारको जनकत्व अथवा समारोपयदस्या निर्धारक किया इतर वाऽप्रतिक्षे विश्व स्वरूप प्रामाण्य हो सकता हूँ किन्तु अनेकान्तस्वरूपस्याहरूरूप प्रामान्य एक एक मय में न होने से प्रमाण से मि होता है' ऐसे तस्मासूत्र के कमन में कोई दोष नहीं है ( पृ० ६० ) तथा दुनेय में मिध्यात्व का भी संयुक्तिक उपपादन किया गया है (०६९) द्रव्याथिक पदविधिक नय के स्वरूप की यहाँ सुन्दर मीमांसा उपलब्ध है। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का० १२-१३ में उत्पादादि तीन में कैसे अविरोष है-इसका उपपादन किया गया है। यहा ध्यास्या में स्थुलाकार प्रतिभास से अवयवी का समर्थन करके मौसमत का निराकरण दिखाया है। सदूपरांत उत्पाद न मानने वाले मांख्य के संस्कार्यवाद की मीमांसा की गयी है । सपरांत कार्यकारण के तथा मन पव-अवयवी के एकान्त भेद मानने वाले वैशेषिकों का निराकरण विशेषत: अवयवी के विषय में उद्योतकर और पांकरस्वामी के मत का विस्तार से निराकरण किया गया है ( पृ०७४ से 2 )। - अतवादी कार्यकारणभाव शून्य मद्धत तस्द को हो मानता है। सांगण्यावी सिर्फ प्रधानात तस्व की मानता है उसका निरसन कर के व्याम्माकार ने पाक्यातवादी मत हरि के मत का विस्तार से निरूपण और मीमांसा को (१.८६ से ९६ ) प्रस्तुत किया है। इसमें जैन मतानुसार वैखरी बादि वाणी का स्वरूप (१०९५) विशेषत: मननीय है। का. १४ में निमित्त भेद से उत्पादित्रय की उपपत्ति को विमा पर प्रथयार ने का. १५ सावन काय 41 मियामायाकार ने प्रसंगत: ( पृ० ११ से १२३ में ) जेनवर्शन के नि:क्षेप तस्व की विस्तृत मीमांसा प्रस्तुत की है। यहो निःक्षेपमीमांसा व्यायाकार ने प्रयाहस्य में तथा जमतभाषा में भी शामिक की है। पहले जो पूर्वपक्षी के उत्पाद के निमित्त होने वाले शोकादि को पासमामूलक कहा था, उसके प्रतिकार में ( का. १८-१९) कहा है कि बासना भी निईतुक नहीं हो सकसी श्योंकि मिहैतुफ भाव या तो शाश्वत हो मैटेगा या सर्वधा न होगा, सधा एकरभाष बस्तु से विचित्र वासना की उत्पत्ति भी संगत है। इस प्रसंग में कपास्याकार ने अनेकाम्तजयपताका अन्य की दो कारिका (पृ. ११४ में ) उद्धृत करके अन्यकारोक्ति का समर्थन किया है। पूर्वपक्षी ने जो कहा था कि बनेकान्तमत में प्रमाण भी अप्रमाण होने से किसी वस्तु का निश्चय दुमक्य हो पायेगा उसके प्रतिकार में का०२० में कहा है कि अमित्राय का मूल कान्त ही है और निश्चय की उपपति बनेकान्त के अवलम्ब से ही की जा सकती है। जैनमत में मानस्ल पोर बमानस्व में कचिद् अविरोध ही है। व्याख्याकार ने यहां संशय के विषय में इदयंगम ऊहापोह किया है। उपरोत, विरोष तस्व की भी समीक्षा करको प्रतेकाम्तमत में उसका परिहार दिखाया है ( .११७ से १२३)। तपा स्यावाद में एषकार के प्रयोग की सार्थकता कैसे है और एकान्तबाद मैं उसकी कैसे अनुपपत्ति है इसके प्रतिपादन में का० २१ में कहा है कि प्रत्यक्षादि स्वमानत्व रूप से ही प्राण है किंतु बनुमानप्रमाणस्वरूप से प्रमाण नहीं है। यहाँ विघोषण विशेष्य-क्रिया संगत तीन प्रकार के एक्कार के सर्पको संबर मीमांसा व्याख्या में प्रस्तुत है ( १. १२४ से १३२)।मस्तर व्यायाकार ने विस्तार में यह दिखाया है कि-'प्रत्यक्ष मानमेव' या प्रत्यक्ष में मानस्वायोग और मानका सपा यवनोद एकातिवाद में शक्य ही नहीं है ( १० १३२ से १४.)। का० २२ में शहा गया है कि स्वसत्त्व और परासत में दोनों भिन्ननिमित्तयाक होने से सवषा एक नहीं है। ज्यास्याकार ने यहां आपेक्षिक अणु-महात् परिमाण का दृष्टान्त दिखाया है। इस विषय में मीमांसक और नैयायिकों के परिमाणवाय की विस्तृत समालोचना की गयी है r. १४१ से १४७ ] का. २३ में, वस्तु में परासत्त्व कल्पित होने को शंका का निरमन किया गया है। ध्यामयाकार मे यहा नेयायिक मस्त्यिात सत्ता जाति का निराकरण मारके उसावाविधययोग को ही सस्वरूप में स्थापित किया है और उसमें परपक्षीयों की विपतिपतियों का भी निरसन कर दिया है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वकी अपेमा से सश्व मौर पर की अपेक्षा से सत्व दो मंग के प्रसंग से व्याख्याकार ने विस्तार से [पृ. १५२ से १७७ ] अनशमप्रसिद्ध मसभंगी का निरूपण किया है। इसमें मुख्यरूप से तृतीय अवतव्य भंग की उपपत्ति मह कह कर दिखायी है कि सत्व-अमत्व दोनों के एक साप प्रतिपादन के लिये न कोई स्वतन्त्र पद है और न कोई सामासिक पब है. अतः वस्तु अबक्तव्य कही जायेगी। तपाईस सोलह प्रकार से तृतीय भंग का उपपादन किया है । ससनंगी के दो प्रकार सकलादेशविकलादेशका और उसके अंगभूत कालादिष्टक का निरूपण मननीय है [५. १७३ से १७६)। यहाँ विशेष शासश्य के रूप में कहा गया है कि स्यात् पद के बिना सिर्फ एवकार के ही प्रयोगवाले मंग दुनय है, स्यात् पद सहित प्रयोग करने पर वह सुनय कहा जायेगा और 'स्यास्-पग पोनों पदों के षिमा ही प्रयोग करने पर वह सुनय तो हो सकता है कितु उससे कोई व्यवहार सिद्ध नहीं हो सकता । २४ श्री कारिका में प्रोक्त चर्चा के फलिताथरूप में यह कहा है कि प्रमाण को सम्यग व्यवस्था अनेकान्तबाद में ही मुघटित ह वासादीको प्रस्तु; या महो सका। ज्याश्याकार ने यहाँ, एकान्त की सिद्धि न प्रत्यक्ष से की जा सकती है न अनुमान से-इस घर्चा के अन्तप्ति मनमिश्रावि विद्वानों की मान्यता का प्रत्याख्यान कर दिखाया है। बनेकान्तमत में संसारी मसंसारी भी होगा इत्यादिजो दोष प्रकट किये गये थे उनके प्रतिकार का कारिका से प्रारम्म शिषा गया और यहाँ भी कैसे बनेकान्तमत की उपपत्ति होती है पर पुष्ट किया। कारिका २० से ३० तक बाल-युवान अवस्था के विषय में लोकानुभव के बल पर बनेकान्त का समर्थन किया गया है। इस प्रसंग में व्याख्या में नैयायिक को इस माम्यता का-शवादि मामा पारीर की ही होती है भारमा की नहीं-तया अवस्थामद होने पर भी शरीर एक ही होता हैइसका निरसन किया है (पृ.१९२-९३) । सदुपरांत 'जोयनिकाय पृषी अवि छ ही है" इत्यादि मान्यता में सम्यक्त्व हो सकता है या नहीं, होगा तो द्रव्यसम्यास्थ मा भावसभ्यक्रव-इस की बर्चा मनमीप है। तपा जीब-अजीब-नोजीम-मोऽणीय पदों की अर्थमीमांसा के प्रारम्भ में यह विशेष स्पष्टता की गयी कि जीव-अजीम-नौजीव तीन राशि को माननेवाले राशिक मत एकासकामबसम्बन किये जाने से ही पूर्वाचार्यों ने अन्य नय से उसका खण्डन किया है, वस्तुत: अनेकाम्तमत में मयभेद से राधिक मत भी मान्य ही है।। का० ३१ से ३६) में कहा कि द्रष्य और पर्याय पद का वाध्याय नामश: प्रत्यय और सय किया भेवाभेद सम्बन्ध से ये दोनों अन्योन्यग्यास ही है। व्याख्याकार यह कहते है कि वास्तव में गुण भी पर्यायाम्सगत ही है, पर्याय से भित्र कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है । साक्षिरूप में यही सम्मति प्रकरण की गाथाएं उद्धृत की गयी है । व्याख्याकार ने विस्तार से भेदाभेद की अन्योन्य यात कसे है इसका भनेक पांकाओं का निरकरण करते हुए प्रतिपादन किया है [ पृ. २०७ से ११६] । उक्त रीति से विस्तार से अनेकान्तकी निर्वाघ सिद्धि कर दिखाने के बाद पूर्वपक्षीप्रोक्त विरीचादि दोष के निराकरण का और एकान्तबाद में हो विरोधावि दोषों का प्रवेश दिलाने के लिये का० ३४ से उपक्रम किया गया है । का० १८और उसकी ग्यारूपा में अनवस्थादि पांच दोषों का निरसम किया है। का. ३१.४१ में मन्थकार कहते हैं कि भेवरहित अभेद और अभिवरहित भव ही अब स्वतन्त्ररूप से नहीं है सब 'जिस भाकार से भेद है उस आकार से केवल भेव ही है या भेदा. भेद उभय है?' स्यादि विकल्प बाल निरवकाश है । प्रमाग से प्रत्येक बस्तु भेदाभेदात्मक ही सिक Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती है तब मनेकान्तवाद में अनवस्थादि दोषों का आपादन मिग्रॅ किक है। संशय अप्रतिपति, विषयरूपवस्व हानि हत्यादि दूषण भी अनेकान्तवाद में नहीं हैं क्योंकि नय और प्रमाण से अन्योन्यस्यास ८ दाद सुनिश्चित हो जाता है। मूलकार ने का० ४३ से ४६ तक स्याद्वाद्रविरोधी देवबन्धु नादि हो मा का उलेख करके की ओर से किये गये लाक्षेत्रों का का० ४७ से निराकरण दिखाया है। का०४८ को व्याख्या में गुड़ और सूठ के मिश्रण के दृष्टान्त से स्याहार का हृदयंगम समर्थन किया गया है। धागे चलकर अन्धकार का कहना है कि 'तस्य किवि' इस्पाविस्थल में बच्ठी प्रयोग की अनुपपत्ति से ही केवल भेव पक्ष बाधित हो जाता है (का० ५०) इस तरह प्रत्यकार ने स्तबक की पूर्णाहुति तक स्पावाद का अनेक दृष्टान्त और अनेक काव्य युक्तिओं से सुदर समर्थन कर दिखाया है जो प्रकार की उच्च एवं निर्मण प्रतिभा का प्रतीक है। स्याद्वादनिरूपण के उपसंहार में या कार ने अन्त में सुंदर उपसंहार प्रस्तुत किया है जो अत्यंत मननीय है। सम्पूर्ण सातवें स्तबक के निरूपण को प कर किसी भी तटस्थ मुमृसु अध्येता को यह महसूस होगा कि स्याद्वाद के अध्ययन विना उसे अच्छी तरह समझे बिना तथा जीवन के अनेक क्षेत्रों में स्पादादष्टि को अपनाये विना विश्व की समस्याओं का अन्त आना कठिन है । अत्यकार ने भी अन्त में दिखाया है कि अन्योन्य समभाव की अनुभूति स्याद्वाद के सहारे ही हो सकती है, अन्यथा परवादीयों में तस्वचर्चा के बहाने सबों का कभी अन्स आने वाला नहीं है । 1 सचमुच, स्याद्वाद यह एक महान बाद है, दिव्य औषधि है, नयी रोशनी है, मानवजीवन का महंगा आभूषण है। जिन गुरुदेवों की करुणा से ऐसे महान स्याद्वाद तत्व का कुछ सशेष मिला उन को कैसे भूल सकेंगे । न्यायविशारद पूज्यपाद प्राचार्य भगवंत श्रीमद विजय भूषममाधुरीस्वरको मद्दाराज का, तथा उनके शिष्यरश्न समाधिसाधक स्व० प० पू० मुनिराज श्री बसंघोषविजयजी महाराज के शिष्यालंकार गीतारत्न सिद्धान्त दिवाकर आचार्यदेवश्री विजय घोषसूरिजी महाराज का करुणाभंडार यदि मेरे लिये बंद होता तो स्माद्वाद जैसे महान तत्व से मैं तो सर्वचा अबूझ ही रह जावा । शास्त्रवार्त्ता का सुवाथ्य सम्पादन भी उन्हीं पूज्य गुरुयों की कृपादृष्टि का एक कटा है। जाता है कि ऐसे महान् स्याद्वाद तत्व का अमृतपान कर मुमुक्षु अध्येता वर्ग एकान्तवाद के विष का मन कर देंगे और मुकिमा में कदम बढाते रहेंगे। फाल्गुन गुगल १ वि० सं० २०४० पाँचौ (खानदेश) } लि०मुनि जयसुन्दरविजय Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः XXXXXXXXXXXX पृष्ठांक विषय पृष्ठांक विषय १ व्याख्याकार मंगलाचरण १३ अचंता भेद से भिन्नाधार प्रतीति का उपशान्सि-पारव वीरजिनस्तवना मंगल शवम-पूर्वपक्ष २ सम्यमों को निमन्त्रण १३ भिन्न भिन्न स्थान में प्रत्यभिज्ञा की अनुपपत्ति । जन मनीषियों का मत-उत्पाबावित्रयमुक प्रगत कीint ४ जंग मत से उत्पाद का स्वरूप १३ मिन भिन्न स्थान से प्रात्यभिक्षा की उपपत्ति ४ उत्पाद प्रयत्नजन्य न होने को पका का निरसन १३ निरवछिन्न भाग की आधारसा प्रतीति ४ जापाच-नाश दोनों में प्रयत्नजन्यसा समान पूर्वपक्ष में अनुपपन्न-उत्तरपक्ष ५ नाश और उत्पाद में वषम्य का का निरसन १४ माकामा मिरंश भामो पर उताविमेव । घटोहपाव भी आयक्षगसम्बाध से अतिरिक्त है की अनुपपत्ति प्रयोगजायरा को विभाजक उपाधि मामने | १४ पूर्व-पश्मि आदि मेवायवहार से आकारमेव में संभ १४ 'प्रयास काशी पूर्व में है' इस प्रयोग का ॥ प्रयत्नवग्यरको बाम-अवर्शन से विभाजन विनम्यवावीकृत अर्थ की उपपत्ति १५ घिमण्यवादीकृत अर्घ अनुभवविध ७ यत्नमायस्व का दशांन-अवर्शन दिमागधीज है १५ नाम के दो प्रकार सामाविक, प्रयोगिक ८ बिलसाजन्य उत्पाद का स्वाय विवेचन ,, स्वामाविक उत्पाबकल्पना में पौष की १६ घटविनाश होने पर मस्पिा के उम्मजा का भय नहीं ए स्वामाविकोपाव की विविधता ... व्यावृत्ति १७ सारे जगत् के हरय को उपपत्ति ॥ ऐकत्विक स्वाभाविक उत्पाद का स्वरूप १७ उत्पाधादि को परस्पर में भिन्नामिनरूपमा १० कावितव्य में सावयवत्व सिद्धि १८ उत्पादादि य के अनेक भंगों का निरूपण ११ इ पक्षा' इस पति कोसावयव १९ एकलक्षण में अनंत पर्याय कले? ही उपपत्ति २. अनंत प्रष्यसम्बध फा भान क्यों नहीं होता? , आलोकसामान्य को पक्षी-आधारतया प्रतीति २॥ वस्तु को अन्य पहायों में धर्मों से सम्बद्ध असंभव ___मानने पर शंका-समाधान १२ मूर्तबध्याभाव में यी भाभारता की प्रसीप्ति ! २१ स्व-पर पर्याययों से वस्तु का अस्तित्वप्रयुक्त मास्तित्व वियजन्य बुधि में क्षयोपशम के प्रभाव से । २३ घट-मुकुट-मुवर्ण के दृष्टान्त से रुप्य की आकाशका भान उपपत्ति Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक विषय पृष्ठांक विषय २४ सुवर्ण को घटादिवियत से अतिरिक्त क्यों ! २७ जस्पति के पूर्व ग्यारमना घटसत्ता स्वीकार माना माय? हा प्रसंग २५ सुवर्णस्वसामान्यानुभव से शोकाभाव को । २७ को पिण्ड के मप्प सामान्य के उपलाम को ___ अनृपति आपत्ति २५ घर-मुकुट दोनों के बाहक को शोक-हर्षयुगल ३९ भिन्न पिडों में एक-अनेक स्वभाव जाति की की प्रापति अशक्य वृत्ति असम्भव २६ रूपमेव से प्रवृत्ति होने पर भी शोक-हर्ष की ४० कुमारीलमट्टकृत सामाग्यनिरूपण का निरसम प्रनापत्ति ४२ कापंतादि के प्रबच्छेवकसया आसि सिसि २६ अनेकात भी प्रकारत से उपश्लिष्ट है। श्राक्ष २६ एक साथ एक मनुष्य को शोकादि आपत्ति ४३ सोकर्म जाति में बाधक नहीं हो सकता का निवारण ४४ घरव जाप्तिस्वरूप कसे होगा? २८ वहीं-युग्ध और गोरस के दृष्टारत से अमेका ४४ पृथ्वीस्व को विभिन्न मानने में कोई आपत्ति तसिद्धि २८ प्रस्पमिता से गोरत हप्य की सिसि ४५ पररव को विभिन्न मामले में बाधक २६ मसिरित नित्य सामाग्यवाय की परीक्षा का ४५ संयोग और अन्याय के सामान्य कार्य मारगामी शंका और उत्तर १० नित्यत्वरित लक्षण में प्रमाप्ति ४६ अवयव पृषक होने पर घटोत्पत्ति गायन .. श्यामादि का उत्पावानुभव प्राप्त होने की होने को शंका और उत्तर शंशा ४६ खडकपाल में कपाल मानना मावश्यक ३. खंघदवह प्यामाविघटकाचवाव प्रामाणिक ४७ पटरब विभिन्न होने का पायिक कुरा समर्थन ३१ सामान्य को भनित्य मानने में स्वरूपहानि ४७ पृथ्वीस्थानि संकोग घाययाति की सिद्धि को आपत्ति का प्रतिकार | ४ शक्तिविशेष, प्रमावविशेष या घटकुर्वपरव २१ उपाधिमन्तर्गस जाति से अनुगस व्यवहार भाषिका मापारन का समर्थन भवाक्य ४८ अनुभव के बल से कार्यकारणभाव की उप३२ जाति में एकस्व की संख्याविरूप में अनुपपति पति में स्याहार १३ एकवेश या पूर्णरूप से आधष में सिसा | ४८ घनस्व-चण्डस्व अथवा पृथ्वोत्व एकत्वंगत जाति का असम्भव है पूर्वपक्ष ३५ सामान्य में फास्न-एकवेश विकल्पों का असं- ४९ पृथ्वोत्र को एकत्लगस मामले में अधिक गुण भव नहीं है | ४ एकरमवृत्ति माने या रूपत्ति माने इस में ५४ प्रसंग या स्वतन्त्रताषन के विकल्पाय का विमिगमक निराकरण | ५० एकस्वभानामावशा में भी घटस्य का मान १५ प्रत्येक घर में धनरव को पर्याप्ति के बस से : __ सभव उसरपक्ष मेवापति | ५०शिष्टयनामक सम्बन्ध मे जासिमान अमाव ३३ नातिका व्यक्ति के साथ सम्मान वुधंद की सिवि Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठाक अनुचित पृष्ठांक विषम विषय ११ सत्यको जातिए न मानने पर बाधक | ६७ स्थायिता उत्पार विनाश की अविनाभाधि है ५१ घटत्व अडोपाधिस्प न मानने वाले पम- ६८ उपादादि के स्ध-अविनामाबका समर्थन वाभमत का निरसन ६८ मनुस्यूताकार का प्रघमास मिच्या महाँ है ५२ अखंडोपाधिस्व को प्रसमवेतरख माने तो भी । ६८ एतरवाष्पवसायमूलक संशयोत्पत्ति का कथन क्या? अनुचित ५२ सम्बन्धोवा में बलक्षय का अनुभव मिया है | स्मूलाकार प्रतिभास का अपलाप प्रशस्य ५३ सामाग्यविशेषोभयात्मक बस्तुस्वरूप को ६९ अषयी का प्रतिभास मिथ्या नहीं है प्रतीति ६९ परमाणुमों के संचय काही अपरनाम प्रवषी ५३ प्रथम दर्शन में ही व्यापकरूप से प्याप्ति ७. कारण कार्य के प्रत्यक्षसिद्ध मेगाभेपनिषेध नाम का वर्ष ५४ एककाल में उत्पावधि परस्परविरुद्ध होने ७१ एक ही वस्तु अंशभेद से प्रत्यक्ष-परोक्ष हो की का सकती है ५५. सोलाविका निमित्त है पासमा ७१ मिरचय संततिविच्छेव प्रसंभव है ५५ पादारी को प्रमाण भी भप्रमाण होने से ७२ उत्पाब-रुयय के विना स्थिरता का संभव अनिश्चय क्शा नहीं १७ स्याहार में मापाविस दूषणों का निवारण ७३ सहप के समायंबाटकी समालोचना ke एजना प्रग्यास्तिक पल का निराकरण ७३ सरकार्य पक्ष में भाषण की अनुपपत्ति ५८ एकान्त पास्तिक मत का निराकरण ७४ अमेवपक्ष में परिणाम-परिणामिभाव को ६. रमावली पृष्टारत की अनुपपति शंका अमृपति का परिहार ५४ कार्यकारणभेवपाधी वोषिरमत को समा६. प्रमाण जौर मय में लाक्षणिक मेव लोपता ६१ 'स्यात् घटोसिस' इस वाक्य में प्रामाण्य ! ७५ अन्योतकर के मत का निराकरण कल्पना अनुचित महाँ है ७५ अपयो के विषय में करस्वामी भाप्त की ११ धुप में बाशिक ममत्व को आपत्ति समालोचना ५५ तुर्मय में नयत्वापत्ति निराकरण ७६ संयोगस्वरुप रंग में अध्याप्मस्तित्व की शंका १३ मय के सापेशिक प्रामाण्य का मूलाधार का निवारण ५४ माथिक-पर्यावापिक नयों में भजनामूलक ७ प्रतिबन्धकतारूप अमिमायकता भवयवाणभेव किन नहीं होती ६४ म्याधिक पर्यापाथिक नय का स्वतन्त्र ७७ प्रतिबध्यतावस्थेवक कोटि में रक्तायनविषम नहीं है विषयकके निवेश में रोष १५ मम्पमय के विषय में असत्यपन का अवधा- ७७ 'मूले पुक्षः कपिसंयोगों' इस प्रतोलि का रण प्रयुक्त है स्वाभाविक मर्य १६ अनमुसूतरूप का माविक यही उत्पाव है। ७६ रक्तारत की अन्यथा उपपत्ति पोषपरत १५ मायाप में परिवर्तित हो जाना यही | ७९ घर में अपृपाप-पृयत्वावि की प्रीति मेवबिनाश है । पक्ष में दुर्घट Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक मूलक कामवारण विषय | पृष्ठांक विषय ५० परिमाणग्रह के संबंध में गोलापप्तीकार के | ६५ उत्पादाविरुध्य समयत का उपसंहार अभिप्राय का मिरसन । ९६ निमितमेव से उत्पावावित्रय का एकत्र . अग्य प्रष्य के वर्शन से मेसिदिर है । E१ प्रासाबाद में एकत्वाप्रतीति को अनुपपत्ति । ९७ बोरगत में भी प्रेरुप्य का स्वीकार ८१ अषपत्री का प्रांशिक पर्सन अनुपपन्न १८ जस्परवम्यय के बिना अणिकता दुषंट ८२ अवयवों का पूर्णतया पर्सम अनुपपन्न १८ बस्तु को अणिकता निरपेक्ष नहीं होती ८२ संयुक्त अवयवसमूह ही अवयवी है ९९ "ये यद्भावः' इत्यावि नियम से हाय को ३ अवभिन्न अवयवों में परोक्षता की आपत्ति उपपत्ति का निराकरण १०. उत्पसिकाल में नष्ट:' प्रयोगापति क्षताम८३ अवयवभिन्न अवयवी में परोक्षताको पापति निरक्षका १०० मामावनिक्षेपचतुष्टय से सुम्यवस्था ८४ प्रणयव-अवयवी मेवपक्ष में इषगमाला १०१ नामादिनिक्षेपको सर्ववस्तुध्यापकप्ता के अपर ८४ पृथक् नत्पाव-विनामा प्रतीति से भेत्र शंका प्राप.समाधान का निवारण १०२ केवलिप्रसारूप नामनिक्षेपकाला मत अरमणीय ५५ अवतसरप पारमाथिक होने का मत मिथ्या १०२ शुद्ध जीवस्य श्योप-यह स्थूल मत है ८६ पास से भिन्न होगा पा अभिन्न | १.३ यजीव को कल्पना प्रयुक्त ८६ साहयका प्रधानाईतबाव असंगत १०३ प्रध्याषिक-पर्यायाधिक के अभिमत निक्षेप ७ मारतबावी भर्तृहरि का मत निरूपण । १.४ संग्रहमय में, नामनिक्षेप में स्थापना का EE विविध पाणी में बजरी वाणी का स्वरूप सर्भाव-पूर्वपक्ष ८८ मध्यमा वाणी का स्वरूप १०४ नामनिक्षेप को प्याख्या में स्थापना का ८९ पश्यम्ती पाणी का रूप ___ किसी तरह हिमव नहीं है ६. मोर भर्ष में तादात्म्यसंबन्ध का समर्थन | .... | प..५ नाम का स्थापना में अन्तर्भाव अनुचित ९० शवमात्र से प्रपंवमेव की उपसि उत्तरपक्ष १० काम्यावेतमात्रवानिराकरण | १०५ पिता आदि का विषा हुआ नाम ही नाम९१ शम्बईतबाव का विस्तार से निराकरण निःक्षेप है ५ विषक्षा के प्रभाव से तथा प्रयोगामाष को | १०६ भाव के साथ नाम और स्थापना का संबंध आदका का निवारण | मिम मित्र २१ श्रवणाभाष अथषा सर्वनिसरता को आपत्ति । १०६ प्रदेशपंचव निक्षेपश्य के स्वीकार से ९२ शमीलाधिपरिणाम के ऊपर विकल्पप | सग्रहको विशषता अयुक्त सगाविशश्च से मुखलेषनापति .७ अजुम्नत्रनय में द्रव्य का अस्वीकार. ९३ प्रपत्र की अविद्यामूलकता का पणन सरनसश्मित ९४ प्रपंच शाह की अवस्था विशेषरूप नहीं है महा १.८ सि सेनसूरिमत अरमणीय समाश्रममता१४ प्रपंच के मूल विद्या का ब्रह्म से पक्ष में | विकल्प सुयापि वर्ग ९५ जनमत में खरो मध्यमा-पश्यन्ती वाकका | १.९ भावनिक्षेप के स्वीकार में वरुपाधिकरण के ताश्विक स्वरूप । के भंग का आक्षेप Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ विषम | gastr विषय १३३ विशिष्ट शुद्ध के अभेव व्यवच्छेव को अश ११० प्राधिकभंग के प्राक्ष का प्रतिकार १११ भाष्यकार के विविध कथन का अभिप्राय ११२ भाष्यकार के द्विधि कथन का धन्य अभिप्राय ११३ शोकादि वासमामूलक होने का कथन ११५ बासना अहेतुक होने पर बोषपरम्परा एमला उस एपक्ष ९३४ अतिरिक्तपर्याप्त मानने में अनवस्था १३४ विशेषरूप से सामान्याभाव कर प्रतिक्षेप पूर्वपक्ष ११९ नैयामिक के संशय के लक्षण को परीक्षा १२० संगयलक्षणान्त विरोध का स्वरूप क्या है ? १२१ दूसरे प्रकार के विरोध की समीक्षा १२१ संशय में प्रकार विधया विरोधमान में वोष का उद्धार १२२ इत्यं .... प्रत्थसंदर्भ का अन्य रोसि से ११० अनेकता में सर्वत्र संाधापति का उद्धार १६४ अनुमान में अनुमानत्वत्वेन मानत्वं इस ११८ विशेषावधारण के तीन प्रकार प्रयोग की आपत्ति उत्तरपक्ष १३५ मनपाच्छेदकतामेव व्यवच्छेद १३६ मानसामान्यभेद में तदन्यश्य के निवेश का प्रतिक्षप औचित्य १३६ स्यात् प्रत्यक्षं मानमेव' इसी प्रयोग का औचित्य १३२ श्यामान्यरूपवान् को ध्यवच्छेद्य मानने में आपति १४० चित्रपट में अयं नीस एष' यह प्रयोग क्यों नहीं होला ? १४१ 'स्व का सत्य और पराऽसत्व दोनों एक नहीं है १४२ श्रणु और महत् स्वतंत्र परिमाण होने की आशंका व्याख्यान १९३ एवकारप्रयोग की अनुपपत्ति के घोष से निस्तार १२४ व्यापम से 'प्रत्यक्षं मानमेव' प्रयोग के उपपादन की आशंका १२५ विशेष्यसंगत एवकार का अर्थ १२५ विशेषणसंगत एवकार का अर्थ १२५ क्रिमसंगत एवकार का अर्थ १२७ मध्यम अस्यन्त योगभ्यवच्छेव एवकार अर्थ मह १३ १२७ मध्यमत में क्रियासंगत एवकार का अर्थ १२६ एवकार का एकमात्र अन्योन्यभ्यस्व हो अर्थ १२८ अन्य योग का प्रतिभास भिन्न भिन्न रूप से १२९ सर्वत्र बज्रता हो एवकार से व्यच्छे १२९मात्र में शक्ति माने तो लाघव १३० विविध प्रयोगों में एवकार के व्यवच्छे का निवेश १३ एवकार का अर्थ प्रत्यन्ताभाष अन्योन्याभाव अन्यमत १३२ एवकार का अर्थ श्रन्थ और परुदेव मसान्तर १३३ प्रत्यक्ष में मामत्वरयोग और मानव का साध्यदेव अशक्य- उत्तरपक्ष १४२ सूक्ष्म अग्निकणसंसृष्ट इन्धन के अधकार में प्रत्यक्ष का प्रतिक्षेप १४३ अणु महत्] स्वतःत्रपरिमाणवादी को अनु भव बाथ १४४ अणुपरिमाण का प्रपलाप भी अशक्य १४४ नंयायिक की ओर से परिमाण साधक अनुमान १४५ कि के अनुमान में हेतु में स्वरूपासिद्धि बोष | १४७ अणुद्रश्य को न मानने वाले मीमांसक का प्रतिप १४८ सत्य और असत्व में स्व-परापेक्षश्व काल्पनिक है- संथापिक १४१ समास में स्व-परापेक्षस्व की पारमानाभिकता - जैन Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक विषय | पृष्ठाको विषय १४९ प्रतिरिक्त सत्ता का स्वीकार मसर्क से नामित | १६३ (8) अभिमप्ताधास्त्राविरुप से भंगत्रय १५० द्रव्य और जाति में सरप्रतीति समानाकार । का प्रतिपावन गविरुप भंगत्रयका प्रतिपादन १५० सई पर संकेतविषमतावदकरूप से सत्ता । १६५ (११) प्रयपर्यायाविप में भंग त्रय का की सिद्धि कर प्रतिपादन १५१ उत्पादादि के घोग से सत्ता मानने में प्रश्न- | १६६ (१२| सत्यादिरूप में भगत्रय का प्रतिपावन T " !2) संवतरूपादि में भात्र का प्रतिपादन १५१ मनेकान्तपक्ष में उक्त प्रश्नों को अबकाया | १६५ (१४) रूपानि से भंग त्रय का प्रतिपावन १६. (१२ म हिरप से भंगप्रय का प्रतिपादन १५२ सापेक्षसएषाऽसस्व का सूचक सप्तभंगानय १६९ (१६) याह्याशिरूप से भंगत्रय का प्रतिपादन १५. सस्तभंगी में एपकार और पात् पर की १० स्यादरित अवक्तव्य-पंचममंग सार्थकता १७१ स्यामास्ति सतम्य छटा भंग १५४ स्यात् मस्ति' प्रथमभंग का अभिप्राप १७१ स्यादस्ति नास्ति-अवतव्य-सप्तमभंग १५४ "स्मात् मास्ति' वितीयभंग का तात्पर्यविवरण । १७२ माटवे विकल्प को बायांका का निरसम १५५ (१) स्वाद प्रवक्तस्य' तृतीयभंग का गमितार्थ १७२ भंगविभाजक उपाधि सात से अधिक नहीं १५५ अम्ययीभावसमास को युगपत्प्रतिपावन में | १७४ सप्तभंगी में सकलादेश- विकलाश पाकि १७५ कालावि आठ का परिचय १५५ इन्द्वावि समास की युगपरप्रतिपादन में प्रसाक्ति | १७८ सफलादेश के विषय में अन्य मत १५६ 'पुष्पबन्त' शम्म से एकसाय मूर्य-चन्द्र के १७८ सप्फभंगों प्रमाण से अनेकाम्त गभित निश्चय योपको आमांका का समाधान । १७८ पितृत्वावि धर्म केयल प्रासोतिक मण्डनमिश्र १५७ उमालमत अवाच्यताबाधक नहीं है। १७६ मण्डनमिश्र के कपन का निराकरण १५७ एकाम्स पयार्य-लक्ष्या का घुगपद शाम्च- । १५० केवल धर्ममेव मानने पर पिता-पुत्रादि प्रतीबोध प्रवाश्य तियों को अनुपति १५८ पटादि अर्य का प्रतिषेध असंबद्ध नहीं है १८० चित्रकार ज्ञानवाद में चित्राकार अर्य की १५८ माल्यमत के निषेधार्थ पटबिरूप से प्रसस्य | आपत्ति का निरूपण १८० अनुमानावि से भी एकाम्लसिजि अषय । १५९ (२) निक्षेपापेक्षा सप्तभंगीगत भंगप्रय का | १९१ अनेकान्तबाबासा की अनुमापरता का उपपादन समानरप से प्रभावहाहै १६. (३) संस्थानावि से भंगत्रयापेक्षाभेद निम्पण । १८२ निम्पयसा एकान्तवाद में मानने पर भी १६० (४) प्रवाधाव से भंगत्रय का उपपाइन । निस्तार १६१ (५) क्षणभेष से भय का उपवन १५२ व्यक्तिनिष्ठाघ-कारणभा से अनुमिति१६. भिन्न भिन्न इन्द्रिय की अपेक्षा से भंग त्रय स्वनियामक शून्यता मिरूपण १८३ एकान्तवादो की मान्यता से अनेकान्त को १६२ (७) घटाविधायमान्यता रूप से भंगप्रय । समर्थम १६२ (4) उपादेपारिरूप से भंगत्रय का प्रसिपायन | १५४ एकारतबाव में हायस्वरूप का निधन सामय Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १जक विषम | पृष्ठांक विषय १८४ अनुगतरूपतालमा का निराकरण - कालीच पर जाने की सापति का निवारण १८५ अनेकान्तमान में साध्यसिदि निर्माण २००शक्षक मत को नोनीष को मान्यता के १८६ एकान्तवावी बारा उजाधित मी बोगों का निवारण का माशय निराकरका २०० जीयाविविषय में सास नय की मान्मता १८६ संसारो और असंसारी में पानेकान्स पी ०१ घट के एक देश में अवक्तव्यात शंकाका उपपत्ति मिवारण १७ दो रूपों के समाये में विरोध को शहा । २०२ भोर नौर के अमेव की आपत्ति का प्रत्युत्तर १७ मधसम्मतस्यवहार के बल से शंशा का २०३ध्य गुण पर्याय के विभाग की समीक्षा मिरप्सन २.५ सम्मतिप्रकरण में पर्याय भिन्न गुण का निरसन १८७ मुक्त दशा में असंसारी का व्यवहार गौण | २.६ मेवाभेव के बिना अन्योन्यग्याप्ति का असंभव नहीं है ५०६ अन्योन्य और ध्याप्तिका अर्थ ५८८ संसारी धर्मों का ही मुक्तनी में परावर्तन १.७ भेदाभव के बिना सम्योमध्यारिससम्भावना १८९ शुज धी के भी कचिद् भेव को उपपत्ति का निरसन १५ मुक्तिकाल में भी संसारी के अमेव का | २०८ पृथात्व से अतिरिक्त मेव असिख है उपपावन २८ अपृयवस्व ही प्रत्यभिज्ञानाविनिमामक ताबा११ लोकानुनय से समित् भेदाभेव का उपपादन १९१ बाल और युवान में भी एकान्तमेव नहीं '२.५ एक वस्तु में भेव-अमेव के विरोध का निरसन १६२ बाल और युवान अवस्था में एकास अभेव १० भेदामेब के बिना प्रमेय-अभिषेप का तावाभी मही म्य पुषंट १९३ वाट्यावि भवस्था शरीर की नहीं, प्रात्मा | २१० मिन्न भिन्न संसर्ग की कल्पना अयुरू | २१२ सभामविपितवाल पदों के प्रयोग से मेवा१९३ चार्वाकवाव को आपत्ति का विधारण - मेव की सिद्धि १९. बाल्याधि प्रमेव की प्रत्यभिज्ञा सजातीमा २१३ साध्य-अप्रसिद्धि बोष का निवारण भवप्राहक होने की शंका का उत्तर : २१३ उभयत्यय ते साध्य करने पर कोई दोष १९५ 'युवा न बालः' प्रतीशि में सेव के पहले नहीं २१३ मन्तिा को भापति का निवारण धम्म के भान की पांका २१३ व्यतिरेकव्याप्ति में व्याप्यासिदि वोषका १९५ के बाप पंधर्प का भान मानने पर आपत्ति मिवारण उत्तर २१३ध्य पर्यायामना मेवात का उपपादन १९६ भाषसम्याव और व्यसम्यकप का विभाग । २१४ इन्द्रसमास में भेरमान के निरसन का प्रयास १६५ सम्यग्दर्शनमूलक निरा के अमाप को |१२ दसमास में भेव का भान म मानने में काका उत्सर आपत्ति १९. गौतार्य के ज्ञान से प्रगीतार्थ को मुक्तिलाभ- | २१५ मिलाव मेवयाप्य न होने की शंका का निरसन १९८ गति स्र्थाित-बहन-पचन जोब-मजोयादि में | २१५ एकान्तबादी के 'रुप एसवान वो इस प्रयोग अनेकाराष्टि को आपत्ति Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथ्ठांक विषय २१६ द्वन्द्वसमास पदार्थमेव नियत मामना होगा २१७ पूर्वपक्षेोकल्पित इनियामक में दोषोद्भावन २१७ पर्याय में वास्तवमेद न होने को शंका का निवारण २१८ मेवाभेव में विशेष उठाना जड़ता का प्रदर्शन २१ एकान्तमेव और अमेव में विरोध संग २४ द्रव्य और उसके धर्म एक दूसरे को छोडकर नहीं होते १९ परस्परनिरपेक्ष द्रव्य और अि २२० मेव असेब के सामानाधिकरण्य में विरोध का अमाव २२० मेवामेव में सहानवस्थान का नियम मलि २२१ रूप मेदामेर में भी अनवच्छिन्नस्व २२१ रूप और गन्ध का अबच्छेदक स्वभावभेद २२२ अनवस्थावि पांच दोष का आपादान २२३ अनेकान्तवाद में समवस्थावि शेष का निराकरण २२३ केवल भेद में शक्तिग्रह का असम्भव २२४ एकीकृत विकल्पों में अर्थशून्मता २२४ एकासवाद के विकल्प युक्तिशून्य २२५ संशय और अतिपति बोयुगल का प्रतिकार २२६ मय और प्रमाण से संज्ञपावि का निरसन २२६ देशबन्धुवि के मत का पूर्वपक्ष २२ वेश्मत का प्रतिक्षेप २२८ मेदामेवपक्ष में जास्य का निवर्शन २२९ विजातीयस्तु में प्रत्येक दोष का निरसम २२२ यो उत्कर्ष की शानि की बात अयुक्त २३० अनेकान्तवाद में सकिर्य का आभावन २३० में संकीर्ण वस्तु का स्वीकार २३१ जद में स्मिता और उष्णता की खंड व्याप्ति ( E पृष्ठक विषम २३९ जात्मक मेव और एकस्वभाव को व्याप्ति २३१ तस्य किंचित् भेव अर्थ में पशु पण्डी २३३ मूळ वस्तु का निवृतिरूप परिणाम २३४ निवृति प्रनिवृत्ति उभयरूप वस्तु के पहन की उपपति २३५ क्रमाक्रमोभयामक एक नाम की अनुभूति २३५ महियों के मत में ईहा को २६६२८ २३७ वर के नियानित्यत्व के बिना प्रत्यभिक्षा की अनुपपत्ति २६ पूर्वापर व्यक्ति का एकान्त ऐश्य मानने में प्रत्यभिका की अनुपपत्ति २३९ष्टि होने पर भी शुद्ध व्यक्ति का अभेव २४० एकान्तवपक्ष में विशेषणविशेष्यभाव २४१ पूर्वपरवर्ती ग्राहक में भी भेवामेद असंगत २४२ एक अनुगत निश्य सामान्य के द्वारा प्रत्य भिज्ञा की उपपत्ति असंगल 1 २४३ क्षणिकक्ष में सादृश्यज्ञान को असंगति :४४ 'यह वही हैं' ऐसी प्रश्यभिक्षा अभ्रान्स है २४४ योगिन से अणिकरण को सिद्धि दुष्कर २४५ सभी प्रमभिज्ञा भ्रमात्मक नहीं होती २४५ प्रत्यभिशा में प्रामाण्यसंशय का निराकरण २४६ जितने बाद उसने परसमय २४ और वन का मूल २४८ ल्याव से समभाव की सिद्धि २४ द्वावत का उपसंहार २५० शुद्धि पत्रक 卐 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। अईम् ॥ हिन्दी विवेचनालंकृत स्याद्रादकल्पलताब्याख्या विभूषित * शास्त्रवासिमुच्चय * [सप्तमः स्तबकः ] [प्याख्याकार मंगलाचरणम् ] चश्चत्फताबनकान्तकान्तिरनिर्श गीर्वाणजुदान्तिको, __विक्रान्तिक्षनशत्रुरस्तजननान्तिः सतां शान्तिभूः । शान्तिस्तान्तिमपाकरोतु भगवान् कल्याणकन्पटुमो, धीरा यस्य सदा प्रयान्ति शरणं पादौ शुभप्रार्थिनः ॥१॥ आसीत् पल्पदयोः प्रणामसमये शकस्य चक्रप्रमो, लोलन्मौलिमयूखमसिलरुचा विस्तारिणीना स्यात् । श्रीयामातनयस्य तस्य हृदये धत्तः पदों चेत्पदं, तति नाम सुर-कामकलश स्वर्धेनवो नान्तिक १॥२॥ आगञ्छन्त्रिपदीनदीसमुदयभामग्रोच्छलत तर्कोमिप्रसरस्फुरचयरयस्याद्वादफेनोनयः । यस्याप्रापि विमृत्व से विजयते स्पाद्वादरत्नाकर, तं वीर प्रदिध्महे विजगतामाधारमेकं जिनम् ॥ ३ ॥ पीनेऽन्ययाकलुपोदफेऽपि नोच्छियते तत्त्वपिपासया वः । आकर्णयन्त्याईतशास्त्रवाता फर्णामृतं संप्रति तव सकाः ॥ ४ ।। [ शान्तिजिन-पाजिन-बीरजिन की स्तवना-मंगल ] स्याख्याकार ने मे सबक के मंगल प्रारम्भ में सर्वप्रथम एक पत्र से भगवान शान्तिनाप को महिमा का ब्रासन करते हुये उन से लोककल्याण के लिये प्रार्थना की है। पथ का अर्थ इसप्रकार है Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शास्त्रमाता स्त०७ लो०-१ मिन की कान्ति चमकते हये सुवर्ण के समान सुन्दर है, तथा समस्त देवगण जिनके सानिध्य को अनिश सेवा करते हैं, जिन्होंने अपने विकम-ज्ञानवर्शनवारित्रके चरमोत्कर्ष के पराकम से रागदेवावि पनों का संहार कर डाला है, जिन के भवभ्रमण जन्मपरंपरा) का अन्त हो चुका है, अपना मिन के जनन-संसार जन्म एवं सविध-सम्पूर्ण श्रम सर्वथा निवृत्त हो बफे हैं, जो सत्पुरुषों के हृदय में शान्ति का सर्जन करते हैं, जो कल्याण के कल्पयन हैं, घीरपुरुष अपने मंगल लाभ के लिये सदंव जिम के चरणों की शरणा ग्रहण करते हैं ये श्री शान्तिनाथ भगवान लोगों के समस्त संताप का निरा. करण करें।॥१॥ दूसरे पक्ष में व्याख्याकार ने भगवान् पारवनाथ की महिमा का वर्णन किया है-पद्य का अर्थ इस प्रकार है प्रणाम करते समय मुकुट के चमकती हुई सबल किरणों की प्रप्तरणशील प्रगाढ प्रदीप्ति के वेग से जिन के चरणों में वेवराज इ को सबंध चक्र का भ्रम होता आया है, श्रीमती वामा माता के उस सुपुत्र भगवान् पापर्धनाथ का चरणयुगल किसी के भी दषय में यदि पदन्यास-स्थान ग्रहण करते है तो क्या उस के निकट कल्पवृक्ष-कामाला उपस्थिती हो ? • पाप है किमी व्यक्ति भगवान् के चरणयुगाल का निरन्तर अपने चिप्स से चिन्तन करता है। उक्त मूल्यवान वस्तुएं उस की सेवा में सर्वत्र प्रस्तुप्त रहती हैं।। २ ।। भगवान के मुख से निर्गत त्रिपक्षी अर्थात् "उबन्नेह वा, विगमेव वा, धुवेत या" पपत्रय स्वरूप नदी से उत्पन्न होने वाले तरंगो-पागमास्भों के भाव से उपहलने वाले समरूपी विधियों के प्रसार से जिस में विभिन्न नयों के वेग से स्याद्वादकापी फनसमा स्फुरिस होता है ऐसा घसुदिक वर्धमान जिम का स्थानावरस्नाकर माज भी स्कृिष्ट रूप से विजेता हो रहा है ग्रिलोको के एकमात्र आधारभूत सबजयी उस भगवान महावीर का हम प्रणिधान संस्मरण करते हैं ।।३।। [सानों को निमन्त्रण ] चौधे पद्य में छायाकार ने कर्णमधुर बात सुनने को समुत्सूक प्रमों से निवेदन किया है कि अन्य शास्त्रों के सिद्धान्तों की वर्षाप मलीम जल पीने पर भी जिम के तत्त्व बोध को पिपासा निवस माहीहै वह श्रवणोत्मक प्यक्तिगण अब कर्ण को अमत्तुल्य जन शास्त्रों को संज्ञाम्कि चर्चा को सुनने के लिये लायधान हो जाय ।। ४ ।। मूलप्रश्व की प्रथम कारिका में जनमत की बह बात कही गई है जो लोकहित-लोक मुख और लोकनिःश्रेयस को जननी है और अशान-अन्धकार को दूर करनेवाली ज्योति समान है तथा परमतत्व को उपनिषद विधान है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है अज्ञाननिमिरासदीपिका परमनस्योपनिषद्भूनां हिन-मुख-निःश्रेयसकरीमाईतमत्तवार्तामाहमुलम्--अन्ये स्वाहरनाम्येच जीवाजोवान्मक जगन् । सनुत्पाश्च्यायधौनयपुर शास्त्रकृतमाः ॥ : || अन्ये तु शास्त्रक्सनमाः कृतप्रवचनोपनिषदध्ययनभावना जनाः, अगत्-जगत्पदप्रसिपाघम् अनायधः प्रहापेक्षया गदालनमत्र आहुः । पत्रकारो व्यवस्थायाम् , तेन नेश्वरा Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] दिकृतं नया प्रधानपरिणामादिकृतमिति लभ्यते । तथा, जीवाऽजीवात्मकं जीराधाजीवाश्च जीरा-जीवास्तु आत्मानः समुदायिनो यस्य ना, तेन चिन्मात्रादिचादनिरास: 1 तथा सापाय-न्यप-ध्रौव्ययुक्तम-सन्ति पारमार्थिकानि यानि न सु कस्पितानि उत्पादव्ययधौम्यानि तयुक्तं तन्मयम् । "मौक्तिकादिसहिता माला-इतिवन् नसहितमित्याप न दृष्यति" इत्पन्ये । ___अनोत्पादः 'उत्पमिदम्' इति धीसाक्षिको धर्मः । स विविधः-१. प्रयोगजनिता, २. विलसाजनितश्च । पुरुषव्यापारजनित आद्यः, स च मूर्निमद्रव्यारब्धावयवकृतवान् समुदयवाद, तत एव चालायपरिशुद्ध इति गीयते । तदुक्तम्-[सम्मति-१२६. ] "उपाओ दुरिमाणो पोगजपिओ अ वीससा चेव । तरथ य पोगपिओ मुमुदयबाओ पपरिसुद्धो ।। १॥" इनि अत्राऽपरिशुद्धन्वं स्वाश्रययायदषयोत्पादापेक्षया पूर्णस्वभावान्त्रम् । न अपूर्णाययवो घट उत्पद्यमानः कानोत्पत्र इति व्यवड़ियन इति । ननु न प्रयोगजन्य उत्पादः, घटादव प्रयत्नजन्यवाद, उत्पात रानशासंचःमाथा-पोति ?, समरसता नष्टो घटा' इति व्यपदेशाद् नाशे मुद्गरपालजन्यत्ववन् पुरुषव्यापारात्पनो घरः' इनि व्यवहारादत्पादऽपि पुरुषव्यापारजन्पत्त्यस्यावश्यफत्वात , विक्कियाननुभूयमानत्येनोपादापलापे च नाशस्याप्यपलापप्रमणात, उत्पसेराप्रमाणसंबन्धनान्यथानिद्रानाशस्यापि चरमसणसंबन्धमाशेनाऽन्यथासिद्धेः मुत्रचत्वात् , अन्यत्र तदाधारताप्रत्ययस्योत्पत्याधारना प्रत्ययस्येवावच्छेदकत्वेनोपपत्तेः । 'घटप्रतियोगियेन नाशी विलक्षण एवानुभूयस' इति चेत् ? नयोत्पादोरीति तुल्यम । किन, एवमाधमणे 'आधक्षणलंबन्धवान् घटः' इतित 'आचण उत्पको घटः' इनि प्रयोगो न सूपपदः म्यादिति न किश्चिदशन् । [ जन मनीपीयों का मत--उत्पादादित्रययुक्त जगन ] अन्य विज्ञान जिन्होंने समोषौनशास्त्र में पथोचित श्रम किया है, अर्थात भगवान के प्रवचन = विपरीमूलक उपनिष =आगमशास्त्र का सम्यक अयन और उनके प्रतिपाद्य अर्थ-सस्व की मायनापालोचना की है, ऐसे जैन मनीषियों का यह कहना है कि नगत पर से प्रतिपावित होने वाला अर्थसमूह अनादि-प्रवाह को अपेक्षा से निश्चित रूप से सार्वकालिक है। उनका यह कथम एषकारयुक्त यानी सावधारण है-जिस से यह भूचित होता है कि अगन न तो ईश्वर आदि से रचित है पौरन प्रकृति के परिणामादि से प्रानुन त है। उन मनीधिमों का यह भी उबेश है कि जगन और और प्रजोय के समुहात्मक है। इस कथन से अगत् की मिन्नारूपता अथवा भचिन्मात्ररूपता लादि का निषष सूचित # जादो मिथिलरूपः प्रयोगनितम्ववित्रसा चव । तच च प्रयोगनितः सपुदयथा दीपरिधः ।। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सत्रमा० स०७ श्लो. १ होता है। उन मनीषियों का यह भी उपदेश है कि उसाद व्यय और ध्रौव्य घे तीनों जगत का सहभागी पारमार्थिकस्वरूप है। युस्तकाम का सहित अर्थ करने वाले प्रन्य पालपातामों का यह कहना है कि जैसे यह कहा जाता कि माला विभिन्न मोसीओं एवं उन्हें धारण करने वाले सूत्र से मुक्त होती है, उसी प्रकार जगत मी उत्पाय-यय और प्रोक्य से युक्त है। इस कायत में मो कोई दोष नहीं है। [ जैन मन से उत्पाद का स्वरूप] एमाल्पाकार ने जगत के इन तीनों रूपों का निरूपण करले हुए यह कहा है कि उत्पाद यह "दपुत्पन्नम-यह वस्तु उत्पन्न हुई" इस प्रकार की बुद्धि से सिद्ध. वस्तु का एक धर्म है। इसके वो भव है-एक प्रयोगनित और जूसरा विसाजनित दिलसा यानी प्रकृति अपवा स्वभाव) । प्रयोगजनित का अर्थ है पुरुषव्यापार से उत्पन्न । यह उत्पा, मूतंवण्यों से उत्पन्न अवयव द्वारा निष्पन्न होने से 'समबरवाद'गध से अभिष्ट्रिप्त होता है और इसीलिये उसे अपरिशय कहा जाता है। जैसा कि सम्मति पन्थ तत्सीयकायत की गाथा ३२ में कहा गया है कि-"उत्पाद वो प्रकार का होता है एक प्रयोगजनित और दूसरा विस्रसाजमित । उन में प्रयोगजनित समुत्पाद समुदयवाद रूप होता है और अपरिशुद्ध होता है।" उसे समुदयमाव काहने का यह कारण स्पष्ट है कि वह मूत्रयों से आर अचमयों के द्वारा उत्पन्न होने के कारपा समुदायल्प होता है-किन्तु उस के लिये प्रयुक्त होने वाला प्रपरिशुद्ध' पष्ट का एक विशेष अघ मह है कि उत्पध होने पाली वस्तु के आश्वयभूत समस्त अवयवों से निष्पत होने वाले उत्पाद की अपेक्षा से पूर्ण स्वभाष होना । अपील. जो उत्पब उत्पन्न होने वाली वस्तु के आश्रयभूत समग्र अवयवों से सम्पादित होने से ही पूर्ण होता है. क्योंकि घट सम मपूर्ण अपयषों से उत्पन्न होता है तो उस में यह व्यवहार नहीं होता कि 'घट पूर्ण रूप से उत्पन्न हुआ। [ल्पाद प्रयत्न जन्य न होने को शंका का निरसन ] यदि यह शंका की जाय कि-"उम्पाव को प्रयोगनित कहना उचित नहीं है, क्योंकि प्रयोग का अर्थ है पुरष का व्यापार-प्रयत्म और उससे घटादि का ही जन्म होता है न कि उत्पाद का, पोंकि बापाइ आचक्षणमम्बग्य रूप है उस में जो प्रणप्रवाह है यह तो क्रम से स्वयं उपस्थित होसा है जब कि घट पुरणप्रयत्न में उपस्थित होता है। अत उसयोनों का परस्पर सम्म जाहीं दोनों से सम्पन्न होता है न कि पुरुषप्रयत्न से"-तो या शंका ठोष नहीं है बयोंकि जसे 'मुहगरावि के प्रहार से घट नष्ट हुआ इस व्यवहार में घटनास में मुगरपात मन्यस्य सिद्ध होता है उसोप्रकार 'घट पुरुषव्यापार से उत्पन हुआ' इस व्यबहार से उत्पाद में भी पुरुषव्यापारजम्यस्य सिद्ध होमा आवश्यक है। [उपाइ-नाश दोनों में प्रयत्नजन्यता समान ] यदि आश्चक्षणसम्बन्ध से विनित- विभिन्न रूप में अनुमबाउन होने से उत्पाद का तात्पर्य कि मोती और सूत्र के मसुदाप से माला पुश्रद्रम्प र नहीं होती अनः माला मोती मुत्त, नहीं होतो किन्तु माती-रानभाय होती है. fर भी गाला सुन्दर मोतीयुक्त है रिसा यवहार प्रशिद है, उसी प्रकार जगत उलाद-घय प्रौन्धमय होने पर भी उत्पादश्य मनोव्ययुक्त है ऐसा व्यवहार प्रयोग अनुचित नहीं है । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा- टीका एवं हिन्दी विवेचन ] अपलाप किया जायगा तो नाश के अपलाप को भी भापति होगी, क्योंकि जैसे आचमणसम्बन्ध से उपसि को प्रत्यासिजि अर्थाद प्रपालाप होता है, उत्तोत्रकार भरमक्षणसम्बन्धनाश से धटनाश की भी अत्यपासिलिभव हो सकतीमागय कसे पटाधिकरण केस का प्रताधिकरण और पदका अधिकरण ऐसी जो क्षण वाट का आद्यक्षमता और उस मणके साय घट के सम्माप से अतिरिक घटोस्पाव नहीं होता, उसी प्रकार घनिष्ठ याववस का रधिकरणक्षण घट का घरमक्षण होता है और उस क्षण के साथ घट का सम्बन्ध । होता है । अतः उसके नाश से अतिरिक्त घटनाश की भी सिवि नहीं हो सकतो । [नाश और उत्पाद में वैषम्य शंका का निरसन] यदि यह का की बाय कि-"यदि बरमक्षण के साथ सम्पन्धनाश से अतिरिक्त अटका भाषा नहीं होगा तो घरमक्षणसम्मन्यताश को उत्पत्ति घर में होगी, कपाल में नहीं होगी। तो फिर 'बह कपाले घो नन्दा यहाँ कपाल में घटनाश हुआ' इसप्रकार मो कपाल में घटनरश को माधारसा को प्रतीति होती है वह न हो सकेगी". हो यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे आग्रमणसम्बग्य से अतिरिक उत्पत्ति न मानने पर घट में होमेवाले भाचक्षपासम्बन्ध का अ वक होने से कपाल में सहमपाले घटो जातः' इसप्रकार घटोत्पति की आधारता की प्रतीति होती है, उसीप्रकार घट में रहने वाले चरमक्षणसम्मन्य के माश का अपनवेदक होने से कपाल में यह कपाले घटो मष्टः' इस प्रकार मामको आधारता की प्रसोशिहोमो है। [ घटोत्पाद भी आधचणसम्बन्ध से अनिम्मित है] __ यदि यह कहा जाय कि-'परमक्षणसम्मन्यनापा से मिलक्षण घटताश अनुभवसिद्ध है, क्योंकि 'घटो मण्टाघर नष्ट एमा' और 'घटनाको जातः घट का नाश हुआ' इसप्रकार नाश का घरप्रतियोगित्वेन अनुभव होता है। यदि घरमक्षणसम्मघनापा से मिन्न घटनाश म होगा तो परममणसम्ब नाया में घटप्रतियोगिताय न होने से इस अनुभव को उपपत्ति न हो सकेगी। अतः घरमक्षणसम्बन्धनाश से मिन घटनामा मानना आवश्यक होने से घटनाश का अपलाप नहीं किया जा सकता-सो यह ठीक नहीं है, क्योंकि इस तरह की मुक्ति प्राचमणसम्बन्ध से भिन्न घटोत्पत्ति के सम्बन्ध में भी दी जा सकती है। अर्थात, घटोससि को भिन्न न मानने पर 'घट उत्पन्नः = घाट उत्पन्न हमा' अथवा 'घटस्योत्पत्तिर्माता-घट की उत्पत्ति हुई' इमप्रकार घरपलियोगिकस्वेन जात्पत्ति का मी अनुभव तो होता है, किन्तु या अनुभव घटोत्पत्ति को आद्याक्षणसम्बन्ध से भिन्न न मानने पर महीं होगा, क्योंकि घट में मो आग्रक्षणमा सम्बन्ध होता है वह घटामुषोगिकाधक्षणप्रतियोपिक होता है, क्योंकि घर में प्रायक्षणसम्पन्नमा' इसीप्रकार का व्यवहार होता है, न कि 'पारण में घट का सम्बन्ध हुआ यह व्यवहार होता है। अतः वह आधक्षणप्रतियोणिक होता है पतियोगिक नहीं होता। इसलिये इस से भिन्न घटोत्पाद मानना आवश्यक है। इस संदर्भ में यह भी विचारणीय है कि यदि घद की उत्पत्ति आरक्षणसम्बन्ध से भिन्न न होगी तो जैसे आरक्षणे आयक्षणसम्माययान् घट: ट प्रथमक्षण में प्रथमक्षासम्बन्धी हैं इस प्रकार का प्रयोग नहीं होता उसोप्रकार 'आम्रक्षणे उत्पनी घट:--प्रपयापर में पट उत्पन्न हमा' यह भी प्रयोग नहीं हो सकेगा, क्योंकि अतिरिक्त उत्पत्ति को न मानने पर उक्तप्रयोग में उत्पशः' काय का भी अर्थ आशक्षणसम्बन्धी यही होगा । इसलिये 'पद का उत्पाद आचलणसम्बन्ध से भित्र नहीं है-यह कथन भकिश्चित्कर है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्त्ता० त० ७ फ्लो० 1 + , यत्तु एवं नाशमुत्पादस्य जन्यत्येऽपि तत्र प्रतियोम्यतिरिक्तकृत विशेषाभावात् भावेऽपि सर्वस्येश्वरप्रयत्न जन्यत्त्रात् प्रयोगजनितत्वं न विभाजकम् ' इति तत्तच्छम् नाशेऽपि सामायापेक्षया भावशमादाय कारणकृतविशेषदर्शनादेव तदप्रत्यूहात् ईश्वरस्य निरासाथ | न 'वेदेवम्, व्यापारजन्यत्यमपोथ पत्नजन्यत्वेन स्वयमेवोपपादितः कृताऽकृतविभागो घटारादौ दुःस्याद् | यन्नजन्यताविशेषेण तदुपपादने च व्यापारजनिताऽविशेषेणापि तदुपपत्तेः, मायाप्रतिसंघानेऽपि विलक्षण स्व मात्र त्याला नुभव साम्राज्याश्च अत एव 'देवकुलादानुभूयमानं त्रिलक्षणोत्पादवच्यरूपं विशिष्टकार्यत्वमेव यन्नजन्यतानियमम्, न तु कार्यसामान्यम् इति शिपिविष्टखण्ड नेऽभिहितमिति । 1 + पुरुषव्यापाराज्जन्य उत्पादो द्वितीयः । पुरुषेतरका रफव्यापारजन्यत्वं तु स्वरूपकथनमस्य, न तु लक्षणम्, प्रायोगिकेऽतिव्याप्तेः । तन्मात्रजन्यत्वं गुरुत्वाद विश्राम्यति, इति प्रायोगिकस्यापि द्रव्यापेक्षया स्वाभाविकन्याद् नैव युक्तम्' इति स्वपरिणत न यस्याभिधःनम्, तदपेक्षयोत्पादस्याभावादेव - प्रायोगिक - स्वाभाविकयन्यादयोर्भेदे प्रायोगिक काले यत्नेत्तर कारणानी सध्ये स्वाभाविकोपादापत्तिशरणाय तत्र यत्नप्रतिबन्धकत्वादिगौरवात् कल्पित एवायम्" इति चेदन, अभ्रादौ विलक्षणत्वादस्यानुभवसिद्धत्येन तत्यतिबन्धकन्नादिकल्पनागौरवस्यावाचकत्वात् यत्नेरहेतुना स्वभावोत्कभावेन प्रायोगिककाले स्वाभाविकानुत्पत्त्या सन्मतिबन्धकत्वाऽकल्पनाच्चेति । · | प्रयोगजन्यत्व को विभाजक उपानि मानने में शंका ] प्रस्तुत विश्वार में कलिपस विद्वानों का यह कहना है कि-नाश के समान उत्पाद को जम्य मानने पर भी उस में प्रतियोगो से अतिरिक्त किसी पदार्थ द्वारा कोई विशेष नहीं होता । अर्थात् उत्पाद चाहे वह पुरुषव्यापार से जन्य हो या चाहे विनता स्वभाव से जन्य हो उत्पाद समय में कोई अन्तर नहीं होता। यदि होता है तो उसे घट मेघावि उत्पथमान पदार्थों से उन का पार्थवच करने पर ही होता है। अर्थात् 'घटस्योत्पाषः' 'मेघस्योत्याय:' इसप्रकार प्रयोग से ही उत्पाद में लक्षण्य की प्रतीति होती है। अतः उत्पाद में प्रयोग और खिसा रूप फारणकृतविशेष का दर्शन न होने से, कारण के आधार पर उत्पाद का प्रयोगजनितत्व और दिलसाजनितत्य रूप से विभाग नहीं हो सकता। यदि यह कहा जाय घट पट आदि के उत्पादों में कुलाल तन्तुवाय आदि विभिन पुरुषों के प्रमत्नमन्यथ का वर्शन होने से और यदि के उत्पाद में उस का दर्शन न होने से उत्पाद का उक्त विभाग हो सकता है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ईश्वर प्रयत्न कार्यमात्र का जनक होने से सभी उत्पादों में प्रयत्नजन्यत्व समान है। अतएव प्रयत्नजन्यत्वरूप प्रयोगजनितत्व किसी उत्पाव का व्यावकम होने से विभाजक नहीं हो सकता । [ प्रयत्नजन्यस्य के दर्शन-अदर्शन से विभाजन की उपपत्ति ] किन्तु यह कथन रद्ध है- क्योंकि नाश के समान उत्पाष का विभाग भी हो सकता है । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] कहने का आशय यह है कि नाश में भी सामान्य की अपेक्षा भाषांग को लेकर हो कारणकृतविशेष देखा जाता है, वह नाश के साथ अनुसरा भावांग के द्वारा ही होता है। तात्पर्य यह है कि तन्तुओं के पृथक्करण से पटका लगा होता है। तब पृथक्कुल तत्तु में पुरुष प्रयत्न जन्यत्व का दर्शन होता है किन्तु जब बायु के तीव्र आघात से मेघपटल का नाश होता है सब उस में किसी भी प्रकार से पुरुषमा का मन नहीं होता और इसप्रकार कारणकृत विशेषवर्शन और उस के प्रदर्शन के आधार पर ही नाश का प्रयोगजन्यत्व और विवसाजनितवरूप में विभाग होता है तो बसे उक्तरीति से नाश के विभाग की उपपत्ति होती है उसीप्रकार उत्पश्व के विभाग की भी उपपत्ति हो सकती है । क्योंकि प्रयोगनित और बिलमाजनित उत्पाद में उत्पादसामान्य की दृष्टि से कोई भेव न होने पर मी उपमान घट-पट आदि में कारणकृत विशेष का दर्शन होता है। आशय यह है कि घटपटादि में gore का वर्शन होने से उत्पाद में भी पुरुषप्रयत्नजन्यत्व गृहीत होता है किन्तु बिलसाजमित उत्पाधस्थल में पद्यमान में पुरुषप्रयत्नजन्यस्व का दर्शन न होने से उस उत्पादक ईश्वरप्रयत्नजन्म होने पर भी प्रयत्नजन्यस्व का दर्शन नहीं होता। अतः पुरुषप्रयामजन्यत्व के वर्शन और अदन के आधार पर उत्पाद का भी प्रयोगजनितस्थ और विसाजनितस्वरूप विभाग होने में कोई बाधा नहीं हो सकती। सच बात तो यह है कि ईश्वर में जगत्कर्तुं स्व प्रमाणाभाव होने से असिद्ध है, अतः विमसाजनित में भी ईश्वरप्रयश्वभ्यत्व बता कर उस की अध्यावत्तकता बताते हुये उस के विभाजकत्व का निराकरण नहीं किया जा सकता । [यनन्यत्वा वन-दर्शनाचीज है ] 4 यदि प्रयत्नजन्यश्व के दर्शन और अदर्शन के आधार पर उत्पाद का घट और अंकुरादि में क्रमशः कुलादि के रूपालसंयोजनरूपयापारजन्यत्व और मेघ के जलवर्षण रूपव्यापारजन्यश्य होने के कारण, व्यापारजन्यश्व का स्मरण कर परजायत्य से जो कृत और अकृत का बिभाग किया गया है उसकी उपपति न हो सकेगी क्योंकि उक्तपक्ष में यत्नन्यत्व दोनों में समान है । अन्तर केवल हो है कि घटादि में बस्तअन्धत्य का दर्शन होता है और अंकुरावि में नहीं होता। अतः प्रश्नजन्यस्व के दर्शन और अदर्शन के आधार पर उक्तरूप से किये गये उपाय के विभाजन का निराकरण नहीं किया जा सकता इस के विपरीत यदि यह कहा जाय कि घट-अंकुरादि में कृताकृत का जो विभाग किया गया है वह यस्नजन्यस्थ के दर्शन या अदर्शन के आधार पर नहीं किन्तु नजन्यता के वैलक्षण्य से किया गया है। अर्थात् घटावि यह यत्न को असाधारणजभ्यता का आश्रय होने से कृत कहा जाता है और यहन की साधारणजन्यता होने से अंकुमावि अकृत कहा जाता है। सोय ठोक नहीं, क्योंकि इस स्थिति में व्यापारजन्यत्व का त्याग करना निर्युसिक हो जायगा क्योंकि घटादि में नेतनयापारजन्यत्व और प्रकुशवि में प्रवेतनश्यापारजन्यस्य होने से व्यापारजन्यता के सक्षम से भी उन में कृताकृत विभाग की उपपत्ति हो पाती है। दूसरी बात यह है कि अनन्य और विसाजन्य उत्पाद में उत्पद्यमान से अतिरिक्त पत्रार्थकृत थियोष का प्रतिसंधान नहीं होता है तो भी दोनों उत्पत्ति में विलक्षणस्वभावता का अनुभव होता हो है । अत एव उत्पत्ति के स्वभावलाय के आधार पर उक्त रोति से उत्पाद के विभाग में कोई यात्रा नहीं है। इसलिये 'वैषमन्विरादि में जो विलक्षणोपश्व का अनुभव होता है सहूपविशिष्ट कार्यत्व हो याजन्यता का वाध्य होता है. करवसामान्य व्याप्य नहीं होता यह बात शिव के जगव कर्तृत्व के निराकरण के अवसर पर सम्मति अति प्रत्थों में कही गई है । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रमा० त०७होर १ [विलसाजन्य उत्पाद का स्वरूप विवेचन] द्वितीय- विसावमित उत्पाब का लक्षण है पुरुषव्यापाराजन्य उत्पाद । यद्यपि इस उत्पाव में पुरुषेतर यो कारक, तव्यापारजन्याव रहता है, तपापि वह उसका स्वरूपकथन हो सकता हैलक्षण नहीं हो सकता, क्योंकि उसे लक्षण मानने पर प्रायोगिक उत्पाद में अतिग्याप्ति हो जायगी, कारण, वह से पुरुषरयापारजन्य होता है उसीप्रकार पुरुक्षेतरकारकम्यापारजन्य भी होता है। यदि पुरुषलरकारकण्यापारमात्रजन्मत्त्व लक्षण किया जाय तो गौरव होगा 1 प्रतः पुरुषघ्यापाराम्याय में हो उस को विधान्ति होती है, क्योंकि पुरुषतरकारकथ्यापारमात्रजन्यस्व का प्रर्य होगा 'पुरुषसरकारकव्यापार से जो इतर व्यापार उस से अजम्प होते हुये पुरुषतरकारस्यापार से जन्म होना' । यहां पुरुषतरकारकव्यापार से इतरायापार पुरवस्यापार ही होगा। अतएव ताहोतरव्यापार का अजन्याय पुरुषव्यापारजन्यस्वरूप हो होगा। प्रतएव इतने को ही लक्षण मानना चरित है। क्योंकि लक्षणशरीर में पुसदतरकारकच्यापारजन्यत्व का निवेश गौरवापारक है। कुछ लोगों का पह कहना है कि "प्रायोगिकोत्पाव भी तथ्य की अपेक्षा स्वाभाविक पानी पुरुषव्यापारानाथ होता है, अत: स्वाभाविक उत्पाद का उक्तलक्षण प्रायोगिक में अतिप्यास्त है" इस के उत्तर में व्याख्याकार का कहना है कि उक्त कपन नमानभिज्ञ पुरुष का कपन हो सकता है, पोकि प्रग्यापेक्षया उत्पाव होता ही नहीं। अतः प्रायोगिक उत्पाद में प्रध्यापेक्षया स्वाभाविकोपावस्व का घन असम्भव है। [ स्वाभाविक उत्पादकल्पना में गौरब की व्यावृति] पवि यह शंका की जाप कि 'प्रायोगिक और स्वाभाविक उत्पाद में मेव मानने पर प्रायोगिक उत्पादकाल में पस्त से इतर कारणों के रहने से स्वाभाविकोपार की भी मापत्ति होगी। क्योंकि पानेतरकारण स्वाभाविकजापान के जनक होते हैं, अतः इस आपत्ति का वारण करने के लिये स्वाभाविक- सापाव में प्रयल के प्रतियार करव को कल्पमा और स्वामाविकोपाव में प्रतिबन्धकाभ'पविषया प्रथनामाषजन्याय की कल्पमा में गौरव होगा। प्रतः उत्पाद का उतभेव कल्पितअसङ्गत है"-सो यह अधित नहीं है । क्योंकि मेय आदि में घट-पट आदि के उत्था से विलक्षणोपाय अनुभवसिद्ध है। असः उत्पादों में उक्त भेव आवश्यक होने से स्वाभाविकोपाव में प्रयान के प्रति सधारप पाबि को करपना से होनेवाला गौरव उक्तड की सिद्धि में धक नहीं हो सकता। दूसरी बात यह हैं कि यरन से इतर हेतुनों का स्वभावोत्कर्ष होने पर ही उम से स्वाभाविक स्पाव होता है। प्रायोगिकोत्पाबकाल में उन हेतुओं का स्वभावोत्कर्ष नहीं होता, इसीलिये प्रायोगिककाल में स्वाभाविकोपाव को आपत्ति नहीं होती । अतः स्पाभाविकोत्पाद में प्रयत्न के प्रतियशस्व की कल्पना भी अनावशरक है। स च द्विविधः-समुदयनितः कलिकच । तत्र मूर्तिमद्व्याश्यवारब्धः समुइयजनितः, इतरश्चकात्तिक । आयोग्भ्रादीनाम्पादः, घटादीनामप्यप्रथमतया विशिष्टनाशस्य विशिष्टोत्यादनियनत्वात्। न हि मूवियव संयोगकतत्वं समृदयजनितलम् , विभागकतपरमापायापादेऽव्याप्तः, किन्तु मुनावयनियसत्यम् । तत्र तदवस्थाश्यवस्याप्यवस्थाविशेपात संभवीति । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाका टोमा एवं हिन्दी विरेचन ] द्वितीयस्तु गगन-धर्माऽधर्मास्तिकायानामवगाहक--गन्त-स्थावन्द्र व्यसनिधानतोऽवगाहन-गति स्थितिक्रियोत्पतेरनियमेन स्यात्परप्रत्ययः, मनिमदमतिमवयवद्रव्यद्वयोत्पाद्यत्वात अवगाहनादीना स्यादिकविकः स्यादनकत्त्विकरचेति भावः । तदुक्तम्-[सम्मति प्र०-१३० ] ** साभाविओ वि समुदयकउ न एगत्तिड ब होआहि । आगासाईआणे तिण्ई परपञ्चोऽणियमा ॥१॥" इति । [स्वाभाविकोत्पाद की विविधता] स्वाभाविकोपाव के वो मेव हैं-[१) समुदयनित और (२) ऐकस्विक । उन में को उत्पाद भूतिमायारमक अवयवों से निष्पन्न होता है वह तमुवयनित कहा जाता है। उस से भिन्न स्वमाबजनितोत्पाद को ऐकत्विक कहा आता है। हम में प्रथम है अनादि का उत्पाद । पहा यह विशेष ज्ञातव्य है कि पावितव्य भी रितीयतसीमावि क्षणों में पहले के जैसा ही नहीं रहता किन्तु पूर्वक्षणोत्पत्रपर्यायविशिष्टात्मना उत्तरक्षण में उस का माश होता है और विशिष्ट का मास विशिष्टोत्पावधाप्य होता है इसलिये उन क्षणों में नम्रीनपर्यायविशिष्ट घटादिका उत्पाद भी होता है और यह उपाय पुरुषव्यापार से अन्य और मसिमथ्यात्मक अवयवों से प्रारम्ध होता है प्रतः यह भी स्वाभाविक समुवयजनित उत्पावरूप है। पर भी जान लेना जरूरी है कि भूप्तिमनध्यावपवारस्यस्वरूप जो समुबयजनितरव है यह मुषियवसपोगकृतस्त्र रूप नहीं हो सकता योकि ऐसा मानने पर स्थलब्ध के विभाग से होनेवाले परमाणु आधि के उत्पाद में अध्याप्ति होगी। किन्तु, मूतापवनिमसस्वरूप है और विभक्तावस्थ परमाणुरूप अवयव में भी अवस्था विष की अपेक्षा मूर्ती.. बपनियतत्व है । आप माह है कि किसी स्थसमय का विभाग होने पर जब उस के परमाणु विकीगं हो जाते हैं उस अवस्था में उन में मृविपच का सम्बन्ध नहीं रहता किन्तु वह जिस स्थलास्य के विभाग से विकोण हुआ है उस स्थलाध्य को अवस्था को अपेक्षा मूवियव से सम्बद्ध होता है पयोंकि उस स्पूलद्रय के पवित्रतावस्था में उस के घटक सभी परमाण परस्पर सम्मान होते है। [ऐकन्त्रिक म्वाभाविक उत्पाद का स्वरूप] ऐकस्मिक स्वाभाषिक उत्पाद काल पा प्रत्यय पानी अन्याधीनवृत्तिका होता है, क्योंकि आकाश, धर्म और अधर्म रूप प्रस्तिकाय द्रव्यों में अवगाहक गन्ता और स्थाता बश्य के सानिधानमा से, अर्थात अवगाहनादि किसानों के आधारसापर्याय के बिना अवगाहन, गति और स्थितिरूप क्रियाओं की उत्पत्ति का नियम नहीं है । तात्पर्य यह है कि प्रयगानावि क्रियाएं मृत्तिमवरपव इस्य पौर अमूसिमक्वयय कपरूप प्रपतय से उत्पन्न होती है, इसलिये ऐकरिषमस्वाभाविक उत्पाद केवल ऐकस्विक ही नहीं होता किन्तु कपित ऐकश्विक और सचिन अनेकत्विकरूप होता है । कलने का भाग्य यह है कि आकाशावि में अवगाहकाधि प्रज्य के संमिथान से आकाशावि वष्य में अवगाहनादिअधिकरणसाप पर्याय उत्पन्न हो जाने पर यदि ताश पर्मय विशिष्ट गगनादि में ही कारणत्व की विषक्षा की जाए तो उस विवक्षा से माकाशावि का उत्पाव ऐत्विक और उक्त अधिकरणतारूप * स्वाभाविकोऽपि समुस्यतो नाल्विको वा भविष्यति । आकाशादिकानां त्रयाणां पर प्रत्ययोऽनियमात् ॥ १।। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवा० त० ७ ० १ पर्याय के अवगाहादि प्रथ्यों के संविधान की अभावदसा में उप होने के कारण यदि उन अयगाहकवियों में मो कारण की विवक्षा को जाय तो उस अधिकरणता पर्याय विशिष्ट माकाशावि और उक्त पर्याय के सम्पादक संविधान के प्रतियोगी श्रवगाहकादित्य दोनों में कारगर की विवक्षा से वित् अनंकटिक होता है। जैसा कि सम्मतितर्क ग्रंथ (तीसरे काम गाथा १२०) में कहा गया है--'स्वाभाविक उत्पाद भी समुदयकृत और ऐकल्पिक होगा। आकाश, धर्म और प्रथमं नसीम काय का उत्पाद अनियम से कचित् परप्रत्यय ( अनेक स्थिक) होता है ।' अथाकाशादीनां मूर्तिमद्रव्यानारब्धत्वे निरवयत्वमेव स्यादिति तनायमनेकान्त इति पेन, प्रदेशव्यवहारस्याकाशेऽपि दर्शनेन तस्य सावयवत्वात् । न च 'आकाशस्य प्रदेशः : ' इति व्यवहारो मिथ्या आरोपनिमित्ताभावाद । न चान्पाप्यवृत्तिसंयोगाधारत्वकृतस्तदध्यारोपः, तथा सति तत्र तस्यैवानुपपत्तेः अवयविनि देशेन संयोगस्यावयवावच्छिनत्व नियमात् । प्राय दर्शनात अपावृप। नन्वेवं परमार - पर्यायार्थता दिसंयोगान् पशता स्यादिति चेत् ? स्यादेव द्रव्यार्थनयेव तस्य निरंशत्वाद, तु सशिताया अप्यभ्युपगमात् । अत एव 'सावयवमाकाशम्, समवायिकारणत्वात् पटवत्' इत्यपि प्रसङ्गापादनं संगच्छते । संगच्छते व 'सावयवमाकाशम् हिमवद्-विन्ध्यावरुद्धभिन्नदेशस्वात् तदधदेशभूभागवत्' इत्यादि । + , , [ आकाशादि द्रव्य में सावययत्व सिद्धि ] शंका हो सकती है कि आकाशादि अस्तिकायव्य यदि मूर्तिमध्य से अमार होते हैं तो वे अवश्य मिरवयय ही होंगे, अक्षः उन का उत्पाद अनेकान्त गमित नहीं हो सकता' - कितु यह ठीक नहीं है, क्योंकि आकाश में भी प्रवेशव्यवहार वेळा जाता है, अतः वह सावयव है। यदि यह कहा जाय कि 'आकाश में प्रदेशव्यवहार मिम्या से तो यह ठीक नहीं है क्योंकि आकाश को निष्प्रवेश मानने पर उस में प्रवेशया के आरोप का निमित कौन ? कोई निमित्त नहीं है। यदि यह कहा जाय कि आकाश में को व्याप्यवृत्तिसंयोगको आधारता होती है वही आरोप का निमित्त है' - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि आकाशा को निष्प्रवेश मानने पर उस में वह आधारता ही नहीं उपपन्न हो सकती। क्योंकि अवययोग अध्याध्यवृत्तिसंयोग में अवयवावच्मित्व का नियम सिद्ध है क्योंकि वृक्षादि में या संयोग को ही उपलब्धि होती है। यदि यह नियम न माना जायेगा तो के से वृक्ष के मूलाकि भाग में वृक्ष में होनेवाले संयोग की अवकता होती है उसी प्रकार वृक्ष प्रवयव में भी बृजवृत्तिसंयोग के अवच्छेदक की मापत्ति होगी। इस पर यदि यह शंका की य कि नियम मानने पर परमाणु को भी वश मानना होगा क्योंकि उस में छ: विशाम्रों का चक्याप्यवृत्ति संयोग होता है ।" इस का उत्तर यह है कि परमाणु में पर्यायार्थिक से शा अभिमत है, forय से ही वह निरंश होता है। यह भी ज्ञातव्य है कि जैसे वृक्षादि में सपायत्तिसंयोग में अवयवात्व का नियम सिद्ध है उसीप्रकार पदादि अवयवो थ्यों में समवायि कारणत्व में सावयवत्व का नियम भी सिद्ध है। अतः आकाश को सभ्य का समवायिकारण मानने वाले नेयाविक के प्रति यह प्रसङ्गपावन भी सत हो सकता है कि प्राकाश यदि समयाधिकारण Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मा• क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] होगा तो यह सरवपत्र भी होना । तथा यह अनुमान भी संगत हो सकता है कि- "आकाश सावयव है, क्योंकि वह हिमालय और विन्ध्याचल पर्वतों से देशभेद से अवरद्ध है। जो वेशभेद से अवरुद्ध होता है वह सावयव होता है जैसे उन्हीं अवयवों द्वारा बेषामेव से अवरुद्ध भूखण्ड ।" ११ किञ्च, आकाशस्य सावयवत्वाभावे 'इह पक्षी' इति धीरनुपपन्ना स्यात् । न च 'हद्द' हत्या लोकमण्डलमेव प्रतीयत इति पापम्, तदालोकव्यक्तेरन्यत्र गतावपि तद्दर्शनात् । न चालोकान्तरं तद्विषयः, 'तत्रैव' इति प्रत्यभिज्ञानात् । न चालकत्वेनैव सदाधारत्वाद् न नदनुपपतिरिति वाच्यम्, आलोकाभावेऽपि 'तंत्र' इति प्रत्यभिज्ञानात् । न च मृर्वद्रव्याभावाधारत्वेन तदुपपतिः, आलोक सति तदभावात् । न निविडमृद्रव्याभावस्तदाप्यस्त्येवेति वाच्यम्, तस्यान्यत्रापि लवेनान्यत्र गतेःपि पक्षिणि प्रत्यभिज्ञापतेः देशविशेषमवच्द्रक प्रतीत्यैव 'इह पक्षी' इति प्रयोगाच्च । न चाकाशदेशम्यादीन्द्रियत्वेनावच्छेदकप्रतीत्यनुपपतिः, अबुद्धी] ताशस्यापि क्षयोपशमविशेषेण विशेष्याकृष्टतया भावात् । [ 'पक्षी' इस वृद्धि की सायवन्त्र पक्ष में ही उपपत्ति ] इसके साथ ही यह भी तथ्य है कि यदि प्रकाश सावयव न होगा तो आकाश में 'यहाँ पक्षी है' इस वृद्धि की उपभी हो। योंकि इस प्रकार की बुद्धि मानयव द्रश्य में ही होती है। जैसे पर्वत में यह अग्नि है', वृक्ष में 'यहाँ बंदर है इस्थादि । यदि यह कहा जाय कि "उक्त बृद्धि में 'यहाँ' इस शक्य से आकाश का कोई भाग नहीं प्रतीत होता किन्तु आलोक प्रतीत होता है अर्थात् आकाश में 'यहाँ पक्षी है इस का अर्थ होता है आकाश में इस आलोकमण्डल में पक्षी है ।" ती यह ठीक नहीं है क्योंकि जिस धालोक व्यक्ति में उक्त बुद्धि नाम जायगी उस आलोकव्यक्ति के अन्य ले जाने पर भी उसी स्थान में जहां पहले आकाश में 'यहाँ पक्षी है यह बुद्धि हुई थी वही पुनः भी उसी प्रकार को बुद्धि होती है। बाद में होने वाली उस मुद्धि में यरि अन्य आलोक का पक्षी के अधिकरणरूप में मान माना जायगा तो आकाश में इस समय भी पक्षी वही हो है जहाँ पहले या इस प्रकार को जो प्रत्यभिज्ञा होती है उस को उपपसि न हो सकेगी क्योंकि पूर्वकाल में उत्पन्न उक्त बुद्धि का पक्षी के प्रधिकरणरूप में विषयभूत आलोकव्यक्ति और उत्तरकाल में होनेवाली उबुद्धि का पक्षी के अधिकरणत्व में विषयभूत प्रालोकदम कि भिन्न है। | आलोक सामान्य की पक्षी आधारतया प्रनीति असंभव ) यदि यह कहा जाय कि "विभिन्न आलोकव्यक्ति को आलोकत्वसामान्यरूप से पक्षी का आधार मानने पर उक्त प्रत्यभिज्ञा की अनुपपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि पालोकयसामान्यरूप से आलोक को पक्षी के आधार में उक्त प्रसोति कर विषय मानने पर उक्त प्रत्यभिज्ञा का इस समय श्री आलोक में ही पक्षी है' यह अर्थ होगा और इस में कोई अनुपपत्ति नहीं है' । सो यह ठीक नहीं है क्योंकि मालोक का अभाव हो जाने पर भी दिन में पक्षी जहां वेला गया था-रात्रि में मो यदि किसी साधन से उस स्थान में पक्षी बेला जाता है तो उस के आधारदेश की इस रूप में प्रत्यभिज्ञा होती है कि Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૨ [ शास्त्रमा स्त७ बलो. १ "दिन में जहाँ पक्षी था-इस समय रात में भी पक्षी यहाँ ही है इसप्रकार की प्रत्यभिज्ञा होती है, अतः प्रत्यमिता का उक्त अयं स्वीकार करने पर भी उसकी उपपत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि रात के समप पक्षी आलोकसामान्यनिष्ठ है ही नहीं। [मृतद्रव्याभाव में पची-आधारता की प्रतीति अयुक्त ] यदि मूर्तद्रव्याभाषको पक्षी का प्राधार मान कर उक्तप्रतीति और प्रत्यभिज्ञा की उपपति की जाए तो यह भी ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि आलोक के रहने पर मूर्स तस्य का अभाव न होने से बिम में उक्त प्रतीति की उपपत्ति न हो सकेगी। निबिडमूर्तभूयात्राय पालोक के रहने पर भी रहता है अत: पक्षी के आधाररूप में उस का भाम मान कर भी उक्त प्रतीति और प्रत्यभिक्षा की उपपत्ति नहीं की जा सकती, क्योंकि ऐसा मानने पर प्रात:काल जाहाँ पक्षी वेजा गया पा-मध्याह्नकाल में उत्त स्थान से पक्षी के अन्यत्र चले जाने पर भी इसप्रकार प्रत्यभिना की आपत्ति होगी कि.. प्रातः काल जही पक्षी वेला गया था इससमय (मध्याह) में भी पक्षी यहाँ ही है सप्रकार को प्रात्यभित्रा को आपत्ति होगी, क्योंकि इस पक्ष में उक्त प्रत्यभिशा का यह अर्थ होगा कि प्रातःकाल जिस निवित्रमूर्तद्रस्यामाव में पक्षी था-मध्यान में भी जत्ती निविद्यमत्तंबण्याभाष में पक्षी है और इस में कोई अनुपपत्ति नहीं है, क्योंकि अधिकरणमेव से अमावमेव न होने के कारण जिस स्थान में पूर्वकाल में पणी वेजा गया था मध्याह्नकाल में वहां से हट जाने पर भी जिस दूसरे स्थान में पक्षी की उपलब्धि होती है, पक्षी के प्राचाररूप से भासित होनेवाला निविस्मृतद्रव्याभाव उन दोनों स्थान में एक ही है। [इन्द्रियजन्य बुद्धि में बयोपशम के प्रभाव से आकाश का मान ] दूसरी बात यह है कि इह पक्षो' यह प्रयोग प्रवन्धेवकरूप में देशविशेष को प्रहण करनेवालो प्रतीति के अनन्सर हो होता है। अत: इस प्रयोग की प्रेरक प्रतीति को पक्षी के अयम्वकरूप में देशविशेष की हो ग्राहक मानना होगा जो आकाश को निष्प्रवेश मानने पर असम्भव है। यदि यह का को अश्य कि यघि उक्त प्रयोग को पक्षों के अवच्छषकरूप में देशविशेष को ग्रहण करनेवाली प्रतीति पर ही निर्भर किया जायगा तो आकाश को प्रदेशबान मानने पर भी उसकी उपपत्ति नहीं होगी क्योंकि भाकाश का प्रवेश अतोद्रिय होता है अतएव पक्षी के अयच्छेपारूप में उस को विषय करनेवाली प्रत्यक्षात्मक प्रतीति नहीं हो सकती तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इन्द्रिमजन्य बुद्धि में प्रतीन्द्रिय देश का भी सयोपशामधिशेष से विशेष्य के सम्बन्धीरूप में भान होता है, जैसे न्यायम्त में शानलक्षणा सनिकय से अन्वन के चाक्षुष प्रत्यक्ष में उस के मुगन्ध का भान होता है । एतेन 'पृथिवीभागोर्धनादिभेदापमया नत्रय मूर्तद्रव्याभावे भेदाभेदव्यय हारोपप निः, अत एवान्यत्र गतेऽपि पतत्रिण पूर्वानुभूतानःस्थितथिव्यादियानन्द्रागोवताभ्रम 'तत्रव पन्त्री' इति भति प्रत्यभिज्ञानम्' इति निरस्तम् , 'इह गगने पात्री' इत्यत्र नियन्मियावच्छेदकस्य स्फरणान् आकाशदेशभेदाभावे पृथिवभागोध्यतादिभेदर्यवानुपपनश्च । एवं घ नात्याच्यादिव्यवहारभेदेना बाकाशभेदसिद्धिः, 'ततः प्राच्यामया' इत्यत्र तदपेश्चया मंनिहिनोदयाचलसंयोगावच्छिमाकारावृत्तिश्यम्' इत्यर्थात् दिशोऽनतिरेकान , तदपचनस्य संनिहितत्वस्य ५ सथास्वभावविशेषत्वात् । 'प्रयागान् प्राच्या काशी' इत्यनः 'प्रयागनिष्ठोदयाचलसंयुक्तसंयोग Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्या. टीका एवं हिन्वी विवेशन ] पर्याप्तसंख्यापर्याप्त्यनविकरणोदयाचलसंयुक्नसंयोगशालिमूतवृत्तिः काशी' इत्यन्त्रयस्तुच्छुड्सलाना कापनामात्रम् , तथाननुभवात् , अनुभवप्रवचनाभ्यामाकाशस्यैच सर्वाधारत्वेन क्लृप्ततया दिक्त्वेन मूर्चस्पानाधारवान्चेति दिग्। [अवता भंद से मिवाधार प्रतीति का उपपादन-पूर्वपक्ष ) कुछ विद्वान पृथ्वी के उच्चावच भाग रूप अवधि भेद से तथा एकाधिक अवता के तारतम्य से एक ही भूमामांव में मेव और अमेव पवहार की उपपसि करते हैं। जैसे, पृथ्वी के किसी एक भाग की अध्यता को दृष्टि से उस में ममेदवान और अमेव पयहार होता है। तथा, उस भाग की कता के तारतम्य से एवं पृथ्वी के प्रन्यनाग की अर्शता को इण्टि से उस में नेवज्ञान और मेवव्यवहार होता है। ऐसा मामने से पूर्व काल में जिस स्थान में पक्षी दृष्ट होता है उस से भिन्न स्वाम में पक्षी के चले जाने पर जहां पूर्वकाल में पक्षी था वहां को इस समय भी पक्षी है इसप्रकारको प्रत्यभिषा की आपसि माह हो सकतीपयोंकि पूर्वकाल में इष्टा से अधिष्ठित मुभाय से पक्षी जितनी ऊंचाई पर बीता था-स्थामाग्तर में चले जाने पर वह पनी दृष्टा से अधिष्ठित स्थान की ऊँचाई से प्रम्य, समान न्यूम अथवा अधिक ऊंचाई पर धीखता से, प्रतः अभवता के मेव से पक्षी के आधाररूप में प्रतीत होनेवाले मूतंमध्याभाव में मेव हो जाने से आधार परिवर्तित हो जाता है। भिन्न भिन्न स्थान से अत्यभिज्ञा की अनुपसि की शंका ] इस पक्ष में महगंका हो सकती है कि "कोई मनुष्य कुछ समय पूर्व पृष्धी के जित निम्नभाग से परी को जिस रूमान में देखता है पो समय बाद वह मनुष्य उस निम्न माग को छोड़कर अभिमुख पृष्षो के उध्वं भाग पर पहुँचने पर भी क्षी को वहाँ ही देखता है और इसे इस प्रकार को प्रत्यभिता होती है कि 'मो समयपूर्व पक्षी महा था इससमय भी पक्षी यहा ही है' । पृथ्वी भाग से ऊपता के तारतम्य से भूसंख्याभाव मे भेद मानने पर इस प्रत्यभिज्ञा को उपपत्ति न हो सकेगी। क्योंकि यो समय पूर्व पृथ्वी के मिस साग से पक्षी देखा गया था, चोखे समयबाव पृथ्वी के ऊंचेभाग से जब पक्षी बोलता है तब पृथ्वी के दोनों भाग से पक्षी के प्राचाररूप में प्रतीत होनेवाले मूतम्याभाव में अवंता के तारतम्य से भेव हो जाता है।" भिन्न भिन्न स्थान से प्रत्यमिक्षा की उपपत्ति ] इस शंका का उतर मह है कि मनुष्य को पूर्व समय में जितनी ऊंचाई पर पक्षी बौखा थापक्षी के पापाररूप में प्रतीत होनेवाले मुत्तम्मामाध में उतनी ही ध्वंसा का उत्तरकाल में भ्रम हो भाने से थो समय पूर्व पृथ्वी के मधोभाग से पक्षी के आधाररूप में सीखनेवाले मृत्तव्याभाव में और धो समयबाद पृथ्वी के अध्यनाम से पक्षी के माभयरूप में वीखनेवाले मूर्तद्रव्याभाव में भेद व्यवहार नहीं हो सकने के कारण उक्त प्रत्यभिक्षा में कोई माथा नहीं हो सकती। [निरव निछम्म भाग की आधारताप्रतीति पूर्वपत्र में अनुपपन-उत्तर पक्ष ] किन्तु यह मत इस युक्ति से निरस्त हो जाता है कि "श गगने पक्षी-RIETY में इस भाग में पक्षी है इस प्रशीति में आकाश मे पक्षी की आश्रमता के अवक्षेवक रूप में भासित होनेवाला भाग निरवच्छिन्न ही मासित होता है। किन्तु यदि इस प्रतीति में अबस्वकरूप से मासित होनेवाले भागको Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रात्ता. स्त. लोग है मूसंनयामावरूप माना जायगा और पक्षी को आश्रयता के अवशेषकरूप में उक्तप्रतीति में मिरवच्छिन्नरूप में भान माना जायगा तो इस समय पसी मही है, वहां नहीं है इस प्रसीति की उपपति न हो सकेगी क्योंकि 'यहाँ-वहां इन दोनों शम्बों से मतंत्रव्याभाव हो गृहित होगा और वह यहाँ वहाँ उभयत्र एक ही है । अतः इस प्रसीसि की उपपति यहाँ सम्प नीका ए मा अध्र्वता विशिष्ठ मूर्तच्याभाव और वहाँ शम्द से अन्य भागावधिकोयताविशिष्ट मूर्तद्रव्यामाग का ग्रहण करना होगा । प्रत: मूर्तद्रव्याभावरूप अवश्यवक का तप्तवता से अवधिवत रूप में हो भान होने से 'आकाश में इस भाग में पक्षी है-इस प्रतीति में निरवच्छिन्नावच्छेनकाय को उपपत्ति महो तोगी। (आकाश निरंश मानने पर वनादिभेद की अनुपपति ] इसके अतिरिक्त इस मत में दूसरा घोष पर है कि प्राकामा में भेव न मानने पर पहुंची भाग से ऊवतादि का मेष उपपता ही नहीं हो सकता । क्योंकि ऊर्यता का भेव उसी में उपपन्न हो सकता है जिस में आपेक्षिक उच्चाषच माष हो । मसंतव्यासाय तो एक और मिरंश होने से उस में उसचावच भाव नहीं है, अतः उस में अर्यता का तारतम्य मेव नहीं हो सकता और यदि इस के लिये असे प्रदेशवान माना जायगा तो केवल नाममात्र में ही विधान रह जायगा क्योंकि ऐसे परार्थ को पूर्वपक्षी प्रवेशवान् मूर्सयभावा कहता है और सिसाम्ती प्रवेशवान् आकाश काष्ठता है। [ पूर्व-पश्चिम आदि भेद व्यवहार से आकाशभेद ] इसोप्रकार जैसे 'महाँ आकाश में पक्षी है वहीं नहीं है इस व्यवहार से प्राकाराभव को अति प्रदेशमेव भिन्न आकाशमेव की सिद्धि होती है उसीप्रकार पूर्व-पश्रिम प्राधि के व्यवहारभेव से भी आकाशाभव की सिद्धि होमी है। क्योंकि सप्तः प्राच्यामयम= मह उस से पूर्व में है इस ग्यवहार का आकाश से मिन्न विशारूप पदार्थ जनमत में न होने से यह मर्थ होता है कि यह उस की अपेक्षा संनिहित उच्याचलसंपोगाव भिडमाला में रहा हआ है। इस अर्थ में उबयाचल में प्रतीत होनेवाला तापेभाव अर्थात 'उसकी अपेक्षा' और 'सनिहिताव' मानी 'उस से समीपस्थ होना'-यह उवयाचल का स्वभावविशेष है। ['प्रयाग से काशी पूर्व में है। इस प्रयोग का दिग्द्रव्यवादीकन अर्थ ] कुछ लोगों को यह मान्यता है कि 'प्रधागाव प्रास्या काफी - काशी प्रयाग से पूर्व में है। इस व्यवहार का अर्थ यह है [क प्रमाग में जितमे उबयाचलसंयुक्तसंयोग है उन मे मो संख्या पर्याप्तिमम्बन्ध से विद्यमान है उस संख्या के पर्याप्तिसम्बन्ध से अनधिकरणभूत उज्याचरूसंयुक्त संयोग के आश्रयभूत भूभाग में काशी है। आशय यह है कि प्रयाग और उदयाचल के मध्य में जितने मूतंद्रम्म हैं उतने मृताध्यों में उपयाचल संयुक्त विफ का संयोग है। सीप्रकार काशी पौर उमाचल के माय जिसने पूर्सद्रस्य हैं, उन में भी उदयाचल संयुक्त विकका संयोग है। स्पष्ट है कि प्रयाग और उवयाचल के मध्यवर्ती मूर्तप्रव्यों की संख्या से काशी और उदयाचल के मध्यवर्ती मुस्ताय को संख्या न्यून होमे से प्रयाग और उदयाचल के मध्यवती मुविध्य संयोगों की संख्या से काशी और उत्याचल के मध्यवत्तौ मूर्सनग्य संयोग की संएमान्यन है अतः न्यूनत्यका संयोग, अधिक संख्या वाले संयोगों में पर्याप्तिसम्बन्ध से विद्यमान संख्या का पर्याप्तिसम्बग्भ से अनविकरण है। तमा इम संयोगों का, स्वाश्रयविक्संयोगसम्बध से प्रधिकरण, या भूखण्ड है जहाँ काशी पलो हुई है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा० क० टोका एवं हिन्दी] १५ [ दिद्रव्यषादीकृत अर्थ अनुभव विरुद्ध है ] feng sureurore मे ऐसे लोगों को उच्छल कहते हुये उन की इस मान्यता को इस आधार पर नियुकि रिया है कि उक्त व्यवहार से ऐसे अर्थ का बोध अनुभविक नहीं है किन्तु 'काशी प्रयाग को अपेक्षा संनिहित उदयाचल संयोगाछित आकाश में है इस प्रकार का बोध ही अनुभविक है। दूसरी बात यह यह है कि मनुभव और आगम से माकाश हो सर्वाधार रूप में सिद्ध है अतः का से free freeार्थ में कोई प्रमाण न होने से सूतंपदार्थ को विगुपाधि मान कर कि मानना और उस में किसी की आभारा मानना उचित नहीं है। अतः काशी को उक्त प्रकार के मूलं मूखण्ड में बताना असङ्ग है । I चपयोऽपि स्वाभाविकः प्रयोगजनितश्चेति द्विविधः । तद्वयातिरिक्तस्य वस्तुनोऽमात् पूर्व विस्थाविगमव्यतिरेकेणोत्तरावस्थोत्पत्त्यनुपपत्तेः । न हि बीजादीनामविनाशेऽङ्करादिकार्यप्रा दुर्भावो दृष्टः । न चावगाह - गति स्थित्यावारखं तदनाधारत्वस्य भावप्राक्तन [वस्थाध्यं समन्तरेण संभवतीति । तत्र समुदयजनित उभयत्रापि द्विविधः समुदयविभागरूप एकः, यथा पढादेः कार्यस्य तन्त्वादिकारणपृथक्करणम् । अन्ययार्थान्तरभावगमनलक्षणः, यथा मृत्पिण्डस्य पार्थान्त रभाषः । नाशत्वं वास्याजनकत्वस्वभाषापरित्यागे जनकम्यायोगात् । न चैवं घटविनाशे मृत्पिण्डप्रादुर्भावप्रसक्तिः पूर्वोचरावस्थयोः स्वभावतोऽसंकीर्णत्वात् वस्वन्तररूपे वस्त्वन्तररूपस्वापादयितुमशक्यत्वात् । ऐकल्विनाशश्चैकविकल्पाद्वैत्रसिद एवेति । तदुक्तम्* विगमस्स वि एम विद्दी समुदयजणिअम्मि सो उ दुवअप्पो । समुदय विभागमेतं अन्यंतर भावगमणं या ॥" [ सम्मति १३१ ] इति । , [ नाश का दो प्रकारः- स्वाभाविक प्रयोगजनित ] स्वाभाविक और प्रयोग रूप में उत्पाद के समान वो प्रकार का नाश भी प्रामाणिक है क्योंकि उत्पत्ति और नाव से मुक्त वस्तु का अस्तित्व नहीं होता। पूवस्था के विनाश हमे बिना उसरावस्था की उत्पत्ति नहीं होती। जैसे बीज आदि का विनाश हुये बिना मकुर आदि कार्य का प्रादुर्भाव कहीं नहीं देखा जाता। आकाक्षा धर्म और अधर्म ग्रध्य में अवगाह- गति और स्लिके प्राक्तम आभारतास्वभाव का विनाश हुये बिना अथगाह-गति स्थिति की आधारसारूप पर्याय का उदघ नहीं होता । उक्त द्विविध विनाश समुवमलमिल होता है और वह विनाश को प्रकार का होता है(1) समुदमविभागरूप-जैसे पट आदि कार्य का सर आदि कारणों से पृथक्करण और (२) अर्थारूप में वस्तु का गणन अर्थात् पूर्ववस्तु की उतरावस्था की प्राप्ति जैसे स्विका घट अर्थान्तर में गमन । श्रर्थात् पिण्डावस्या का परित्याग कर मुद्रश्य द्वारा घटावस्था का प्रण । वस्तु *विगमवाप्येष विधिः स मुषयजनितेस तु द्विविकल्पः । समुदय विभागमात्रमर्थान्तरभाद्गमनं हा ।। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { शास्त्रमा सलो के अवस्पातररामन को यद्यपि उत्पाद ही कहना उचित प्रतीत होता है-माश कहना उचित नहीं लगता, किन्तु फिर भी इसे नाशासलिये कहा जाता है कि अजनकस्वभाव का नाश हुये बिना जनकता मही होती; पर्थात किसी वस्तु का प्रषस्थान्तरगमन पूर्वावस्था के नाश से नियत होता है मत एवं मरस शाद से उसका ग्यपदेश होता है। [ घटविनाश होने पर मृत्पिड के उन्मज्जन का भय नहीं ] ____ इस पर यह शंका नहीं की जा सकती कि असे मुस्पिा का विनामा होने पर घटरूपान्तरभाव की प्राप्ति होती है इसी प्रकार घट का विनाषा होने पर मस्पिर का प्रादुर्भाव होना चाहिये"-इस शंका के निषेध का कारण यह है कि पिपररूप पूर्वावस्था और घरपोतरावस्था ये दोनों अवस्थायें स्पाय. असंकोण होता है। अर्याद उन अवस्थित पाबापमं का अभाव होता है । इसीलिये फिसो एक वस्तु का अन्य वस्तु रूप में मापादन नहीं हो पाता अर्थात् घट का नाश होने पर कपालावि अन्य वस्तु का प्रावुर्भाव होता है, अतः कपालादि (एक वस्तु) का पिट रूप (अन्य बस्तु) में आपादम नहीं हो सकता। नामा के उक्त विभाग के सम्बन्ध में इस प्रकार को शंका नहीं की जा सकती कि"नाश का एक और सेव है जिसे ऐत्विकनाश कहा जाता है-डत विमान में इस का परिगणन न होने से नाश का उक्तविभाग असंगत है"। कारण यह है कि अंसे ऐकत्विकोस्पात स्वाभाषिकउत्पाबविशेषरूप ही होता है। स्वाभाविक होने से वह बहिभंत महीं होता, उसीप्रकार ऐकस्विकमा भी साक्षानिक नाश विशेषकप ही है। अत: स्वाभाविकनाश के मध्य में जस का समावेश हो जाने से रक्तविभाग में कोई असंगति नहीं है जैसा कि सम्मतिप्रस्थ को तृतीयकाण्डको गाथा ३२ में कहा गया है कि-"जो उत्पाद की स्थिति है वही विगम (नाथ) की भी स्थिति है, अर्थात उत्पाद के जो को मेद है ये बिमादा के भी है, किन्तु पर इतना समुनयजनित विनाश के बो भेद हैं समुवमविभागमात्र और प्रर्थान्सर गमन"। यहाँ समुदयजनितविनाश में उत्पाद का यह असर बताने से यह अर्थतः प्राप्त होता है कि समुखयनित उत्पाद का एक ही भेव है अर्थान्सरभावगमन और यह को सरह से होता है, कोई समुवयविभाग से होता है और कोई समुदायसंयोग से होता है, जैसे पष्ट का तन्तु से पृथक्करणरूप समुवयविभाग मे पहावटम्ध तन्तु का पटानवष्टम्प तातुरूप अवस्थान्तर में गमन होता है चोर तन्नु का जो परस्परसंयोग से पटावष्टब्धलन्तुरूप अवस्थान्सर में गमन होता है वह समुदयसंयोगनित है। स्थिनिश्चाविचलिसस्त्रमावर पत्याद्म विभज्यते तक्तत्वं च जगतः कश्चितन्द्रपबाव , नयाहि-त्रयोऽयुत्पादादयो भिम्वरूपावच्छेदेन भिन्नकालाः, पटोत्पादममये घटविनाशरूप घटविनाशसमये घटोत्पादस्य, नत्पाद-बिनाशयोरुत्पत्तिविनाशाम्बन्छिमकालसंवन्धरूपायारजस्वितेविनाशविशिष्टघटरूपमृत्म्यित्योर्चा विरोधात् । तथा, प्रत्येकमपि देश-फान्सभ्यां मिन्नकालता, उत्पद्यमानस्यापि पटस्य देशेनोल्पनत्वात् , देशेन पोत्पत्स्यमानत्वात् , प्रयन्धेन चोपद्यमानस्यात, विगच्छतोऽपि देशेन विगतत्वात् , देशेन च विगमिप्यत्गत , प्रवन्धेन ब गिनछच्चाद, तितोऽपि देशेन स्थितत्वात् , देशेन ष स्थास्यन्यात , प्रबन्धन च तिष्ठस्वादिति । एकस्वरूपत्वाद् द्रध्यादर्थान्तरभृतादभिन्मकालाश्तेऽविशिष्टाः सन्तो भि Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "स्पा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] प्रतियोगिविशिष्टा या शूलनाश-पटोत्पाद-मृत्थितीनामेककालत्यादिति ततोऽनर्थान्तरभूता अपीति । एवं चोत्पादादिश्रयेण त्रैकाल्येन भेदाभेदाभ्यां संगसंततिर्ब्रव्यस्य भावनीया सूक्ष्मधिया, ध्यात्मक त्रिकालात्मकताऽनन्तपर्यायात्मकत्वादेकवस्तुनः । १७ स्थिति यानी भुक्ता अविचलितस्वभावरूप होती है अर्थात् उस में कुछ परिवर्तन नहीं होता क्योंकि सभी पर्याय (भाव) में हृदय अपने निजरूप में सवा प्रविकृत रहता है। अतः उस में कोई विभाग नहीं होता। [ मारे जगत् के वैरूप्य की उपपत्ति ] जगत् में जो उत्पाद-यय-श्रीग्ययुक्ताले बतायी गयी है यह इसलिये कि जगत् कश्चिद् उपाव-बिन-यात्मक है। आशय यह है कि उत्पाद-य-व्यये तीनों हो विभिन रूप से विभकालिक है क्योंकि घटोस्पाव के समय घट बिनाश का एवं घटविनाश के समग्र घटोत्पाव का विरोध है और इसीप्रकार घटोत्पाद और घटना का क्रम से उत्पत्ति-विनाशानवक्रिकासम्बन्धरूप पठस्थिति के साथ विशेष है, क्योंकि, घटोस्पाव और घटोत्पादानव कालसम्बन्ध एवं पविनाश और घमाशान कालसम्बन्ध एक काल में नहीं रहते । अथवा इस विशेष को इस रूप में समझा जा सकता है कि पटविनाशविशिष्टमरिस्थतिरूप घटस्थिति का घटोपाय के साथ विशेष है और घटावस्थाविशिष्ट मृतु को स्थितिरूप घटस्थिति का घटविनाश के साथ विरोध है । इस संदर्भ में यह ध्यान देने योग्य है कि जैसे उत्पादादि तीनों में परस्पर में विभिन्नरूप से विभिन्नासिकता नहीं है किन्तु प्रत्येक में येषा और साकल्यमेव से स्व में स्व की भी भिक्षकालता है। से देखिये उपाच पट किसी अंग से प्रथमक्षण में हो उत्पन्न हो जाता है अर्थात् जिस अंश से उत्पाद हो गया उस अंश से वह उत्पाद सूतकालीन हुआ और किसी श्रंश से उस को उत्पत्ति भविष्यकालिक होती है किन्तु साकल्येन पूछा जाये तो वह उत्पद्यमान होता है। अर्थात्र साकस्येत पटोत्पाद वर्तमान'कालीन होता है। इसी प्रकार जब पट का क्रम से नाश होता है तब पह का ओ धंश नष्ट हो जाता है उस अंश से पट भी नष्ट हो जाता है अतः उस अंश से पटनाश भूतकालीन हुआ और पट कर करे अंश नष्ट होनेवाला होता है उस अंग मे पट भो नष्ट होनेवाला होता है। इसप्रकार पटनाश उस अंश से भविष्यकालीन हो जाता है और विभिन्न अंशों से माश के समय वह साकल्येन मष्ट होता रहता है इसलिये साकल्येन परमाश वर्तमानकालीन हो जाता है। इसीप्रकार पर जब किसी अंश से स्थित हो जाता है तो उस वंश से पढ़ की स्थिति मुतकालिक हो जाती है और जिम अंश से स्थित होनेवाला है उस अंश सेट की स्थिति भाषिकालीन हो जाती है और पट की स्थिति न साकयेन अतीत हो जाती हैभ्यान्न साकल्येन भावी है उस समय पठस्थिति वत्र्तमानका लिंक होती है। [ उत्पादि की परस्पर में भिन्नाभिन्नरूपता ] sayer arata fकास और स्थिति ये तीनों परस्पर में अर्थान्सर भी होते हैं और अनन्तर भी.. नी है अर्थात् परस्पर में भिन्न भी होते हैं और अभिन्न भी होते हैं। जैसे एकस्वरूप ग्रन्थ, जैसे पटादि किसी एक द्रश्य से विशिष्ट उत्पाद- विनाश-स्थिति ये तीनों भिन्नकालिक होने से परस्पर होते हैं और विशिष्ट होने पर जैसे शुद्ध उत्पादविनाश स्थिति अथवा मिसि .. योगी भिन्नद्रव्य सेविशिष्ट होकर एककालिक होते हैं। जैसे कुलनाश घटोस्पाव और मृत्स्थितिरुप Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ० ० ७१०१ में एककालिक होते हैं। अतः परस्पर में अभि भी हैं। क्योंकि एकदेशस्य एककालिक पदार्थों में परस्पर अमेब होता है । 4 एक ही वस्तु के उत्पादादि त्रय उपरोक्त प्रकार से परस्पर में कालमेव से कथाभित्र होने से पव-विनाश-स्थिति तथा वर्तमान, जूस और भविष्यकाल तथा भेद और अभेद से अनेक भंगों को निष्पत्ति होती है जो इस प्रकार है . [ उत्पादादि जय के अनेक मंगों का निरूपण ] (१) मृद्रव्य का घटात्मना उत्पाद वर्त्तमानकाल में नाश और स्थिति से मित्र है। (२) मुद्रण्य का त्मना उत्पाद वर्तमानकाल के विनाश और स्थिति से अभिन्न है । (३) घट को उत्पत्ति भूतकाल में बिनाश और स्थिति से भिन्न है। (४) घट की उत्पत्ति भूतकाल में बिताया और स्थिति से अभिन्न है । (५) घटक त भविष्यकाल में स्थिति और विनाश से मिल है। (६) घट की उत्पत्ति भविष्यकाल में स्थिति और विनाश से अभिन्न है । इस प्रकार उत्पत्ति के स्थान में विनाश को लेने से छः मङ्ग और स्थिति को लेने से छः मङ्ग की मिस हो सकती है । इनों का तात्पर्यार्थ यह है कि प्रथम भ में मुष्य का घटात्मना वर्तमानकालीनोत्पाव यह उत्पत्ति अनवकालसम्बन्धरूप स्थिति और स्वनाम दोनों से भिकालिक होने से भिन्न है । द्वितीय भङ्ग में घट का वर्तमानकालीनोत्पाद उत्पादकालाय स्थिस्थिति से तथा कुलनाश से प्रभि है । तृतीयमङ्ग में उत्पलवेश से ओ मुलकालीन घटोत्शव है वह अनुप वेश से स्वस्थितिले भिन्न है तथा स्वनाश से भि है। चतुर्थभङ्ग में अतीतोपादावच्छिष्टस्वस्थिति से और कुलनाश से उत्पन्न देश से भूलकालोनोस्पाव अभिन्न है । मम में अनुपम देश मे जो घटोत्व है यह अतीतोत्पावावटि स्वस्थिति से भिन है और स्वनाश से मिल है । षण्म में अनुभवेश से घटोत्पाद अनुपनन स्थिति पर कुलना से अमित्र है । इसी प्रकार विनाश और स्थिति के साथ भी भड़ों की कल्पना की जा सकती है । कार, एक हो वस्तु उत्पान ध्य- श्रध्यात्मक और प्रतीत वर्तमान भावीकालात्मक होने से अनन्तपर्यायों से युक्त होती है । मन्काले भवतोऽनन्तपर्यायात्मक द्रव्यस्योपपत्ता वप्येक क्षणे कथं तदुपपत्तिः ? इति शंकनीयम् एकक्षणेऽप्यनन्तानामुत्पादानां तत्समानां विगमानां वभियत स्थितीन च संभवात् । तथाहि पर्दैवानन्तानन्तप्रदेशिकाहार भाव परिणत पुढलोपयोगोपजात र रुधिरादिपरिण त( १ ति )वशाविर्भूतशिराऽङ्गुल्यायङ्गोपाङ्ग भाव परिणत स्थूल सूक्ष्म-सूक्ष्मतरादिभिश्रावयष्यात्म Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ स्पा०रु० टीका एवं दिविवेचन ] कस्य कायस्थोत्पचिः, सर्दैवानन्तानन्तपरमाणुपचितमनोवर्गणा परिणतिलभ्यमनउत्पादोऽपि तदैष चचचनस्यापि कायाकृष्टान्तरवर्गणोत्पचिप्रतिलब्धवनिरुत्पादः, तदैव च काया-ऽऽत्मनोरन्योन्यानुप्रवेशाद् विमीकृतासंख्यातात्मप्रदेशे कायक्रियोत्पत्तिः सदैव च रूपादीनामपि प्रतिक्षणोत्पनिश्वराणामुत्पत्तिः तदैव च मिथ्यात्वाऽविरति प्रमाद कपायादिपरिणति समुत्पादितकर्मषन्धनिमित्ताग। भिगतिविशेषाणामप्युत्पत्तिः, तदैव चोत्सृज्यमानोपादीयमानानन्तानन्तपरभावापादिवत प्रमाण संयोग-विभागानामुपत्तिः तच च तत्तज्ज्ञानविषयत्वादीनामुत्पत्तिः किं बहुना देकद्रव्यस्योत्पत्तिः, तदैव त्रैलोक्यान्तर्गत समस्तद्रयैः सह साक्षात् पारम्पर्येण वा संबन्धानामुत्पत्तिः सर्वद्रव्यव्यातिव्यवस्थिताकाश-धर्माऽवर्मादिद्रव्यसंयन्धात् । " [ एकक्षण में एक द्रव्य में अनंत पर्याय कैसे ] यदि यह शंका को जाय कि "एक अन्य जो अनन्तकाल में विभिपर्यायों से उत्पन्न होता है उसमें अनन्तकाल में तो अनस्तपर्यायात्मकता उपपत्र हो सकती है किन्तु एक शी ऋण में उसमें अम पर्यायात्मकता कैसे होगी ?" तो इस शंका का उत्तर यह है कि एकक्षण में भी अनन्तश्यायअनवनाथ और अनन्तस्थिति पर्याय होते है, क्योंकि जिस समय देह की उत्पत्ति होती है उसी समय त की, aur की. देहक्रिया की बेहगतरूपादि को और मागामी गतिविशेषों को, परमाणुओं के संयोगविभाग की तया तज्ज्ञानविषयता की राहुपति त्रैलोक्य में विद्यमान समस्त द्रश्यों के साथ उसके साक्षात् अथवा परम्परा से कई सम्बन्धों की उत्पत्ति होती है। इनमें काय की उत्पति में अनेको बार अन्तर्भाव है जेसे देखिये, अनन्तामरूपरमाणु पुष्गों का आहारभाव में परिणमन रूप उरपति, उसके उपयोग से रस भिावि की उत्पत्ति, उसके परिणाम से शिर अलि आदि अङ्गोपाङ्ग भावों की परिणति से स्थूल सूक्ष्म सूक्ष्मतरादि विभिन्न भयययों की उत्पति होने से 'समस्त अश्वययममध्ट' रूप कायात्मक अवयवी की उत्पत्ति होती है । इसी प्रकार मन की उपसि में भी अनेक उत्पत्ति का समावेश है, जैसे- मनोषगंग के अनन्तानन्य परमाणुत्रों की परिणति अर्थात् अनन्तानन्त परमाणुओं में एक मन के रूप में परिणाम नारूप पर्यायों को उत्पत्ति इसी प्रकार वचन की उत्पत्ति भी अनन्त उत्पत्ति से अन्तनिविष्ट है, जैसे कामयोग सेट किये गये भाषाणा रूप आन्तरवर्गेणा के अनन्त परमाणुओं की परिणमनाला पर्यायों के रूप में अनन्त उत्पत्ति इस प्रकार कम्यक्रिया की उत्पत्ति में भी उत्पत्तिों का संनिवेश है क्योंकि काया और आत्मा के विलक्षण रूप अयोग्यानुमधेश के द्वारा आत्मा के असं प्रदेशों काम में ब.. म्यूनाधिवय का उदय होने से कार्यक्रिया की रूप से संयोग से सम्पन्न अयोग्य ताबा विषमभावकरण से कार्यायोस्पा होती है। एवं प्रतिक्षण उस विमाशील रूपादि की उत्पत्ति उत्पद्यमान के भेष से होती है। इसी प्रकार काम को उत्पत्ति के समय मिष्यात्व अविरति प्रसाद और कषाय से जो कर्मबन्ध पहले उत्पन्न हो चुके हैं और जो मानभव में उदय योग्य होते हैं तन्निमितक आगामी गतिविशेषों का अर्थात उन कर्मों की क्रममाथि फलोश्मुखता का उदय होता है। यह उदधरूप उत्पत्ति गतिविशेषों के से अनेक होती है। इसी प्रकार काया की उत्पत्ति के समय कायानुप्रविष्ट प्रारमा, काया के Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [०७०१ उपचय के अनानम्लपरमाणुओं का त्याग और ग्रहण करता है, इस प्रकार उन परमाणुओं के समसंख्या संयोग विभागों की प्रामा में उत्पत्ति होती है। यह उत्पति भी बहुसंख्य है- अनन्त है। इसी प्रकार काम की के समय काय में विभिन्न सर्वज्ञों के अगणित ज्ञानविषयश्व की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार विभिन्नरूप से उत्पशिक्षों के आनन्त्य का वर्णन कहाँ तक किया जाय एक गाय में उत्पत्ति न को इस प्रकार समझा जा सकता है कि जब किसी एक थ्य को उत्पत्ति होती है उसी समय त्रैलोक्य में विद्यमान समस्त उदय के साथ उस उत्पन्नथ्य के साक्षात् तथा परम्परा से अगष्य सों की उत्पत्ति होती है क्योंकि आकाश-धर्म और अधर्म मावि प्रथ्यों का समस्तपव्यापी सोता है। १० ईदृशप्रतिपत्त्यभावश्चास्मदाद्यध्यक्षस्य तथा तथोल्लेखेन निरवशेषधर्मात्मकवस्वग्राहकत्वान्, त्रैलोक्यव्यावृत्तस्वलक्षणान्यथानुपपत्त्याऽनुमीयते तु निधिमेव तथात्वम् इतरतियोगित्वेनेतथिग्भूतानां व्यातीन स्वतित्वेन स्वात्पृथग्भूतत्वात् । न चैवं घटे स्त्रोत्पादादिपदन्योत्पादादिकमपि प्रमीयेतेति वाच्यम्, व्यवृत्तिद्वारेष्टत्वात् अनुच्या तु सदभावादेव | अत एष' 'स्व-परविभागोऽप्येवमुच्छित इति निरस्तम्, स्वनृत्यनुवृत्तिप्रतियोगित्वेन स्त्रस्य स्ववृत्तिव्यावृत्ति प्रतियोगित्वेन च परत्वस्थ व्यवस्थितेः । अत एव परत्रापि स्त्रसंबन्धितामात्रच्यबहारो व्युत्पन्नानामवाध एव उक्तं च मान्यकृता - [ वि० आ० मा० गाथा ४८५ ] 1 "जे अणासु तओ ण णज्जए, पाज्ज अ पाए । किं ते या तस्स घम्सा घडा रुवाइधम्म व्य ॥ १ ॥" इति । [ आनंत द्रव्य संबंध का भान क्यों नहीं होता ? ] इस मान्यता के सम्बन्ध में यदि यह शंका को जाय कि यदि उत्पन्न होने वाले एक द्रव्य का sutra समस्त दष्यों के साथ साक्षात् और परम्परा से सम्बन्ध होता है तो उप में उन को प्रतिपति क्यों नहीं होती ?'- तो इसका उसर यह है कि असवंत मनुष्यों का प्रत्यक्ष तसव्यरूप से एक द्रव्यनिष्ठ सभी धर्मो का उल्लेखपूर्वक प्रशेषषमस्मिक वस्तु के ग्रहण में स्वभावतः असमर्थ होता है। किन्तु उत्पन्नत्रव्य का जो त्रैलोषपसम्बन्धा स्वरूप है उसको अन्यथा उपपत्ति न होने से उसमें लोक्ता का निर्वाध अनुमान होता है, क्योंकि व्यावृति शतरप्रतियोगिकस्वरूप से इतरानुवृत्ति से पृथक होती है और वह स्ववृत्ति होने से स्व से अनुभूत अभिन्न होती है। इसलिये किसी भी वस्तु का स्वस्वरूप होवयवस समस्त वस्तुओं के सम्बन्ध के दिन नहीं उपपन्न हो सकता। स्व में अनुवृत्त वस्तुओं का स्व के साथ साक्षात् सम्बन्ध होता है और स्व में पननुवृत्त argओं का परम्परा से अर्थात् व्यावृत्ति द्वारा सम्बन्ध होता है। इस प्रकार वस्तु के त्रैलोक्यध्यावृत स्वलक्षणस्तुस्वरूप की अन्यथानुपपति से उसमें बैलोक्यवर्ती समस्त वस्तुओं के सम्बन्ध से अनुमान में कोई बाधा नहीं हो सकती । ज्ञानज्ञायते ज्ञायते ज्ञाते । कथं से न तस्य धर्माः ? घटस्य रूपादिव || १३| Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा.कटीका पूर्व शिन्यो विवेचन ] [वस्तु को अन्य पदार्थों के धर्मों से सम्बद्ध मानने पर शंका-समाधान ] वस्तु को अपने उत्पादादि के समान अन्य पदाथों के उत्पादादि स्वरूप मागने पर यह का होती है कि "जैसे घट में अपने उत्पावाविको प्रमा होती है उसी प्रकार प्रम्य पदार्थों के अत्याचादि की भी प्रमा होनी चाहिये।" किन्तु मह वांका इसलिये निर्मूल हो जाती है कि याति द्वारा घर में नासा के नवादावि । बर: तुषारा इसकी प्रमा का पापादन इसलिये नहीं हो सकता कि घर में अन्य पदार्थों के उत्पावावि को अनुति का अभाव है। ऐसो घांका-वस्तु को स्व-पर सभी धर्मों से साक्षात् माथवा परम्परा से सम्बन मानने पर स्व-पर का विभाग उम्टिन हो आयगा क्योंकि जय सभी धर्म सबके होंगे तो उन में कोई विभाजकम हो सकेगा"-भी निरापार है क्योंकि स्वयत्तिअनुषसि के प्रतियोगिस्वरूप से स्त्रका यानी स्वतधर्म का, तथा स्वस्तिग्यावृत्ति के प्रतियोगित्यरूप से पर का यानी पर धर्मों का निर्वधन हो सकता है। सब धर्मों का सब वस्तुओं में सम्बन्ध होता है यह मानने से 'पर धर्म में स्वसम्बन्धिता का मौर प में परमर्मसम्बन्धिता के व्यवहार का भी प्रापादन करना उचित नहीं है क्योंकि जिन्हें वस्तु को अनन्तधर्मात्मकता चिदित है उन्हें उक्त स्यबहार प्रघाधित रूप से सम्पन्न होता ही है। प्रतः उक्त आपावन इष्ट होने से बोषरूप नहीं हो सकता । जैसा कि विशेषावश्यक भाष्य को ४८५ गाथा में कहा गया है कि "जिन धर्मों के अज्ञात होने पर जो पदार्थ ज्ञात नहीं होता और जिनके ज्ञात होने पर ज्ञात होता है वे उस में ध्यावृत होने पर भी उसके धमे क्यों नहीं होंगे । जब कि ऐसे रूपाविस्वरूपधर्म उस घटादि पदार्थ के धर्म होते हैं।" कहने का प्राशय यह है कि वासु का मान कलिषय यमों की अनुवत्ति से और अनेक धर्मों की व्यावृत्ति से ही यथावत सम्पन्न होता है। जो धर्म स्तु में मनुक्त शात होते हैं में उरा के साक्षात धर्म होते हैं और जो धर्म वस्तु में ध्यास गृहीत होते हैं वे स्वप्रतियोगिकष्यावृत्तिरूप परम्परा सम्बन्ध से उस वस्तु को धर्म होते हैं। ऐसे सभी धर्मों के ज्ञात होने पर ही वस्तु पूर्णसमा गृहीत होती है और यदि उन विविष षौ में कोई धर्म पृहीत नहीं होता तो वस्तु का साकल्येन पान नहीं होता। तत्र च परपाय विसदृशैः पटत्वादिभिनास्ति पाद्रव्यम् , सदृशंस्तु सच-द्रव्यत्वपृथिवीत्यादिभित्र्यअनपायरस्त्येत्र, साभारणा साधारणस्य सामान्यविशेषरूपस्य वस्तुनी गुण. प्रधानभावेन सदादिशब्दवाच्यत्यान । अर्बपर्यायैस्तु ऋजुनवाभिमनः सदशैरपि नास्ति, अन्योन्य रुपावृतस्त्रलक्षणध्राइकत्याच तस्य । स्वपर्णरैरपि प्रत्युत्पन्नरतत्समयेऽस्त्येव, विगत-भविष्यनिस्तु कथञ्चिदस्ति, कश्चित् नास्ति, तत्काले तच्छकत्या तस्यैकल्यान , नद्रपव्यक्त्या च भिन्नत्यादिति । प्रत्युत्पन्नरप्येकगुणकृष्णत्वादिभिरकगर्भजनैति । एवं स्वतः परतो वानुतिपाच्याघनेकशक्तियुक्तोत्पादादिलवण्यलक्षणमनकान्तात्म जगद् विभारनीयम् ॥१॥ [म्ब-पर पर्यायां से वस्तु का अस्तित्व-नास्तित्व ] न धर्मों को सम्बन्ध में यह बातव्य है कि जो जिस पदार्थ के विसदशपर्याय होते हैं जिन्हें परपर्याय कहे जाते हैं ऐसे धर्मो से पदार्थ का अस्तित्व नहीं होता-जैसे पटत्वादि रूप से घटवष्य का Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवासिलो २ अस्तित्व नहीं होता है, किन्तु जो सदा पर्याम होते हैं अर्थात वस्तु में प्रो मन पर्म होते है जैसे पटाव्य में सत्ता-व्यस्व-पृथ्वीत्वावि, ये घराध्य के स्व पर्याय कह जाते है इन धौ से घटाय का अस्तित्व होता है। वस्तु साधारण-असाधारणरूप अर्थात सामान्यविशेषात्मक होती है। उस के इन सामाम्मभिशेषात्मक कयों में गुग-प्रधानभाव को विवक्षा से वस्तु सद् आदि सामान्यशन से प्रार घटादि विशेषराव से पाच्य होती है। कृपसत्र मय के अनुसार तास अर्थपर्यायों से भी वस्तु का अस्तित्व नहीं होता क्योंकि वह नय परस्परच्यावत स्वलक्षणवस्तु का प्राहक होता है। अत एव वत्तमान समय में विद्यमान स्वसहशपर्याय से ही वस्तु का अस्तित्व होता है। अतीत और माबो स्वसहशपर्यायों से वस्तु का कथविद् अस्तित्व और कनिन नास्तित्व दोनों होता है क्योंकि वस्तु अपनी गक्ति अपने प्रध्योरारूप से वसंमानकाल में, भूतकाल में और भावीकाल में भी अभिन्न होती है। किन्तु ततकाल में विद्यमान तसतव्यक्तिरूप से भिन्न होती है। विद्यमान भी स्वसटश अनेकविध एक गुण-विगुणकृष्णत्वादि वमों से वस्तु को भरना अर्थात् अनेकान्तरूपता होती है। इस प्रकार जगत् स्वत: अनुवृति और परतः प्याति प्रावि अनेक शक्तिओं से युक्त उत्पाद व्यय-प्रोष्यरूप लभण त्रय से आलिष्ट भनेकान्तरूप है। __ इस सन्दर्भ में यह प्रातस्य है कि सत्त्व ध्यस्थाथि त्रिकालवतो वस्तु के सामान्यषों को ज्यामपर्याय मौर वस्तु के वर्तमानकासमात्रयसिस्प को अर्थपर्याय कहने का क्या प्राशम है ? विचार से यह आशय शात होता है कि वस्तु का जो रूप प्रति-निति में उपयोगी होता हैमर्थात् जिरारूप से यस्तु में अष्टसाधमसा और अनिष्टसाधनतामान से भाषी वस्तु में प्रवृत्ति मोर भावी वस्तु से निपत्ति होती है वह रूप व्यंजन-पर्याय कहा जाता है क्योंकि उस रूप से वस्तु में इष्टानिष्ट अर्षक्रिया को योग्यता को शाप्ति होती है। किन्तु जिस रूप से घस्नु अक्रिया की उपधायक होती है, वह वस्तु का सामान्यरूपम होकर उस का बसमानकालमात्रवत्तिविशेषरूप होता है, ऐसे रूप को अर्थपर्याय कहा जाता है । इसप्रकार अर्थपर्याय शय का 'बस्तु में दार्थ कयोफ्यायकता का प्रयोजक पर्याय' यह अप किया जा सकता है ।।१।। दूसरी कारिका में यस्तु के उत्पाद व्यय और प्रीव्य एततुधिष्यरूप होने में पुक्ति बतायी गई है। उत्पादादित्रयात्मकन्द उपपत्तियाहमूलम्-घटमौन्तिसुवर्णार्थी नाशोत्पावस्थितिष्ययम्।। शोकप्रमोरमाध्यस्थ्य जनो याति साहतुकम् ॥ ९॥ * अयमधिकृतो जनः, सामान्यापेक्षयेकवचनम् , पकस्यैकदा त्रिविधेनाऽभावान् । काल. भेदेनेच्छात्रयस्य च यात्मकफनिमित्तयाऽप्रयोजकत्वादिति द्रष्टव्यम् । घट-मीलि-सुवर्णार्थी सन प्रत्येक सावर्णघट-मुकुटमुवान्यभिलपन् एकदा तम्माशोत्पादस्थितिषु सतीषु शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं सहेतुकं याति । तदेव हि घटार्थिनी घटनाशात् शोकः, मुकटार्थिनस्तु तदुत्पादान प्रमोदः, सुवर्णाधिनस्तु पूर्वनाशा पूर्वारपादाभावाद न शोको न वा प्रमोदा, किन्तु माध्यमभ्यमिति दृश्यते । * सूगरी और तीसरी कारिका आप्तमीमांसा ग्रन्थ में ५९-६० काम से विद्यमान है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा. का ठीका एवं हिन्दी विवेषम ] इदं च वस्तुनरौलक्षण्यलक्षणं विना दुर्धटम् , घटनाशफाले मुकुटोत्पादानभ्युपगमे तदर्थिनः शोकानुपपत्तेः [ ? प्रमोदानुपपत्तः ।. प्रमादिगिदनिमिदनापार युगमागे हे सुवर्णायिनो माध्यस्थ्यानुपपत्तः । न च सुवर्णसामान्यार्थिनी यत्किमित्सुवर्णनाशेऽपि शोकाभावात् । अपूर्वेच्छाभावेन च प्रमोदाभाधादर्थादुपपद्यने माध्यस्थ्यमिति पाच्यम् , तथापि घटनाशानन्तरमेव मुकुटोत्पादाभ्युपगमेऽन्तरा यावत्सुवर्णाभावे शोकस्यैव प्रसङ्गात् , दोपधिशेपात तदननुभवेन शोकाभायोऽपि विशेषदर्शिनी दुर्घटः ! न च मुवर्ण सामान्याभावोऽपि सुवर्ण सामान्येच्छाविघातकज्ञानविषय एकः परस्य युज्यते, अनुमवेन नदॆक्यान्युपगमे व सत्तद्वि बर्तानुगतासुवर्णसामान्यस्याप्यनुभवसिद्धस्य प्रत्यारल्यातुमशक्यत्वात , गाणीकृतविशेषापास्तहिपयकेच्छाया एव तद्विषयकामिहेतुत्वादिति । कारिका में 'मन' गाद में एकवचन विभक्ति का प्रयोग 'जनाव' सामान्य की अपेक्षा किया गया है, व्यक्ति की अपेक्षा नहीं। क्योंकि एक व्यक्ति को एककाल में विविध इच्छा नहीं हो सकती। अर्शत एकव्यक्ति एक ही वस्तु को एककाल में तीन रूपों में पाने की इच्छा नहीं कर सकता। यदि कालनेव से एकट्यक्ति में इसणात्रय की उपसि को जायगी तो इसप्रकार के छात्रप से एककाल में उत्पाव-व्यय-धौवय एतस्त्रिप्तयात्मक एकवस्तु की सिस नहीं हो सकती। क्योंकि एकवस्तु यदि एककाल में उत्पाद यय-प्रोग्य एतस्तियात्मक न हो, सो भी कालमेव से इछात्रय को उपपत्ति हो सकती है अतः 'मन' पक्ष को सामान्य को अपेक्षा से एकवचनान्त मानने पर कारिका का यह अर्थ निष्पन्न होता है कि [ घट-कट-सुवर्ण के सात से राय की उपपप्ति ] ___ एक मूलद्रध्य से सौवर्णमाट, सौवर्णमुकुट और केरल सुवर्ण को एककाल में अभिलाषा करने पाले सीन मनुष्यों को, एककाल में घर का नाश, मुकुट की उपपत्ति और मुवर्ण निर्धात होने पर उन्हें कम से शोक, हर्ष और गोकहमियविरहरूप माध्यस्थ्य को प्राप्ति होती है। क्योंकि मूलद्रव्य एक हो काल में घटरूप में नष्ट होता है और मुकट रूप में उत्पन्न होता है एवं सुवर्णद्रव्यरूप में अवस्थिल रहता है। अतः पटाथों पो घटरूप से मूलद्रध्य का नाश होने से दोक होता है. मुकुटायों को उसी मूलप्रम्य की मुकुटरूप में उत्पति होने से हा होता है और सुवर्णार्थी को शोक और हर्ष फुष्ट नहीं होता क्योंकि उसे घट रूप अधया गुफुटलाप में मूलपध्य की कामना नहीं है किन्तु मुवर्णम्प में कामना है. और मूलद्रव्य पट एवं मुयाट दोनों शा में गथया घट और मुशट दोनों के अभाव की अशा में सुवर्णरूप से सुलभ है। एकमूलप्रथ्य के सम्मन्ध में विभिन्न मनुष्यों को ये तीन अनुभूति, यस्तु को एककाल में उस लसण्य से लक्षित न मानने पर असम्भव है । क्योंकि यदि मूलद्रव्य घट रूप से अपने नाममाल में मुकुट रूप से उत्पन्न नहीं होगा-मुकुटरूप में उस को प्राप्ति के घारक मनुष्य को हर्ष नहीं होगा। यदि एवं घटमुकुट आदि घिमात्र विवर्त-आकार से अतिरिक्त सुवर्णपत्रव्य का अस्तित्व न माना मायेगा तो घट के नाश और मुकुट के अनुत्पाव व शा में सुधार्थी में शोक हम विरह रूप माध्यस्थ्य उपपन्न न होगा। क्योंकि घट के मष्ट हुने से घटरूप में सुवर्ण रहा नहीं, मुकुट की उत्पत्ति न होने से मुकुटरूप में भी Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भास्थयात तहलो०२ नहीं रहा और उन प्राकारों से प्रतिरिफा सुवर्णतष्प का अस्तित्व नहीं है, अतः उस दशा में मुवी प्राप्ति की प्रामा समाप्त हो जाने से सुपरी को शोकप्राप्ति अनिवार्य होगी। [सुवर्ण को घटादि विवर्ष से अतिरिक्त क्यों माना जाय !] ___ यदि यह कहा जाप कि-'जो सामान्यरुप से सुधर्म का इसाक है उसको किसी एक प्राकार से सुवर्ण नाश होने पर भी प्रन्याकार में सुवर्ण की प्राप्ति सम्भव होने से शोकनों होगा और मुकुटाकार सुषर्ण को जस्पत्ति होने पर भी उसे हर्ष नहीं होगा क्योंकि मुकटादि प्रपूचं आकाररूप में उसे मृष्ण की आकांक्षा नहीं है। अतः घट-मुकुटादि से अतिरिक्त सुवर्णद्रव्य की सत्ता न मानने पर भी सुवर्णार्थी में शोकहर्षशून्यतारूप माध्यस्थ्य होने में कोई बाधा नहीं हो सकती-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि जित सुवर्णमय से पहले से हो चट मना हा है उस सुवर्णव्य से घटनामा के बाब ही मुकुट को उत्पत्ति हो सकती है, प्रप्तः घटनाश और मुकुत्पाद के मध्यकाल पाबक्ष सुवर्ण का प्रभाव होने के कारण सुवर्णप्राप्ति की आशा न होने से सुधार्थी को शोक होना अनिवार्य है। यदि यह कहा जाप कि "शोक के उवय में यद्यपि यावर सुवर्ण के अभाव का अनुभव कारण है, किन्तु मुवायों को घटनमा और मुफुटोस्पाय के मध्य अत्यन्त लघुकाल में मुवर्ण को तीवसर आकांक्षारूप दोष से पायसुषणं के प्रभाष का अनुभव नहीं होता । अत एव उस में शोक का प्रभाय सम्भव होता है।" फिन्तु यह पानी नहीं है कि मेरे से गुम मत नहीं होता उसी प्रकार उसे मुवर्ण के अस्तित्व का भी अनुमय नहीं होला क्योंकि उसे घट-मुकटावि आकारों से अतिरित सुवर्ण के अभाव का निश्चय रहता है। अत: यावलमुवर्णाभाव के मनुभष के न होने मात्र से शोकाभाव माहीं हो सकता । मयोंकि शोकामाव के लिये किसी रूप में सुवर्ण के अस्तित्व का शान भी अपेक्षित है । जो तसबरकारों से अतिरिक्त सुवर्णमध्य के अस्तित्व में पास्थाहीन व्यक्ति को घटनाका और मुफुटौत्पाद के मध्यकालीन अवधि में सम्भव नहीं है। [सुवर्णन्यसामान्यानुभव से शोकाभाव की अनुपसि | पवि यह कहा जाय कि "घट मुकुटावि तत्तबाकारों से अतिरिक्त सुवर्णनग्य के अस्तित्वा अनुभव सुधर्ण सामाग्मार्थों को घटनाका और मुफुटोस्पाय के मध्यकाल में भले न हो किन्तु घट मुकुटाकि विभिन्न आकारों में अमुगप्त सुमणसामान्य-सुवर्णस्वाति के अस्तित्व का प्रमुभव हो सकता है। और वह उस सुवर्णमामान्य का हो रहा होता है । प्रातः उस शोकलीत होने में कोई बाधा नहीं है क्योकि तुषण सामान्य का निश्चय भी मुवर्ण सामान्य को पछा का विषर्याप्तहिषिधया (यघातक है।"तो पह ठोक नहीं है क्योंकि ऐसे मुषणामान्य की सिद्धि में कोई युक्ति नहीं है और यदि घरमुताचि मिन मुवर्णाकारों में मुरणसामान्य सुवगत्वजाति के अनुभव के पल उसका प्रभ्युपगग किया जायगा तो घर मुकुटादि विभिन्न आकारों में एक सुवर्णद्रव्यसामान को अनुत्ति के मनुभव के अनुरोध स तसवाकारों से मतिरिक्त एकहव्यात्मक मुवर्णसामान्य का भी प्रत्याख्यान मही हो सकता । घट मुन्टावि तविदोषाकार को गौण कर लुषतम्यसामान्य का प्रधानरूप से अवगाहन करमे पालो इच्छा को सुवर्णसामान्याथों की प्रवृत्ति का हेनुनी माना जा सकता है। अतः इस प्रवृत्ति के अनुरोध में च्यात्मक सुवर्णसामान्य के अतिरिक्त जातिगात्मक मुवर्णसामाश्यकरुपना अयुक्त है। न च शोकादिक निहेतुकमिनि वक्तुं युक्तम , नित्य सवस्याअसत्यस्य वा प्रसाव । न च युष्माफ्सपि तन्त्र घटमुकुटोमयार्थिना युगपच्छोकप्रमादोषाद दनि वाच्यम् , एकत्रो Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मा.कोका एवं शिवो निबेचम 1 भयार्थिप्रयमययोगाव । एकत्र देशे वत्प्रवृत्ती चोभयस्य कश्चित्प्रत्येकातिरेका दोषाभाषात् , येन रूपेण यत्रेच्छा तेन रूपेण तमाशो-पाद-स्थितिञानानामेव शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यहेतुत्वाद । अनेकान्तस्याप्यनेकान्तातुविद्रकान्तगर्भत्वात् । तदुक्तम् 'भयणावि हु भयव्या जह भयणा भयह सचदन्याई । एवं भयणा नियमो बि होई समयाविराहणमा ।।" [ सम्मति प्र. १२५ ) इति । अत एव रयणप्पहा सिय सासया, सिय असासया" इत्यनेकान्तवाक्ये तदनुविद्ध वन्ययाए जिया , पागामा: सिरहामा " मायन व्यवस्थित्तम् । एतेन "उत्पाद-स्थिति-भङ्गानामेकय समायतः प्रीतिमध्यस्थताशोकाः स्युन स्युरिति दुर्घटम्" इत्यभिप्रायाऽपरिज्ञानविम्भित मण्डनमिश्रकृतखण्डनमपास्तम् 1 न हि पट-मुकुटरूपापेक्षानुत्पादनाशावेव सुवर्णरूपापेक्षावपि, बेनाऽव्यवस्था स्यादिनि । न पानेका न्तवादे तत्सम्वेऽपि तदभावज्ञानात् प्रवृत्त्यव्यवस्थया प्रीत्यायव्यवस्थापि, वेन रूपेणेच्छा तेन रूपेण तदभावज्ञानस्यैव प्रवृत्तिविघातकत्यात । एतेनापि-- "कान्तः सर्वभावाना यदि सर्वविधा गतः । अप्रति-निवृत्तीदं प्राप्तं सर्वत्र ही जगत् ॥ [ ] इति सर्वस्वहानिजनित इव महान मण्डनमिश्रगृहशोको निवारितः ! 1 परिहरिष्यते च पूर्वपचोइकित्तोऽनिश्चयप्रसङ्गः स्वयमेव प्रन्यकृता, इति तयाधिक विवेचयिध्यते ॥ २ ॥ [घरमुकुट दोनों के चाहक को शोक हर्ष युगल की आपत्ति अशक्य ] यदि यह कहा जाप कि-'घटनाशादि से विभिन्न मनुष्यों को जो शोकादि होता है वह निहंतुक है अत एव उसके हेतुरूप में एक काल में उत्पादावित्रितयास्मक वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती - तो यह वीक नहीं है, क्योंकि शोकादि को निहतक मानने पर, या तो नित्यपदार्थों के समान उसके सवा सत्य का प्रसंग होगा या तो पाषषाणाधि के समान उसके सादिक असश्व का प्रसङ्ग होगा । यदि यह शंका की जाय कि-- एक काल में परतुको उत्पादध्ययनोग्य एतस्त्रितयारमक मानने के पक्ष में भी घट-मुकुट उभम की कामना करने वाले व्यक्तिको घटनाश और मुकुटोस्पात होने पर एक साथ ही विषय मे शोक और हर्ष दोनों की उत्पनि का प्रसङ्ग होगा। क्योंकि जिस द्रव्य को वह घटरूप में चाहता था, घर का नाश हो जाने पर वह द्रव्य उसे घटरूप में प्राप्त नहीं हो सकता, इसलिये सभ्य के विषय में शोक, और उसो Fध्य को यह मुकुटरूप में प्राप्त करना चाहता था अतः मुफुटरूप में उसकी उत्पत्ति होने से उस रूप में उसकी प्राप्ति सुलभ होने के कारण उसी मूलद्रव्य के भजनाभि पलु भक्तप। यथा भजना भरति सर्वत्रन्याणि । यं भजना तमोऽपि भवति समयाविषनया ॥१॥ १, रत्नप्रभा स्याच्याश्वतो, स्यादशाश्वती। २. श्यार्थतया स्याच्छाश्वती, पर्यावार्थतया स्याशाश्वती। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवास्ति लो. २ विषय में हर्ष की उत्पत्ति, अनिवार्य है। तो यह होकनहीं है, क्योंकि घट और मुकुट नभषापों एक ही मनुष्य को एक दूग्य में प्रवृत्ति नहीं होली । [रूपभेद से प्रवृत्ति होने पर भी शोक-हर्षे की अनापनि ] यवि यह कहा जाय कि-"घटमुकुटोभयार्थी की एकरूप से एक अन्य में प्रवृत्ति न होने पर भी रूप मेद यानी घटाकार-मुकुटाकार से प्रवृत्ति हो सकती है तो इसका उत्तर यह है कि ऐसी स्थिति में उक्त दोष प्रसक्त नहीं हो सकता क्योंकि इस स्थिति में प्रवृत्ति का सिषममूत प्रष्य रूपमेव से एक दूसरे से भिन्न हो जाता है। अतः यह प्रति सर्वथा एकविषयक न रह कर भिन्नविषयक हो जाती है । अतः इसके प्रेमामेव से विफल और सफल होने पर होमेबाला शोक और हर्ष भिन्नविषयक हो जाता है। [अनेकान्त भी अनेकान्त से उपश्लिष्ट है। आशय यह है कि जिस रूप से मनुष्य को जिस वस्तु की इच्छा होती है उस रूप से उसके नाश का माम शोक का, उत्पाद का मान हर्ष का और स्थिति का नाम माध्यस्थ्य का हेतु होता है, क्योंकि जो वस्तु उत्पाब ग्यय और धौष्य रूप होमे से अनेकान्तरस्मक है वह वस्तु एक एक रूप से एक ही समय केवल माशावि एक एकात्मक ही है। जैसे घटरूप से नावा और मटरूप से उत्पार और मुवर्णरूप से श्रीव्ययुक्त प्राय जिस सण घरस्य रूप से नष्ट होता है उस समय वह घटस्वरूप से उत्पाव अथवा स्थिति से मुक्त नहीं होता। इस प्रकार अनेकान्त भी पनेकारत से अनुविद्य एकान्त से टिप्त है। अतः एक सुवर्णद्रव्य में षटमुकुट को पा से होने वाली प्रवासि घटत्वरूप से उसका मामा मोर मुकुटश्वकप से उसका उत्पाद होने पर घटस्वरूप से उसमें प्रवृत्ति को निष्फलता और मुकूटस्वरूप से प्रवृत्ति की सफलता होने से वह वस्तु विभिन्नरूप से शोमय और विभिन्नरूप से हर्षप्रा होती है-ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं है। अनेकास की एकान्तनतता में सम्मतिग्रन्थ तीसरे माह की २९ वी गाथा भी साक्षी है जिसका अर्थ यह है कि-'मजला - प्रवेकान्त की भो भजना मानी मनेकान्तरूपता होता है। इसलिये जसे अनेकान्त सभी द्रव्यों का अनेकान्तात्मना प्राहक होता है उसी प्रकार अपना भी अनेकान्तरूप से पाक होता है। इसलिये अनेकान्स में एकान्त भी होता है और यह सिद्धान्त के भविष्स है क्योंकि अमेकान्त का घटक एकान्त 'मी प्रमेकान्त से अनुविद्य होता है।' इसीलिये, भनेका के एकान्तगनित होने से ही "रत्नप्रभा पृष्यी कचिद शाश्वत और कश्चिद् अशाश्वत है" महो पृथ्वी की अनेकान्तरुपता का बोधक इस आगम बाय के साथ 'व्याथिकनय से पृथ्वो शाश्वास ही है जोर पर्यायाथिक नय से भशाश्वत हो है' यह पृप्त्री की एकान्तास्मकता का बोधक भगवान के मायम का वचन मङ्गत होता है। [एक साथ एक मनुष्य को शोकादि आपनि का निवारण] मण्डनमिश्र ने इस सिवान्त के विरोध में जो यह कहा है कि-एक वस्तु में उत्पाद-स्थिति पौर नाश का एककाल में अस्तित्व मानने पर एक हो काल में उस वस्तु की उत्पति, स्थिति और माश होने से एक हो ममुख्य को एक ही समय उत्पद्यमान आकांक्षितरूप से उस वस्तु से हम और अमुषसमान सामान्यरूप से उस वस्तु के सम्बन्ध में माध्यस्थ्य और नयदप से उस वस्तु के समान्य Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा०का टीका एवं हिनी विवेचन में शोक की प्रापत्ति होगी। वस्तु को एक काल में उत्पादादित्रितयारमक मानने पर एक व्यक्ति को एक वस्तु के सम्बन्ध में प्रोति आधिका न होना दुर्घट है ।"-किन्तु यह मामन इसलिये मूल्यहीन है कि इस कथन का मूल है वस्तु को उत्पारावित्रितपात्मक मानने के उक्त अभिप्राप का अमान । प्राशय यह है कि घट और मुकुट में जो आकार की उत्पाद और विनाश अपेक्षा से होता है वह सुवर्णरूप की भी अपेक्षा से नहीं होता। यति घट मुकुट रूप से उत्पत्ति-पिनाश के साथ सुवर्णरूप से भी उत्पाद और विनाश होता, तब वह उक्त दोष हो सकता था, किन्तु ऐसा नहीं है। इस पक्ष में यदि यह संका को आप कि-'अनेकान्तवाद में बस्त्र का पस्तित्व होमे पर भी उसके श्वभाष का शान हो सकता है इसलिये प्रथसि की अव्यवस्था होगी क्योंकि नत्तद्वस्तुविषयक प्रवृत्ति के प्रति तत्तस्तु के प्रभाव का मान प्रतिबन्धक होता है। फलतः तसतरतुत्रों की प्राप्ति व प्राप्ति से प्रोति मौर दुखादि की उपपत्ति न हो सकेगो'- तो यह ठीक नौ है क्योंकि जिस रूप से जिस धन की इच्छा होती है उस रूप से उस वस्तु क अभाव का नाम ही प्रवृति का विरोधी होता है। पस्तु को उत्पादादिषितयात्मक मानने पर मण्डनमिश्र को घर बैठे नो सर्वस्वहानि से होगेपालो चिन्ता जंसी चिन्ता हुई कि यदि सम्पूर्ण पापों को सब प्रकार से मनेकान्तरूप मामा जायगा तो समस्त विश्व प्रसिनिवति शून्य होकर मतकरूप याती असत्कल्प हो जायगा । जैसे, इस मत में जो वस्तु रजतरूप है वह कश्विन अरजतरूप भी है, इसलिये रमतात्मकता के मान से उस वस्तु के भरमसात्मक होने से उस वस्तु में होने वाली नित्ति का विरोध करेगा और जसको अरजतात्मकता के मान से उसमें रजतात्मकता के ज्ञान से होने वाली प्रति का विशेष होने से उस वस्तु के विख्य में मनुष्य को न तो प्रथमि होगो, म नियत्ति होगी। यही स्थिति जगत को सर्ववस्तु के सम्बन्ध में होगी।"-ऐप्ती चित्ता भो उक्त उत्तर से ममाप्त हो जाती है। क्योंकि जिस रूप से जिस वस्तु की इच्छा होती है उस रूपसे उस वस्तु के प्रभाव का ज्ञान हो प्रत्ति का विरोधी होता है 1 इस सिमान्त में पूर्वपक्षोत्रों द्वारा वस्तु के मनिश्चय की भी आपसि भी आता है किन्तु ग्रन्थकार इसका स्वयं परिहार करमे असः सी अवतार पर इस सम्बन्ध में मोर विवे बन किया जायगा |॥२॥ तोसरी कारिका में वस्तु को एफकाल में घिलयात्मकला की उपपत्ति के लिये एक अन्य जवाहरण प्रशित किया गया है एतदपपसे रेत्र स्थलान्तरमाहमूलम्—पयोनसी न दध्याति न पयोऽति दधिनतः। ___अगोरसवतो ना नस्मात प्रयामकम् ॥ ३ ॥ पयोवतः श्रीरभोजनम्रता, न दध्यत्ति-न दधि भुयते । यदि च दधनः पयस एकान्ताऽभेदः स्यात् तदा तस्य दधि अनाऽपि न बतभंगः स्यात् । तथा, वधिवत: दधिमीजनमतः, पयः दुग्धम् अति । परसो दध्न एकान्ताऽभेदे च तद असतो म दधिमजनवतभक्तः स्यात् 1 ततो दधिपपसोः कशिदूभेदः । तथा अगोरसबमा पाल()नालादिभोजनम्रता, उभे-दृग्वदधिनी नाचि इति गोरसभावेन द्वयोरभेदः, अन्यथा कृतगोरसप्रत्याख्यानस्य दुग्धायकैफभोजनेऽपि न चतभनः स्यादिति । तस्मात द्रव्यपर्यायोभयात्मकत्वात् त्रया Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गास्त्रात ७ एलो. स्मक-उत्पाद-व्यय-नौव्याश्यम्भूतं वस्तु । तथा च समयपरमार्थवेदिना-[सम्मतौ-गाथा १२] दवं पअवविउ दवविउत्ता य पजवा णस्थि । उपाय-ट्टिइ-मजा हदि ! दवियलकावणं एवं ॥ १ ॥ इनि । [दही, दुग्ध और गोरस के दृष्टान्त से अनेकान्तसिद्धि जो व्यक्ति पयोक्ती होता है अर्थात तुग्धमात्र के भोजन का नियम ले लेता है वह यहीं नहीं खाता । यदि वहीं और दूध में एकान्त अमेव होता तो वहीं लाने पर भी उसके प्रत का भङ्ग नहीं होना चाहिये, फिन्तु होता है । इसी प्रकार जो व्यक्ति वषिवती होता है केवल वहीं खाने का नियम ले लेता है यह दूध नहीं लेता। यदि दूध में वहीं का एकान्त पमेद हो तो पूष लेने से बाहीं के नत का भन नहीं होना चाहिये किन्तु होता है। अतः वहों और बुध में कश्चिभेद सिद्ध होता है। और उसी प्रकार जो व्यक्ति अगोरसवत होता है-गोरस रहित वस्तु के ही भोजन का नियम लेता है वह पूष और वहीं दोनों ही वस्तु को नहीं लेता। इसलिये इन दोनों में गोरमकप से अभेद सिद्ध होता है। यति बूथ और वहीं में गोरसरूप से अमेव न होगा तो निमने गोरस के मा क नियम लिया है. वृष अथवा वहीं किसी एक का भोजन करने पर भी उसके व्रत का मन नहीं होगा, किन्तु हो जाता है प्रतः पोरसरूप से दोनों में अभेव आवश्यक है। निष्का यह है कि षस्तु ध्यपर्याय उभयात्मक होती है। उसमें इण्यांश स्थिर होता है और पर्याय उत्पत्ति-विनाशशाली होते हैं। प्रतिक्षण किसी पर्याय का विनाश और किसी पर्याय का जवय होता है। प्रस: बस्तु प्रतिक्षण विनश्यत् पर्याय के रूप में नष्ट होती है, उत्पद्यमान पर्याय के रूप में उत्पन्न होती है और द्रव्य के रूप में स्थिर रहती है। इस प्रकार वस्तु उत्पाव-विनाश और स्थैर्य से कभी पृथग्भूत नहीं होती। मंसा कि सिद्धान्त रहस्पवेवी श्री लिसेनमूरि के सम्मतिप्रन्थ कांड १ गाथा-१२ में कहा गया है कि "वष्य कभी भी पर्यायों से मुक्त नहीं होता और पर्माय भी कमी व्रव्य से मुक्त नहीं होते। अत! 'उत्पाव-स्थिति और विनाश' यह व्रव्य मानी वस्तु का सुनिश्चित लक्षण है।" मनु दुग्ध-दजारकान्लेन भेद एव इति तस्योत्पाद-व्ययौं युक्ती, ध्रौव्य तु गोरसत्यसामान्यस्येव न तु गोरसचेति रेत १ न, 'मृद्ध मेर गारसं दुग्धभावेन नष्टम् , दधिमावेन चोपनम्' इत्येकस्यैव कदोत्पाद-व्ययाधारवलक्षणधाव्यभागितया प्रत्यभिज्ञायमानस्य पगर्नु । मशक्यवान् । [प्रत्यभिन्ना से गोरस के प्य की मिदि] यघि यहांका को माय-कि दूध और वहीं में एकान्त भेद हो है. अतः उनका उत्पाद और पिनाश युक्तिलगता है किन्तु उनका श्रीध्य भुक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि उन दोनों में अनुगत कोई गोरसात्मक अतिरिक्त मुख्य नहीं है, जिस म्प से उन्हें ध्र माना जा सके । अव रहने वाला तो उन कोमों में गोरसत्व नामक सामान्य रहता है, जो उन छोनों से पत्यन्तभित है और शुष है।"-किन्तु पाटीक नहीं है क्योंकि 'जो गोरस दूध के रूप में नाट होता है वही गोरस वहीं के रूप में उत्पन्न होता है इस प्रकार एकही गोरत में एक ही काल में एक रूप से उत्पत्ति दूसरे रूप से नाश और __ म्यं पापविन पवियुक्ताश्च पर्यंबा त सन्ति । उत्पाद-स्थिति-भङ्गा कृन्त ! ध्यलक्षणमेतत् ।। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ हथा० क० ठोका एवं हिन्दी विवेचन ] उभयानुगतरूप से प्रौष्य की प्रत्यभिता होती है । यतः विभिन्नरूपों से उत्पन्न होने वाले पर्यायों में प्रगत एक सामान्य स्थिर द्रव्य का निराकरण नहीं किया जा सकता । नच विशेषेभ्योऽत्यन्तव्यतिरिक्तं धुरं सामान्यमस्ति सदव्यवस्थितेः । तथाहि" नित्यमेकमनेकसमवेतं सामान्यम्" इति तलचणमाचक्षते परे । अत्र 'एकम्' इति स्वरूपाभिधानं न तु लक्षणम् - इत्येके । 'नित्यमेकम्' इत्येके लक्षणम्, लक्षणान्तरं वा समवायित्वे भरनेकसमवेतलमिति यन्ये । 'अनेकत्वमनेकाधारकत्वम्, तश्चाभावसमवाययोरपि इत्यत उक्तस्- 'एकम् ' - असद्दायम्, अभाव- समवाययोश्च प्रतियोगिसंबन्धिनीमहायो' इत्यपरे । तत्र नित्यत्वं तवत् श्यामन्य रक्ताद्युपाधीनामिव दधित्व - दुग्धत्वादीनां साक्षादेवोत्पाद - विनाशानुभवादसिद्धम् | 'दुग्ध-दनोरेबोत्पादविनाशानुभवोऽस्ति न दधित्वदुग्धत्वयोरिति चेत् ? तर्हि श्यामरस्तयोरेव तदनुभवः, न तु श्यामत्य- नक्तत्वयोः इति तयोरषि नित्यत्वं किं न स्यात् ? 1 'श्यामाद्युत्पादावनुभवो भ्रान्तः, तत्कारणमात्रात्' इति तु न युक्तम्, दण्डादिकं विनापि खण्डनटादिवत् तदुपादादिसंभवात् । 'सहेतुकत्वाच्छामरूपादेर्न नित्यत्वम्' इत्यत्रापि विवादकलह एवं | 'भावकार्यस्य नाशनियमाद् न तत्र नित्यत्वमिति चेत् १ अनु तमेतदपि कार्यत्वस्यत्रेत्थमसिद्धेः । किञ्च, एवं लावाद् भावस्य नाशनियमाज्जातेर पिं नित्यत्वच तिरस्तु । 'अनित्यत्वे सति प्रतिव्यक्ति भिन्नं सत् सामान्य सामान्परूपता जयादि वि चेत् ? उपाधिरप्यनुगतव्यवहारनियामिकां वां किं न जह्यात् १ | 'उपाधावपि परम्परया जातिरेवानुगमिका, प्रमेयस्यादर्शप परम्परासंबन्धेन प्रमात्यादिरूपत्वादिति चेन ? न घटे घटस्था देखि प्रमेयारपि साक्षादेवानुभवात् । [ अतिरिक्त नित्य सामान्यवाद की परीक्षा का प्रारम्भ ] - यह जो कहा गया कि सामान्य अपने विभित्रायों से प्रमन्त भित्र और शुभ होता है वह सत्य नहीं है क्योंकि इस प्रकार का सामान्य असिद्ध है। जैसे देखिये वस्तु को स्थिति लक्ष और प्रमाण से होती है किन्तु सामान्य का जो लक्षण बताया गया है यह परीक्षा करने पर निष हो पाता । उदाहरणार्थ नियमे करा मवेतं सामान्यम् इस लक्षण को परीक्षा की जा सकती है। हि इस लक्षण में आये हुए 'एक' पद के सम्बन्ध में कतिपय विद्वानों का कहना है वह लक्षण घटक नहीं है किन्तु सामान्य वस्तुतः आभयमेव होने पर भी एक होता है अतः वस्तु के इस स्वस्थ का अभिधायक है। अन्य विद्वानों का कहना है कि 'एक' पद इस बात की सूचना देता है कि नियमनेकसमये यह सामान्य का एक लक्षण हुआ इसी प्रकार उसका दूसरा लक्षण भरे है जैसे 'असमतापित्वे सति समवेत्यम्' इस लक्षण में असमवायिश्वे सति यह अंश घट । विमन्य तथ्यों में और एकसंख्या में अतिस्याप्तिवारण के लिए है। 'अनेक' पद विशेष में अतिव्याप्तिवारण करने के लिये है। न कहकर समवेत का कथन अत्यन्ताभाव में अतिव्याप्तिवारण करने के लिये है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवासी० ० ७० ६ कुछ ऐसे भो विज्ञान है जो 'एक' पत्र को लक्षणघटक मानते हुये उसका अर्थ 'अलहायम्' ऐसा करते हैं। 'असहायम्' काम से अभ्यनिरपेक्ष। उनके मत से उपलक्षण में अनेकसमवेतश्व का अर्थ है अनेकत्व अर्थात् काधारकत्व, यह प्रभाव और समवाय में भी है, अतः निरपत्वसहित उसने मात्र को लक्षण मानने पर अत्यन्ताभाव और समदाय में अतिव्याप्ति होती है । अत: एकपन से अन्य निरपेक्षस्य का निवेश करना आवश्यक है। यह पहला में नहीं हो सकती क्योंकि अनाव प्रतियोगितापेक्ष और समवाय सम्बन्धीसापेक्ष होने से अभ्यनिरपेक्ष नहीं होता है। ३० [ नित्यत्वघटित लक्षण में अध्यामिदोष ] सामान्य का नित्यत्वपटिस यह लक्षण अध्याप्तिग्रस्त हो जाता है क्योंकि जैसे श्यामस्व ( रामरूप ) - रस्कश्व ( रक्कम) आणि उपाधिओं के उत्पाद और विनाश का अनुभव होने से उन में निश्व प्रसिद्ध है, उसी प्रकार बधिश्य और पत्र आदि के भी साक्षात् उस्पाव बिनादा का अनुभव होने से उनमें भी नित्याव असिद्ध है। यदि यह कहा जाय कि 'दुग्ध और दधि के ही उत्पाद विनाश का अनुभव होता है-दधिरव और दुग्बत्य के उत्पाद विनाश का अनुभव नहीं होता' तो यह कहना उचित नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा मानने पर श्यामश्व और रक्तत्व के विषय में भी यह कह जा सकता है कि श्याम और रक्त के ही उत्पत्ति-विनाश का अनुभव होता है-श्यामश्य और रक्तश्व के उत्पाद - विनाश का अनुभव नहीं होता । प्रसः वयामत्व और रक्तत्व में भीति को प्रसक्ति होगी । [ श्यामादि का उत्पादातुमा भ्रान्त होने की शंका ] याम और रक्त के सम्बन्ध में यह कहा जाय कि "श्यामावि (यानी श्यामरूपवान्आ)ि के को उत्पाद का अनुभव होता है वह भ्रम है- क्योंकि जिस समय श्यामादि में उत्पादादि का अनुनय दिखाया जाता है उस समय श्याम आदि के उपाय कारणों का अभाव होता है । जैसे कोई मिट्टी का बना हुआ वर्तन पकाने पर श्याम हो जाता है और कोई रक्त हो जाता है और उसके फलिस्वरूप ध्याम उत्पन्न हुआ' 'रक्त उत्पन्न हुआ ऐसा अनुभव होता है। किन्तु उस समय श्याम अथवा रक्त की उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती क्योंकि उस समय हो श्याम और रक्त स्वरूप में प्रतोत होता है वह पहले से ही है। पाक से केवल उसके मूलवर्ण का परिवर्तन होकर जल गये वर्ण का उदय होता है उस समय उस व्रज्य की उत्पत्ति नहीं होती। क्योंकि असम में वस्तु प्रागभाव भी वस्तु का कारण होता है किन्तु उस लभय वस्तु का प्रागभाव नहीं रहता उस वस्तु के पहले हो उत्पन्न हो जाने से उसका प्राय पहले ही नष्ट हो जाता है। तथा मिट्टी के बने घर प्राधि पात्र दण्ड चह-कुमाल आदि के संनिधान में उत्पन्न होते हैं। पाक के समय उनका संविधान नहीं होता अतः श्यामद की उत्पत्ति उस समय नहीं मानी जा सकती। अल एव श्यामाधि के उत्पादावि का अनुभव निःसन्देह भ्रम है।" [ खण्डघटत् श्यामादिवट का उत्पाद प्रामाणिक ] feng यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि जले पूर्ण के किसी अंदा का मत होने पर ausifar के बिना भी घट की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार दण्डावि के अभाव में भी श्यामघटावि की उत्पत्ति हो सकती है, तथा जैसे घट के दण्डादि सापेक्ष होते हुये भी जाति के अभाव में भी Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या टोका एवं हिन्दी विवेचन खण्यघट को उत्पत्ति हो जाती है उसी प्रकार प्रागभाव के मभाव में भी प्यामदादि की उत्पत्ति हो सकती है । सयषा यह भी कहा जा सकता है कि जो घर पाक से घाम होता है उस घट का प्रयामस्वविशिष्टघटप्रतियोगिक प्रागभाव भी रहता है । ___पवि यह कहा जाय कि 'मामत्यादि में जो नित्यत्व को आपत्ति वी गई वह उचित नहीं है क्योंकि श्यामरूपावि सहेतुक होने से निस्य नहीं हो पकता क्योंकि सहेतुकस्व अनित्यत्व का व्याय है।'-तो यह भी ठीक नहीं है कौतुक वा निम : नास बात से क्योंकि महेतुक मी वंस पायमतानुसार मष्ट नहीं होता, इसी प्रकार सहेतुक होने पर भी श्यामस्पादि की मिश्यता-अनश्वरता हो सकती है। यदि यह कहा जाय कि-जो भाव कार्य होता है वह पष्ट होता है मह नियम है। प्रस्मत में श्यामरूपाधि भाषकाम है मतः स्वत के इष्टान्त से उस में निस्पता-मनश्वरता का समर्थन नहीं किया जा जकता, सो यह कथन मी उत्तराभात है, क्योंकि श्यामस्वामय घटादि) के उत्पावादि मे पयामस्व (श्यामप) के उत्पादावि को पन्यथासिड करने पर उनमें कार्पस्व ही असिद्ध हो जाएगा। पति भावकार्यस्व में नरवरता की व्याप्ति मानकर श्याम हपाधि में निस्यता का निराकरण किया जाएगा तो लाघव मे भावस्वमान में नश्वरता को यान्ति मानने से जाति के भी निस्वरष की हानी हो सकती है। [सामान्य को अनित्य मानने में स्वरूपहानि की आपत्ति का प्रतिकार ] इसके विरोध में यदि मह कहा जाय कि-"सामान्य को अनित्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि अनिध्य मानने पर वह आश्रयभेद से भिम होगा इसलिये उसकी शामान्यरूपता को हानी हो जायगी, क्योंकि मो आश्रयमेव होने पर भी भिन्न होता है उसे हो सामाग्य कहा जाता है, अप्स! भावस्वमात्र में मश्वरता का नियम मानकर सामाश्य में अनिस्मत्व का प्रापावन नहीं हो सकता।" तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि उपाधि भी अनुमतम्यवहार की नियामक होती है। जैसे विभिन श्याम घर में श्यामाकार अनुगत व्यवहार का नियमन 'श्यामत्व' उपाधिसे ही होता है किन्तु यह अनित्य माना जाता है। यदि प्रमित्य का प्राधयभेद से नेव होगा तो श्यामत्व के भो सामान्यरूपता को हानि हो जायगी। | उपाधिअन्तर्गत जाति से अनुगत व्यवहार का समर्थन 'अभाग्य ] यदि यह कहा जाय “जी उपाधि अनुगत व्यवहार को नियामक होने से सामान्यात्मक प्रतीत होती है वह अपने स्वरूप से सामान्यात्मक नहीं होती किन्तु उस में भी एक मनुगत सामान्य होता है, असीसे इस में सामान्यर पला आती है । श्यामत्य । -- श्यामरूप) आश्रयभेव से मिली है किन्तु उन समी में रूपत्वम्माप्य यामत्व नामक एक दिल्यसामान्य है उसी से प्रपामधारमा विभिन्न उपाधिनों का अनुपम होकर उन उपाधियों से अनुगत व्यवहार का उपय होता है। यदि इस के विरोध में यह कहा जाप कि. 'प्रमेमरवादि उपाधि प्रमाविषयवहार होती है और विषमता प्राश्रयभेद से भिन्न सेतो। सम्पूर्ण प्रमाविषयता में को एक प्रमगत जातिमीनी हो सकती क्योंकि अमावादिनिष्ट प्रमाविषयता अभावाविरूष होती है और अमाव में कोई नि सामान्य माहीं माना जाता। प्रप्तः नित्मसामान्य के द्वारा उपाधिनों में अनुपलब्यवहार को नियामकता का उपपावन नहीं किया जा सकता। क्योंकि प्रमेयत्व किसी नित्यसामा से युक्त न होने पर भी अनुगत प्रमेमध्यवहार का निया Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रमास स० [७] इलो० ३ ३२ एक होता है। तो यह विशेष ठीक नहीं है, क्योंकि प्रमेयत्व जो विभिन्न पदार्थों में अनुगत प्रतोत होता है यह प्रमाविषयस्वरूप न होकर स्वाश्रयविषयत्व सम्बन्ध से प्रभावरूप है। वही अनुगत प्रमेयवहार का नियामक है और स्वरूपतः एक है।" तो यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि घट में जैसे घटश्व का साक्षात् सम्बन्ध से अनुभव होता है उसी प्रकार विभिन्न पदार्थो में | प्रमेयश्व का भी अनुभव सामान्य से ही आनुभविक है। अतः उस अनुभव को रस से प्रमात्वविषयक नहीं माना जा सकता । , एकमपि न तत्र संख्यारूपम्, अनभ्युपगमात् । नाप्याश्रयभेदकृत भेदाऽप्रतियोगित्यादिकम् आश्रयभेदेन तद्भेदावश्यकत्वात् अन्यथाऽयेकत्वादावप्याश्रयभेदकृतभेदे मानाभावादतिव्याप्त्यनिरासात् । असहायत्वरूपमेकत्वमपि तत्र प्रतिनियतव्यक्ति व्यङ्ग्यत्वाभ्युपगमाद् दुर्वधम् । अनेकसमयेत्तत्वमपि समचायनिरासाद् निरस्तमेत्र | [ जाति में एकत्व की संख्यादिरूप में अनुपपति ] दुग्धत्ववधित्वादि सामान्य में नित्यत्व का उत्पादन न हो सकने से मिन्यश्वघटित सामास्वलक्षण का समर्थन दुष्कर है। उसीप्रकार एकत्व का निमंचन न हो सकने से भी लक्षण में एकश्व का प्रवेश करने पर उसका समर्थन दुष्कर हो सकता है- जैसे सामान्यलक्षणघटक एकस्व को संख्यारूप नहीं मान सकते क्योंकि संख्या गुण है और गुण नियम से द्रव्य में ही रहता है अतः संख्पारूप एकस्व द्रव्यभि सामान्य में नहीं रह सकता। उसे आश्रयमेवमुलकमेव का प्रतियोगिव रूप भी नहीं माना जा सकता क्योंकि आश्रयभेव से बुधश्य-दधित्यादि का मेव आवश्यक होता है अतः उनमें आश्र reme का अप्रतियोगित्वरूप एकत्व नहीं रह सकता। यदि मायभव से दुग्घर वधित्वादि कामे त माना जायगा तो परमाणुत्रों के एकस्वादि में मो भेव नहीं हो सकेगा क्योंकि आश्रयमेव को छोडकर अन्य कोई उनकी भिन्नता का साधक नहीं है । अतः एकत्व के निवेश से परमाणु प्रावि के एकवि में सामान्य के लक्षण को प्रतिव्याप्ति का निवारण नहीं हो सकता। क्योंकि श्राश्रयमेव से आश्रित में भेद न मानने पर परमाणुगत एक भी नित्य र प्रायमेवमूलमेव का अप्रतियोगीरूप एक, तथा उस स्थिति में अनेक ममवेत हो जाता है। एकस्व को सहाय स्वरूप भी नहीं माना जा सकता क्योंकि असहायश्व का अर्थ है सम्यनिरपेक्षस्व । प्रतः वह भी सामान्य में सम्भव नहीं है क्योंकि स्वाश्रय में ही नियम से गृहीत होने के कारण यह भी स्वाश्रयसापेक्ष होता है ! लक्षणघटक 'अनेकसमवेतत्व अंडा भी निरस्तप्राय: है क्योंकि उसका समर्थन समयाय करे प्रामाणिकता पर निर्भर है और उसका निराकरण पहले ही किया जा चुका है। विश्व, सामान्यस्यैकव्यक्तावेकदेशेन वृत्तिर्भवेद सर्वात्मना का सर्वात्मना वृत्ताकस्मिन्नेव पिण्डे सर्वात्मना परिसमाप्तन्धाद् यावन्तः पिण्डास्तावन्ति सामान्यानि स्युः न वा सामान्यम्, एकपिण्डवृत्तित्वात् रूपादिवत् । एकदेशतापि न सामान्यं स्यात्, सामान्यस्य निरंशत्वेनैकदेशासंभवात् संभवेऽपि तस्य ततो भेदाभेद विकल्पानुपपनेः न च सामान्यस्यानुवृतैकरूपन्यात् काम्यकदेशशब्दयोस्तत्राऽप्रवृत्तिः, निरवयवैकरूपेऽपि व्याप्त्यव्यामिशब्दयोर्भयतेवाभ्युपगमात् तत्र यत्स्मैकदेशय चोक्तदोषाणां समानत्वात् । , 1 2 " Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या टोका एवं हिन्दी विवेचन ] [एकदेश या पूर्ण रूप से आय में वृत्तिता का असम्भव ] सामान्य को स्वीकार करने में एक और बाषा यह है कि-एक ही सामान्य के अपने अनेक आमयों में पर्सन को सत्पत्ति । स सामान्य के वसंत सम्बन्ध में दो सम्भावनाएं उपस्थित होती है । एक यह कि सामान्य अपने आश्रय भूप्त एक व्यक्ति में एकबेश से रहे अथवा सामना रहे 1 किन्तु ये दोनों हो सम्भावना बोषग्रस्त है क्योंकि यदि सामान्य एक व्यक्ति में सर्वात्मना रहेगा तो एक हो व्यक्ति में यह सर्वात्मना परिसमाप्त हो जाने से अन्य व्यक्ति निःसामान्य हो जायगा, मतः स्यक्तिमेव से सामान्य में मेव मानना होगा, स्योंकि जो सामाम्म एक एक व्यक्ति में ही सस्मिमा समाहित पानी व्याप्त हो जायगा उसका प्रभ्य व्यक्ति में रहना सम्भव नहीं हो सकता, सब कि वह सर्वात्मना एक एक मक्ति में परिसमाप्त होगा तो उसकी सामान्यरूपता भी समाप्त हो जायगी क्योंकि जो एक व्यक्ति में सर्वात्मना रहता है वह सामान्यरूप नहीं होता जसे तत्तद् घट का रूपादिगुण। एक वेश से भी उसका वर्तन नहीं माना जा सकता, क्योंकि एकवेमा में वर्सन मानने पर उसे सोश मानता होगा और सोश मानने पर यह सामान्यस्वरूप नहीं हो सकता बोंकि सामान्य निरंश होता है। अतः जो सामान्य रूप होगा उसका एकवेषा से वतन महों हो सकता । यदि सामान्य में भी पश्चिइएक वेश की कल्पना की जाय तो उससे सामान्य का मेव प्रथवा अमेहनहीं उपपन्न हो सकता मैसे-गोत्व सामान्य जिस एक वेश से एक गोष्यक्ति में रहता है यदि उसे उसके एक देश से भिन्न माना भामगा तो उसके एक वेश के रहने पर भी उसका अपना वर्तमान हो सकेगा । पषि उससे अभिन्न होगा तो एक वा के साथ हो वह एक पक्ति में परिसमाप्त हो जायगा। अतः सर्वात्मना वर्सन पक्ष में रहे गये वोष की इस पक्ष में भी आपत्ति होगी। अतः एक देश से सामान्य का मेव अश्या प्रमेव दोनों ही सम्भव न होने से उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जायगा, क्योंकि कोई भी वस्तु किसी एक मिन अषबा अभिषलप में हो अस्तित्व धारण करती है। अतः सामान्य यदि अपने एक वेश से न भिन्न होगा और न अभिन्न होगा तो फिर उसका अस्तिस्य ही नहीं हो सकेगा। [सामान्प में कृत्स्न-एकदेश विकल्पों का असंभव नहीं है ] घधि यह कहा जाय कि 'कारस्त्यं यानी सर्यात्मना पूर्णरूप से और एक वेश, ये दोनों शाम्बों का प्रयोग साधयम सस्तु में ही होता है किन्तु सामान्य देशतः और कालतः विप्रकृष्ट विभिन्न व्यक्तिओं में एक अनुगस धर्मरूप होता है अत: मिरवयब होने के कारण उसके सम्बन्ध में कृस्स्न और एकोण गावद का प्रयोग सम्भब न होने के कारण 'सामान्य एक देश में रहता है अथवा सर्वाश्मना रहता है इस प्रकार का प्रश्न हो नहीं खड़ा हो सकता। -तो यह ठीक नहीं है क्योंकि निश्वमेव एकचित्ररूप में पारित और अध्याति का, जोकर एक नाम के समान हैं, उसका प्रयोग सामाम्यवादी स्वयं को स्वीकारतासे-पिघलप के समय में उनका म कवार सर अपने आश्रय में अध्याप्त हो कर नहीं रहता अर्थात एक वेश से नहीं रहता किन्त व्याप्त होकर अर्थात सर्वात्मना रहता है क्योंकि यदि चित्ररूप अपने आश्रम के एक देश में रहेगा तो एकल्प वाले भाग में भी चित्रव्यवहार की प्राप्ति होगी। अतः वा ध्यास होकर अर्यात सर्वारममा अपने पुरे आश्रय में रहता है। इस प्रकार जब सामान्य पौर चित्ररूप दोनों निरंश होते है तो सामान्य के करस्नरूप से पचवा एक वेश से वृत्ति मानने के पक्ष में जो बोए होते हैं यह चिधरूप पक्ष में भी समान है। इसलिये पविचित्ररूप का एकोन अवसंन और कारसन्न वर्तन का व्यवहार हो सकता है तो ऐसे व्यवहार Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शास्त्रमा सलो .. - - का प्रसङ्ग सामान्य पक्ष में भी सर्वथा सम्भव है और जिसे उक्त रोषों के कारण नहीं माना जा सकता। पतंन 'किमनेन प्रसङ्ग आपाप्यने परम्य, आहोस्विन स्वतन्त्रसाधनम् ? इति । न तावत् प्रससाधनम् , पराभ्युपगमेनैव तम्य वृत्त । न च परस्य कात्स्न्यन, एकदेशेन वा निरंशस्य वृत्तिः सिद्धा, किन्तु इतिमात्र समशयस्वरूप सिद्धम् , नच विद्यत एव, समवायस्य प्रमाणतः सिद्धः । तद् न प्रमंगसाधनमेनत । स्वतन्त्र तु साधनं न भवति, सामान्यलक्षणस्य धर्मिणोऽसिद्धहतीराधयासिद्धिप्रसङ्गात् । धर्मिसिद्धौ या तत्प्रतिपादकप्रमाणवाधितत्वात नदभाबसाधरुप्रमाणरूपाऽप्रवृतिरेव' इसि निरस्तम्, लोक-शास्त्र सिद्धकासन्यै देशवृत्तिविशेषनिषेधेन वृत्तिसामान्याभावस्य परं प्रत्यापादनात , समवायवृत्तायपि संयोग-रूपादौ रूप्यस्य सिद्धत्वात् । [प्रसंग या स्वतंत्रसाधन के विकार-पाय का निराकरणा ] इस संदर्भ में सामाग्यवानों का यह कहना है कि "कारस्येम और एकवेशेन पर्सन मानने पर जो बोषोसावन किया गया है वह नहीं घट सकता । अयोकि एक देश से कत्ति मानने पर सशसा का और सरिममावृत्ति मानने पर एक व्यक्ति में ही परिसमाप्नता का जो उद्धापन किया गया है वह क्या प्रसङ्गापावन है ? अथवा स्वतन्त्रसामन है। ये सोनों किसो भी रूप में युक्तिसंगत नही हो सकते क्योंकि सामान्य का बर्तन सामान्यबादी को अभिमत रीति से ही होता है 1 सामाग्य निरंश होमे से सामान्यवादीको जसका कारस्पेन अथवा एकदेशेन वर्तन अभिमत महीं है किन्तु सर्वात्मना और एफदेश न विकल्प से गुम केवल गुरुसि अभिमस है । सामान्य की पत्ति समवायस्वरूप हैं। प्रतः समवाय के प्रमाणतः सिद्ध होने से सर्वात्मना अथवा एकदेशेन वर्तम प्रसङ्गमापनरूप नहीं हो सकता, क्योंकि प्रसंग का अर्थ है प्रापत्ति और आपत्ति के प्रति कारण होता है 'आपापक में आपाधण्याप्ति का निश्चय, तथा धर्मी में भापारक का मिश्वय' । प्रकृति में सामान्य में समाप है अपाय झोप एकदेशेन वर्तन है प्रापादक, अथवा परिसमाप्लश्य है आपाच पौर कारस्पन वतन है आपावक, किम्म सामान्ययावी को या द्विविध वर्तन सामान्य में मा य नहीं है। अतः पमरें में आपावक का निश्चय न होने से उसे प्रसङ्गसाधन नहीं कहा जा सकता। सामा में उसरोति से विकल्पितवान, सांवत्व प्रथवा परिसमाप्तस्व का स्वतन्त्र साधन प्रर्याद अनुमापक लिंग भी नही हो सकता क्योंकि सामान्य को पक्ष करके एक से बतन अथवा सर्वात्मना वर्तन से सांशस्त्र अथवा एक व्यक्तिमात्रपरिसमाप्तत्व का साधन करने पर यासिद्धि होगी। क्योंकि सामान्माच्य धर्मी असिद्ध है । तथा. यदि सामान्य सिद्ध होगा तो सामा-मसापक प्रसारण से बाप माने के कारण सामान्यापराबसायक प्रमाण की प्रवृत्ति ही नहीं हो सकती।" किन्तु यह कयम ठोक महोहैयामा लोक और शास्त्र में दो ही प्रकारको वृत्ति प्रसिद्ध कारन पर एकदेशेन । असःोनोंदसिविशेषों के अभाव से सामान्य में व माग्यामात्र ही अपातमोय है। अतएव उक्तरूप से विकल्पित वतन प्रसङ्गसाधन के रूप में विनियुक्त (पुरस्कृत) हो सकता है। उसके अतिरिक्त यह मी ज्ञातव्य है कि समवाय को पति में, संयोग और रूपावि में द्विरुपता सिश है, जैसे-संयोग का समयाम संयोग के ग्राम में एकोश से रहता है और Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाकटीका एवं हिम्मो विवेवा ] रूपावि का समवाय रूपवान् में सामरस्पेन रहता है । इसी प्रकार सामान्य को पति में भी उक्त विकपसा ही मान्य हो सकती है। उसके अभाव में उस में त्तिस्वसामान्याभाव की प्रापत्ति घुष्परिहार्य है। अथ व्याप्यवृत्य-ऽव्याप्यन्यो सित्वेऽनवच्छिन्नत्यमवच्छिन्नत्वं चेति फात्स्न्यैकदेशविमोषो नापरः । तत्र च सामान्यस्यापि यायवत्तित्वादेवाप्यनवछिन्नतित्वरूप कासन्यन तित्वमुपगम्यन एव । म वं यावद्वयक्तिभेदापत्तिः, ज्ञानेऽनेकविषयन्ववज्जाताबनेकृत्तित्वस्या प्यत्रिरोधादिनि वेत् । न, 'एकत्वमेकात्रव पर्याप्तम् , न द्वयोः' इति घियकत्व-द्वित्वयोरेकत्रीभयोश्च पतिवद् घटत्वमा परामम' इति धिया घटस्त्रस्यापि प्रत्येक पर्याप्तिस्वीकार एकत्व. द्विवान्छिन्सपयाप्तिकोरेकत्य-द्विन्धयोरिय तत्तव्यक्तित्वावनिछ अपर्यानिकत्वेन तभेदस्याप्यावश्यकत्वात । विच, उत्पद्यमानेन पिण्डेन सह संबध्यमानं सामान्यं फिपन्यत आगत्य संबध्यते, उत तत्पिण्डेन महोत्पादाद , आइरेस्वित् पिण्डोत्पत्तेः प्रागेव तद्देशायस्थानाव ? | नाद्यः, अमूर्तस्य पूर्वाधारवृत्तिस्वभावाऽपरित्यागनान्यत्राऽऽगमनाऽसंभवात् । न द्वितीयः, अनुत्पणस्वभावत्वाभ्युपगमान् । दीपः, सानो घरमा शिशा समापि इत्यनगतीव्यपदेशप्रसङ्गात् । तदुक्तम्-- [प्र. वा. ३-१५२१५४] नाऽऽयाति न च तपासारित पशाच चाशवत् । जहानि पूर्व नाधारमहो ! व्यसनसंततिः ।। १॥" तथा-... 'अप्रासौं यतने भारम्नेन संबध्यते न च । ताशं न च व्याप्नोति किमयतद् महासुनम् ॥ १॥" इति । [प्रत्येक घट में घरत्य की पर्याप्ति के बन्न से भेदापनि ] यदि यह कहा जाम कि-'कास्न वर्सन का अर्थ है याप्यस्ति पदार्थ को अवभिन्न सिता और एक देश से बर्तन का अर्थ है अध्याप्यवत्ति की अनमिछम्मत्तिता । इससे अतिरिक्त कारय एकदेश का कोई अर्थ नहीं है । अतः सामान्य के व्याप्यसि होने से उसमें अनजिपत्तिस्वरूप कारयनसित्व माना जा सकता है। ऐसा मानने पर यह भी बांका नहीं हो सकतो कि सामान्य का इस प्रकार बत्तंन मानने पर आथयभेद से सामान्य में मेव को प्रापत्ति होगी। क्योंकि जैसे एकप्तान में अनेक विषपकार भरति विषयतासम्बग्य से अनेकत्तिस्व होता है उसी प्रकार कासि में भी अनेकवत्तिस्व मानने में कोई विरोध नहीं हो सकता"-तो यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि एकरवं एकत्रेय परितं मयोः = एकस्य एक व्यक्ति में ही पर्माप्त होता है वो में नहीं है। इसी प्रकार 'द्वित्वं तयोरेव पर्याप्त न रखेकत्र विश्व दो में ही पर्याप्त होता है एकमात्र में महों' इस प्रतीति से जैसे एक में एकत्व की और यो में विस्व को पर्याप्त सिद्ध होती है, उसी प्रकार 'घटत्वं प्रत्र पर्याप्त घटस्व इस घटष्यक्ति में पर्याप्त है इस बुद्धि से घटत्व की भी प्रत्येक घट में पर्याप्ति माननी होगी। प्रतः बंसे पर्याप्ति के एकरव-द्विस्वरूप Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा.का टीका एवं हिम्पी विवेचन ] 'अनुत्पन्नेऽपि घटे घट्पदवाच्यत्ववद् घटत्यसमवायसत्यात तदुत्पत्ती तदभिव्यक्तेने दोपः' इत्यप्य नालोचिनाभिधानम् , द्रव्यार्थतया सत्याभ्युपगमं बिना अनुत्पमो घटः' इत्यभिवानन्यैर शासनामार तार पपिता सदाधारतानियमस्तत एव तदन्यथासिद्ध। [ उत्पत्ति के पूर्व द्रव्यात्मना घट सत्ता स्त्रीकार का प्रसंग ] प्रति यह कहा जाय कि जसे.."घटो भविष्यति'घट उत्पन्न होगा' इस व्यवहार के अनुरोध से अनुत्पन्न घर में भी घरपदवास्यत्व होता है उसीप्रकार मनुत्पन्न घट में भी घटस्वसमवाय रहता है क्योंकि उसमें घटत्वसमपाय के रहे बिना यह घटपववाच्य हो नहीं हो सकता । इसप्रकार घटत्यातभवाय घटोत्पत्ति के पहले से ही रहता है। घटोत्पत्ति होने पर उत्तको केवल अभिव्यक्ति होती है। प्रत: सामान्य की मान्यसा के सम्बन्ध में उपर्युक्त दोष नहीं हो सकता ।"-किन्तु यह कथन भी विचारपूर्ण नहीं है। क्योंकि द्रव्याभिकताय से घट को ससा माने विना 'अनुत्पन्न धर' इसप्रकार का गावप्रयोग ही अशक्य है। क्योंकि इस शव द्वारा 'घट में उत्पति का प्रभाव' मोधित होता है और भभाय ना निरधिकरणक बोध प्रनुभयषिद्ध है। दूसरी बात यह है कि गोश्वानि सामान्य को आधारसा सीमित व्यक्तियों में ही होती है सर्वत्र महीं होती अत: गोरवादि सामान्य को आधारता के नियम का कोई निमित्त मानना होगा । पौर वह निमिस ऐसा ही हो सकता है जो समस्त गोआविष्यक्तियों में हे और उनसे मिन में न रहे। ऐसा कोई निमित्त आवायक है तो उसोसे सामाग्य अम्पासिल हो जाता है क्योंकि सामान्य की अनुगसप्रतीति अनुगतव्यवहारावि समस्त कार्य उप्सीसे सम्पन्न हो सकते हैं। ____किश्च, पिण्डेभ्यो व्यतिरिक्तं यद्यनुस्यूतं सामान्यमभ्युपगम्येन तदैकपिण्डोपलम्मे तम्याभिव्यक्तत्वान् पिण्डान्तरालेऽप्युपलब्धिः स्यात् । न च तदुपलम्भहेतोश्वभुःसंयुक्तसंयोगस्याभावात् तदनुपलम्भ इति सांपतम् , अन्तराले चक्षुःसंयोगे तदापादनात् । न च तत्र तदभावान् तदनुपलम्भः, जनसंपन्यसखे मदभावायोगात , तत्र नदभावज्ञाने तत्र विशिष्टयुद्धयनुत्पादेऽपि तदभ्यसमहालम्बनमय दुनिवारवाय। एतेन 'अन्तरालशन्देन फि पिण्डान्तरमवादिरूपमभिधीयते, आहोस्चिन् मूर्तव्याभावः, उनाकाशादिप्रदेशः इति विकल्पाः । यधश्वादिपिण्डान्तराभिधानम् , तदा नत्र गोरखसामान्यस्य धृतर ब्रहणमुपपन्नमेव । न हि पद् पत्र नास्ति सत्र गृह्यत इति परमयाभ्युपगमः । एवं मृतदन्याभाषा-55काशादिदेशयोपि तदग्रहणमभायादेच' इति निरस्तम् । न च चक्षःमयोगावच्छेदकावच्छेदेन तस्याऽसमवेतस्मात् तद्ग्रहणम् , अव्याप्यत्तिद्रध्यसमवेतन एव तथाईतुत्वकल्पनात् । मेरपि 'समवायोऽपि नैका, जलादेगन्धादिमत्तानसमात्' इत्यादिना समवायनानात्वं स्वीक्रियते, तेरामाप घटत्य-सस्वादिसमवायनानास्वाभावादयं दोपस्तदवस्थ एव ।। [दो पिण्ड के मध्य सामान्य के उपलम्भ की आपत्ति ] इस संदर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि घटस्वसमवाय यदि एक एक घटयक्ति से पृथक् हये बिना Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ [ शास्त्रवासात. लो. असम्बद्ध हुये बिना ही समस्त घटव्यक्तिओं में अनुस्यूत यानी विद्यमान होगा तो एक घट व्यक्ति का जपलम्भ होने पर घटत्वसमवाय के अभिव्यक्त हो जाने पर विभिन्न घटव्यक्तिओं के अन्तराल वेश में मी घटस्व के प्रत्यक्ष को भापति होगी। यदि यह कहा जाय कि 'अन्तरालदेश में वक्षःसयोग म होने के कारण उसमें घटत्व की उपलब्धि नहीं हो सकतो क्योंकि तत्तव्यक्ति में घटत्योपसम्म के प्रतितसव्यक्ति के साथ का संयोग कारमा होता है।' नो र तीक नहीं है क्योंकि अन्सरालदेश में पक्षासंयोग होने पर उक्त आपत्ति दुनिषार है। इस समायान में यह भी नहीं कहा जा सकता कि'तत्तवृष्यात में तसाधर्म के उपसभ के प्रतिततव्यक्ति में तमका अस्तित्व कारण होता है। अत: अन्तरालदेश में घटश्वका अभाव होने से वह घटस्य का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता क्योंकि जब एकही घदरवसमवाय विभिन्नघमण्यक्तिओं में किसी भी व्यक्ति का परित्याग न करते हुये अनुस्यूत होता है तो विभिन्न घटों के अन्तराल में घटश्वसमवाय की सत्ता होने के कारण यहाँ घरवाभाव नहीं माना जा सकता। यदि यह कहा जाय कि- "अभाव नित्य और प्रधिकरणमेद होने पर भी अमिन होता है अतः विभिन्न घटष्यक्तिओं के प्रसारालवेश में भी घटवाभाव है। अत एम उस देषा में घटस्वाभाव का प्रत्यक्ष हो जाने से उस देश में घटत्यप्रत्यक्ष की उपर्याप्त नहीं हो सकती'- तो यह कथम भी ठीक नहीं है क्योंकि अन्तरालदेश में घटत्वामारज्ञानरूप प्रतियाधक के उत्पन्न हो जाने के बाद उस देश में घटत्वविशिष्ट की मुखि मले न हो मितु पटत्वाभाव और घनत्व दोनों के समूहालम्बन प्रत्यक्ष का प्रस्तुत पक्ष में परिहार नहीं हो सकता। यदि यह कहा जाम कि "अन्तरालशब्द से सवादिरूप गोभिअपि को अपना मूर्तद्रव्याभाष को किवा आकाशाव के प्रदेश को ग्रहण कर उनमें गोस्वप्रत्यक्ष का आपावन नहीं हो सकता ।पयोंकि अपवादि विण्डो में गोस्व नहीं रहता और जो जहां नहीं रहना यहां उसका प्रत्यक्ष सामाग्यवायी को मान्य नहीं है, प्रतः अश्यादि में मोत्वसामान्य को वृति का प्रत्यक्ष न होना ही युक्तिसङ्गत है। इसीप्रकार मृताध्याभाव और प्राकाणावि प्रदेश में भी गोस्व का अभाव होने से वहां भी गोत्सप्रत्यक्ष न होना ही न्यायसंगत है।-"यह कथन भी हमारे उस कपन से निरस्त हो जाता है क्योंकि समस्त गोव्यक्तिओं में एक गोरन सामान्य को अनुस्यूत मानने पर विभिन्न योग्यक्तियों के अन्तराल में गोचलमवायहम गोत्वसम्बन्ध अपरिहार्य होने से यहाँ गोस्वाभाय बताना प्रसंगत है। यदि उक्त प्राप्ति के परिहार में यह कहा जाय कि-'जिस व्यक्ति में वक्षःसंयोग यद्देशाषच्छेवेन होता है तशावच्छेवेन उस व्यक्ति में तमाम का समवाय ही उस व्यक्ति में ताजम के प्रत्यक्ष का कारण है । गोपत्ति में वक्षःसंघाग जिस जिस देश से होता है उस उस देश से गोव्यक्ति में गोरख का लमघाय ही गोरव प्रत्यक्ष का कारण होता हैं। क्योंकि गोस्व समग्र गो में समवेत होता है प्रप्त एष गो में गोरष का प्रत्यक्ष होना रचित है, फिन्सु अन्तरालदेश में यशाषनलेवेन चा:संयोग होता है तहमा।यसभेबेन अन्तरालवेश के साथ गोस्व का समवायसम्बन्थ होने में कोई प्रमाणन होने से प्रन्स रालदेश में गोत्व के प्रत्यक्ष को प्रापत्ति नहीं हो सकती' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यह कार्यकारणभावण्य में अध्याप्यत्तिसमयेत पदार्थ के प्रत्यक्ष के प्रति ही माना जाता है। गोस्वा विसामान्य अध्यायति नहीं है, अतः उसके प्रत्यक्ष के प्रति ऐसे कारण की कल्पना नहीं हो समाप्ती। जो लोग जलादि में गन्धादिमी सतावारणा समवाय को एक मानकर अनेक मानते है उनके पास में भी उक्त प्राप्ति का परिहार नहीं हो सकता, क्योंकि उनके मन में भी गन्धादि Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन aruvati का ही समवाय अनेक होता है। कारण, उत्पन्न होने वाले भावपदार्थो के समवाय को एक मानने पर जलादि में भी गन्ध का सम्बन्ध सम्भव होने से उसमें t ra की उत्पत्ति का प्रस होगा | गन्या के समवाय को अनेक मानने पर यह प्रसंग नहीं हो सकता, क्योंकि गन्धादि के समवाय के अनेक पक्ष में यह उत्तर दिया जा सकता है कि महावि में गन्ध का प्रागभाव न होने से गन्ध का समवाय सम्भव नहीं है एवं जहाँ जिस कार्य का सम्बन्ध सम्भव होता है वहाँ हो उसको उत्पत्ति मामी जाती है। किंतु घटत्व, सत्य आदि के समवाय को घटादि मे से भिन्न सामने में कोई युक्ति नहीं है, कि अनावश्यक गौरव है। अतः विभिन घटादि व्यक्तियों के अल में घटत्वादिसमवाय के सम्भव होने से इस मत में भी अन्तराल में घटत्वादि के प्रत्यक्ष की आपति सुनवार है। ६२ अपि अक्षणिक व्यापकस्वभावत्वे सामान्यं किं येनैव स्वभावेनैकस्मिन् पिण्डे वर्तते तेनैव पिण्डान्तरे ? आहोस्थिन् स्वभावान्तरेण १। यदि तेनैव ततः सर्वपिण्डानामेकत्वप्रसक्तिः, एकदेशकाल-स्वभावनियत पिण्डदृश्य भिसामान्यस्वभाव को ठीकृतवान् तेषाम् प्रतिनियतदेशकाल- त्वभाषैकपिण्डव । अथ स्वभावान्तरेण नदानेकस्वभावयोगात् सामान्यस्यानेकत्वप्रसक्तिरिति न किञ्चिदेव | P [ मिश्र पिंडी में एक-अनेक स्वभाव से जाति की वृति असंभव ] अतिरिक्त सामान्य को सिद्धि में एक और भी बाधक है जैसे, सामान्यदावी सामान्य को मि और अयक्तिसमवेत एक स्वभाव मानते हैं । श्रतः इसके बर्तन सम्बन्ध में वो विकल्प खड़े होते हैं । एक यह कि सामान्य जिस स्वभाव से एक पिण्ड में रहता है उसी स्वभाव से सश्य पिण्ड में भी रहता है? और दूसरा मह कि अन्य स्वभाव से अन्य पिण्ड में रहता है ? इस में प्रथम विकल्प स्वीकार्य नहीं हो सकता क्योंकि सामान्य जिस स्वभाव से एक पिण्ड में रहता है उसी स्वभाव से अन्य पिण्ड में रहेगा तो सभी पिण्ड़ो में ऐश्य को मापत्ति होगी। क्योंकि उस स्वभाव में सामान्य को आश्रयता में एक fuuser from aधिकरण में उस पिण्डयक्ति का जो मित्रदेश काल मौर सनियत पिण्प्रमेव को व्याप्त दृष्ट है। अर्थात् इस प्रकार का व्याप्तिग्रह है कि स्वनियामकस्वभाय से निषय जो स्वाश्रयमिष्टवृतिता, तादृणवृतितानिरूपत्य सम्बन्ध से जो एलम कालस्थ मायमिवस पिण्डनिरूपित तावान होता है वह एस देशकालस्वभावनियत पिण्ड से अमिन होता है, जो एसपिण्डस्व से एसपिण्डनिपतिता, उसका नियामकस्यसाथ गोत्व का स्वभाव उस स्वभाव से नियम्य जो स्वाति अर्थात् बुलिता के मायभूत गोत्र में रहनेवाली वृतिता पल उक्तपिण्ड में है और उक्त विश्व का श्रनेव भी उक्त पिण्ड में है। अब यदि पोश्व में अभ्यगोदण्ड पिता मो यदि गोश्वनिष्ठ एतत्पिण्डनिरूपिता के नियामक स्वभाव से हो नियम्य होगी तो अन्य गोविन्ड भी उक्तसम्बन्ध से एतपिण्डनिरूपितवृत्तितावान् होगा । जैसे, स्व का अर्थ होगा एसपिण्डनिरूपित गोत्वनिष्टत्तिता, उसका नियामक स्वभाव होगा गोवस्वभाव, उससे नियम्य स्वा अयनिष्ठवृत्तिता होगी अन्यपि निरूपित सिला उस वृलिता का पिकस्य प्रभ्य पिण्ड में रहेगा । अतः अन्य पिण्ड में एसस्पिड के अनेव की प्रारति हो सकती है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पास्त्रातील लो०३ दूसरा विकल्प नो स्वीकार्य नहीं हो सकता क्योंकि एक गोपिण्ड में गोत्व मिस स्वभाव से रहेगा यदि जस स्वभाव से भिन्न अन्य स्वभाव से दूसरे पिण्ड में रहेगा तो गोत्व में अनेक स्वभाव का सम्बन्ध होने से अनेकत्व को आपत्ति होगी । कहने का मामय यह है कि यदि उन दोनों स्वमावों का आश्रय एक होगा तो धर्म और धर्मी में प्रमेव होने से जन स्वभाव में भेव न हो सकेगा । अतः एक स्वभाव से सामान्य में एकापिण्यांतता का और अन्यस्थमा से पिण्डातरवत्तिता का नियमम नहीं हो सकेगा । प्रतः स्वभावों में भेव की उपपति के लिए सामान्य में भेद मामना पावश्यक होगा। एतेन "पिलम गोबुद्धिरेगीवानवाना। भामाशरूपाभ्याकगण्डिधुद्धिवत् ॥४४ ।। न शायलेयाद् गोबुद्भिस्तनोऽन्यालम्बनापि वा। तदभावेऽपि गदाबाद् घटे पार्थिवृद्धियन् ॥४॥ प्रत्येकसमवेताविषया बापि गोमनिः । प्रत्येक कृत्स्नरूपत्वात प्रत्येकन्यक्तियुद्भिवत् ।। ४६ ।। प्रत्येकस मेवनापि जातिरफैकबुद्धितः । न बनविय शम्या त्राक्षणादि निवर्तनम् ॥ ४७ ।। नेकरूपा मत्तिर्गोत्वे मिथ्या बक्ने च शक्यते | नापि कारणदोषोऽस्ति माधकः प्रापयोऽपि वा ॥४॥ इत्यादि [ श्लो० वा. वनवाई ] कुमारिलोसमपास्तम्, उक्तरीत्या स्फुटदोषत्वात् । [कुमारीलभट्टकृत सामान्यनिरूपण का निरसन ] ध्यारयाकार ने इस संवों में सामान्य साधन के प्रसकी कुमारीलभद्र की पोचकारिकाओं का उल्लेख कर उनके कथन में भी उक्तरीति से घोषयुक्तता को स्फुट कर उसे निरस्त कर दिया है। [1] भट्ट को उन कारिकाओं में प्रथम कारिका से विभिन्न गोपण्डिों में होने वाली गोबुद्धि में एकगोस्व-निमित्तकत्व का साधन किया गया है। भट्टामिमत अनुमान प्रयोग इस प्रकार है-विभिन्न गोपिण्डों में होनेवाली गोद्धि (एफगोत्य निमित्तक है अर्थात स्वप्रकारकस्म, स्वमिन गोरक्षप्रकारकात्रसम्बयाप्रच्छिनप्रतियोगिताक स्वाभाववस्व' इस उभयसम्बन्ध से गोस्ववत है। (हेतु-) क्योंकि गोवटि है अथवा (२) एकरूप है अर्थात एकानुषिक शब्ध से अभिलास्प है। जैसे एक गोपिण्ड व्यक्ति में गोवुद्धि । आशय यह है कि जिन के मत में गोस्व निखिल मोपिण्डों में रहनेवाला एक सामाश्यरूप नहीं है किन्तु स्वाश्रयस्वरूप है प्रषया एकव्यक्तिमात्रवृत्ति धर्म है उनके मत में भी एक गोपिण्डविषयकवधि में उक्त उममसम्बन्ध से गोत्व है। क्योंकि उनके मत में भी उस अति में एक ही गोत्व प्रकार है । प्रतः मोस्व का स्वप्रकारकर सम्बन्ध और स्वभिन्नगोस्वप्रकारकरषसम्बन्धविन्नतियोगिताकस्वाभाववस्व सम्मन्ध विद्यमान है। अब यदि इन दोनों सम्बन्धी से विभिन्न गोपिण्डों में होनेवाली गोबदि में गोश्व का साधन किया जाय तो सकन गो में एक ही गोस्व सिस होगा। क्योंकि सफल गो में एक ही गोत्व मानमे पर म्वभित्रगोत्वप्रकारकरव घटस्वाति का ही सम्बन्ध होता है.गोरष का तो व्यधिकरण सम्बन्ध हो पाता है। प्रत उस सम्बन्ध से गोस्व का अभाव गोरखप्रकार. .कमुद्धि में रह सकता है। और गोत्य को अनेक मानने पर उस बुधि में उक्त उमयसम्बन्ध से गोष की सिडनीती। १. शोकवातिकमुद्रितपुस्तके 'तस्मात् पिण्टे गु गो' इति पारः। २. लोक. 'क्तेष्वपि वा' १३ श्लोक. 'नात्र का'। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पाटीका एवं तिन [२] वूसरी फारिका से भट्ट ने अनेक गोषिणों में होने वाली एक गोवृद्धि की सदशगोविषयत्व से उपपत्ति का निराकरण किया है। आशम यह है-कि अनेक गोपिच्छों में होने वाली गोवृद्धि का घि उस बुझि को एकवर्ण के गोपियों को निमित माम कर यदि उपपति की जाम, तो यह मी सम्भव नहीं है क्योंकि अनेक पोपिक में गोबद्ध किसी एक ही वर्ग के प्रनेक गोपिण्ड में नहीं होती किन्तु विभिन्नवर्ण के गोपियों में भी होती है। इसीलिये जैसे वामलेय -चित्र गोरूप निमित्त से अनेक गोपिण्डों में एक गोपद्धि की उपपत्ति नहीं की जा सकती इसी प्रकार चित्र से अन्य शुक्लावियों के गोको निमिसमानकर भी उस विकी उपपस नहीं की जा सकती क्योंकि यह धुद्धि चित्र गोपिण्ड में भी होती है। इस निराकरणका आधार..'जो दिया अनेक व्यक्तिओं में होती है बहदि ताशयक्तिनिमितका होती है इस नियम का पयभिचार है, जो-विभिन्नवों के घटों में होने वाली पाथिक वृद्धि में इष्ट है क्योंकि वह बुद्धि भी समानवर्णव मिमिस नहीं होती। [३] तीसरी कारिका में गोवुद्धि में प्रत्येक में समझायसम्बन्ध से परिसमाप्तार्थविषकाप का साधन करके यह बताया गया है कि यिभित्र गोपिण्डों में जो गोपद्धि होती है उसमें विशेषणविधया भासित होने वाला गोख प्रत्येक गोष्यक्ति में समवायसम्बन्ध ले परिसमाप्त होता है । अनुमान प्रयोग इस प्रकार है-विभिन्न गोपिण्डों में होने वाली गोबुधि प्रत्येक गोपिण्ड समवापसम्बाप से परिसमाप्त अर्थ को विषय करती है क्योंकि प्रत्येक पिण्ध में पूर्णाकारतया अनुभूस होती है। प्रति एक गोव्यक्ति को देखने पर भी 'गां पूर्णामनुभवामि गाय को पूर्ण रूप में देखता हूँ इस प्रकार का प्रनुभव होता है। और यह नियम है-जो बुद्धि प्रत्येक में पूर्णकार होती है वह प्रत्येक में समवेतार्य को विषष करती है। जैसे एक एक रुपक्ति की बुद्धि, अर्थात् 'यह एक है इस प्रकार की बुनि। [४] चौथो कारिका में प्रत्येक गोपिज़ में समयाघसम्बन्ध से परिसमाप्त भी गोरक में एकस्वबुद्धि से एकस्व का साधन किया गया है। अनुमान प्रयोग इस प्रकार है-प्रति गोपिस में समयेत गोश्व एक हैपयोंकि प्रति गोपिण्ड में एकत्वेन जात होता है। जैसे नञ्युक्त अर्थात् 'वादि बाह्मणः' इस वाक्य में अब्राह्मण पब से एक एक गुनावि में परिसमाप्त प्रतीत होनेवाला बागमेव विभिनाश्रयों में एकस्येम शायमान होने से एक होता है। [५] पांचवी कारिका में गोस्व में एकत्वमद्धि के मिष्याय का यह कहकर निराकरण किया गया है कि मिथ्यास्त्र की सिद्धि कारणोष अथवा मापक प्रत्यय ले होती है किन्न गोत्व में जो एकरव मुखि होती है उसमें कोई कारणदोष नहीं है और न उसका कोई बाधक प्रत्यम है। इन कारिकामों से कुमारील ने सामान्य को सिद्ध करने का भी प्रयास किया है वह पूर्वोक्त दोषों से निरस्त हो जाता है। इथं च कार्यकारणनायवच्छेदकतया जातिसिद्धिरप्यपास्ता, कार्य-कारणयोः कथंचिदश्येमापि कार्यकारणभावनिर्वाहात् । किंच, एवं गगनादौ सप्लायर्या मानमन्वेपणीयं स्यादायुष्मता; ट्यजन्यतावच्छेदकतया सिदस्य सत्त्वस्य नत्राभावात् । न च द्रयवादिना साकभिया तत्र सत्तास्वीकार, सत्तया तयाऽपरिवानात् । न योपाधिमाफर्यस्येव जातिसक्रियस्यापि दोपत्ये बीजमस्ति । 'जात्योः साकये गोवा-ऽश्वत्वयोरपि सथात्वापत्तिस्तदोपल्वे वीजमिति Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शास्त्रमा सलो. चेत् ? नआपादफाभावात् । न हि संकीर्ण योजातिवं गोत्वाऽश्वत्वसामानाधिकरण्येन व्याप्तम् । 'तथापि शक्का भविष्यतीति येत ? सा यदि स्वरसवाहिनी, तदा लोकयात्रामात्रोल्लेदकतया न दोषाय । यदि व जातित्वसाधारणधर्मदर्शनजन्या, तदा प्रत्यक्षायां गत्रि विरोषावधारणादेव निवर्तते अन्यथोपाधिसॉकर्यदर्शनजन्या सास्नाकेसरादिसाफर्यशंका दुरुच्छ व स्यात् । ". . [ कार्यतादि के अवच्छेदकतया जातिसिद्धि अशक्य ] कार्यता और कारणताबि के अबश्वक रूप से भी जाति को सिशि नहीं हो सकती है। क्योंकिकार्य और कारण में कात्रिय ऐपय मानकर कार्य-कारणभाव का निर्वाह कर सकते। अर्यात चित सप्तरकायस्य को तसारा पा मकर -पानी कारणता की भापत्ति का परिहार किया जा सकता है । दूसरी बात यह है कि यदि पवायों के लव हो उपपत्ति यदि सत्ता के समवाय से की जायगी तो गगनाविका सत्व सिद्ध करने के लिये सामान्यपादीको प्रमाणातर का प्रग्वेषण करना होगा, क्योंकि 'समवायसम्बन्ध से जन्य सत के प्रति तावात्म्यसम्बध से प्रध्य कारण होता है इस कार्यकारणभाष के आधार पर यजम्यताबष्टककातयः सत्ता सिद्ध होती है। अतः पजन्य गणतादि में उसका समचाय नहीं हो सकता। यषि यह कहा बाय कि-"गगनादि में सत्ता न मानने पर ससा में ब्रम्बस्व का सांकर्य हो जायगा, अतः गगनधि में भी सत्ता मानना मासयम है"..तो यह ठीक नहीं है क्योंकि सत्ता को साफर्य भम का शान मा। है जिससे वह सोकर्य से मौत होकर गगनादि में रहने लग जाय । इसके अतिरिक्त एक दूसरी बात यह है कि असे उपाधिसकिय वोष नहीं होता उसी प्रकार जातिसाकर्य को भी दोष मानने में कोई बीज नहीं है। यदि यह कहा आप कि-जाति में सांस मानने पर गोस्व-प्रावाव में भी सांपर्य को प्रारत्ति होगी मतः यह मापति ही जातिसौकर्म में बोषरा का बीज है-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि गोस्व-प्रश्वत्व में सकिय का कोई आपावक मही है। कारण, 'लंकीर्णप्तिजातित्व में गोस्व-अश्वष का सामानाधिकरपय हो ऐतो व्याप्ति नहीं है। यदि यह कहा जाय कि संकीर्णनिष्ठ आतित्व में गोस्व । आवत्व के सामामाथिकरण्य की व्यारित न होने में आपत्ति न हो किंतु गोत्व-अबव में परस्पर सामानाधिकरय की शंका हो समाती है, तो यह नहीं है क्योंकि यह शंफा यवि स्वाभाविक मानी जायगी तो ऐसी शंका सर्वत्र सम्भव होने से लोक मात्रा मात्र का उच्छर हो जायगा, आहार में प्राणघातकरम की शंका होने से जीविता की माहार प्रहए में प्रवृत्ति न हो सकेगी। इसप्रकार सर्व प्रवृत्ति के लोप का प्रसङ्ग होगा। यदि यह कहा कार कि 'उक्त का स्वाभाविक नहीं है किन्तु जातित्व जो पृथ्वोश्व और व्यत्य में सामानाधिकरण समानाधिकरण है एवं घटव और पटव में असामानाधिकरग्य का समानाधिकरण है उनके चंग से गोत्व और सावन में सामानाधिकरण्यासी शंफा हो सकती है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष गो में गोश्व और मश्वस्व में पश्यत्वाऽसामानाधिकरण्यरूप विरोधका निश्चय होने से उसी से उन में सामानाधिकरण्यशका का प्रतिबन्ध हो जाममा । मवि ऐसा नहीं माना जाता तो भूतस्व. मूर्तस्वादि उपाधिनों में सांकर्य के वाम से सास्नाविमत्य और केसरादिमत्त्वरूप उपाधिक्षों में भी सकियशंका का परिहार असम्भव होगा। अश्व जात्योः परस्परविरहसमानाधिकरणत्वस्य परस्परविरहल्याप्यतावच्छेदकवाद पर Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा.क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] स्परविरहसमानाधिकरणों धर्मों यदि जाती स्याता, परस्परविरहव्याप्यों स्यातामिति पाचकमिति वेत् १ न, परस्परविरहसमानाधिकरणत्वस्यकस्याभावेन गोवाभावसमानाधिकरणत्वे गोत्वसमानाधिकरणास्यन्मायागोमिवादिषश्वपाद तावाद या कल्पनीयमिति न संकीर्णयोस्तथात्वम् , मानाभावान, खमानाधिकरण्यग्राहकमानविरोधाश्च । [सकर्य जाति में वाधक नहीं हो सकता ] पति यह कहा जाय कि जातियों में जो परस्पराभावसामानाधिकरप्य होता है वह परस्पराभाष का व्याप्यतावच्छनक होता है। जैसे गीत्व और प्रश्वत्व जाति में परम्परामाषका सामानाभिभारण्य है और वह परस्परामाव का ग्याप्यतावच्छेवक भी है, क्योंकि परस्पराभाव की समानाषिपारण उक्त दोनों जाति परस्परामाव की कमाप्य है। इसप्रकार यह पापत्ति हो सकती है कि परस्परामाष के समानाधिकरण कोई भी वो धर्म पवि जातिल्प होंगे सो परस्परामाष के व्याप्य हगि । फलसः, पल आपत्ति ही संकीर्ण पो के अर्थात् परस्परविरहसमानाधिकरण होते हमे परस्परसमा. माधिकरण धर्म के मातित्व में बाधक-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि गोत्व प्रौर बावरण में जो परस्पराभावसामानाधिकरण है वह एक नहीं है क्योंकि गोस्वनिष्ठ अश्वत्थामाव का सामानाधिकरण्य अश्वस्वाभावाधिकारणपत्सित्वरूप है। अत: यह अश्वत्वामावाधिकरण गोस्वरूप निरूपक के मेव से मिन एवं अश्वस्व में ओ गोस्वाभावसामानाधिकरण्यागोत्वामायाधिकरणापनि असिस्वरूप है। अतः वह भी अपवरूप निरूपक के मेव से भिन्न है। इसलिये उनमें कोई भी परस्पराभाव का पाप्यताषणदेवक नहीं है किन्तु अश्वत्व में गोरखविरोपिता और गोस्व में अश्वत्यधिरोषिक्षा का अवच्छेवक रहता है और यह कम से गस्वाभावाप्तमानाधिकरणावे सति मोरवसमानाधिकरणाक्ष्यतामाक्प्रतियोगित्व, एवं अश्वत्थामाबसमानाधिकरणाचे सति प्रश्वत्वसमानाधिकरणारयतामावप्रतियोगित्वरूप है। गोरखविरोभिता 'सिमस्ये सति गोत्व का असामामाधिकरण्य' रूप है। एवं अश्वश्वविरोधिता 'वृत्तिमत्वे सति अश्वत्वासामानाधिकरम' रूप है। गगनादि अलिपराया में गोत्वावि को विरोभिता का प्यबहार नहीं होता है अत एवं गोस्वाबिदिरोशिता के शरीर में असिमरव' का निवेश है । उस निवेश के कारण ही गोस्वामिविरोधितावरक की कुक्षि में गोरखाभाषसमासायिकरणस्य का निवेश आवश्यक है। अन्यथा गोस्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगिरम गगनादि में अलिप्रसात होने के कारण केवल तबमात्र गोत्वादिविरोधिता का भवस्यक नहीं हो सकता । अतः उक्त प्रापतिरूप बाधक को दीक्षा कर संकीण धमों में आतित्वाभाव का समर्थन नहीं हो सकता। क्योंकि जातिनिरुद परस्पराभावसामानाधिकरणय परस्परामावस्याध्यता का अवस्था होमे में कोई प्रमाण नहीं है । अपि तु परस्परसभावसमानाधिकरण जिन मातियों में जिस प्रमाण से पररूपरसामानाधिकरम्प का पह होगा उस के विरोध में परस्पराभावप्तमानाधिकरण में परस्परामायव्याप्यता की सिद्धि नहीं हो सकेगी, क्योंकि उसके निश्चय में प्रतिबन्ध लग जायेगा। किन, संकीर्णयोरजातित्वे घटत्वमपि जातिनं स्यात् , पृथिवीत्वेन पराएरभाषानुपपचेः । अथ पृथिवीत्यादिन्याप्यं नानेव पटकम् , फुलालस्वर्णकारादिजन्यताकछेदकतया तमानात्वस्यावश्यकत्वात् । अत एवं घटत्वाध्यायं पृथिवीलादिकमेव किं न स्यात् । इति नाविनिगमः, Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ [ पास्त्रमा स्त०७ लो.. समानात्ये तज्जयतामच्छेदकनीलल्यमान्धत्व-भास्वरत्वादिनानाबापत्तेः, अनुगनधीस्तु कश्चिसौसादृश्यादिति चेत् ? न, नीलादी नीलादेरसमवायिकारणस्नानतिप्रसंग पृथिवीत्वेन वत्रा हेतुन्वात , भाषकायें ससमवायफारणकन्यनियमाभायात, भावे वा जायसवावच्छिम प्रति द्रव्यत्वेन हेतुतयेवोपपसे, घटत्वस्य नानात्वे तज्जनकतारच्छेदकरयोगनिजातिनानात्वस्याभिषातत्वादेस्तदच्याप्यत्वस्य कल्पने 'पातिगौरवान् । [पटन्य जातिम्वरूप कसे होगा १] दूसरी बात यह है कि यदि संकीर्ण धर्म को जाति न माना जायगा तो घटस्व भी आति रूप म हो सकेगा क्योंकि पार्थिव और सौवर्ण विविध घटों में घटत्व के रहने से उसमें पृश्वीत्व के साथ स्याप्यम्यापकमाव न होने से पृथ्वीरव का किर्य है। पवि राज जि और उस पायाप्य घटत्य भिन्न भिन्न है। क्योंकि पषिष घट की कुलाल से प्रोर सोयर्ण घट को स्वर्णकार से उत्पत्ति होने के कारण कुलालजस्यताबपदक घटव और स्वर्णकारमन्यतापसददेवकघटत्व में मेद आवश्यक है। पृथ्वीस्वाति का स्मारय पाय भिन्न है । इस संदर्भ में इस प्रकार का विनिगमनाविरह का उद्धावन नहीं किया जा सकता कि 'पृथ्वीस्वाविण्याप्य घटत्व भाउ मिन्न माना पाय अथवा घटत्ययाप्य पृथ्वीत्वादि भिन्न भिन्न माना माय, क्योंकि यधपि दोनों को पक्षों में घरव-पृथ्वोत्व के सक्रिय का कारण हो सकता है तथापि घटस्य के नामास्व में विनिगमना यह है कि मूलाल एवं स्वर्णकार के जम्यतापमवक होने से घरस्व में विभिन्नता यावश्यक है। एवं पृथ्वीत्व के विभिन्नस्य में बाधक भी है जैसे, पृथ्वोत्व को भिन्न भिन्न मानने पर पृथ्वी के जन्यतापच्छेवका तीसत्व और गन्धक्ष्य में एष तेज के समयसापरचेतक भास्वरस्य में घिमिनस्व की प्राप्ति होगी, क्योंकि नीलस्वादि को एक मानने पर नीलरमायबस्छिन्न के प्रति विभिन्न पृथ्वोत्याषछिन्न को कारण मानने पर व्यतिरेक्व्याभिचार होगा। क्योंकि एक पृथ्वीत्वावछिन्न के प्रमाव में भी अन्य पृथ्वोस्वालियन से नीलस्वाद्ययन के उत्पति हो जाती है। प्रतः घटाव के विभिनत्य में कोई बाधक न होने से उसको माति मानने में कोई यात्रा महीं हो सकती, पोंकि पृथ्वीत्यादिध्याप्य घटस्थ में पृथ्वोत्याधि का सांग नहीं हो सकता। तथा, समस्त घटों में एकस्य के म गोमे पर भी पाविप और स्वयंघट में आकार का अतिशय साम्प से घटाकार अनुगतबुद्धि की उपसि हो सकती है ।" [पृथ्वीन्य को विभिन्न मानने में कोई आपनि नहीं है ] किस्सु या प्रतिपाचम ठीक नहीं है, क्योंकि पृथ्वीत्यादि को विभिन्न मानने पर भी पृथ्वी के जन्यतावच्छेदक मीनत्यादि में विभिनाय का आपाबन नहीं किया जा सकता। योंकि नीलश्नानवविन के प्रति पृम्धीत्वेन पृथ्वी को कारणता ही नहीं है। क्योंकि मोलाबाधवनि के प्रति पृथ्वीस्वावच्छिन को कारण म माना जाय तो भी अवयषीगत नौलादि में प्रथमवगत नोलावि मतमवायीकारण के प्रभाव से हो नीलस्यायवस्टिन की उत्पति की आपति का परिहार हो सकता है । भाषास्मककार्य अवश्यमेव समायिकारणजन्य होता है इस नियम के अनुरोध से मी पृथ्वीत्वाथ चिजन को नीलस्वाच्छित का समयामी कारण मानना उचित नहीं है, क्योंकि 'भाव कार्य समधायिकारणजन्य ही होता है इस नियम में कोई प्रमाण नहीं हैं, बस्कि इस नियम को न मानने में सावध है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याटीका एवं हिन्दी विवेचना यवि भावकार्यत्व में तमघायिकारणसम्यत्व के सहवारग्रह और व्यभिचार के अग्रह से उक्त नियम माना भी जाय, तो भी उसके अनुरोध से नीलस्वाचिछन्न के प्रति पृथ्वोत्वाचवच्छिन्न को कारण मामना आवश्यक नहीं है क्योंकि समवापसम्बन्प से अन्यभावमात्र के प्रति तावात्म्यसम्बन्ध से व्यसामान्य कारण इस कार्यकारणभाव से मो उस नियम की उपपत्तिहो सकती है। अतः 'पृश्वीरवण्याप्य घटत्व विभिन्न है अथवा घटत्यध्याप्य पश्चीएष विभिन्न है इस में कोई विनिगमक म होने से दोनों ही पक्ष नहीं सिद्ध हो सकते। [घटन को विभिन्न मानने में बाधक ] इस के अतिरिक्त घटस्य के विभिन्नत्व में बाधक मो है। वह यह कि यदि घटाव विभिन्न होगा तो उसके जनकतावादक कपालयसयोगनिष्ठमाप्ति को भी विभिन्न मानना होगा। पयोंकि यदि घटजनकीचूत कपालन्यसंयोगमात्र में एक जाति मानकर तम्माप्तिपुरस्कारेण कपालयसंयोग को विमिन्नघटस्वामित्र के कारण माना जायगा तो ग्रामपश्यभिचार होगा और अभिघातत्यादि को संयोगनिष्ठघटनाकसाबस्छवकीम्रत विभिन्नजातियों का व्याप्य मानना होगा । अन्यथा उन जातियों में अभिघासस्य आदि का सकसे हो जायगा। प्रेसे मेरोदण्डाभिधात में अभिधासत्व रहता है किन्नु घटजनकताव चवको मूत संयोगमिष्ठजाति उस में नहीं रहती। एवं जक्तजाति मोवमात्मक कपालअनकसंयोग में रहती है किन्तु उस में अभियासत्य नहीं रहता-कौर अभिघातस्य एवं उक्त जाति दोनों जातियां घटनामफीभूतामिघातात्मसंयोग में रहती है। इस प्रकार घटस्व को विभिन्न मामने पर संयोगनिष्ठ घटजनकताबछेवकाजाति में मानात्व और अभिघासत्वादि में उक्तजातिकमाप्यस्व मानने पर अभिघातत्वादि में विभिन्नत्व की कल्पना करने में अत्यन्त गौरव होगा। न च जन्यद्रव्पजनकतावच्छेदिकव संयोगनिष्ठा जातिरुपेयते, न त घटादिजनकतावच्छेदिकापि, यत्र कपालयोः संयोगविशेषाद् द्रन्यान्तर भवति तत्र कपालत्वस्यैवाऽस्वीकारेण घटोत्पत्यनापत्तरिति धारयम, ताभ्यामेवोत्तरकालं संयोगविशेषेण घटारम्भदर्शनात् । न चोतरकाले प्रचणुकादिलक्षणकिचिदत्रयवापगमात् खण्डकपालान्तरमुत्पयते तत्रय घटजनकतावछेदिका जातिरिसि वाच्यम् तत्र किश्चिदययवापगमात् खण्डकपालोत्पति:, किश्चिदन्यवसंश्लेपान् महाफपालोत्पत्ति ति विनिगन्तुमशक्यबाद, ततः कपालान्तरोत्पत्तेरपि तत्र कपालन्यस्वीकारं विना दुर्घटत्वाच । "हन्त ! एवं घटत्त्वम्य नानात्वे घटसामान्ये कपालत्वेनापि हेतुत्वं भज्यत" इति चेत ? मज्यताम् , किं वरिष्यते ! न छात्राथें वेदोऽस्ति । न च घटजनकसंयोगविशेष प्रत्यपि कपालत्वेन हेतुन्वसुपेयमिति घटत्वनानास्त्रमावश्यकमिति वाच्यम्; कपालत्वेन तदुपादानरपे घटन्नघटजनकर्मयोगनिष्टजास्पादिनानायकम्पने गौरवान्, तदुपादानतावच्छेदिकाया यवैकल्याः स्वीकातु मुचितत्वात् । [ संयोग और जन्पद्य्य के सामान्य कार्यकारणभाव की शंका और उत्सर ] यपि यह कहा जाय कि-"घटावि के प्रति संयोगविशेष को कारण न मानकर जन्यम्यसामान्य के प्रति संयोग सामान्य कोही कारण मानने में लायब है। मतः संयोग में अत्यनध्य की Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ s [ शास्त्रवा००७०३ D जम्यतावक ही जाति होती है घटादि की जमकतावकवक जाति नहीं होली | अतः घटको मामा मानने पर संयोगमिष्यथ कनकतावच्छेदकजाति में विभिन्नश्व कल्पनाप्रयुक्त गौरव नहीं हो सकता घटादि के प्रति संयोगविशेष को कारण न मानने पर भी कपालद्वय के संयोगविशेष से जहाँ यान्सर की जाति होती है यहाँ घटोत्पति को प्रापति नहीं की जा सकती। क्योंकि कपालनाम से बहुत किये जानेवाले जिन थ्यों के संयोगविशेष से द्रव्यान्तर की उत्पत्ति होती है उनमें कपालव हो नहीं है । अतः उन में घटोत्पत्ति का प्रापावन नहीं किया जा सकता, क्योंकि घट के प्रति कपाल कारण होता है और वे द्रष्य कपाल से भिन्न हैं ।" तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि जिन कपालine asों के संयोगविघोष से ग्रभ्यान्तर को उत्पति होती है उस संयोग का और दयातर का नाश हो जाने पर उन्हों उथ्यों के संयोगविशेष से घटोत्पलि देखी जाती है। भ्रतः उन्हें कपालभित्र नहीं कहा जा सकता 7 [ अवयव पृथक होने पर घटोत्पत्ति शक्य न होने की शंका और उत्तर ] इसके प्रत्यु में यवि यह कहा जाय कि कपालक जिन द्रव्यों के संयोग से रुपान्तर को उत्पति होती है, के उस संयोग का प्रयान्तर का साया हो कर उनके पुनः संयोगविशेष से जय टोपत होती है तब उन मों से धणुकादि यदि के अलग हो जाने सेयार की उत्पत्ति होती है और उस खण्ड में कलश्य जाति रहती है। अतः उनके संयोग से उनमें पत्ति होना उचित है। किन्तु हृणुकादि यत्किचिदवयों के पृमक होने के पूर्व जम मों में कपालत्व नहीं रहता अतः जनके संयोग से इभ्यान्सर की उत्पत्ति के समय घटोत का मापावन नहीं हो सकता" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि 'यत्किंचिवक्त्रों के पृथक हो जाने से mr की उत्पति होती है अथवा ग्रहियों के संयोग होने से महाकाल की उत्पत्ति होती है' इसमें कोई गिना नहीं है। तथा यह कहा नहीं जा सकता कि 'उक्त दोनों में मिगमला न होने से दोनों ही पक्ष मान्य हो सकते हैं । कारण, कहाँ तोकिदियों के पृथक होने से करा की, और कहीं यत्किचिदपत्रों के संश्लेष से माकपा की उत्पति होती है और सतहों में उत्पन्न होनेवाले कपाल के अथवा महाकपालय के संयोग से घट को उत्पत्ति होती है क्योंकि शुकावि परिकविषयों के पृथक होने से उत्पन्न होने वाले में अथवा sure प्रति यत्किमित्रों के संयोग से उत्पन्न होनेवाले समय में कपालव न मामने पर कपाल एव का कोई नियामक हो सकेगा । | ड कपाल में कपालख मानना आवश्यक ] दूसरी बात यह है कि धणुकावि परिकविषयों के पुत्र होने पर अथवा संयोग होने पर जिस से कफालालर की उत्पत्ति होती है उस में कपालस्य मानना आवश्यक है क्योंकि यदि उसे कपाल न माना जायगा तो उस से कपालान्तर की उत्पत्ति न हो सकेगी, क्योंकि खण्डकपाल के प्रति महाकपालमा और महापाल के प्रति लघुकपाल के अवयवों में अवयवान्तर का संयोग कारण होता है। अतः यहादि के प्रति भी संयोगविशेष को कारण मानना आवश्यक होने से घट के विभिन्नत्वपक्ष में संयोग मिष्ठ घटजनकतावच्छेदक जाति में जो विभिश्व का आपावन किया गया है वह दुमिवार है। यह भी शातव्य है कि घटस्य के विभित्यपक्ष में पटसामान्य के प्रति कपालरूप से कपाल को Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याका टीका एवं हिन्दी विवेचन ] कारणसा का भी भङ्ग हो मायगा नयोंकि इस पक्ष में निलिमघट में एक घनत्य है नहीं और विभिन्नघटत्वावच्छिन्न के प्रति कपालस्वेन कारणता मानमे में अम्पयन्यभिचार होगा। [घटत्व विभिन्न होने का नैयायिक कृत समर्थन ] , मंयायिक की ओर से यदि यह ऐसा समाधान किया जाय कि-"उक्त कार्यकारणभाव का भंग होने पर भी मैयायिक को फोई क्षति महीं है, क्योंकि उक्त कार्यकारण माब का बोधक कोई वेश नहीं है जिसके अनुरोध से उक्त कार्यकारणभार मानना ही पहे। इसके अतिरिक्त घटस्व में विभिन्नत्व के समषन के लिये नयायिक मह भी कह सकता है कि घटसामान्य के प्रति मवि पालापने कपाल को और यानिधित एक जाति पुरस्कारेण कपालयसंयोग को तथा पटननविजातीयसंयोग के प्रति कपालस्वेन कपाल को कारण माना जाय तो भी घटत्व को विभिन्न मानना आवश्यक है क्योंकि घटाव को यदि एक मान कर घरस्वत्वन्छिन के प्रति कापालवेन कपाल को मोर यत्किषित एकाति पुरस्कारण कपालवयसंमोग को कारण माना जायगा तो सौवर्ण घट भोर पार्थिवघर के प्रति कोई पषक कारण न होने से इस कार्यकारणभाव के बल से हो सौवर्ण और पाथिपघट की उत्पत्ति माननी होगी। इस स्थिति में सौवर्ण कपालयसंयोग से पाणिवघट की और पार्थिव पालायसंयोग से सौवर्ण घट की उत्पत्ति को प्रापति होगी। अतः पृथ्वीत्व और सेजस्व के व्याप्य घटस्व को मिन भिन्न मानकर पृथ्वोत्वस्यापम घटस्वावच्छिय के प्रति पाथिय कपाल और पापियकमालयसंघोग को एवं तेजस्वध्याप्य घटस्वास मिशन के प्रति संजसकपाल प्रौर तंजसकपालमसंयोग को चारण मानना मायापक है। अतः घटश्व में पचौरवादिका सांकर्य बताते युधे उसे जाति मानकर संकीर्णधर्म मात्र में शातिस्प का समर्थन नहीं किया जा सकता" [पृथ्वीत्वादि से संकीण घटन्म जाति की सिद्धि ] फित नयायिक का यह कथन ठीक नहीं है कि न्यायमत में कपालस्वरूप से कपाल को घर का उपावाम मानने पर घर और घटजनसंयोगमिष्ठजाति तथा कपालस्व में विमित्रस्व की कल्पना करने में गोरप होगा। असः पार्थिव-सौवर्ण सभी घदों में एक घटस्व भाम कर कपालको घटसामान्य को उपादानता का अवस्थेवक करमा हो उचित है। इस पक्ष में जो यह पाथिबकपाल और पाधिवकपालयसंयोग से सौवर्णघट को एवं सौवर्णकपाल और सौवर्णकपालनपसंयोग से पापिवघट की उत्पति बतायी गई है वह नहीं हो सकती क्योंकि जन्यतेमास्वावच्छिनके प्रति तेजरावेम तेज उपरवानकारण होता है और जन्एपवित्वावच्छिन्न के प्रति विश्वेन पुरवी उपादाम कारण है। सौवर्णघट पान्यतेज है और पार्थिवघर मन्यपश्वी है । प्रतः सौवर्णघद को उत्पत्ति में जन्यतेजस्वापछिन की सामग्री की अपेक्षा होने से चार पाघिवघट की उत्पत्ति में जन्पपृथ्वीत्वावलियन की सामग्री की अपेक्षा होने से अधिवकपाल में पाविष्ट की और अतंजस कपाल में संजप्त घट की उत्पत्ति की प्रापत्ति नहीं हो सकती । इस प्रकार लायव से पृथ्वीस्वादि से संकीणं एक घटस्वजाति की सिद्धि अनिवार्य होने से साकर्म को जातिबाधक नहीं माना जा सकता । फिश्च, एवं सामयिका शक्निविशेषः, अभावविशेपो वा घटहेतुः स्यात् , स्याद् वा घरकुर्वपत्नय पटहेतुत्वम् । प्रत्यभिज्ञानुरोधस्य स्वयत्रोपेचितत्वात् । यदि चानुभवोऽनुरुध्यते, तदा भेदाभेदविचित्रशक्त्यनुविद्धमामान्यविशेषभावाभ्युपगमं विना दुर्घट एवं हेतु-हेतुमदात्रः । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सारस्वा० त० लो. [ शक्तिविशेष अभावविशेष या घटकुर्वपत्र आदि का आपादन] इस संभ में यह विचारणीय है कि यदि घटत्व और कपालत्यहा से सामान्य कार्यकारणभाव की उपेक्षा कर घटस्य को विभिन्न मानना है तब तो यह भी कहा जा सकता है कि घट के प्रति सामाधिक मानो तत्समयमाया पाक्तिविशेष अथवा अभाषिशेष शी कारण है। जिससे, जब घर की अत्पत्ति होती है उस समय उसमें ही पाक्तिविशेष अथवा अभाववियोष मानने से कालान्तर में पग्य वस्तु से घटोत्पत्ति आपत्ति का परिहार हो सकता है। अथवा यह भी पता मा सकता है कि घट के प्रति परपुर्वपरवरूप से ही कयालाविको कारणता है। ऐसा मानने पर पद्यपि घट के कारणीभूत कपालावि में क्षणिकरत्र प्रसत होता है और क्षणिकरवपक्ष में प्रत्यभिक्षा की अनुपपत्ति होती है किन्तु इस अनुत्पत्ति का उझामन विभिन्न घटावनादी की ओर से महीं किया जा सकता क्योंकि उसने स्वयं सौवर्णसारश्य से प्रत्यमिता की उपपत्ति करके प्रत्यभिज्ञा के अभेवप्राहित्व को उपेक्षा कर दी है। - [अनुभव के बल से कार्यकारणभाव की उपपत्ति में स्याद्वाद] यपि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय फि-पालाविनी उत्पत्ति होने पर घटावि की उत्पत्ति होती है और कपालावि के अभाम में घटादि की उत्पत्ति महीं होती यह अनुभव है अत एक इसके अनुरोध से घटत्व के विभिन्नत्वपक्ष में कपासरवादि का भी विभिन्नत्व स्वीकार कर विमिन घरटवायच्छिमके प्रति बिभिन्नकपालस्वामिन को कारण मातमा सावश्यक है, अत: इस अनुभवसिद्ध कार्यकारणभाव का पलापकर, सामयिक शतिविशेष अयथा प्रभावविशेष किया घरकुर्षपस्वविशिष्ट को घर का कारण मानना उचित नहीं है"-तो नैयायिकों को इस बात का भी ध्यान रखना मावश्यक है कि अनुभवसिद्ध ऐसे कार्य और कारण में कश्चिन् मेवाऽभव एवं विचित्रशक्ति से प्रदुषित सामाग्य-विशेषमाष प्रयुपगम के बिना हेतु हेतुमद्राव भी अरयन्स दुर्घट है । क्योंकि कार्यकारण में यदि प्रत्यासमेव होगा तो घट के प्रति सन्तुको और फ्ट के प्रति कपालादि को मो कारणता को आपत्ति होगी। यदि त्यसअमेव होगा तो असे स्व के प्रति स्वको कारणता नहीं होती है उसी प्रकार घटाविको मोकारणता नहीं हो सकी। इसीप्रकार घटादि को सामान्यविशेषामक अर्थात माप से सामान्यामा पौर घटरमादिरूप से विशेषात्मक माने विना मोघट कपाला में कार्यकारणभाव उसी प्रकार नहीं हो सकता जसे घटसन्सु आदि में कार्यकारणभाव नहीं होता। ऐसा मानने पर नैयायिक के कार्यकारा माव की सारी मान्यता ही समाप्त हो जाती है क्योंकि उन्हें प्रसव कार्यवाव अभिमस है जो कार्यकारणभाष के मेवपक्ष में नहीं जन समाता। पतेन-"घटत्र-दण्डत्यादिकमेकत्पत्ति कार्यकारणतयोस्वछेदकम् , मृच्चादिकमेकमेव चकत्यति घटत्यादिकं तु सर्वत्रोपोत्यम्मकपृथिवीपत्ति, कार्यकारणभावाना पहुना साक्षात्समानाधिकरणेनावच्छेदाचिस्यान , कुम्भकारस्वर्णकारादेविजातीयकृतिमधेन, चक्रादि-नतु लादेश कश्चिद्विजातीयसंयोगव्यापारकत्वेन हेतुत्वम् , अन्यथा चक्रादिकं विना यचित् मृदादिपटश्याप्पुत्पतेयभिचारो दुर्वार: स्यात् । 'रूपादिवृत्त्येव तत् किं न स्यात् ?' इति चेत् । रूपादों नीलव-सिक्तत्व-सुरमित्य कठिनत्यादिना सॉफर्यात् द्विस्व-निथपृक्त्यादरनन्तत्यान् , आश्रय भेदा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यीका एवं हिन्दी विदेशन | घनद्देऽग्रहाच एकपृथस्त्यस्यावधिज्ञानव्यङ्ग्यत्वेन बिलम्बोपस्थितिकवात नध्यमते गुणवाभापाच"--इत्यादि निरस्तम्, दोपादेकत्वाऽग्रहेऽपि घटत्वग्रहास् । घटे पटवस्या निकर्षादप्रहप्रसाद, चक्षुःसंयुक्त स्वाश्रयसंपन्वेन वृतित्वस्य सैनिकर्पत्वे गौरवाद , एकत्यत्वग्रहापत्तस्चेति न किश्चिदेतत् । [ घटत्य-दण्डव अथवा पृथ्विन्य एकल्बगत जाति ई-पूर्वपक्ष ] कुछ हिवानों का कहना है कि.. घटस्त्र-वाहरवादि को द्रव्यवृति मानने पर पृथ्वीत्वाधि के साकर्य से घटस्वादि के जातिस्व की अनुपपति होती है। प्रतः घटस्प-बगहरवादि त्यनिष्ट न होकर घट-बण्डाविगत एकत्व में रहने वाली जाति है। यह स्वाश्रयाश्रयत्वसम्बकम से कमशः कायंता और कारणता का अबम्वेवक है। अथवा घटस्व-अपत्यादि अमेक आतित्रों को एकल्यवृत्ति मानने की अपेक्षा पवित्व-तेजस्व मावि एक एक को हो एकस्य पत्ति मानना चाहिये। ऐसा मानने पर घटस्वादि को अपने पभियंका पायो आदि में यत्ति माना जा सकता है। इस पक्ष में मी परस्पाधि में पृथ्वीरवादि का सोकर्य नहीं हो सकता स्पोंकि घटरवादि व्यत्ति है मौर पृष्षीत्वावि एकत्वसंस्थात्मक गुण में वृत्ति है। प्रतः बोनों में सामानाधिकरण्य नहीं है। [ पृथ्वीत्य को एकत्यगल मानने में अधिक गुण ] प्रथमपक्ष की अपेक्षा यह पक्ष अधिक मुक्तिसंगत है क्योंकि प्रथमपान में घटस्व-स्वावि को स्वाश्रमायस्वरूप परम्परासम्बन्ध से कार्यता एवं कारणताका अपाछेवक मामना पड़ता है और इस पक्ष में साक्षात समवायसम्बन्ध से उन्हें कार्यता और कारणता का प्रवन्धक मान सकते हैं, लाघव से यही उचित भी है। कुम्भकार और स्वर्णकार के सन्यतावस्व रूप से घटाव को विभिन्न मानने की आवश्यकता नहीं है. क्योंकि घटसामान्य के प्रति विजातीयकृतिमस्वरूप प्रमुगलयम से कुम्भकार और स्वर्णकार को कारणता हो सकती है। इसी प्रकार चक्राधि कुलाल के उपकरण और वसूल आदि हवर्णकार के उपकरणों को भी विजातीयसंयोगव्यापारकत्वरूप अनुगतयम से घरसामान्य के प्रति कारणता मानी जा सकती है। यही उचित भी है, क्योंकि-बक्रादि को पाधियघट के प्रति चक्ररवाधि रूप से कारण मापने पर पास्वामीम साधनान्तर से भी घट की उत्पत्ति होमे से व्यभिचार की प्रसक्ति होती है। किन्तु विजातीयसंयोगध्यापारकरवरूप से कारण मानने पर व्यभिधार नहीं हो सकता क्योंकि विजातीयसंयोगव्यापारकाव कौर बसस्थानीय अन्य साधन, सभी में साधारण है। [पकन्यवृति माने या रूपत्ति माने इसमें यिनिगमक ] पुष्षीयादि को एकत्ववृत्ति मानने पर इस प्रकार विनिगमनाविरह का आपारन नहीं किया जा सकता कि-'पुच्चीत्यादि को एकरवत्ति ही क्यों माना जाय? पाविसि क्यों माना जाय?'-क्योंकि पृथ्वीस्यको रूपति मानने पर नीलम के साथ, रसवृत्ति मानमे पर शिक्तत्व के साथ, गन्नति मानने पर सुरभित्व के साथ और स्पर्शवत्ति मामले पर कहिनस्व के साथ सोमय होता है । विज पोर नियमावावि में भी पवीत्व को सत्ता नहीं मानी जा सकती गोंकि अपेक्षाक Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गास्नमालिलो.३ के भेव से विवादि में आनम्त्य होने के कारण एकस्व को पृथ्वीस्व का आश्रय मानने की अपेक्षा द्वित्मावि को पृथ्वी का आश्रम मामले में गौरव है। घुसरी बात यह है कि पृथ्वीत्व का मान आश्रय मेद का ज्ञान न रहने पर भी होता है किन्तु वित्वावियसि माममे पर भाषयभेद के अमानवशा में विश्वावि का ग्रह न हो सको से उस समय पृथ्वीरव का ज्ञान न हो सकेगा । पृथ्वीत्व को एकत्रवृत्तित्य और एकपषस्ववृतित्व को लेकर भी विनियमना विरह का चद्धावन नहीं किया जा सकता क्योंकि एकधरव अवधि के ज्ञान से ज्याम्प होने के कारण बिलम्ब पाया है। पूरी बात यह है कि मध्यमत में पृथकाव का भेव में अन्साय होने से उसमें गुणत्व का अभाव है। अतः एकपथक्त्व अभावात्मक होने से पृथ्वीत्यादिजाति का आश्रय नहीं हो सकता। [ एकत्रज्ञानाभावदशा में भी घटत्व का ज्ञान संभव-उत्तरपच ] किंतु यह मत भी निम्नलिखित कारणों से निरस्त हो जाता है जसे,... बोषवपा एट में एकस्व का नान न होने पर भी छात्र का नाम होता है किन्तु घटस्वको एकत्ववृत्ति माल पर उसको उपपत्ति न हो सकेगी । एवं घटत्व को एकस्वति मानने पर घट में घटस्व-इन्द्रियसंमिक न होगा। मतः घट में घटत्व का ज्ञान नहीं हो सकता । यदि घटस्वज्ञान में वक्षःसंयुक्तनिरूपित स्वाश्रयसम्बन्धावप्रवृत्तिस्य को संनिकर्ष माना जायगा तो वक्षःसंयुक्तमिपित समवायसम्बनधाषिप्रवृतिस्थाको संकि मामले की अपेक्षा गौर होगा। तया दूसरी बात यह कि यदि भासंपुक्तनिरूपित स्वाश्रमसम्बवावच्छिमसिस्व को संनिकर्ष माना जायगा तो यह संनिकर्ष घट तारा एकस्वस्थ के साथ भी हो सकेगर अतः घट में एकस्वत्व के प्रत्यक्ष की भी मापत्ति होगी । प्रतः यह मत सछ है । किच, अतिरिक्तसामान्यवन तत्संवन्धोऽपि शिष्याख्योऽतिरिक्तः स्वीक्रियताम् , इति भावाभाव साधारणजात्यनभ्युपगमे बिनापसिद्धान्तं किं बाधकम् ! कथं खादावनुगतव्यवहारः १ कथं या तादात्म्येन जन्यसतः प्रतियोगितया सत्य जन्यतावच्छेदकम् ? न हि जन्याभावचं तव , जन्यत्वस्य धंसगर्भ वेनात्माश्रयान् । न च कालिंकन घटत्य पटत्वादिमचं वत, अनन्तकार्यकारणभावप्रसङ्गाद । यदि चाखण्डोपाधिरूपमेन ध्वसत्यादिकम् , तदा पटत्वादिकमायखण्डोपाधिरूपमेवास्तु, इति जातिविलय एवायातो वानप्रियस्प !। विशिष्टयनामक सम्बन्ध से जातिमान अभाव सिद्धि । इस संदर्भ में यह मी विचारणीय है कि से विशेष प्रानयों से अतिरिक्त सामान्म का अस्तित्व माना जाता है उसीप्रकार उसका वैशिष्ट्य नामक अतिरिक्त सम्बन्ध भी माना जा सकता है। सषा यह सम्बग्य मात्र प्रभाव दोनों का होगा और उसी से सामान्यादि के मामयों में सामाम्यप्रकारक बुद्धिमीर भूतलाव में घटाघभावप्रकारक बुद्धि की भी उपपत्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि'सामान्य का भावाभावसाधारण सम्बन्ध मानने पर जाति भी भाषाभाषताधारग होगी। अत: ऐसे सम्बन्ध की पाल्पना मनुचित है- सो यह ठीक नहीं है क्योंकि भावाभावसाधारण जाति के मन्युपगम में नेपासिक वारा स्वीकृत 'प्रभाव में भाति नहीं होती इस सिमन्तभंग के अतिरिक्त और Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Fवाक टीका एवं हिन्दी विचन , कोई बाधक नहीं है और यह सिद्धान्त युक्तिसंगत न होने से इस के भनके मय से प्रतिपक्षी प्रों को भाषामाबसाधारण जाति का अम्युपगम म करने के लिये विवश नहीं किया जा सकता । [सत्व को जानिरूप न मानने पर बाधक ] दूसरी बात यह है कि यदि जाति को अमावनिमम माना जायेगा तो ध्वंसावि में प्रनुगसव्यवहार की उपपत्ति भी न होगी । उस के साथ ही, प्रतियोगितासम्बन्ध से ध्वंस के प्रति सावात्म्यसम्बन्ध से जापभाव कारण है मह कार्यकारणमाव भी न बन सकेगा क्योंकि सत्य को जाति न मानने पर उसे जन्यतावस बफ कहनां सम्बन हो संगा। सिपावर 'मेरू कोकायंतावर एक महीं कहा जा सकता क्योंकि--तमन्यव समिष्ठास्यथासिविअनिलपकस्वे ससि सवमवाहितोत्तरक्षणवृत्तित्वरुप होता है और तवष्यवहितोत्तरस्वतीयकरणक्षणध्वंसाधिकरणक्षरणध्वंसानाधिकरणत्वे सति ताधिकरणक्षणसाधिकरणस्वरूप होता है। इस प्रकार जन्यस्य के शारीर में बंस का प्रवेश होने से ध्वंसत्व को जन्याभावस्वरूप मानमे पर आस्माश्रय हो जायगा ।। कालिकासम्बाघ से घटस्व-पटरमाविमवभावाव को भी तादाम्यसम्बन्ध से जन्यभाव रूप कारण निरूपित प्रतियोगिस्वसम्मधायनिन हार्यता का अवचक नहीं मामा जा सकता पयोंकि ऐसा मानने पर घटस्व-पटत्वावि रूप कार्यताबसाटेत्रफ के आनम्त्य से मनात कार्यकारणभाष की प्राप्ति होगी। यषि विंस्त्वावि को प्रखण्डोपाधिरूप मान कर उसे अनुगसम्पबहार का नियामक तथा उक्त जन्यता का अबवेवक माना आयगा तो सत्यादि के समान प्रत्याधिको भी भलोपापिकप मानना सम्मष होने के कारण जाति का सर्वथा लोप ही हो जायगा । अतः उक्त प्रयाल मासिवायी को मुक्ता का ही श्रोतक होगा। य-'घटत्यादजातित्वे पटे समवायेन सदमाधीव्यपदेशादिमिति लाधवम् , प्रखण्डोंपाधित्वे तु स्वरूपसंबन्धेनेति गौरवम् ' इति पद्मनाभादिभिरभिदधे, सनुच्छम् , स्वरूपगंयन्धन स्याप्युपाधिरूपत्वेऽनुगतत्वेन लायराऽप्रन्यत्यात समत्रापापेक्षया स्वरूपसंवन्धस्य गुरुत्वेऽननुगमस्यैव चीजस्य भवताभ्युपगमाव । [घटस्व अखंडोपाधिरूप न मानने वाले पद्मनाभमत का निरसन ] इस संदर्भ में १घनानादि नयायिकों का यह कहना है कि-"घरमाधि को अखबडोपाधि नहीं माना जा सकता पयोंकि अखण्डोपाधि मानो पर उस का स्वरूपसम्बध मानना होगा।स्वरूपसंबन्ध मानने पर घटत्वादि अनस्तषों में सम्बन्घत्व की कल्पना में गौरव होगा। प्रतः घटत्वादि को जाति मामकर समवायसम्बन्ध से ही घटत्याश्मिता की बुद्धि और व्यवहार का उपपावन करने में लापन है। क्योंकि पटव-पदत्वादि समस्तजातियों का एक ही समवापसम्बन्ध होता।"-किन्तु यापन मी तुच्छ है। क्योंकि स्वरूपसम्बन्ध को भी उपाधिकप मान लेने पर यह घटत्व-पररवादि सभी अखण्डोपाधिों का एक अनुगत सम्बन्ध हो जामगा। अत एव स्वरूपसम्यग्य के अभ्युपगम पक्ष में भी लाधव को हामि महीं होगी। समवाय की अपेक्षा स्वरूपसम्बन्धपक्ष में जो गौरव होता है उसका बोज अननुगम ही माना जाता है जो स्वरूपसम्पाय को उपाधिरूप मान सेने से निराकृत हो जाता है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शात्रा० त०७३लो. . यदपि 'जासापखण्डोपाधित्वापादने फलतोऽसमवेतत्वमेवापाधते, तमाशयम , समवेतस्वस्य तत्र प्रत्यक्षसिद्धत्यान' इति, तवपिन, समवेतत्वस्य स्वदतिरिक्तेनाऽननुभवान् । संघन्धशि बिलक्षणप्रतीवेरप्यसिद्धः, 'इस घटत्वम् इह भावत्वम्' इति वियो लक्षण्याऽसिद्धः । इष्यते च भावत्वमखण्डोपाधिरूप नवीन:-न्यादा ससादौ च 'भाषः-माव इत्यनुगतधियः संवन्धाशे लक्षण्याननुभवेन समवाय स्वाश्रयसमवायान्यतरसंबन्धेन सच भावत्वम्-इति प्राच्यमवस्य पणादिति न किश्चिदेता । [अखण्डोपाधित्व को असमवेतन्य माने तो भी क्या ?] कुछ लोगों का यह कहना है कि-"प्रसव के समान घटत्वावि आतिनों में अखण्डोपाधिस्य का साधन फलसः प्रसमवेतःप के साथन में ही पर्षवसित होता है पयोंकि जाति और अक्षयोपाषि में केवल इतना ही मन्तर होता है कि प्रखंडोपाधि असमवेत होती है और जाति समवेत होती है। तो फिर जब अक्षम्योपापिय के सामन का पर्यवसायन प्रसमवेतस्य के साधन में ही होता है तो वह बापय नही हो सकता, क्योंकि घटत्याधि में समवेतत्व प्रत्यक्षसिद्ध है अत एव समवेसरव के प्रत्यक्ष से अप्तमवेतवसाधन का बाप हो जायगा।"-किन यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि घर:वादि में प्रखण्डोपामित्व के साधन का उक्त रोति प्रतिवाव करने वालों को छोड़कर किसी अन्य को घटस्वादि में समवेतस्प का प्रत्यक्ष भानुभाबिका नहीं है। [संबन्धाश में लक्षण्य का अनुभव मिथ्या है] मदि यह कहा जाय कि-'प्रखण्डोपाधि की प्रतीति से आति की प्रतीति सम्बन्धीत में विलकम होती है अत: जाप्ति प्रप्तीति को समवायसम्बश्पविषयक और अखण्टोपाधि को प्रतीति को स्वरूपसम्बन्धविषयक मानना उचित है-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि "इह घटत्वम्स में घटत्व ए" और "इह भाषाम-इसमें भाषाव है" इन बटवरूप जाति और भाववरूप अखण्टोपाधि विषयक प्रतीतिभों के सम्बन्धोश में लक्षण्य असिव है। यदि यह कहा जाय कि-'यह भावत्मम्' मह प्रतीति भी जाति विषयकही है, क्योंकि भावत्व ससानाति से अतिरिक्त महीं है तो यह भी ठीक नही है क्योंकि नत्रोम नैयायियों ने भाषत्व को अखण्डोपाधिप माना है। प्यादि में जो 'प्रग्याठिक भाषः' और सत्तादि में 'ससादिक भावः' यह अनुगप्ताकारद्धि होती है उस में सम्बन्धांश में सक्षम्य का अनुभव नहीं होता। भल: 'म्यादि में समवायसम्बन्ध से सत्ता ही भावव है' यह प्राचीन मत दोषयात है। तस्मात् सामान्यविशेषरूपमेय वस्तु स्वीकर्तव्यम् , यद् अविशिष्ट प्रतिवमनुगतं विशिष्ट च विशिष्टानुगतमविशिष्टप-परय्यावन स्वमावत एव चित्रक्षयोपशमशाद गुणा--प्रधानभावेन परस्परकरम्विते भासन । अत पर घटल्वांश इस घटशिऽप्यनुगताकारा धीः । अत एव ए महानसीय थूम एवाभिमुखीभूते सामान्यतो गृक्षमाणा च्याप्तिः पर्वतीयधूमेऽपि पर्यवस्पति, संवतविशेषाकारे धृमसामान्य एव तद्ग्रहाद । न हि तदुतर सामान्यप्रत्यासत्या सकलमविशेध्यकं व्यामिज्ञानं जायमानभनुभूयते, किन्तु प्रथममेव, तथाक्षयोपशमवशात् । सामान्यप्रत्पा Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा.सटीका एवं हिामी विवेचन ] सस्यादिकल्पनागोरवेणकव्यक्तैरेव कश्चित्प्रतिनियनव्यक्त्यभेदस्य प्रत्यभिज्ञासिद्धस्य स्वीकनु - मुचितवादिति । तस्माद सामान्य विशेषरूपतया गोरसदृष्टान्तेनोत्पाद-यय-धौम्यात्मक वस्तु सिद्धम् ।। ३॥ [सामान्यविशेषोभयात्मक वस्तुस्वरूप की प्रतीति ] उक्त विचारों के निष्कर्षस्वरूप यही मानना उचित है कि वस्तु सामान्यविशेष उमपारमान ही होती है। विशेषानामा सामान्य का और सामान्यानात्मक विशेष का अस्तित्व अप्रामाणिक है। सामाग्यवियोवामा वस्तु ही विशेषाण की प्रधानरूप से विवक्षा न होने पर प्रति आश्रय में धनुगत होती है, और विशेषांश की प्रधानरूप से विषक्षर करने पर वर विशिष्ट वस्तु में अनुगत होती है, को विशिष्ट स्व और पर से स्यापूस होता है। यह उसका स्वभाव है कि चित्राक्षयोपशम अर्थात् कभी विशेषांश का आवरण करते ये सामान्यांश के शानावरण का, प्रौर कभी सामान्यांश का वाक्षरण करते हुपे विशेषता के प्रश्नावरण का सायोपशाम होने से कभी विशेष को परेप और सामान्य को प्रधान, और कभी विशेष को प्रधान और सामान्य को गौण करके परस्पर मोलितरूप में वस्तु भासित होती है। जैसे हि महानसीयत्व भावि धमों से विशिष्ट होने से विशेषात्मक और पलित्वरूप सामान्यधर्म से विशिष्ट होने से सामान्यारमक होता है। तथा महानतीयाम आदि विशेषरूप की प्रधानरूप से विवक्षा न होने पर बसिसामान्यरूप सभी वलि में अभुगत होता है और महानसीयःय आदिको प्रधान रूप से विवक्षा होने पर महानसीयस्वादि विविष्ट वह्विसामान्य विभिन्न महानसोय वह्नियों में अनुगत होता है और अविचिण्ट लिसामाग्म का प्रयापक होने से अविष्टि, 'स्व' से व्यावृत्त और घट्पटादि 'पर' से ज्यावत होता है। तथा जब महानतीमत्वादि विशेषांश का संवरण करते इपे पश्विसामान्यांश के शानावरण का भयोपशम होता है तब महामसोयवह्नि का वद्धिसामान्याकारण प्रतिभास होता है और अब सामान्यांश का संवरण-प्रधानरूप से विवक्षापूर्वक विशेषांश केशानावरण का क्षयोपशाम होता है तम केवल बतिसामान्यरूप से आमास न होकर महामसीयपह्नि रूप से प्रामास होता है। इस प्रकार वस्तु को सामान्यविशेषात्मक मानने पर ही घटविषयक बुद्धि में घटत्य के समान घटांश में भी अनुगसाकारता सम्पन्न होती है। एवं महानसोयधूम के अभिमुन होने पर धूमसामान्य में वह्निसामान्य की माप्ति का पहण पवंतीघादि धम में भी पर्यवसन्न होता है। क्योंकि उस समय धूम के महानसीसत्यरूप विशेषकार का संवरण होकर धूमसामान्य में ही बलिव्याप्ति का पहरण होता है। [प्रथम दर्शन में ही व्यापकरप से व्याप्तिज्ञान का उदय ] इस संदर्भ में नगापिकों का यह कहना कि-'महानसोयधूम में महामसोयहि का म्याप्तिमान होने के बार सामान्य लक्षणाप्रत्यारासि से समस्त पम और पति की उपस्थिति होकर ताल धूम में सफल वह्नि का व्याप्तिज्ञान होता है'-ठीक नहीं है क्योंकि पहले महामसीधश्म में महामसीयबालिका व्याक्तिमान और भाव में धूमसामान्य में वह्विसामान्य के स्याप्तिज्ञान का होगा भानुभविक रही है किन्तु महानसोय धूम के मभिमुख होने पर अयोपाम विशेष से अर्थात महामसोयत्व का संवरण झोकर धमसामान्य और पश्निसामाग्य के शानावरण के अयोपवाम से महानसीयत्व का Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवासिलो ४-५ भान न होकर घूमसम्माग्य और वह्निसामान्य का व्याप्तिमाम पहले ही हो जाता है। अतः सामान्य लारणाप्रत्यासति आदि की कल्पना में गौरव होने से नेयापिक कधित रीति से ध्यप्तिमाम का अभ्युपगम पिता नहीं है। दूसरी बात यह है कि मधक्ति की हो याचन प्रश्य समस्त धूमष्यक्तियों से अमिनहर में प्रत्यभिक्षा होती है अतः उसके अमुरोध से एफ धमक्ति में अन्य समस्त मन्यक्तिमों का अभेद मानना उचित है और वह धमव्यक्तिओं को सामान्यधिशेषात्मक मानने पर सो सम्मवित हो सकता है । आशय यह है कि लमस्त धूम तत्तापक्तित्वरूप से परस्पर मिन्न है और धूममामान्यरूप से अभिन्न है। इस प्रकार वस्तुमात्र सामान्यविशेषरूप होने से गोरस के एष्टान्त से एककाल में ही एकवस्तु में जो उत्पाव-व्यय-नौम्यरूपता बतायी गई है वह सपा सुसंगत है ।।३।। बौधी कारिका में बौद्धों की ओर से वस्तु को उत्पाद ध्यय एवं प्रोग्यरूपता का प्रतिमा किया गया है - अत्र परेषा पूर्वपक्षवा माइमृलम्-अन्नाप्यभिदधायन्ये विमल हि मिस्त्रयम् । एकत्रेकदा नलघटा प्राश्चति जातुधित् ॥४ ।। अत्रापि यात्मकतावादेषि अन्ये सौगतादयः अभिदधति, यदुत-विक हिविरुद्धमेव, मिथः परस्परम् , अगम् उत्पादादि। यत परम् , अत एकत्रव वस्तुनि, एकदा एकस्मिन् काले, एतत-त्रयम् , जातुचित कदाचित् न घटा प्राश्चतिन पटते ।। ४ ॥ 'उत्पाव-स्वप-प्रीव्य ती वस्तु का तास्थिकरूप है' इस सिद्धान्त के संदर्भ में बोवादि प्रति पावो का यह कहना है कि उत्पाव व्यय और धोव्य घे तोनों परस्परविरुद्ध ही है क्योंकि एकवस्तु में, एक काल में ये तीनों कयापि उपपन्न नहीं हो सकते ॥ ४ ॥ ५ वी कारिफा में उत्पावित्रय में परस्पर के विरोध को स्पष्ट किया गया हैमिथो विरोधमेवोपदर्शयनि-- मूलम्-उत्पादोऽभूतभवन विनाशसमझिपर्ययः । धीच्यं चोभय शून्यं पवेककन तत्कथम् ? ॥५॥ उत्पादोऽभूतभवनम् प्रागसनः सामग्रीवलादामलामः । विनाशस्तविपर्ययभृतम्यानन्तरमभावः । श्रीध्वं चोभयशून्यम्-उत्पाद-विनाशरहितम् पत्-यस्मान, सत्तस्मात् एकत्र वस्तुनि रकवा एकस्मिन फाले रुधम् : || ॥ [ एककाल में उत्पादादि परस्परविरुद्ध होने की शंका ] उपाव का अर्थ है अभूतभवन अर्थात जो पहले असद है (नहीं था) वाव में कारणसामग्री के बल से उसे स्व स्वरूप पानो ससा की प्राप्ति होती है। विनाश उत्पाद के विपरीत है प्रातः उसका मारूप है पूर्व में विद्यमान का बाद में विनाशक सामग्री के संनिधान से प्रभाव होगा । धौष्य का अर्थ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या टोका एवं हिन्दी विषम है-उरपाव और विनाश से शून्म होना । इस स्थिति में एकवस्तु में एककाल में ये तीनों कैसे सम्भव हैं ? प्राशय यह है कि एककाल में उत्पाद और व्यय तथा प्रौषम होने का अर्थ है उसीकाल में सत्ता को प्राप्त करना एवं उसी काल में सत्ता से रष्ठित होना तथा उसीकाल में सत्ताको प्राप्ति और सत्ता का राहिस्य दोनों से असम्पत होना। स्पष्ट है कि मे तीनों परस्पर विरुद्ध होमे से एकवस्तु में एककाल में पटिस नहीं हो सकते ।।५।। छट्ठो कारिका में इस आईतमत का कि “एकवस्तु में एककाल में उत्पाद का कार्य प्रमोर, विनाश का कार्य शोक और उत्पाद विनाशराहित्यरूप भौष्य का कार्य माध्यस्थ्य देखा जाता है। अम: जय उत्पादादित्रय का कार्य एक काल में एकवस्तु में होता है तो उनके कारणों के भी एक वस्तु में एककाल में होने में कोई सिरोष नहीं हो सकता क्योंकि प्रमाणसिद्ध मर्थ में विरोध नहीं हो सकता।"-प्रतिषाच किया गया है नन्यकस्मिन्नेकदापादादित्रयकार्यशोक प्रमोद माध्यस्थ्यदर्शनाद् न विरोधः, प्रमाणसिद्धेऽर्थे विरोधाऽप्रसरान् , इत्यत आहमूलम्-शांक-प्रमोद-पाध्यस्थ्यमुना यच्चान साधनम् । तवयसांप्रतं यसमासनातुकं मतम् ॥६॥ यच्चान्त्र-त्रयात्मकले जगता, शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं साधनमुक्तम् , 'घट-मौलिमुवर्णाथी' [ का. २ ] इत्यादिना; तदप्यमांपतम् = अविचारितरमणीयम् , यत यस्मात् । सत्-शोकादिकम् , आन्तरवासना मत्तम् मतम् अभीष्टम् । न बस्नुनिमिसम्, वस्तुदर्शने नान्तरशोकादिवासनाप्रबोधादेव पटनाशादिविकल्पान शोकायुपत्तेः । यदि घ वस्तुनिमित्तमेव शोकादिकं स्यात् तदा राजपुत्रादिवदन्यस्याप्यविशेषण तत्प्रसङ्गः ॥ ६ ॥ [शोकादि का निमित्त है वासना] प्रस्तुत स्तबक को 'घटमालिसुवर्णाची' बस दूसरी कारिका से जो यह स्थापना की गई है कि 'सौवर्णघट के चक को जिस समय घटात्मना सुवर्ण का नाश होने से शोक होता है उसी समय मुक्टार्थों को माहात्मनामुषर्ण के उत्पाद से प्रमोद होता है और सुषर्णसामान्य केएलकको शोकप्रमोवविरहरूप माध्यस्थ्य होता है क्योंकि एट की प्राकांक्षा न होने से उसे घटविनाश से शोक नहीं झोसा और मुफुट की इच्छा न होने से मुकुटोमाद से प्रमोच भी नहीं होता है । उस प्रकार एक हो मुवर्णद्रव्य में एक ही काल में सोक, प्रमोद मौर माध्यस्य जमकता होने से उसी काल में उसका किसी एक रूप से विनाश, किसी अन्यरूप से उत्पाद और किसी रूप से उसका स्थर्य सिद्ध होता है। इस प्रकार सम्पूर्ण जगत् उत्पाब-व्यय-धौम्यरूपात्मक है।"-वह स्थापना मी विचार न करने तक ही रमणीय प्रतीत होती है। कारण, पदारमना सुवर्ण के माश और मुकररात्मना सुवर्ण के उत्पाद एवं सूवत्मिना उसके स्थैर्य से जो शोक-प्रमोव और माध्यस्थम होने की बात कही गयी है वह मन्तरबासनामूलक है, पस्तुमूलक महीं है। आशय यह है कि जिसे यह वासना है कि घटनामा से शोक होता है, मुकुटोत्पाद से प्रमोद होता है और दोनों ही वशा में सुवर्णसामान्म के स्थिर रहने से सुवर्णाथों को माध्यसभ्य होता है Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पास्त्रवात स्तः ७पलो.८ उसी को वस्तु दर्शन से उक्त वासनाओं का प्रबोध होने से घटताशाक्षिके माम मोकादि की उत्पति होती है । अतः शोकावि की उत्पत्ति घटनामादि वस्तु से नहीं होती किन्तु जसवासना के उद्घोष से सहात घटनश्शावि के नाम से होती है । शोकावियति वासना निमिसक न होकर वस्तुनिमित्तक होगा तो जरो मुन्टार्थों राजपुत्र को मुकुटोत्पाव होने से हर्ष होता है उसी प्रकार जो मुकुटामें नहीं है उसे भी मूकुटोस्पाय से हर्ष होना चाहिये, क्योंकि यदि मुकुटोस्पाव हो रामपुत्र के हवं का कारण है तो मुकुटोत्पाब राजपुत्रवत अन्य के प्रति भी समान है अत: अन्य को भी उससे हर्ष को उत्पति होनी चाहिये। किन्तु ऐसा होता नहीं है, अतः शोका यस्तुनिफर कि सामूमर है इसलिये शोकावि से वस्तु को उत्पाब-रुयम प्रौव्यात्मकता नहीं सिद्ध हो सकत ।। ५॥ ७यों कारिका में वस्तु के उत्पादादिश्यामकप्ता मस में दोष का उपचय बताया गया है - उपच्यमाईमूलम्-किश्च स्यावादिनो नैव युज्यते निश्चयः क्वचित् । स्वतन्नापेक्षया तस्य न मानं मानमेव यत् till किश्च इति दूषणान्तरे, स्याद्वादिन पथचिन अधिकृते वस्तुनि निश्चयो नैव युज्यते यद्-यस्मात् तस्य स्वतन्त्रापेक्षया -स्वमिद्वान्तापेक्षया, मान-प्रमाणम् मानमेच म-प्रमाणामेष न, अनेकान्तच्याघातात् । एवं चानेकान्तानुरोधादप्रमाणीभूतं प्रमाण न निधायफ पटादिवत् ।। ७ ।। किञ्च, [स्याद्वादी को प्रमाण भी अप्रमाण होने से शनिश्चयदमा ] ___ 'वस्तु उत्पादित्रयात्मक होती है इस मत में केवल यही वोप नहीं है कि यस्तु की उत्पादादिनमास्मकता का साधक कोई प्रमाण नहीं है, अपितु उसमें पह भी घोष है कि स्याद्वाबी के मत में किसी भी वस्तु का निश्चय नहीं हो सकता क्योंकि उसके मिसान्त की अपेक्षा प्रमाण भी केवल प्रमाण ही नहीं है क्योंकि प्रमाण को एकमात्र प्रमाणस्वरूप ही मानने पर वस्तु की अनेकान्तात्मकता का प्याधात होगा, अत: मनेकारत के प्रमुरोध से प्रमाण भी प्रप्रमाण रूप होता है और प्रमाण हो जाने पर वह अप्रमाणभूत घटावि के समान कोई भी वस्तु का निश्चायक नहीं हो सकता ।। ७ ।। ८वों कारिका में भी उक्त प्रकार के ही अन्य शेष का प्रदर्शन किया गया है - मूलम्-संसार्यपि न संसारी मुक्तोऽपि न स एव हि । तरतद्पभावेन सर्वमेवाऽव्ययस्थितम् ॥ ८ ॥ संसायपि संसायव न, एकान्तप्रसङ्गान् । मुफ्तोऽपि हिनिश्वितम', 'न स एव'= सुक्न एव न, तत एव । एवं कब समेव सत्वम् तस्तद्रूपभावेन तदतत्स्वभावत्वेन, अव्यक्षस्थितम् अनिधितामिति ॥ ८ ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माटोका एवं हिची विषम ] [संसारी-अर्ससारी मुक्त-अमुक्त व्यवस्था का अभाव ] अनेकासवादी मैन के मत में संसारी जीव भी केवल संसारी ही नहीं हैयोंकि उसे बिल संसारी मामले पर एकान्तवाव की प्रालि होने से वास की प्रकाशामकता का व्याघात होगा। मतः संसारी को असंसारी (मुक्त) भी मानना होगा। एवं मुक्त जीव को भी अनेकान्तण्याचात भय से केवल मुक्त ही नहीं माना जाता किन्तु उसे प्रमुक्त (संसारी) मी मानना होगा । इस प्रकार अमेकालवाव में कोई भी वस्तु सरस्वभाष पथवा प्रतरत्वभावरूप में मिश्चित नहीं हो सकती ॥६ कारिका में सिमान्ती अर्थात अनेकान्तवादी की भोर से उक्त भापसिओं का परिहार किया गया है अत्र सिद्धान्तवातामाइमृलः.... पावसानपद: माधकः । स्वर्णान पान्य एवेति न विरूई मिस्त्रियम् ॥६॥ से-जैनाः आर्यदुत मुकटोरपादो न घटानाशधर्मफ:-धर्मपदस्य स्वभावार्थत्वाव । नव्यत्ययाच न घटनाशाऽस्वभाव इत्यर्थः, तुल्यहेतुप्रभवयोहयोस्तयोरेकस्वभाषस्वात् । न च स्वर्णात् अन्धयिनः स्वाधारभुतान् अन्य एन । इनि हेतोः मिथस्त्रयम्-उत्पादादिकम् न विरुद्धम् , पकौकदा प्रमीयमाणत्वादिनि || [स्यावाद में अपादित दूपों का निवारण ] "घटानाशयमक' शम्ब में धर्म पर का स्वभाव पर्थ और नाश पद के पूर्व में पहित मपर को नाशव के उत्सर और धर्मपद के पूर्व सासति है, अतः घटानाशधर्म का अर्थ है घटनाममस्यभावक, अर्थात् घटमाश जिस का अस्वभाष है । तात्पर्य यह है कि जन विद्वानों के अनुप्तार मुकुट का उत्पाव यानो मुकुट रूप में सुवर्ण का उत्पाद पह घबनाशापभासक मही है किन्तु पदमाशस्थभाषक है और परमुकुटादि विभिन्न पत्रों में अन्वधो सपने प्राधारभूत सुमणं से प्रत्य भी नहीं है। सप्रकार मुकुटोत्पार घटनाशस्वभावक है और सुवर्ण से भिन्न है। इसलिये सुवर्णरूप एक प्रम में एककाल में घटारमना घिनाना, मुघटान्मना उत्पाद और सुवर्णागना प्रौष्य की प्रमा होने से उन तीनों को एक काल में एक वस्तु में विस्त नहीं कहा जा सकता ।। ९॥ १०वीं करिका में पूर्णकारिपार के प्रथ का समर्थन किया गया हैएतदेव समर्थयभाह-- मूलम्-न घोत्पादायी न स्तो प्रीव्ययसनिया गतः । मास्तिग्वे तु तयोभाव्यं तवमोऽस्तीति न प्रमा ॥१०॥ न योत्पादन्ययौ न स्तन विद्यते, कल्पितत्यादिति वाच्यम्, कुन: ? इत्याहधौग्यवत् तषिया-स्त्रबुद्ध्या गतेः परिच्छेदात् । तथापि नास्तित्व एव तयोरुपगम्यमाने Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रमा १० धौम्यं तस्वतः परमार्थतः अस्तीति न प्रमा उत्पाद-व्ययप्रतीतितुल्योगक्षेमत्वाद् धौव्यधियः । —— एतेन द्रव्यादिकमतं निराकृतम् ॥ १० ॥ ५८ [ एकान्त द्रव्यास्तिक मत का निराकरण | अय्यरतिक प्रष्पमात्र का ही आश्य पारमार्थिक है' ऐसा मानन वाले का यह कथन है कि 'उत्पाद और व्यय कल्पित है अत: उनका अस्तित्व नहीं है, अस्तित्व केवल अकल्पित होने से श्रीव्य का ही है। किन्तु यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि जैसे प्राण्यविषयक बुद्धि से की सिद्धि होती है उसीप्रकार उत्पश्वव्यय की बुद्धि की सिद्धि से उत्पाव्यय की सिद्धि भी आवश्यक है। और यदि बुद्धि और उत्पाठावि बुद्धि में साम्य होने पर भी भव्य का अस्तित्व और उत्पादध्यय का मास्तिर व माना जायगा तो प्रोथ्य भी परमार्थतः सिद्ध न हो सकेगा । अर्थात् यदि उपाध्यय को प्रतोति को अग्रमा कह कर में कल्पित माने आयेंगे तो प्रो की प्रतीति को भी अत्रमा कह कर ष्य को भी कल्पित कहा जा सकता है। क्योंकि उत्पाद-व्यय को प्रतोति और प्रौष्य प्रतीति का योगक्षेम मुख्य है। अतः उनमें किसी एक को प्रमा और अन्य को अप्रमा महीं कहा जा सकता ||१०|| ११वीं कारिका में एकान्त पर्यायास्तिक मत का निराकरण किया गया हैपर्यायास्तिकमतं निराचिकीर्षवाद मूलम् - न नास्ति श्रीव्यमप्येवमचिगानेन तद्गतेः । अस्याश्च भ्रान्तायां न जगस्यभ्रान्सता गतिः ॥ ११ ॥ एयम् - उत्पाद–व्ययवत् श्रव्यमपि नास्तीति न अविगानेन = अवाधितत्वेन तद्गतेोन्य परिच्छेदात् । अस्याञ्च धाच्यगतेव भ्रान्सतायामुच्यमानायाम् जगति - लोक्ये अनन्तनागतिः = अन्तताप्रकारः नास्ति कश्चित् । [ एकान्त पर्यायास्तिक मत का निराकरण ] पर्यायास्तिकवादी का यह कहना है कि "जैसे उत्पाद और व्यय को प्रतोति श्रप्रभा होती है। अतः उत्पवध्यम तात्त्विक नहीं होता, उसी प्रकार भोग्य की प्रतीति भी अप्रमा है मतः श्रौष्य का भी अस्तित्व पारमार्थिक नहीं होता" किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि श्रीष्य की बुद्धि वाषित है, अतएव उसे श्रप्रभा नहीं कहा जा सकता । यदि बाधित होने पर भी उसे प्रत्रमा कहा जायगा at intern किसी भी वस्तु की वृद्धि को अनत कहने के लिये कोई युक्ति न मिलेगी। अस वस्तुमान का ज्ञान श्रप्रमा हो जाने से किसी भी वस्तु की सिद्धि न हो सकेगी। ननु यद्येवं द्रव्यास्कि - पर्यायास्तिकयोर्द्वयोरपि प्रत्येकं मिथ्यात्वं तदा सिकतासमुदाये तैलयत् तत्समुदायेऽपि सम्यक्त्वाभावा कथं " प्रमाण नयैरधिगमः " [० सू० १-६ ] १ इति चेत् ? सत्यम्, न क्षत्र दलप्रचयलक्षणः समुदाय उच्यते, पर्यायस्यादत्वात इतरेतरविपापरित्यागात्तीनां ज्ञानानां समुदाया भाचान् काचित् क्रमिकतत्समुदायस्याऽध्यापक Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ स्मा० क० टीका एवं हिन्वी विवेचन ] स्वाच्च किन्त्रितनयविपयीकृतरूपाऽव्यवच्छेदकस्यम्, तदेव चान्योन्यनिश्रितत्वं गीयते । इदमेव च प्रवृत्तिनिमित्तीकल्प तत्र सम्यक्वपदं प्रवर्तते । तदिदमुक्तम् - [ सम्मति गाथा २१] 41 * तुम्हा सव्वेणिया मच्छडी सपक्खपडिबद्धा । अण्णोष्णणि रिस उण हवंति सम्मतसम्भारा' ॥ १ ॥” इति । [ नयसमुदायरूप स्याद्वाद में सम्यक्त्व का उत्तर ] स्तिक और पर्यायास्तिक एक-एक मत को उक्तरूप से मिथ्या मानने पर यह शंका हो सकती है कि यदि उक्त मतों में प्रत्येक मत मिथ्या है तो उनके समुदाय में सम्uश्व किसी प्रकार नहीं रह सकता। जैसे एक एक वालुका कण में अविद्यमान तेल वालुका कणसमुदाय में नहीं रहता Her इस स्थिति में 'प्रमाण और नम से वस्तु की सिद्धि होती है' यह तत्त्वार्थसूत्र ( १-६ ) का कपन मी कैसे उपपन हो सकेगा ?' किन्तु इस शंका का समाधान यह है कि द्रव्यास्तिक और पर्यायास्तिक का समुदाय यह वलों का प्रथम यानी घटकों को समय नहीं है, क्योंकि पर्याय इलस्वरूप नहीं है (अपितु ज्ञानस्वरूप है) । ज्ञान स्वभावतः अपने विषय का परित्याग नहीं करता। अतः पर्यायाfers और fere का समुदाय नहीं बन सकता, क्योंकि पर्यायास्तिक अपने विषयभूत प्रश मैं कल्पनात्मक रहेगा और प्रति अपने विषयसूत धोश्यांश में कल्पनात्मक रहेगा और fare अपने frauya tou में पारमाविक होगा | यह सम्भव नहीं है कि एक ही विषय को पार्थिक र कल्पित बताने वाले शामों का समुदाय बन सके। कहीं क्रम से उत्पन्न होने पर दोनों का समुदाय हो सकता है किन्तु यह अध्यापक होगा। अर्थात सर्वत्र उनका क्रमिक उदय म होने से 'उनके समुदाय में सर्वत्र वस्तु को सिद्धि होती है यह कथन उपपन्न न हो सकेगा। अतः प्रध्यास्तिक और पर्यायास्तिक का समुदाय रूप नहीं है किन्तु परस्पर के विषयों का अ है अर्थात् जब प्रध्यास्तिक यह पर्यायास्तिक के विषय का निरास न करते हुये उसे गौणरूप में स्वीकार करता है एवं पर्यायास्तिक वास्तिक के विषय का वास न करते हुये उसे रूप से स्वीकार करता है तब उस श्रवस्या में प्रत्येक नय अन्य नय से समुदित हो जाता है। इसी को जैन परिभाषा में योग्य निश्रित अर्थात् अन्योन्य सापेक्ष कहा जाता है। फलतः प्रव्याक्तिक पास्तिक की अपेक्षा और पाक्तिक द्रव्यास्तिक की अपेक्षा से वस्तु का साधक होता है। यह अन्योन्यसापेक्षता ही अव्यास्तिक और पर्यायास्तिक में सम्यकूपन का प्रवृत्ति निमित्त है । जैसे कि सम्मलित प्रत्य में स्पष्ट किया गया है कि सभी नय केवल पने विषय में निय न्त्रित (संकुचित) होने पर हिट हो जाते हैं और परस्पर सापेक्ष होने पर सम्यग्दृष्टिरूप हो जाते हैं। सम्मति-गाथा २१) ननु यथेयं तदा या मृत्यान्यपि रत्नान्यननुस्मृतानि 'रत्नावली' इति व्यपदेशं न लभन्ते, अनुस्यूतानि च तान्येव 'रत्नावली' इति व्यपदेशं लभन्ते जहति च प्रत्येक संज्ञ १. तस्मात् सर्वेऽपि नया मिध्यादृष्टयः स्वपक्षप्रतिबद्धाः । अन्योन्यनिश्रिताः पुनर्भवन्ति सम्यक्त्वाचा! ।। १ ।। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रातील तमलो. १० तथा नया अपि प्रत्येक सम्यक्त्यव्यपदेशं न लभन्ते, समुदितास्तु तं लभन्ते, जहति च दुर्नयसंज्ञाः, इति कर्थ दृष्टान्तः ? इति चेत् । निमित्तमेदेन व्यपदेशमेद एवायं दृष्टान्तः, न सु प्रत्येकसमुदायभान इति दोषामावात् । [रत्नावली दृष्टान्त की अनुपपति शंका का परिहार ] उक्त व्यवस्था के सम्बन्ध में यह शंका हो सकती है कि-"मयों के निरुपणार्य जो रस्साबलो का दृष्टान्त दिया जाता है वह उपपन्न नहीं हो सकेगा। आशय यह है कि जैसे बहमूल्य विभिन्नजातीय रत्नों को अब तक किसी एक तार में अपित नहीं किया आता तब तक वे रस्नायसी शम्ब से व्यवहरू नहीं होते । किन्तु जब उन्हें प्रथित कर लिया जाता है तब वे रत्नावली बार से व्यबहत होते हैं। और विमिन्न संज्ञाओं से उनका व्यवहार नियम हो जाता है। इसीप्रकार नय भी असमुदित अवस्था में सम्यक पद से व्यबहस नहीं होते किन्तु समुक्षित होने पर सम्यक पब से व्यवहुत होने लगते हैं मार पुर्नय शम्च से यहत होने की अवस्था पार कर जाते हैं। किन्तु यदि उक्तरोति से नयों का समुवाय न माम कर अन्योन्यमिषितस्य के प्राधार पर ती ज-हें सम्यक व से व्यवहृत किया जायमा ता स्नाषली का दृष्टान्त संगत नहीं हो सकेगा"-किन्तु यह ठीक नहीं है। क्योंकि उक्त दृष्टान्त केवल निमित्तभेद से व्यवहारमेव होता है इतने ही अंश में है, प्रत्येक-समवाय माव विखाने में नहीं है। मतः हातामुपपसिकप दोष नहीं हो सकता । तात्पर्म यह है कि जैसे रत्नों में एकतार में संप्रथानरूप निमित से रश्नावली शब्द का ध्यपदेश होता है और असंप्रथमरूप निमित्त से विभिन्न जातोयरत्नबोधक विभिन्न माम से प्यवहार होता है उसीप्रकार अन्योन्यनिश्रितत्वरुप निमित से नया में सम्यक पद का ध्यपवेश और अन्योन्यनिश्चितत्वविरहरूप निमिस से दुर्नय शम्द से जयपदेश होता है। नथापि नयाना प्रमाणले प्रमाण-चयः" इति पुनरुवा स्यात अप्रमाणत्वे चाऽपरिकछेदकत्वं स्यादिति चेत् ! न, नयवाक्ये तद्वनि तत्प्रकारकयोधजनकत्वस्य समारोपव्यवछदकत्वस्य निर्धारकत्वस्य था. इतरांशाप्रतिक्षेपित्वस्य का प्रमाणत्वस्य सत्त्वेऽप्यनेकान्तरम् ग्राहुकरवरूपस्य प्रमाणवाश्यनिष्टम्य प्रामाण्याऽभावेन 'नयप्रमाणः' इति पृथगुक्तेः। [ प्रमाण और नय में लाक्षणिक भेद ] इस संदर्भ में दूसरी का यह हो सकती है शि 'नयों को मवि प्रमाण माना जायगा तो तस्वार्थ मुन (१.६) में प्रमाण और नप शब्द का जो एक साथ लपावान किया गया है उसमें पुक्ति दोष प्रसक्त होता है। यदि प्रयों को प्रमाण न माना जाएगा तो वे स्वविषय के निश्चाधक न हो सकेंगे।'-किन्तु यह भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रामाण्य को प्रकार का होता है...एक नयवाश्यगत और सुसरा प्रमाणघाक्यगरा । उन में पहला-तदाश्रय में तत्प्रकारकबोधजमकरव, समारोपनियसंकाय, स्वविषधनिर्धारकस्य अथवा इसरनय द्वारा प्रस्तुत किये जानेपालि शंश का अविरोधिस्वाप है। दूसरा प्रामाण्य अनेकान्तवस्तुग्राहकत्वरूप है जो प्रमाणवाक्य में ही पता है-यवाक्य में नहीं रहता। उक्त तत्वार्थ सूत्र में तय ार के साथ प्रयुक्त प्रमाणशाम्ब द्वितीय प्रामाश्य के अभिप्राय से प्रयुक्त है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हया०० टका एवं हिन्ini अतः प्रमाग और नम का एक साथ मभिधान करने में पुनरुणित कोष नहीं है क्योंकि हितोय प्रामाण्य के अभिप्राय से प्रयुक्त "प्रमाण' शम्ब से नष का लाभ नहीं हो सकता ।। एतन “पटोऽस्ति' इत्यादिवाक्ये लोकसिद्धं प्रामाण्यं परित्यज्य 'स्याद् घटोऽस्ति' इत्यादावेव प्रामाण्यं परिकल्पयसामपूर्वा चातुरी" इत्यव्युत्पत्रकम्पना निररुता । निरस्ता छ शुक्तौ रजतम्रमे इदमंशे प्रामाण्यवादू दुनयेऽप्यधिकृतशेि प्रमाणवेन नयत्वापत्तिः, लोकसिद्धप्रामाण्याऽपरित्यागादशव्याप्तस्य प्रमाणवस्याप्रमाणावकाशसमवेऽपि समूहळ्याप्तस्य नयत्व स्यांशावकाशाऽसंभवात् । [ 'स्याद् घटोऽस्ति' इस वाक्य में प्रामाण्यकल्पना अनुचित नहीं है ] कुछ लोगों को यह कल्पना है कि 'घटोऽस्ति घट है इस बारम में प्रामाम्य नहीं है, किन्तु मस्या घष्टोऽस्ति ='घट कधिन है-'इसीवावय में प्रामाण्य है-ऐसी जनों को पह मान्यता उसकी उपहसनीय बासुरीमा घोतक है, पपोंकि घटोऽस्ति इसवाश्य में प्रामाण्य लोकसित है किन्तु उक्त मान्यता में उसका परित्याग कर दिया गया है और स्थान पटोऽस्ति इस वाक्य में प्रामाभ्य लोकसिद्ध नहीं है तो भी इसका स्वीकार किया गया है ।"-इस सम्बन्ध में ध्याख्याकार का कहना है कि नों की मान्यता के सम्बन्ध में यह फल्पना ऐसे पुरुषों की है जिन्हें नय और प्रभाव के स्वरूप की समीचीन व्युत्पसि नहीं है। क्योंकि जनों में प्रामाण्य के उक्त प्रमाग एवं नम इस प्रकार विविषमेव का प्रतिपादन कर 'पटोऽस्ति' इस वाक्य में द्वितीयप्रामाण्य का हो निषध किया है-प्रथमप्रामाण्य का नहीं। [ दुर्नय में आंशिक जयस्व की आपत्ति नहीं है। कुछ लोग घुर्नम में भी अधिकृप्त अंश में प्रामाण्य का प्रतिपादन करके नयश्वापत्ति येते हैं। उनका आशय यह है कि जैसे शुक्ति में 'इदं रखतम्' इस प्रकार का भ्रम होता है, उसी भ्रम में उपमंका में प्रामाण्य होता है। उसी प्रकार 'घटोऽस्त्येव' इस दुनम में भी 'धटोऽस्ति' इस मंश में प्रामाण्ण होने से आरतः नयरूपता अपरिहार्य है। किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि भ्रम में जिस अंगा में लोहसिस प्रामाण्य है उसका परित्याग शामय म होने से प्रमाणावतो अश्याप्त होता है मतः भ्रम में विशेष में प्रमाणपत्रव्यपदेश का प्रवकाश सम्भव है, किन्तु नपरक समूह व्याप्त होता है अतः ग्रंप विशेष में नयस्व एवं अंबाविशेष ये नयपके व्यवसका अवकाश सम्म नहीं हो सकला । तात्पर्य यह है कि नय वह होता है जो प्रधान रूप से अपने विषय को ग्रहण करता है और इतरनय के विषध का प्रतिषेध नहीं करता जैसे 'घटोऽस्ति इस नय से घट में मस्तित्व का अवधारण होता है किन्तु अग्य मय से लभ्य घर के नास्तिस्य का प्रतिक्षप नहीं होता। अत: मयरन पूरे समुकाय में रहता है-एक देश में नहीं रहता, किन्तु 'घटः अस्त्येव' पह बुर्नय बट के अस्तित्व का प्रधधारण करते हुये एपकार में उसके नास्तित्व का प्रतिषेध भी करता है । अतः नयत्यघटक इतरांशाप्रतिक्षविश्व का उस पाश्य में मभाव होने से उस बाप के 'घर! अस्ति' इसी अंश में ममत्व का मयुपगम करना होगा जो नयरस के समूहब्याप्ततास्वभाव से विरुद्ध होने से स्वीकार्य नहीं है। ननु 'घट उत्पन्न एवं इति स्यादेशविर्शनी पतस्य दुनयस्यापि नयदन् स्ववियाय Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्पातालको १. धारकत्वमस्येय, एवकारेणानुत्पमत्वामाषज्ञापनेऽप्युत्पन्नत्वप्रकाशमव्यापाराऽपरित्यागात् , अनेकान्तबलादुभयोपपतेः रस्ततादशायाँ घटे 'न श्यामः' इति बुद्धियादिति चेत् । सत्यम् , इतरनयविषयविरोधाश्धारणे भजनों पिना स्वरिपथावधारणास्यवाऽप्रवृत्त, प्राफ् श्यामस्वेन ज्ञाते 'इदानीम्' इनि विनिर्मो केण 'न श्यामः' इति वृद्धिवत् प्रवृत्तस्यापि च तस्यान्ययाविषयत्वरूपमिथ्यात्योपस्थितैः । [ दुनय में नयस्वापत्ति का निराकरण ] यदि यह शंका को जाय कि-"घट उत्पन्न एव' यह जो स्यामा से रहित तुर्नय है वह भी "घर उत्पन्नः' इसनय के समान स्वविषय का प्रचारक होता है। क्योंकि प्रद्यपि इस में एषकार से अनुत्पन्नस्वाभाष का ज्ञापन होता है, तथापि वह उत्पनत्व के प्रकाशन व्यापार से शून्य नहीं होता क्योकि वस्तु भनेकासात्मक पानी मनंत धरिमक होती है अतः चक्क दुनय में अनुत्पन्नस्वाभाव और उत्पत्रस्य वोर्मो की भापकता उपपल है। योकि घटात्मक वस्तु अनुत्पन्नस्वाभाव और उत्पाहरण उभमषर्मक है। इस तथ्य को सुगमला से अवगत कराने के लिये व्याख्याकार ने पूर्वपक्षी की ओर से ररुघट में होनेवाली 'घदोन ज्यामः' इस यदि को दृष्टान्तरूप से प्रस्तुत किया है। उनका आराध मह है कि जैसे रक्त घट में 'घटोन स्मामः' यह पिपामत्वाभाष काही पुरुलेख करती है। रमता का उल्लेख नहीं करतो किन्तु घट रक्तता-श्यामस्वाभा उम्रम धर्ममा होने से घट में रक्तता का जस्लेश म करती हई भी उसकी प्राहक होती है क्योंकि पयामत्याभाव का काम जिस घर में हो रहा है वह रक्त है, प्रतएव रक्तघट निर्विवादरूप से उक्त बुद्धि का विषय है। उसी प्रकार 'घट उत्पन्न एवं' यह बुर्नय ययपि अनुत्पन्नस्याभाव का उल्लेखो है, उत्पन्नाव का उल्लेखी नहीं, किन्तु उत्पन्न घट उत्पत्रस्य अनुस्पस्वभाव उमय धर्मा हैने से घर में उत्पनत्व का उल्लेख न करती हुई भी उसका ज्ञापन करती है। अतः उसकी उत्पन्नवाहका अपा है आर! स्वविषमस्वधारकत्वन 'घट उत्पन्न एव' इस पूरे दुमय वाक्य में नयत्व को भापति अनिवार्य है।" . तो यह ठीक नहीं है कोंक से पूर्व में जिस चट में श्यामश्व जात होता है-बाद में उस घर में पवानी इस अंधा का परित्याग कर होनेवालो 'घटोमधामः' इस बुद्धि में क्याराभाय का अपधारण नहीं होता, क्योंकि 'इवानी' इस अंश के अभाव में उल पुन्धि का विषय कालिक पामस्वाभाव होगा ओ पूर्वकाल में श्यामत्यरूप से शाम घर में नहीं है। इसी प्रकार 'पट उत्पन्न एष' यह दुर्नय से भी 'मजमा' यानी त्यात पव के बिना प्राप्त अपेक्षा के विना अपने विषय का मषधारण नहीं हो सकता। क्योंकि उसमें एथकार से प्रन्य नय के विषपभूत अनुत्पन्नत्य के विरोध का अवचार होता है मौर मय के विषम मह नियम है कि अप्र इतरमय को विषय के विरोध का अवधारण के साथ किसी नय से अपने विषय का असधारण होता है तो वह भजना-अपेक्षा के बिना नहीं होता। यदि भजना के बिना मी उससे स्वविषय का अवधारण होगा तो उसमें अन्यथाविषयत्यल्प मियात्व' होगा । अतः स्वषिषम का यथार्थपोषकम होने से दूध में मयस्व की आपत्ति न हो सकेगी, क्योंकि नयत्य में यथार्थ स्वविषयकोषकत्व को मास्ति है, अक्ष: पुनंय में यथार्थस्यविषयबोधकरवरूप व्यापक के प्रभाव में मयस्वरूप ध्याय के अभाष का निर्णय हो जाएगा । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याटीका एवं हिन्दी विवेचन ] तदिदमुक्तम्--[ सम्भति पो-२ "णियपत्रयणिज्जसथा सन्धणया परविालणे मोहा । ते उण ण दिवसमओ विमयह सच्चे व अलिए वा ॥" अम्यार्थ:-निजकवचनीये स्वविषये परिच्छेय सत्या सम्यग्ज्ञानरूपाः सर्व एव नपाः संग्रहादयः, तद्वति तदवगाहित्वात् । परविचालने परविषयोरपनने मोहा सुबन्तीति मोहा असमर्थाः, परविपयस्यापि सत्यत्वेनोन्मूलयितुमशक्यस्यात्, तदभाषे स्यविषयस्याप्यम्यषस्थितेः, मिथो नान्तरीयकत्वात् । अतः परविषयस्याभावे स्वविषयस्याप्यसबात तत्प्रत्ययस्य मिथ्यान्नमेषेत्एवधारयन् घटसमयो-ज्ञातानेकान्तः पुनस्तान् नयान् न विमजते सत्यामलीकान् घा, किन्सिवरनयविषयसम्पपेक्षतया 'अस्त्येव द्रव्यार्थतः' इत्येवं भजनया स्वनयामिप्रेतमय सत्यमेवावधारयति, यत् यत्र यदपेक्षयास्ति तस्य तत्र तदपेक्षया ग्राहकत्वेनैव नयप्रामाण्यात् । अत एव द्रव्यास्तिकादेः प्रत्येकमित्यरूपतया सत्यम् , अनित्थरूपतया चाऽसवं परिभाषितम्-[ सम्मति सूत्र--] "दहिउ ति तम्हा गस्थि पाओ णियमसुद्धजातीओ। न य पज्जडिओ पाम कोइ भयणाइ उ बिसेसो ॥ १ ॥” इति । [अने ! ] न हि विषय मेदकृतोऽनयीभेदः यात्मफरपर प्रातिस्विकरूपेण द्वाम्या महान , किन्तु भजनपा-विवक्षाभेदकृतप्रविभासभेदादित्युत्तरार्धतात्पर्यम् । [नय के आपेक्षिक-प्रामाण्य का मूलाधार ] उस तथ्य सम्मतितर्फ प्रथमका २५ षौं गाया में इस रूप में प्रतिपादित किया गया है कि संग्रहावि सभी मयसपने परिच विवप में सम्पग कामरूप होते है क्योंकि सदाश्रय में तव के प्राहक होते हैं। अन्य नप विषय का विचालन-निराकरण करने में असमर्थ होते हैं, क्योंकि अन्य नय का विषय मी कश्चित् सरय होता है. अस एवं उसका उन्मूलन नहीं किया जा सकता कारण यह है कि यदि किसी मम से प्रत्य नम के विषय का उन्मूलन होगा, तो उसके फलस्वरूप अन्य नघ के विषय का अभाव होने पर नप के अपने विषय का भी अभाव हो जायगा। क्योंकि दोनों ही मपके विषय एक दूसरे के प्रभाव में नहीं होते 1 इसलिये अनेकान्तवेताको 'अन्य नय के विषय का अभाव होने पर स्वविषय कामो प्रसस्व होता है इस तान से स्वात्मशान में परमम के विषय निषेषक मय में मिथ्यात्व का अवधारण हो जाता है, अतः वह नयों का सत्य और अलीकरूप से विमाजम र निजकवचनीय सत्याः सर्वनयाः परविमान मोहाः । ताम् पुन दृष्टसमपो विमयते सत्यान् बालोकान् बा ।।३।। यास्तिक कि तस्माद नास्ति नयो नियमशुजातीयः । न च पर्यवास्तिको नाम कोऽपि भजनया तु विषेषः ।। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मावास्त०७ पलो. १० नहीं करता। किन्तु इतर नय के विषय की अपेक्षा से अपद इतरनय के विषय का पोजरूप से मस्तिस्पाभ्युपगम करते हुये. अपमे नब के विषय मूत घटादि के अस्तित्वाप असा प्रस्त्येव घट: ध्यार्थतः' अर्थात यास्ममा घट का अस्तित्व ही होता है। इस प्रकार सत्यरूप से अयथारण करता है। क्योंकि जो धर्म जिस अपेक्षा से रहता है उस धर्म का उस वस्तु में उस अपेक्षा से ग्राहक होमे से होनब में प्रामाण्य होता है। सोलिये, उक्तरीति से नय का प्रामाण्य होने से ही सम्मतिनाथ प्रषमकाण्ड गाथा-९ में पूग्यास्तिक भावि प्रत्येक नमों का इस्थरूप सया-अर्थात ओ पल्स जिस में जिस अपेक्षा से है उसमें उस अपेक्षा से उस वस्तु का प्रतिपावक होने से हो सम्बारव और असिस्थापतमा अर्थाद अग्पया प्रसिपावक होने पर प्रसम्यश्व कहा गया है। [ द्रव्यार्थिफ-पर्यायार्थिक नयों में भजनामूलक भेद है। गाथा का अर्थ यह है कि-वास्तु द्रश्यपर्याय उभयात्मक होती है, अतः कि अगला पर्यायाधिक कोई भी नए नियमतः शुद्ध जातीम महा होता अर्थात हम्पास्तिक नर पर्नपस्तिक नप के विषय से एवं पर्यायास्तिक नम प्रत्यास्तिक नय के विषय से सर्वमा पराङ्मुज नहीं होता। प्रतः दोनों में समानविषयकरम हो जाने से उन में विषयमेवमूलक विध्य नहीं हो सकता किन्तु भजना से निध्य होता है-मर्थात् पर्याय को गौणरूप से पहण करते हुये द्रश्य को प्रधानरूप से प्रहण करनेवाला नयध्यास्तिक और तव्य को गौणरूप से प्रहण करते हुये पर्याय को प्रधान रूप से ग्रहण करनेवाला मय पर्यायास्तिक कहा जाता है। [ द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नय का स्वतन्त्र विषय नहीं है ] इस अर्थ को प्याल्याकार ने यह कहते हुमे स्पष्ट किया है कि व्यास्मिक और पर्यावास्तिक नयों में मो भेव किया जाता है उसका निमित्त विषयमेव नहीं है। अर्थात पह नहीं कहा जा सकता कि 'पर्यायास्तिक के विषय को ग्रहण न करके केवल अपने विषय हुण्यमात्र को ग्रहण करने याला नष दयास्तिक और पास्तिक के विषय को प्रहण न करके केवल अपने विषय पर्याय को प्रहण करनेवाला नय पर्यायास्तिक होता है। क्योंकि बस्तु तव्यपर्याय उभमश्रामक होती है और दोनों ही नय अपने प्रातिस्विक रूप से उसी वस्तु का ग्रहण करती है। अवि पास्तिक म्यप्राधान्यन जिस बस्तु को ग्रहण करता है उसोको पर्यायास्तिक भी पर्यायप्राधान्येन ग्रहण करता है । इसप्रकार बोगों के विषय में साम्य होता है । अतः उनके विध्य का निमिस विषयमेव नहीं है किन्तु मजना है । अर्थात पर्वाय और द्रव्य के गौणप्रधानभाव से एवं त्रस्य और पर्याय के गौण प्रधानाब से वस्तु को विषक्षा का मेव होने से जो प्रतिभासद होता है अर्थात् ग्याथिकलय से धातु का जो गौण भाव से पर्यायरूप में और प्रधानभाव से ध्यप में एवं पर्यायाथिकान से गौणभनय से द्रष्यरूप में और प्रधानभाव से पयहिप में को वस्तु का प्राण होता है यही उनके वैविध्य का निमित्त है। सम्मति गाथा के उसरा का इसी अर्थ में तात्पर्य है। ___ तस्मान् पर्यायार्षिक उत्पाद-व्ययप्रतिभासे सत्पत्नमयगच्छति, पांच्यप्रसिभासे त्वसत्यस्वम् । न तु तत्प्रतिभासमेत्र प्रतिक्षिपति, अनुभूयमानदिपवताऽधिपयताकत्यस्य व्यवस्थापयितुमशक्यत्वात् ! न खलु सहस्र णापि बाधकः इ रजतम्' इति प्रोते रस्त्रावलम्पनत्वं यद Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था... टीका एवं हिन्धी विवचन ] ६४ स्थापयितुं शक्यते । द्रव्यास्तिकोऽपि धौष्यप्रतिभासे सत्यत्यमवगन्छति, उत्पाद-व्ययप्रतिमासे त्वसत्यत्वम् । तदुक्राम्-[ सम्मति सूत्रे-१०/११] दवद्वियवत्तव्य अवयु नियमेण होह पज्जाए। तह पञ्जयवत्धु अवस्थुमेव दबदियणयंस ॥१॥ उप्पज्जति चयंति अ भावा निअमेण पज्जयनयस्म । दवद्वियस्स सय्यं सया अणुप्प नमविण ॥ २॥" इति । अयं च स्वविषयपक्षपातोऽयक्तः, उभयप्रतिमासप्रामाण्यस्य तुल्ययोगक्षेमवादित्यूक्तम् । सता यात्मक यस्तु प्रभाणसः पयरसितमिति ।। ११ ।। [अन्यनय के विषय में असल्यपन का अवधारण अयुक्त हैं ] इस तंवर्भ में यह मातव्य है कि यत: अन्यनय के विषय को गोगरूप से और अपने विषय को प्रधामरूप से ग्रहण करना हो नयों के परस्पर भेद का प्राधार है-प्रप्त: यह कहना कि "क्यापिकनय वस्तु के उत्पाब-यय के प्रतिमास में सत्यत्व को ग्रहण करता है और प्रोग्य प्रतिभास में असत्पश्व को प्रक्षण करता है, न कि नौप्यप्रतिभास का प्रतिमेप करता है। अति बस्तु प्रतिभास में प्रोग्यविषयकस्वाभाव का ध्यवस्थापन नहीं करता है, क्योंकि वस्तुप्रतिमास में प्रोग्यविषपकस्य का अनुभव होता है । अत एव उसमें प्रौव्यविषयकस्व के अभाव का प्रतिष्ठापन उसीप्रकार शक्य नहीं है जैसे इवनस्वरुप से शुक्ति में ससस्वग्राहक एवं रजतम्' प्रतीति में 'वं न रजतम' इस प्रकार के ज्ञान से सहस्रशयकों से भी रजतस्यविषयकत्व के बाले रङ्गास्वविषयकत्व अर्थात् रजतस्वविषयकत्याभाव का प्रतिष्ठापन घावय नहीं होता। [रङ्ग-कलाई माम की बातु] [ । एवं व्याथिक भी वस्तु के प्रोड्यप्रतिमास में सत्यस्व को पण करता है और उत्पाद-व्यय प्रतिभास में असत्यस्य को ग्रहण करता है। जैसा कि सम्मतिका १ में १० और ११ वौं गाथा में कहा गया है कि प्रध्यास्तिक का प्रतिपाच विषष पर्यायास्तिक की दृष्टि में नियमतः प्रषस्तु है और पर्यायास्तिक का प्रतिपाय विषयव्याधिक की ष्टि में नियमेन अवस्तएवं पर्यायाथिकको ति में उसका अपना विषय वस्तु का जापावन-मयय नित्य सत्य है और प्रायास्तिक का अपना स्तुमों का उत्गावषिमाधि प्रोध सावकालिक-संश्य है। इस प्रकार अपने विषय के प्रतिमास में सत्यत्व का प्रण और अन्य नय के विषय में प्रतिभास में असस्परब का ग्रहण ही मयों में परस्परमेव का आधार है।" __अपने विषय में मयों के पक्षपात का द्योतक होने से प्रयुक्त है। क्योंकि वस्तु के उत्पादरमम और प्रोग्य धोनों के प्रतिभास के प्रामाण्य का योगक्षेम तुल्म है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है किमन्य नय के प्रतिपाय विषम के असत्य होने पर अपना विषय मी असत्य हो जायगा वर्षोंकि नयों के विषय परस्पर अविनाभावी होते हैं॥११॥ रण्यास्तिकवत्तव्यमबस्तु नियमेन भवसि पर्याय: । तथा पर्ययवस्तु अवस्वेव द्रव्य पिकनयस्य ।।१।। उपद्यन्ते पवन्ते च भावा नियमेन पवनयस्य । क्यास्तिकस्य सर्व सदाऽनुत्पतमविनष्टम् ।।२।। विषय: Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ मारा . स्त.. इको. १२ १२वीं कारिका में इस विरोध का परिहार किया गया है जो उत्पादावि का लक्षण बताकर पूर्वपक्ष में उजाषित किया था उत्पादादिलक्षणाभिधानेन पूर्वपक्षितं विरोध परिहरमाह-- मूलम्-उत्पादोऽभूतभवनं स्वत्वन्तरधर्मकम् । तथाप्रतीतियोगेन विनाशस्तविपर्ययः ॥१२॥ उत्पादोऽभूतभवनं प्रागननुभूतरूपाविर्भवनम् स्वत्वन्तरधर्मक-स्वनान्तरीयकारपर्यापनाशरूपहेत्वन्तरस्वभावम् । कुतः १ इत्याइ-तथापतीतियोगेन-अधिकृतरूपोत्पाद एवं प्राक्तनरूपनाशप्रतीतेयुक्तवान् , तदजनकस्वभाव परित्यागसमनिपनत्वात् तजननस्वभावत्वस्य । [अननुभूतरूप फा आविभाव यही उत्पाद है] उत्पाद का जो अभूतमवन लक्षण किया गया उसका अर्थ पूर्वकाल में असत् का उत्तरकाल में सत्तालाभ नहीं है किन्तु पूर्वकास में अननुभूत का उत्तरकाल में प्रादुर्भावरूप है और वह अपने नान्सरीयक-अविमाभावी प्राक्तनपर्यायनाशल्प हेस्वन्तरस्वरूप है। क्योंकि साजनस्वमाष यतः तत् के अजननस्वभाव के परित्याग का मनिपत होता है-प्रतः प्रकृत अपूर्वरूप का स्पार होने पर ही प्राक्सनरूप के नाश की प्रतीति युक्तिसंगत होती है। याशय यह है कि जब सुवर्ण घटाकार में प्रवस्थितप्रोताहेत मकट का जमक नहीं होता। मुकर का जनक तभी होता है जब मकर को अजमानस्यभाव अर्यात घटकार का परित्याग करता है। अतः जैसे सुवर्णद्ध मुकुट का एक हेतु है उसी प्रकार मुवर्ण के स्टारमक पर्याय का नाम भी त्वन्तर है। अत: प्रवकाल में अननुभूत मुकुटाकार का आविर्भावरूप मुकुटोपाव घटात्मक प्रापतन पर्याय के नामस्वरूप है। क्योंकि यदि इन दोनों में फश्चित तावात्म्य न हो तो मुकुट का उत्पाद होने पर ही घटनाश की प्रतीति होने का नियम युक्तिसंगत नहीं हो सकता। तथा, विनाशस्तविपर्ययः भूताऽभवनमन्यभवनस्वभावम् , प्रकृतरूपनाशस्वेतररूपोत्पादनान्तरीयकतानुभवात् , दीपादिनाशेऽपि तमा-पर्यायोत्पादानुभवस्य जागरुकत्वात् , एकसामग्रीन भवन्वाश तदतद्रूपनाशोत्पादयोः। ये तु लायवरणयिनोऽपि कपालोल्पादिका निर्मा सामग्रीम्, पटनाशोत्पादिकां च भिन्नामेव का पपन्ति, तेपी काचिदपूर्वव वैदग्धी ॥१६॥ [अन्यरूप में परिवर्तित हो जाना यही विनाश हैं ] इसी प्रकार पूर्वपक्ष में निमाश को उत्पाद का विपर्यय कहकर जो उसका मुसका अमवन अर्थ किया गया यह भी अन्यात्मना भवनस्वरूप है। क्योंकि सप्त का प्रभवन अर्थात प्राक्तनरूप के नाम में अपूर्वरूप की उत्पत्ति के नान्तरीयकस्व-अविनामाविश्व का अनुभव होता है। जैसे दीपादि का नाम होने पर भी अन्धकार रूप पर्याय के उत्पाद का अनुभव सर्वसम्मत है। एवं जैसे प्राक्तनरूप के नाश में श्रपूर्वकप की उत्पत्ति का अविनामाविप होने से प्रातमरूप का नाश और अपूर्वरूपोत्पार में ऐक्य होता है उसी प्रकार एक सामग्री जन्म होने से भी सबूपविनाश सानो Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मा. हीका एवं हिन्दी विवेचन ] ६७ पूर्वरूपविनापा और प्रसपउत्पाद यानी अपूर्वरूपोत्पाव में ऐक्य होता है। इस प्रकार प्राक्तनरूपनाश और अपूर्षरूपोल्पासही मामग्री सम्भव होने पर भी जो लोग लायष के प्रेमी होते हुये भी कमालोत्पादकसामग्री और घटनाशकसामग्री में मेव को रुपना करते हैं उनकी विवग्यता(चतुराई) कुछ अपूर्व ही है ।योंकि प्रातम रूपनाश और अपूर्वकपोत्पाव को सामग्री के ऐक्य में स्पष्ट लापत्र होते हुये भी उसे स्वीकार नहीं करते ।। १२ ।। मूलम्-तथतदुभयाघारस्थमावं प्रौव्यमित्यपि । अन्यथा प्रितचाभाष एकवैकत्र किं न तत् ॥ १३ ॥ सथा, एतदुभयाधारस्वभापम् उत्पाद-व्ययाधारस्वभावात्मकम् , धौम्यम् इत्यपि इदमपि, 'तथाप्रतीतेस्तदुभयापिनाभूतम, नान्यथाभूतम्' इति योज्यते। अन्यथा उक्तानभ्युपगमे, त्रिलयामाया त्रयमपि कथाशेषमापद्यत, परस्परानुयित्वाद वितयस्प, अधिकृतान्यनराभावे सदितरामावनियमात् । [स्थायिता उत्पाद विनाश की अविनामाथि है ] १२ वी कारिका में 'इत्यपि' शाम के आगे तथा प्रतीत : सामयाऽविनामूतं. नान्यथासूतम्' इतना अंमा ऊपर से जोबने से इसका अर्थ यह होता है कि उत्पाद और व्यय इस उभय का आधारस्वमा प्रोग्य भी उत्पाद और व्यय वीनों का भविमाभूत-ज्याप्य है, कम बोमो के बिना सम्भव महौं है क्योंकि उत्पाबव्यय के होमे पर ही धौम्य की प्रतीति होती है। पर्थाद जिसका किसोरूप में उत्पाब पौर किलीप में उषय होता है उसी में प्रोष्य को बुद्धि होती है । भसः प्रौव्य मोनों का पाप्य है। यवि प्रीमको उत्पाद स्यय का अविनामावी न माना जायगा तो तीनों का केवल कथनमात्र हो रह बायगा-अस्तित्व सिद्ध नहीं होगा क्योंकि तीनों परम्परानुविस है। अतः अधिकृत उत्पादव्ययस्य और प्रोग्य इसमें किसी एक का अभाव होने पर मन्म का अभाव भी नियमतः प्राप्त होगा। तथाहि-न धौथ्यध्यतिरेकेणोत्पादच्ययो संगतो, सर्पदा सर्वस्यानुस्यूताफारन्यतिरेकग विज्ञान-पृथिव्यादिकस्याऽप्रतिभासनात् । न चानुस्यूताकासबभासो पाध्यः, सहायकत्वेनाभिमतस्य विशेषप्रतिमासस्य तदात्मकत्व एकबाधेपरस्यापि बाधान, सद्यतिरिक्तत्वपक्षस्तु घाँय्यधियं मिना स्थास-कोशादिप्रतिभासाऽननुभवादनुपपषः । न च अधमाक्षसनिपातानन्तरमन्वयप्रतिभासमन्तरेण विशेषप्रतिमास एव जायत इति वाच्यम् , तदा प्रतिनियतदेशस्य वस्तुमात्रस्यैप प्रतीतः। अन्यथा तत्र रिशेपाव भासे संशयाधमुत्पत्तिप्रसक्ते, विशेषारयतेस्तविरोषित्वात् । न च तदुत्तरकालभाबिसाश्यनिमित्तैफन्याध्ययसायनियन्धने संशयाधनुभूति, प्राग विशेषावगमे एकत्याभ्यवसायस्यैवाऽसंभयात् भेदशानविरोधियान् । अनुभूयते च देशादी वस्तुनि सर्थजनसापिकी प्रान सामान्यप्रतिपत्तिा, तुदुचरफालभाविनी च विशेषावगतिः । अत एकाचप्रहा. दीना कालभेदानुपलक्षणेऽपि क्रममभ्युपयन्ति समयविदः, अवग्रहादेरी हादौ हेतुत्वात् । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रातील लो-१५ [ उत्पादादि के विनाभाय समर्थ ! जैसे देखिये-धौष्य के अभाव में उत्साव और ध्यय की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि विज्ञान और पृथ्यो आदि मिशेय, इन सभी का अनुस्यूत आकार के विमा कभी प्रतिमास नहीं होता। अमाप यह है कि शाम की अथवा पृथ्वी आदि शव के उत्पाविनाश की जो बुद्धि होती है उसमें उत्पाद और बमम दोनों में एक अनुस्यताकार नियम से भासित होता है। जैसे 'मम घशानं मटम कपालसाममुत्पन्नम' एवं 'इह एटो नष्टः कपालमुत्पत्रम्' इन दो प्रतीति में पूर्व में मम शम्बार्यशाला की दो मान की उत्पति-नाश में मनुस्यूससा का और दूसरे में मार्च मलिकाको घरमाश-कपालोत्पत्ति में अनुस्यूतता का प्रयास होता है। [अनुस्यूताकार का अयमास मिथ्या नहीं है ] यदि यह कहा जाय कि-'उत्पात्र और प्यय में जो अनुस्यताकार का अबभास होता है बह बाध्य है । अतः उस प्रवमास से उत्पाद मौर व्यप में एक अनुस्यूत आकार की सिद्धि नहीं हो सकप्ती-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जिस विशेषप्रतिभास को अनुस्यताकार के प्रभास का बाधक माना जायगा बङ्ग पनि मध्य प्रतिभास से अभिन्न होगा तो मनुस्मृताकारावास का बाप होने पर बिमोष प्रतिभास का भी बाघ हो जायगा। यदि विशेषतिमास को अस्पताकारावास से भिन्ना माना जायगा तो यह रक्ष उपपल नहीं हो सकता पयोंकि धौम्य-मतिकारूप अनुस्मृताकार के प्रतिमास के बिना मत्तिका के घट पूर्वमाषी स्थास-फोश मावि विशेष सवस्था के प्रतिभास का अनुभव नहीं होता। यदि यह कहा जाय कि-"स्तु के साथ इन्द्रिय का प्रथम सनिक होने के मनश्तर अन्वयमनुस्यूताकार का प्रतिभास न होने पर भी विमोषप्रतिभास होता है"-सो यह ठीक नहीं है क्योंकि पणिय का प्रथमसनिकर्ष होने पर यह कुछ है इस रूप में निमतरेषास्थित परतु मात्र को अत्यन्त सामान्यामार में ही प्रतीति होती है। यदि इन्द्रिय का प्रथमसंनिकर्ष होते ही पास के विशेष प्राकार का भी प्रभास होगा तो वस्तु के विषय में यह सर्प है अथवा रज्जु है इस प्रकार के संकायार की उत्पत्ति हो सकेगी। क्योंकि विशेषाकार का मान संशय का विरोधी होता है। प्रतः किसी वस्तु के इन्द्रियसंनिकृष्ट होते ही यदि उसका विषहप माहीत हो जायगा सब उसके निजस्वरूप का निर्णय सो जाने में उसके विषय में संशम न हो सकेगा। [एकपाध्यासाबमूलक संशयोत्पत्ति का कथन अनुचित ] यपि यह कहा जाय कि-"वस्तु के साथ इन्द्रिय का प्रथम संस्किर्ष होने पर उसके विशेषाकार का प्रलिमास हो तो आता है किन्तु उसके उत्तरकाल में अन्य वस्तु के अतिपित साहस्य से उसमें प्रत्य अस्तु के साथ एकत्व अमेव का ज्ञान होता है और उसी कारण उसमें संशयावि की अनुभूति होती है। जैसे रग्स के साथ नियनिकर्ष होने पर रज्जुस्व का ज्ञान उत्पब होता है किानु सर्प के साम्य से उसमें 'अयं सर्पः' इस प्रकार सर्प के साथ एफरख का मानो अमेव का ज्ञान हो जाता है । इस प्रकार संनिकर्ष से रस्जुस्प की और सादर से सर्पस्व की उपस्थिति हो जाने से 'इर्य रज्जुरेष सो वा' इस प्रकार का संशम होता है ।"-किन्तु या कथन ठीक नहीं है, क्योंकि जब रस्तु का विशेषरूप एरपुरष का निश्रय पहले हो आयमा तब उसमें सप के एकत्व का अध्यवसाय हो ही नहीं सकता। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ स्पा० ० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] कक्का जाम होने पर सर्परूप प्रतियोगी का ज्ञान और सर्पमेव के साथ इन्द्रियसंनिकर्ष विद्यमान होने से सर्पमेव का ज्ञान स्वाभाविक है और सर्प मेद का ज्ञान सर्प के अवसान का विरोधी है। वैशस्थित वस्तु के सम्वन्ध में सार्वजनीन अनुभव भी यही है कि उस के सामान्याकार की प्रतिपति प्रथम होती है और विरोधाकार की प्रतिपत्तिवाद में होती है। सामान्यविशेष की प्रतिपत्ति के इस पौर्वापर्य के कारण हो जैन सिद्धान्तवेता अवग्रह- इहा- अब धारणा हम कानों में कालमेव का अपरा है, सरज्ञान का कारण होता हे मोर कार्यकारणभाव पौर्वापर्य नियत होता है । पूर्व यदि च मूलमध्याज्यानुस्यूतस्थूलै फाकारप्रतिभासोऽपहृन्यते, तदा विविक्ततत्परमा प्रतिभासस्याप्यपराव शून्यताप्रसङ्गः । न चैकत्वप्रतिभासस्य तद्विषयस्य विक्रम्प्यमानस्याऽघटमानत्वा मिध्यात्वम्, तस्थान्यानालम्बनत्वात् । 'संचित परमाम्यालम्बनः स प्रतिमास इति वेद १ न संचयस्यैकस्प स्थानीयत्वात् । न चै परमाणुष्वपि परस्य मानमस्ति प्रत्यक्षस्य विप्रतिपत्वात् उपलभ्यमानस्थूलैकस्वभावस्य चाऽवस्तुत्वेन सत्कार्यत्वस्य परै रनभ्युपगमात् । न च चनादिप्रत्ययात् शिंशपाद्यवगतियत् स्थूलात्रभावात् तत्प्रत्ययः वनादेः शिशपाधर्मत्वात्, स्थूलाकारस्य च परमाणुधर्मत्यानभ्युपगमात् । , [ स्कूलाकार प्रतिभास का अपलाप अशक्य ] इस संदर्भ में यह भी ध्यान देने योग्य है कि यदि मूल मध्य अन भागों में अनुगत स्थूल एक rarat आकार के प्रतिभास का अपहरण किया जायगा तो प्रतिभासमानतया अभिमतयस्तु का विविक्त यानी पयानुपष्ट परमाणु के प्रतिभास का भी अपलाप हो जाने से शून्यता का प्रसंग होगा। आशय यह है कि स्थूलवस्तु को प्रत्यक्षसि मामने पर ही उसके परम्परया कारणरूप में परमाणु का अनुमानिक प्रतिभास होता है। किन्तु यदि विभिन्न प्रववों में अनुस्यूत कोई स्प्यूल वस्तु न मानो जायगी तो परस्पर विथिकाय (स्व) शून्य परमाणु का हो अस्तित्व प्राप्त होगा और यह भी अन्य प्रमाण के अभाव में सिद्ध नहीं हो सकता । अतः सर्वशून्यता का प्रसङ्ग अनिवार्य होगा । [ अवयवी का प्रतिभास मिश्रण नहीं है ] यदि यह कहा जाए कि जो एक स्थूलाकार बस्तु (अवपत्रो) को ग्रहण करता हुआ प्रतिभास अनुभूत होता है यह मिथ्या है। क्योंकि उसके विषम का उसके अंखों से भेदाभेव का विकल्प श्रथवा अंशों में उसके एकवेशेन अथवा कारस्म्र्येण वर्तन का रूप करने पर वह उपपन्न महीं होता ।"तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यह प्रतिभास अन्यालम्बन नहीं है। आशय यह है कि वह प्रतिभात मिष्या होता है, जो अन्य को अर्थात् स्व में विशेषणप्रिया भाषित होनेषः ले धर्म से शून्य धन्य वस्तु को अबलम्बन करता है अंसे शुक्ति में रजताकारप्रतिभास | उक्त प्रतिभास स्व में विशेषणविधया भासित होनेवाले एक और स्थो से शून्य वस्तु का प्रवलन नहीं करता किन्तु एक और स्कूलता के आयत वस्तु का हो अवलम्बन करता है, श्रत एव यह मिथ्या नहीं है। [ परमाणुओं के संचय का ही अपरनाम अश्यवी । यदि यह कहा जाय कि "उक्त प्रतिमास संति यामी परस्पर संयुक्त परमाणुओं को अगल Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शास्त्रमा सलो . १३ मान करता है और में परमाणु एकस्य पौर स्थूलत्व से शूग्य है अतः उसके प्रतिभास का मियाब ममिवार्य है।" सो मह ठीक नहीं है, क्योंकि यदि परमाणों का एक संचव माना गया तो वही अबमबी ग हण रसवाहिद होने से उसके माममात्र में हो विवाद रह जाता है, उसे परमाणुओं का संचम कहा जाय अथवा उसे परमाणुओं में अनुस्यूत एक बग्य कहा जाम इसमें कोई तारिखक अम्तर महाँ है । दूसरी बात यह है कि यदि परमाणुमों में अनुत्पूत कोई एक भूल चमन माना जायया तो वयवभिन्न अवयवी का मस्तिावन मामनेवाले वावी पास परमाणु का भी साधक कोई प्रमाण न रह जायगा क्योंकि को प्रत्यक्ष सर्वसम्मत है उतने मिघ्यावं और सत्यत्व के विषय में मस्य प्रौर मावीमत में जपलम्बमान स्थल एक स्वभाव कोई वस्तु न होने से उसे परमाणु का कार्य नहीं माना जा सकता। अत: उसके कारणरूप में परमाणु का मनुमाम भी नहीं हो सकता। . पदि यह कहा जाय कि-'जसे धन को विभिन्न वृक्षों के समूहरूप में प्रतीति से शिशपा मावि विभिन्न वृक्षों का अवगम होता है उसीप्रकार स्थलाकार प्रतिभास से परमाणुशों का अवयम हो सकता है क्योंकि, जैसे पन वृक्षों का समूह है से स्थलाकार भासमान पदार्थ मी परमाणुमों को समष्टि है।"-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि यम विभिन्न वृक्षों का समुदाय यह समुबापी यानी समहारतर्गत एक एक सिमापावि पक्ष का धर्म है । अतः धर्मप्रत्यय से धर्मों का प्रत्यय युक्तिसंगत है किन्तु स्थूलाकार यह परमाणु का धर्म महीं है । अत एष हलाकार प्रत्यय से परमाण का प्रत्यय मुक्तिसङ्गस नहीं हो सकता। ____ कथं च परः कल्पनाबाने भ्रान्तसंविदित्रा स्वसंवेदनापेक्षया विकम्पेतरयोप्रान्ततरयोग परस्परच्यावृत्तपोराकारयोः कथचिदनुत्तिमभ्युपगच्छन्नध्यक्षा हेतु-फलयोयविन्यनुविधामप्यनुवृत्ति प्रतिषिपेत् । संशयज्ञानं या परस्परयायत्तोल्लेखद्वय विभूत् थोकमप्यते तदा किं न पूर्वापक्षणप्रवृत्तमेकं स्वीकृति हेतु-फलरूपं बस्तु ? शरद-विधुन्प्रदीपादीनामुत्तरपरिणामाऽप्रत्यक्षन्वेऽपि तत्सद्धावसाधनात पारिमाण्डल्यादिवत्त मंपिझायाकारश्किल् शभ्यसम्पापि फेनचिद् रूपेण परोचस्याविरोधात् । न च पारिमाण्डल्यादः प्रत्यक्षता, शब्दाघुनरपरिणामेऽप्यस्या वाल्मात्रेण सुघचत्त्वात् । न च शब्दादरनुपादानोत्पत्तियुक्तिमती, सुमप्रयुद्धघुझेरपि निरुपादानस्वग्रसङ्गान् । [ कारण-कार्य के प्रत्यक्षसिद्ध भेदाभेद निषेध अनुचित ] यह भी ध्यान देने योग्य है कि मौज जो विकल्पात्मक शान और भ्रमात्मकन्नान में स्वसंधेविश्व-स्वग्राहकरव की अपेक्षा विकल्प और विकल्पतर एवं भ्रान्त और भाग्तेतर ऐसे परस्परविरु आकारों की कथरि मनुवृत्ति मानता है वह कारण और कार्य में प्रत्यक्षसित भेदानुविज अमेष का निषेध से कर सकता है ? एवं यह भी जातव्य है कि बौद्ध जब परस्पर ध्यावृत्त भावाभाव के उल्लेखाय-1 धारण करनेवाले संशयशान को यदि एक मानता है तो वह पूर्वापरक्षणों से सम्बस फल और हेतु एसयुभषाएमक एक पातु का स्वीकार गयों नहीं करता। यदि यह कहा जाय कि-'यह वस्तु को फल-हेतु उभमास्मक मानने को प्रस्तुत नहीं हो सकता क्योंकि प्रतिमशाद-मेघविनुष-जामुक्त आकाश Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] के नीचे जलते हुये प्रदीपावि कुछ ऐसे भाव हैं जिनके उत्तरकालिक परिणाम कार्य का प्रत्यक्ष न होने से जिन्हें हेतुफलभाबी भयात्मक कहना कठिन है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उनके उत्तरकालिक परिणामों का प्रत्यक्ष न होने पर भी उसका अस्तित्व माना जाता है। अन्यथा अर्थक्रियाकारो न होने से आदि का ही अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकेगा । [ एक ही से हो सकती है ] इसके विशेष में यदि यह कहा जाय कि- 'शब्द-विद्युत् प्रादि प्रत्यक्ष है और उनके परिणाम परोक्ष हैं, अतः इन दोनों में ऐक्य नहीं माना जा सकता तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि जैसे स्थूलतया प्रत्यक्ष अवासित होनेवाली वस्तु का पारिमाण्डल्य यानी श्रणुपरिमाणादि अंश परोक्ष होता है एवं साम और ज्ञेय के प्रत्यक्ष होने पर भी उनका मेव परोक्ष होता है। उसी प्रकार पश्य प्रत्यक वस्तु को भी किसी रूप से परोक्ष मानने में कोई विरोध नहीं है। इसलिये शब्द - विद्युत् प्रावि पदार्थो की स्वरूप से प्रत्यक्ष और परिणामाममा परोक्ष माना जा सकता है। ७१ यदि यह कहा जाय कि 'अणुपरिमाणादि का दृष्टान्त अनुपयुक्त है क्योंकि अपरावि पवार्थ के रूप में प्रत्यक्ष है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उनको प्रस्थता अनुभूत न होने पर भी वनमात्र से उन्हें प्रत्यक्ष कहा जायगा तो शभ्यादि के उत्तरकालिक परिणाम को भी बचन मात्र से प्रत्यक्ष कहा जा सकता है। यह भी ज्ञातव्य है कि विद्युत आदि को उनके परिणामों के द्वारा हेतुफलोभयात्मक मानने में कठिनाई होने पर भी उनके उपाधानों के द्वारा उन्हें हेतुफलभावास्मक कहा ही जा सकता है, क्योंकि शब्दाधि की उत्पत्ति उपादान के बिना मुक्तिसङ्गत नहीं हो सकती। सः अपने उपादानों के साथ उनका ऐश्य होने से उनकी भी हेतु-फल भावात्मकता स्पष्ट है। यह कहा जाय कि 'उसकी उत्पत्ति विना उपादान के हो होती है" तो यह ठीक नहीं हो सकता क्योंकि उपादान के बिना उत्पति मानने पर सुप्त मनुष्य के प्रबुद्ध होने पर जो उसे बुद्धि होती है उसे भी निरुपवान कहा जा सकता है, जिसके स्वरूप सुप्तावस्था में अमाकार बुद्धि के अस्तित्व मानने का प्रयोजन समाप्त हो सकता है। नाषि निरन्दया संततिविचित्तिः, चरमक्षणस्याऽकिश्चित्करत्वेनावस्तु पूर्वपूर्वणानामपि तावापत्ती सकलसंवत्यभावप्रसतेरिति । तस्माद् दृष्टस्याप्यर्थस्य पारिमाण्डन्यादेः, प्रायाकारविवेकादेवशम्य यथाऽष्टत्वं तथोत्य स्वभावस्यापि कस्यचिदशम्यानुत्पलम् । इति सिद्धं चौत्र्यम् | [ निरन्वय संततिविच्छेद असंभव है ] उक्त रोति से जैसे लॉथ्य के बिना उत्पाद को उपपत्ति नहीं होती, उसी प्रकार विनाश की भी उपपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि घटावि के संतान का मुद्गराभिघात के बाद जो विन्देव होता है उसे रिम्य किसी पदार्थ श्रमाश्रित नहीं माना आ सकता क्योंकि यदि सन्तान का निरश्वध नारा माना जायेगा तो उसका अर्थ होगा कि सन्तानघटक अश्लिमक्षण किसी कार्य का उपादान नहीं होता । उपादान न होने पर अर्थशियाकारित्व से ग्रन्थ होने के कारण वह अवस्तु-असत् हो जायेगा और उसके घर होने पर पूर्व पूर्वजण में भी प्रसव को पत्ति होने से पूरे सलाम के अभाव की Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रमा स्त० ७ १लो० १३ आपत्ति होगी : प्रसः शंसे दृष्ट भी स्थूल पदार्थ का परिमाण्यादि अंग अष्ट होता है और ज्ञान तथा प्रा के प्रत्यक्ष होने पर भी उनके ऐक्य में बिनाबदर्शन के अनुरोध से उन दोनों का परस्परमेव अदृष्ट होता है उसी प्रकार उत्पन्नस्वभाव भी वस्तु का कोई अंश अनुत्पन्न हो सकता है 1 तो इस प्रकार नष्ट और उत्पन्न होने वाले पदार्थ का जो अंगा अष्ट और अनुस्पक्ष होता है यही भूष है इस प्रकार उत्पाद व्यय के उपपावक्ररूप में भव्य को सिद्धि अनिवार्य है। * उत्पादव्ययव्यतिरेकेण धन्यमप्यसंगतम् । तथाहि - १. 'दुधादौ दध्यादिकं सदेव' इति सांख्यः दुग्धादेरेव दष्यादिरूपेण व्यवस्थितत्वात् । २. 'तदव्यतिरिक्तं विकारमात्रमेव कार्यम्' इति सांख्यविशेषः । ३. 'न कार्य कारणे प्रागस्ति, किंतु समः पृथग्भूतमेष सामप्रीतो भवति, न तु कारणमेव कार्यरूपेण व्यवतिष्ठसे परिणमते या' इति वैशेषिकादयः । ४. 'न च फार्य कारणं वाति मतमात्रमेव सभ्यम्' इस्यपरः । [ उत्पाद-व्यय के विना स्थिरता का संभव नहीं ] केशर नहीं उत्पाद और व्यय के fare श्री भी युक्तिसङ्गत नहीं हो सकता। इस संदर्भ में विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों का आलोचन करने पर अन्ततः यही निष्कर्ष प्राप्त होता है। जैसे १. सोल्व का मत है कि तुम्बादि में वहाँ आणि विद्यमान ही रहता है, क्रियाविशेष से म्यादि ही वहीं आदि के रूप में उपलभ्य होता है । २. स के एक का मत है कि कार्य ऐसा भी होता है जो कारण से अव्यतिरिक्त होते हुये स्वयं विकार हो होता है अर्थात् तस्वाम्लर का उपादान नहीं होता। ३. वैशेषिकादि का यह सिद्धांत है कि कार्य पहले से कारण में विद्यमान नहीं रहता किन्तु चारण से सर्वथा भिन्न होता है जो कारणलामी से प्रादुर्भूत होता है. कारण ही कार्यरूप में व्यवस्थित अथवा परिणत नहीं होता । ४. अतवादी का सिद्धान्त है कि कार्य और कारण का अस्तित्व ही नहीं है- नित्य मात्र ही पारमार्थिक तत्व है। 3 1 सत्र 'दुग्धादों दध्यादिकं संदेव' इति सांख्यमते कारणव्यापारफल्यम् । न हि तेन कार्योत्पत्तिः, तदभिव्यक्तिः, आचरणविनाशो वा कतु शभ्यते, तदुत्पत्त्यभिव्यस्त्योरपि सम्वे कारक यापार कल्यात असध्येऽपसिद्धान्तात् । आदरणविनाशेऽपि न तत्साफल्यम्, असतो भावस्पोत्पादवत् सुती भावस्य नाशाभावान् । न चान्धकारवत् तदावारकं तदा किचिदुपल*यते । न कारणमेव कार्याचारकम् तस्य तदुपकारकत्वेन प्रसिद्धेः । किया, अन्धकारवत् तदर्शनप्रतिबन्धकत्वेन तदावारकत्वे तददर्शनेऽपि तत्स्पर्शोपलम्भप्रसङ्गः । पटादिषद् व्यवधायकत्वेन तदावारकत्वे च तद्ध्वंस इव मृत्पिण्डध्वंसेऽपि तदुपलब्धिप्रसङ्गः । क्षीर-नीरादिवदात्यतिसंश्लेषेण तदाचाररवे च वयग्भावं विना तदनुपलब्धिसङ्गः । अपि च, कारणकाले कार्यस्य सच्ये स्वकाल इव कथमसों (न) तेनात्रियते ? कथं च मृत्पिण्डकार्यतया घटी व्यपदिश्यते, न लभ्यथा, पटादिपत् असच्चे च नातिः अविद्यमानत्वादप सिद्धान्तथ । विवेचितं चेदं चाक वार्तायाम् । निरस्तव सत्कार्यवादः सांख्यवार्तायाम् । इति न किञ्चिदेतत् । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याक टीका एवं हिन्दी विवेचन ] [ सांख्य के सत्कार्यवाद की समालोचना ] इन मतों में, दुग्धादि में वध्यादि पहले से ही विद्यमान रहता है-इस सांत्यमत में कारणव्यापार को मिष्फलता प्रसस्त होती है क्योंकि कारणव्यापार से न कार्य की उत्पत्ति हो सकती है और न कार्य की अभिव्यक्ति हो सकती है, न सो कार्य के प्रावरण का विनाश ही हो समाता है क्योंकि उत्पति और अभिव्यक्ति भी यदि पहले से सच होगी तो कारकम्यापार निष्फल होगा। यदि मसत होगी तो 'असन्त सा नहीं होता इस साल्पासिद्धारत का भय होगा। प्रावरणविनाश मामले पर भोकारकण्यापार को सफलता सिद्ध नहीं हो सकती। क्योंकि जैसे असब भाव की उत्पत्ति नहीं होती इलीप्रकार सह भाव का नाश भी नहीं हो सकता, इसलिये कार्य का प्रावरण सत होने पर कारकव्यापार से उसका नाम नहीं हो सकता और असत् होने पर उसका अभाव स्वतः सिद्ध होने से उसके विनाय की कल्पना निरर्थक होती है। पूसरी बात यह है कि जैसे प्रकार किसी वस्तु का भावारक होता है उस प्रकार काम का हो वारक नहीं पास होनाकर जाम कारण ही कार्य का पायारक होता है तो यह अमित नहीं हो सकता क्योंकि कारण कार्य के उपकारकरूप में प्रसिध है, प्रत एवं उसे आवरणरूप में उसका अपकारक नहीं माना जा सकता। । सत्मार्यपक्ष में आवरण की अनुपपत्ति ] दूसरी बात यह है कि कारण यदि कार्य का भावारक होगा तो अप्रकार के समान उसके वर्शन का हो प्रतिपन्धक होगा, अतः कारकव्यापार के पूर्व कार्य का वर्शन न हो किन्तु उसका स्पाशैन उपालम्म तो होना ही चाहिए। यदि यह कहा जाय कि कारग मन्प्रकार के समान कार्य वर्शन के प्रतिबन्धकरूप में कार्य का आवारक नहीं होता अपितु पटादि के समान श्यश्चायक (व्यवधानकारफ) रूप में कार्य का आधारक होता है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि जैसे पूर्व में पट से प्यवहित वस्तु का, पट का नाश होमे पर उपलम्म होता है, उसीप्रकार मपिटमा ध्वंस होने पर घट के मारपस्वरूप आपरण का ध्वस हो जाने से कुलालम्पपाराधिन होने पर भी घर के उपसम्म की प्रसक्ति होगी । यवि यह कहा जाय कि जसे शोर और नौर में प्रात्यन्तिक संमिश्नरा होने से वे दोनों एक दूसरे के आधार के होते हैं उसी प्रकार फार्म और कारण भी परस्पर में आत्यन्तिक संमिश्रण के नाते एक दूसरे के साबारक होते हैं तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर दोनों के पार्थक्य = विभाजन हुये विना कार्य और सारण दोनों की अनुपलधि पी भापति होगी। इसके साथ हो यह विचारणीय है कि यनि कारणकाल में कारणष्यापार के पूर्व भी कार्य की सत्ता है तो कारणमापार के पूर्व कारण से कार्य का माघरपा होता है उसी प्रकार कारणम्पापार के बाद भी कारण से कार्य का माधरण क्यों नहीं होता। साथ हो मस्पिड के कार्यरूप में घट का व्यवहार क्यों होता है ? पटादि की तरह उसके अकार्यरूप में व्यवहार क्यों नहीं होता? यदि यह कहा जाय कि कारणकाल में कार्य का सत्व न होने से कार्य का प्रावरण होता है- तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जब कार्य कारण काल में होगा ही नहीं तो उसके आवरण को क्या प्रावस्यकता होगी? क्योंकि विरमान के दर्शन का प्रतिबन्ध करने के लिये ही प्रावरण की बावश्यकता होती है। दूसरी बात मह कि यदि कारणकास में कार्य को प्रसतु माना जायगा सो सांख्य के लिये अपसिद्धारत होगा ! कारणकाल में कार्य के प्रसव के विश्व यहां कुछ विशेष कहने की आवश्यकता नहीं क्योंकि चाक Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवास ०७०१३ पक्ष की वार्ता में विस्तार से इस पक्ष का विवेचन किया जा चुका है। सांख्य मत के सम्बन्ध में वार्ता करते समय सहकार्यवात का भी निराश किया जा सका है अतः उस विषय की भी यहाँ औौर वर्षा करना आवश्यक नहीं है । لی एवं चानर्थान्तरभूतपरिणामवादोऽपि प्रतिक्षिप्त एव । न श्रर्थान्तरपरिणामाभावे परिणाम्पेर फारणलचणोऽर्थं एको युज्यते, पूर्वापरयोरेकत्वविरोधात् । न च परिणामानतिरेके परिणामित्वमपि व्यवतिष्ठते विशेषणव्यवस्थाधीनत्वाद विशिष्टव्यवस्थायाः । न ह्यं कमेव विशेषणं विशेष्यं च इति न किचिदेतत् । [ अभेदपक्ष में परिणाम परिणामिभाव की अनुपपत्ति ] जो लोग कार्य को कारण का अनर्थान्तरभूत यानी अभिन्न परिणाम मानते हैं उनका मत भी अनायास हो निरस्त हो जाता है क्योंकि यदि परिणाम को कारण से अथन्तिर यानी कथमपि मित्र न माना जायगा तो परिणामी कारण और परिणामरूप कार्य ये दोनों अभि न हो सकेंगे। क्योंकि कारण पूर्वकालिक होता है और परिणाम कार्य उत्तरकालिक होता है अतः उनका अभिन्नत्व • एकएव विवश है। प कारण और परिणाम में भेद न मानने पर कारण में परिणामित्व भी सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि परिणाम विशेषण है और कारण परिणाम से विशिष्ट होता है अतः कारण का परिणाम उन बोनों में भेव मानने पर ही उपपन हो सकता है क्योंकि विशिष्ट को सिद्धि विशेषण से भिन्न विशेष्य की सिद्धि के अधीन होती है। एक ही वस्तु विशेषणविशेष्य दोनों नहीं हो सकती एष परिणाम यह कारण से सर्वषा अनर्थान्तरभूत अभिश होता है यह मत श्रत्यन्त सुच्छ है । यपि कारणा कार्यमन्यन्त पृथग्भूतमेत्र, तदाश्रिनत्वेन तस्योत्पत्तेश्व न पृथगुपलम्भः ' इति वैशेषिकादीनां मतम्। तदपि समवायनिपेधात् अन्यस्य च संबन्धस्याभावादनुपपणमेव । क्रि, अवयवेभ्योऽवयविन एकान्तभेदे एकदेशमै सर्वस्य रागः स्थान, एकदेशावर , सर्वस्वारणं भवेत् रक्ता रक्तयोरावृतानामृतयो भवभ्युपगमेकस्यात् । यस् 'एकस्मिन् मैदानाचे सौशब्दप्रयोगानुपपत्तिः' इत्युपोतकरेणोक्तम् तत्तु स्वतस्त्रं स्त्रीपघाताव' इति न्यायमनुसृतम् अवयवानामवयवभाव एवं सर्व रक्तम्' 'किञ्चित् वस्त्रं रक्तम् इति त्रिलोकव्यवहारसिद्धेः । न वस्त्रपदस्य वस्त्रावयचे लक्षणया तत्र सर्वपदप्रयोगानुपपत्तिर्भेति वाच्यम् । असल चित्यात् तत्प्रयोगस्य । [ कार्यकारणभेदवादी वैशेषिकमत की समालोचना ] वैशेषिक आदि का यह मत है कि- "कार्य कारण से प्रत्यन्त भिन्न होता है, किन्तु इसको उपसि समवायिकारण में ही होती है, मतः कारण से पृथक उसका उपलम्भ नहीं होता" - किन्तु यह मत भी ठीक नहीं है क्योंकि यह मत समवायसम्बाध को मान्यता पर अवलस्थित है और समचाय का निषेध किया जा चुका है। एवं प्रभेद से अन्य दूसरा कोई सम्बन्ध तो नहीं बन सकता Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा. डौका एक हिमी विवेचन ] ७ अतः पह मत सर्वत्र अनुपपन्न है। इस मस में दूसरा बोष यह है कि मवयवी को अवयों से भरयास भिन्न मानने पर किसी एक अवयम में रक्तत्व होने पर सम्पूर्ण अवस्वी में रहता हो कामे की प्राप्ति होगी, एवं किसो एक प्रत्यक्ष का आवरण होने पर पूरे अवयवी को पावरण की आपत्ति होगी। क्योंकि वोषिक के मतानुसार रक्त एवं परत तया मायूत एवं ममावृत अवयवी में ऐक्य है । [उघोतकर के मत का निराकरण ] इस चर्चा के संदर्भ में उद्योतकर ने जो यह कहा है कि-पपयधी के एक होने से उसमें भेदन होने के कारण सर्व शब्द का प्रयोग मानुपपन्न है अर्थात अवमयी एक है मौर सशन का प्रयोग अमेकानियत है पता पधी के विषय में 'एक वेयर में रकम होने पर सब में रक्तब हो जामगा' इसप्रकार का प्रयोग अनुपपन है।"-पायाकार के कयमानुसार उद्योतकर का यह कथन अपने शस्त्र से अपना वध करने के समान है। क्योंकि अपयकों के अवपषी से अभिन्न होने पर ही 'सर्व वस्त्र रक्तम्'-पूरा वस्त्र रक्त हो गया, 'किधि वस्नं रक्तम्-वस्त्र कुछ अंश में ही रक्तहमा इस विषिष लोकव्यवहार की सिद्धि होती है। कि उद्योतकर का उत कपन प्रबयबी को इस कोकव्यवहार के लिये अयोग्य सिजकर देता है। परि यह कहर जाय कि-'उक्त व्यवहार में वस्त्र पद को पात्रावयब में लक्षसा होने से सर्वपत्र के प्रयोग की अनुपपत्ति नहीं होती'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्त प्रयोग प्रासलवपृत्ति है. भयदि उस में मुख्य वृत्ति अभिधा' का सिलम नहीं माना जाता। अर्थात् यह प्रयोग मुख्य है। प्रत एव लाणा से उसका उपपावन उचित नहीं हो सकता। यदपि शङ्करस्वामिनोक्तम्-'वस्त्रस्य रागा फुदकुमादिद्रष्येण संयोग उत्पते, स चाऽच्याप्यवृत्तिः, तत एका रक्ते न सर्वस्प रागः, न च शरीरादेरेफदेशावरणे सर्वस्यावरणं युक्तम्' इति । तदप्ययुक्तम् , पटादेनिरंशस्यैकद्रव्यस्य कुमादिना व्याप्ता-श्याभांशाभावेन तत्र संयोगाऽव्याप्यवसित्वस्याऽसंभवदुक्तिकत्वात् । तदारम्भकाययवस्यैव रक्तव्ये श्य न तस्य किश्चिदश्याप्यवृतित्वं नाम, अश्यवं व्याप्यय रागस्य से, अचययिनचाऽरफ्तस्यादेव न च स्यादयविनि रक्तन्यप्रतीतिः । [अभयपी के विषय में मांकर स्वामी मन की समालोचना] संकरस्वामी ने इस विचार के संदर्भ में जो ग्रह कहा कि-'स्त्र का पुनमावि ध्य के साथ जो संयोग होता है उसी को वस्त्र का रक्तत्व कहा जाता है, अतः संयोगात्मक होने से रक्तस्त्र अध्यायति है। अल एव एक भाग के रत्त होने पर सब में रकता नहीं हो सकती। इसी प्रकार शरीरावि के एषा वेश में आयरण होने पर सब का प्रावण भी पुलिसङ्गत महीं हो सकता क्योंकि आवरण भी आवारकप का संयोग रूप होने से अश्याप्यवृत्ति है।'-हिम्तु यह कथन भी मुक्तिसङ्गत नहीं है क्योंकि पट आपि एक निरंका व्रम्प है। अतः यस मामि से ग्याप्स मोर अम्माप्त अंश की कल्पना सम्भव न होने से उसमें संयोप को अध्याप्त कहना असम्भव है। यदि पट आदि के प्रारम्भक अवयवों को ही रक्त कहा जाय तो रक्तरंग में किसी प्रकार का भग्याम्यवृतित्व उपपन्न न हो सकेगा क्योंकि रंग अवयव को अमाप्त करके विद्यमान होता है। दूसरी Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवा० ७ १३ यह कि यदि अवयवों को ही रक्त माना जायेगा तो अवधी में रक्तता न होने से उस में रक्त की प्रतीति न हो सकेगी। संयो अथ तसदस्यवे कुझुकुमसंयोगाख्यो रागो जातस्तत्तदवयवावच्छेदेनावयविनि रागं जनयति, कारण कारणसंयोगात् कायाऽकार्यसंयोगोत्पत्तेः अवस्तस्यावच्छि चित्वं युक्तमिति चेत् ? न तत्रात्रावयविवृत्विक्रमोत्पद्यमानरागद्वयानुपलम्भात्, गजन्पसंयोगतत्सामग्र्यादिकरूपने गौरवात् । तत्र रक्तरूपेण रक्तरूपस्याभिभवेऽम्यावयवेऽप्परक्तानुपलम्भप्रसङ्गात् तद्नभिभवे च तदवयवेऽपि तदुपलम्भप्रसङ्गात् । न व तदवयवावच्छि रक्तस्त्वं तदवयवावच्छेदेनैषाक्तत्वाभिभावकमिति वाच्यम्, अरक्तत्यग्रहप्रतिबन्धकत्वरूपस्याभिभावकत्वस्याऽनवचित्यात् । [ संयोगस्वरूप रंग में अव्याप्यवृत्तित्व की शंका का निवारण ] यह कहा जा कि- “वस्त्र के सत्तदवयवों में जब कुंकुमसंयोगात्मक रंग उत्पन्न होता है तब वह तदवयवावच्छेदेन पटात्मक अवयवो में कुङ्कुमसंयोगात्मक रंग को उत्पन्न करता है, क्योंकि कारण और प्रकारण के संयोग से ही कार्य और अकार्य संयोग की उत्पत्ति होती है। कुंकुम संयुक्तप वावयव पट का कारण है और कुकुम अकारण है। अतः उन दोनों के संयोग से कुकुमसंयुक्त अवरूप कारण के पटरूप कार्य का एवं उसके अकार्यभूत कुकुम का, संयोग अनिवार्य है। इसलिये पर कुकुमसंयोगात्मक रंग में कुंकुमसंयुक्तपटश्ययवश्वच्छिद्रश्वरूप अध्याय कृतित्व मुक्तिसङ्गस है। किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि अवयव और अवयबो में वर्तमान कमोत्पशसंयोग हय का उपलम्भ नहीं होता। दूसरी बात यह कि पटावयय और कुंकुम के संयोग से हो प्रवपथ अवयवी में अमेव मान कर अवयवी में रक्तत्व प्रतीति का उपपादन सम्भव होने से संयोगजन्यसंयोग और उसकी सामग्री आदि की कल्पना में अतिगौरव है । Mard और अवयवी के भेद पक्ष में दूसरा दोष यह है कि रक्तरूप से अयम के र करूप का प्रभिभव माना जायगा अन्याय यानी कुकुम से असंयुक्त पहावयव में मो अरप के धनुरलम्भ की आपत्ति होगी। यदि अभिभव न माना जायगा तो कुकुमसंयुक्त पटावयव में भी परत के उपलम्भ की आपत्ति होगी, क्योंकि पट का रूप एक हो है अतः वह जब कहीं अभिभूत होगा तो पूर्णरूप में अभिभूत हो जायगा और यदि कहीं अनभिसूत होगा तो पूर्ण रूप में भी अनभि भूल होगा। 1 प्रतिपन्धारूप अभिभावकता अवयवावच्छिन्न नहीं होती ] इस के प्रतिवाद में यदि यह कहा जाय कि "तलववयवावच्छेदे जो रक्तत्व होता है यह सत्तावच्छेदेन अर्थात् तत्तवयव द्वारा ही रक्तश्व का अभिभावक होता है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि रक्त की प्रभिभावकता अरक्तत्व की प्रतियकता रूप है। मतः वह अध्या नहीं हो सकती। क्योंकि प्रतिबन्धकता कारणीभूताभावप्रतियोगिता रूप होती है। प्रतियोगिता प्रतियोगितावच्छेदक धर्म एवं संबंध से हो अनि होती है। पद के अवयव विशेषगत रक्तत्व में, उस 7 म Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर ४० टीका एवं हिन्दी] विशेष में मतदवग्रह की कारणीभूताभावप्रतियोगितारूप जो प्रतिबन्धकता है- पद का रहाaur जसका धर्मविषया अथवा सम्यन्यविधयः अवच्छेदक नहीं होता। अतः उक्त रक्तवतियथकता से अस्थि नहीं हो सकती । अतः यह कहना कि समावरिकता सामच्छेअरक्तत्व का अभिभावक होती है, वह असङ्गत है । פיט न व रक्तात्रयव विपयकतद्र ( दर) तत्वग्रड़े सहागः प्रतिषन्धक इति वाच्यम्, गौरबाद, रक्ताय पत्राच्छेदेन चक्षुः संनिकर्षे रक्तावयत्राविषयकत दरक्तत्वप्रतीतिप्रसङ्गाच। किञ्च, 'किश्चित् यस्त्रं रक्तम्' 'सर्व वस्त्रं रक्तं' इति प्रतीतो 'किश्वित्' इति 'सर्वम्' इति च विशेष एव प्रतीयते न तु संयोगविशेषरूपरागे किञ्चिदवयवावच्छिनत्यं सर्वावयवात्रच्छ त्वं च । 'यूले वृक्षः कपिसंयोगी' इत्यत्रापि मूलवृचिकपिसंयोगवान् वृक्षः' इत्येव स्वारसिकोऽर्थः । यदि य मुलेऽवच्छेदकत्वं भासते तदा तदपि वृक्षापेक्षमेव स्वनिरूपितकत्व संचलित मेदप्रतियोगित्वरूपम् । अत एव नयभेदेन प्रामाण्याप्रामाण्यविभागः । एवं च 'अवच्छेदकभेदाद न रफ्ता रक्तत्वादिविरोधः" इति निरस्तम् अव्याप्यवृत्तिभेदाभ्युपगमप्रसङ्गाच । , [ प्रतिबध्यताचच्छेद कोटि में रक्तावयवविषयकत्व के निवेश में दोष ] यदि यह कहा जाय कि रक्तावयक सवयी के अरबसवज्ञान में अवयवगत र सम स्वाध्यसमवायसम्म से प्रतिबन्धक तो यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रतिबध्यतावक कोटि में रक्तावयवविषमकरण का निवेश करने से प्रसित्रय प्रतिबन्धक भाव में गौरव है। यदि उसका निवेश न कर अवयवो के अरकरग्रह में अवयवरसाव को प्रतिक माना जायगा तो अवयवी के झरक्त भाग में भी अरब न हो सकेगा । दूसरी बात यह है कि प्रतिबध्यतावककोटि में रक्तावयवविषयक का निवेश करने पर अब रक्तभागामध्येमेन अवयव में नेत्र का संनिकर्ष हो धौर अवयव एवं अवयवी में मेव होने के कारण तथा एककाल में अवयव और अवधी में संयोग का उपलम्भक न होने के। कारण रक्त भाग में चक्षुः संनिकर्ष नहीं है उस समय में रक्तावयवाविषयक प्ररत्वग्रह को आपत्ति होगी । उपर्युक्त से अतिरिक्त यह भी तथ्य है कि "किस्त्रिं रक्तम्" वस्त्र कुछ अंश में एक है" एवं सर्व वस्त्रं तं समस्त यस् रक्त है” इन प्रोतियों में किदिए और सशब्द से शेष की हो प्रतोति होती है न कि रक्षकद्रव्य के वस्त्रनिष्ठ सयोगरूप राग में विवयवाचिनश्च अध्या सर्वात्य की प्रतीति होती है। भतः वस्त्रावि अवयवी को अवयवों से सर्वथा अतिरिक्त न मानकर अवयवसमुदायरूप मानना ही उचित है। [ 'मृले वृक्षः कपि संयोगी' इस प्रतीति का स्वाभाविक अर्थ ] जो स्थिति वस्त्रगत र संयोग की है वही संयोगमात्र की है इसलिये 'सूले वृक्षः कपिसंयोगो' इसका भी स्वाभाविक अर्थ यह है कि वृक्ष मूलवृतिकपिसंयोग का आश्रय है न कि वृक्ष लावच्छेद्य कपिसंयोग का आश्रय है। तथा 'मूलवृतिकपिसंयोग का आषय वृक्ष है यह अर्थ मूल और वृक्ष में अस्पतमेव स होते से सर्वेषा अनुपपन्न भी नहीं है। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रात ७ खो. १३ पदि 'मूले पुतः कपिसंयोगों इस प्रतीति में भूल में प्रवरचेवकरणका मान आनुमविक हो तो वह अपव्वेदकस्य पपिसंयोगापेक्षम हो हर मापेक्ष ही होता है और यह पक्षापेक्षामोदय पक्षनिकापित एकरसहित, वक्षनिष्ट वका प्रतियोगित्वरूप है। तात्पर्य, 'मले पक्षाकपितयोगी' का अर्थ है मूल से भिन्नाभिन वन पिसंयोग का प्राथप है कि पक्ष मूलानि कमिसंयोग या पाश्रय है। क्योंकि संयोगजन्यसंयोग के प्रभाव में, वनिष्ठसंयोग को अभयकता पूलाविरेशों में सम्भव नहीं है। इसीलिये विवक्षामेव से 'मूले वक्षः कषिसंयोगी' इस बाप में प्रामाण्य-अप्रा. माण्य का विमाप होता है, अर्थात मूल में पक्षापेक्षाषच्छेवकत्व के मोष में तात्पर्य रणने पर उसमें प्रामाण्य और कपिसंयोगापेक्षावच्छेदकस्य के बोध में तात्पर्य होने पर अप्रामाण्य होता है । इसप्रकार अवघेरकरण में संयोगापेक्षता का खंडन हो जाने से अवयवातिरिक्तापयतो पकान कि'अपयषी में अन्य मेव से रसत्य-अरक्तरमानने में कोई विरोष महाँ है'-निरस्त हो जाता है। दूसरी बात यह है कि "घट: वामे रतः न दक्षिणे-घट वामभाग में रक्त है बक्षिणभाग में नहीं" इस प्रतीति में घट में दक्षिणभागावोस रमेव मा माल होता है-ओं मसङ्गत है। योंकि ऐसा मानने पर अध्यात्मवृत्तिमेव के मम्युपगम की आपसि होती है। इसके प्रतिकार में यह महों कहा जा सकता कि-'उक्त प्रतीति में घर में रक्तमेव का भान न होकर रक्तत्व के सत्यतामाका भान होता है'-क्योंकि उक्तप्रतीति 'घटः पामे रक्तो न दक्षिणे' इस वाक्य से होती है और इसवामय में अमुयोगीवाचक घट पद के उत्सर सप्तमी विभक्तिमही है। और मन पद से अत्यन्तामाव का घोष अमुयोगीवापकप के उत्तर सप्तमी विभक्ति होने पर ही होता है, प्रथमा होने पर मेव का ही घोष होता है। न च रक्तत्वं पटेजकद्रव्यनिष्टमेघ परम्परासंबन्धन प्रतीयते, अरक्तत्वं च समवायेन रक्तमेद एवेत्यपि यस्तम , परम्परासंबन्धाञ्जीतेः, 'दछ रक्तम् "नेह रस्तम्' इति विभागाप्रसङ्गान , अरक्तावयवेऽपि परम्परासंबन्धेन रक्तत्वधीप्रसङ्गाय । अपिच, प्रतिनियतानावृतावयदोपलम्मे घटस्या:पृथु-पृथ-पृथुतर-पृथुतमत्याधु पलम्भोऽवयमाऽभेद विना दुर्घटः, अंशेष्वेव सचिश्यसंभयान । परिणामभेदेऽध्यक्षस्य भ्रान्तन्वे स्थलाकारेजप प्रान्तस्वमेव, इति 'मलक्षण एवाध्यश्नमभ्रान्तम् , अवयत्री तु सांकृत एव' इति वदन् सौगात एव विजयत । एतेन 'उपलभ्यमानोऽवयव्यनात एक, तद्गतपरिमाणयहोऽपीष्ट एव, तहतहस्तत्वादिजातिग्रह तु यावदययवायच्छेदेन सैनिकऽपि हेतुः' इति लीलावतीकार प्रभुतीनामभिप्रायो निरस्तः, यावदयपत्रावनदेन संनिकस्याप्रसंभवास । परमागमध्यावयमाघरच्छेदेन तदनुपपसा, प्रतिनियतावथमायनछेदेन संनिकदि इस्तत्मादिन च प्रतिनियतावयवावभासे परिमाणभेदाद्यवभासोऽपि किं नाम्पुपेयने १ चित्रप्रतिभासावितस्यैव वस्तुनो युक्तलात, अधिकारययापगमे तावत एव तस्य दर्शनात् । 'तदान्यदेव स्वम्परिमाणं द्रव्यमिति थे ? प्रागपि नाकदन्यदेव । 'नानान्र एकत्यानुपपत्तिरिति चेत् ! तबचायं दोषः । कथं चैवं प्रासादादायकत्वप्रत्ययः ।। न हि प्रासादादिक्रमकदम भरिम्पुपगम्यते, विजानीयाना द्रव्याऽनासम्मकन्यात् । 'समूहकृतं तत्रैकवमिति चेत् १ पटादावपि कि न तथा १ । न हि पटादी प्रासादादी च Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मा का एक हिस विलक्षणमेकत्यमनुभूयने । 'न स्पादेव धान्यराशावप्येकत्वं पटायेकत्या विलक्षणमिति चेत् ? न स्यादेव, निश्चयतः सर्वस्यैव परमाणुसमूहकृतस्याद । 'द्रव्यपरिणामकृतत्वासु व्यवहारतः स्यान् चेत् । व्यावहारिफमेकत्वमतिरिच्यताम् का नाम हानिरनेकान्तादिनानियता ? [रफ्तारस्तत्व की अन्यथा उपपत्ति दोषग्रस्त ] यवि यह कहा जाप कि-"पट में जो रसस्व प्रतीत होता है वह रखकाय का संयोगरूप म होकर रकमकायगत रक्तरूपस्मिक होता है और उसकी प्रतीति में स्वरक्षयसंपोगरूप परम्परासम्बन्ध से होती है। तथा उसी पल में जो मरताय मी प्रतीत होता है यह सभवायसम्बन्ध से रतस्यबद प्रतियोगिक भेदरूप होता है। अतः परम्परासम्बन्ध से रक्तत्व और ममवापसम्मान से रकल्पवयमेव इन दोनों में विरोथ म होने से पट के निरंश एक प्रवधवी जयस्वरूप होने पर भी उसमें रतरव और भरतरा दोनों का समावेश हो सकता है।"-तो पह ठीक नहीं है क्योंकि यह मागे पटी रक्त:' इस प्रतीति में परम्परपसम्बन्ध का मान पानुमाविक नहीं है। दूसरी बात यह है कि यदि पर में जक्तरीसि से रक्तस्व और मरक्तत्व की उपपत्ति की जायगी तो 'वस्त्रं हस्त मेह रकम्'='वस्त्र अमुक भाग में रत है.अमुकभाग में नहीं है. इस प्रकार का विभाग नहीं हो सकेगा, जोकि जब पट में रक्त रूप नहीं माना मायगा तो समवायसम्बन्ध से रसरूपबदमेव समूचे पट में रहेगा, एवं रमाकद्रव्यनिष्ठ रक्तरुप का परम्परासम्बन्ध भी समूये पर में रहेगा। मतः पट के भरतावमयों में भी परम्परासम्बन्ध से रजस्व की प्रतीति को भापति होगी। [ घर में अपृथुत्व, पृथुत्यादि की प्रतीति मेद पक्ष में दुर्घट] इसके अतिरिक्त यह भी जातव्य है कि घट के, कम से अनावृत होने वाले प्रतिनियत अथयों का उपलम्म होने पर जो घट में अपत्य-पधत्व-पृभारत्व और पतमत्वाति का उप लाभ होता है षापरको अवधयों से प्रभिन्न माने बिना उपपन्न नहीं हो सकतापर्यो कि घट में प्रतीत होने वाला उस पंधिव्य घट के अवयव द्वारा ही सम्भवमो सकता है। आवाय यह है कि घर पर अपने अवयवों से सर्वथा अतिरिक्त होगा तो उसका कोई एकजातीय की परिमाणमो समता प्रप्तः उस में परि. माणमेव का मान उपपन्न नहीं हो सकेगा। जब वा अवयवों से भिन्न होगा तो शिसी एक अवयव मात्र की अमावरण दशा में उसमें अपृथस्व का ओर अवयवदय का अनावरण होने पर पृथक्त्व का मौर किसी प्रकार अधिक प्रवयवों का अनावरण होने पर पृथत रत्यादि का उपालम्भ हो सकता है। अतः अवयवी को अषयों से प्रत्यन्त भिन्म न मान कर कथविद भित्राभिन्न मानना ही उचित है। यदि ऐसा न मान कर यह कहा शाप कि-'घट में जो परिमारसभेव का प्रत्यक्ष होता है वह परिमाणमेनंश में भ्रमात्मक है तो यह टीक नहीं है। क्योंकि ऐसा मामले पर घटप्रत्यक्ष को स्थलाकार में भी भ्रमात्मक कहा जा सकेगा और उस स्थिति में प्रत्यक्ष स्वरक्षणवस्तु में ही प्रशान्त होता है-अयममी आविद्यम ही होता है इस सिक्षात की घोषणा करने वाले बौद्ध को हो विजम होगी। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० [ शास्त्रवास्ति लो०१५ [ परिमाणग्रह के संबंध में लीलायतीकार के अभिप्राय का निरसन ] इस प्रसङ्ग में *मीलावतीकार पावि विद्वानों का यह अभिप्राय है कि-उपसम्पमान अवयषी जिसी भाग में आवृत और किसी माग में प्रयाप्त न होकर सर्वथा हो भनावृत्त होता है और जिस घा में भी अवयत्री का उपायम होता है उस दशा में उसके परिणाम का मो जपलम्भ होता है । केवल इसके परिमाण को इस्तत्वाविजाति का उमलम्भ नहीं होता, बोंकि परिणाममत जाति के प्रत्यक्ष में समरस अवयों से अवछिन्न अवयवो में घशासनिकर्ष कारण होता है। अतः अवयवी को मस्यवों से अत्यन्त भिन्न मानने पर कोई कोष महीं है ।.. विस्तु विचार करने पर पर यह अभिप्राय भी निरस्त हो जाता है। क्योंकि घट में जो परिमाण चिन्च की प्रतीति होती है उसकी उपपति अबयषी को शवयों से भिन्नाभिन्न मारने पर ही हो सकती है। लीभावीकार के कपन का यह मंत्रा भी ठीक नहीं है कि-'परिमाणातजाति को उपाधि में समस्ताबयों से मच्छिन्न मधयमी में पक्षसंमिकई कारण होता है क्योंकि पृष्ठस्थ और मध्यवर्ती अवयों में तनिकर्ष पाश्य न होने से अबमवी में समस्तावयव-अवच्छेवेन चक्षुः संमिकर्ष का सम्भव ही नहीं है। पनि समस्त मपयों से नहीं फिन्तु प्रसिनियत प्रवयवों से अमिछन्न अर्थात संमुखवता यावययवावनियाबरयो में घनःसं निकर्ष से परिमाणगत हस्तस्यादि जाति का प्रत्यक्ष माना जायगा तो अषयमी में प्रतिनियतसमलवाती सत्तयों के सम्बन्ध के अवमास के साप अपयपी में एकावय-दूधवषयाविर में परिमाणभेद का भी प्रश्वमास म्यों माना जाय !! पोंकि चित्रप्रतिमास से युक्त अर्यात परिणाममेव के साथ उसम्ममान का ही पुक्तिसङ्गत है। क्योंकि दृश्यमान अन्यम से अतिरिक्त प्रत्यय का उस अवषो में से विभाग हो जाने पर भी उसी परिमाण से युक्त हो यदि अवयवी का दर्शन होता है सो परिमापा दृश्यमान प्रययन में असत्य अबयय का संयोग रहने के समय दोशता था। स्पष्ट है कि यह बास तभी सम्भव हो सकती है जब अब 4waraswati ना जाप क्योंकि पार पचनी सपा सायात भिन्न होगा तो अयमान अवयव का दृश्यमान अवयव से विमाग हो जाने पर अवयवी का नाश हो जाने से पूर्व परिमाण नहीं रह जायगा। प्रतः उस समय पूर्व परिमाण से विशिष्ट अच्यघी का पर्शन नहीं हो सकता। [ अन्य दून्य के दर्शन से भेद की सिद्धि दर है ] यदि यह पाहा जाय कि-'पदश्यमान प्रधषय का विभाग हो जाने पर पूर्व परिमाण तथा सयुक्तमूर्यव्रम्य का दर्शन नहीं होता किन्तु पूर्वपरिमाणापेक्षया अल्पपरिमाणशाली शमय तथ्य का ही दान होता है तो इससे प्रथमवी और अयाच के परस्पर श्रात्यन्तिकमेव को मिति हो सकतो, क्योंकि महायमान अवयव के विभाग के पूर्व भी सो अवषधी विखता है वह दृश्यमाम और प्रदृश्यमात्र रषयमसमूहात्मक यदि अवयवो से अन्य ही होता है। क्योंकि मनेकास्मक एकवस्तु का ही अस्तित्व प्रामाणिक है । रवि यह कहा जाय कि - पटावि असपषी को मवयवोद से अनेक माना जायगा तो इसमें एकत्व की अमुपपत्ति होगी-तो यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह बोष अनेकत्व और एकरप में विरोष माननेवाले प्रतिरिक्त अवघवीवादी को ही हो सकता है। * पालभात्र यंगत वैशेषिक शास्त्रीय ग्रन्थ का नाम न्याय लीलावती है । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का टीका एवं हिन्दी विवेवा ] [प्रासाद आदि में एकस्य प्रतीति को अनुपपति ] इस संवर्भ में यह बात भी ध्यान देने योग्म है कि पवि मनेक में एकत्व का मभ्युपगम न किया जायगा तो प्रासाप-महागा आदि में भी एकरण की प्रसीति कैसे हो सकेगी? क्योंकि अतिरिक्त अवयमोवाधी मी प्रासावादिको एक द्रव्य महीं मानते क्योंकि प्राप्ताय तो लोहा-लकड़ी इंट आदि विजातीय ब्रम्पों से निमित होता है और विजातीय प्राय किसी भतिरिक्त प्रभ्य के प्रारमक महीं होते। मवि यह कहा जाय कि-"प्रासाब सो लोह-लकड़ी-घंटा प्रावि विभिन्न व्यों का समूह रूप है प्रत एव उसमें समूहात एकत्व तोताहै"-तो ठीक नहीं है, क्योंकि प्रासादावि में ऐसा मानने पर पटादि में भी समूहकृत एकत्व को क्यों नहीं मामा जा सकेगा? क्योंकि पट और प्रासावादि में विलक्षण एकत्व का अनुभव नहीं होता । यदि यह कहा जाय कि-'ऐसा मामले पर पामराशि आधि में प्रतीत होनेवाला एकरव पट आदि के एकत्व से विलक्षण न हो सकेगा'-तो यह प्रो टोक नहीं है क्योंकि निश्चयभय से समी एकश्व परमाणुप्तमूहातही होता है, अतः भाम्बराशियत एकरव और पटापिंगत एकाप में कुछ लक्षण्य नहीं है। यदि यह कहा जाय-'पटावि तो एक द्रस्य का परिणामरूप है और मान्यराशि किसी अन्य का परिणामरूप नहीं है, अत: पटावि गत एकत्व वध्यपरिणामकृत होने से, पवहारमय की अपेक्षा, धान्यराशिगत समूहकृत एकस्य से विलक्षण है-तो मह कहना कुछ ठीक हो सकता है और इससे समूहात एकत्व से अतिरिक्त महारकृत एकत्व की सिद्धि हो सकती है किन्तु उससे मनेकान्तबासी को कोई हानि नहीं हो सकती क्योंकि अनेकान्तबाव में अपेक्षाभेद से गुण में मिन्नता स्वीकार्य है इसलिए समूहकृत एकत्व से व्यावहारिक एकस्व विलक्षण हो यह उसे मान्य है। ___ अपि च, अवयवेववधी एकदेशेन समवेयात् , फातम्येन पा ! । आधे, तदेशस्यापि देशादिकल्पलारामनवस्था । द्वितीये १ प्रत्यययवरामवतात्रयविपात्यप्रसक्तिः । न च देशकातिरकणान्या तिरस्तीनि विवेचितं प्राक् । द्वित्वस्य द्वयोः पमित्यवद् यादवयथे घवयविनः पर्याप्सले यादवयवाहे नवग्रहो न स्यात् , प्रत्येकं पर्याप्तत्वे च प्रत्येक पर्याप्तस्वव्यवहारः स्यादिति निष्करः । किश्च एकस्य निरंशस्याक्यविनः पृथुतरदेशावस्थानमयुक्त स्यात् । न चेदेवम् , एकत्वाऽविशेषात् दुर्घटः स्यात सर्वत्र स्थल-प्रमादिभेदः। अस्प-यहक्यवारम्भादिकुशोऽसौ विशेष इति चेत् १ नहिं नदिशेपपिशिष्या अवयवा एवाययविव्यपदेशं भजन्ताम् , किमवयविपृथग्भावकल्पनाकप्टेन ।। "श्वयवाहपृथग्भयनवयत्री परमाणुसाइभेदमश्नुवन्नध्यक्षो न स्यादिति येत ? न, न छश्यविनोऽपि सऽश्य वा एक, बायु-पिशाभदायनेकान्तान , किन्तु केचिदेव, तथा च परिणामरिशेपनियता योग्यता परमाणुमादभेदेऽपि नामभविनी । न च तत्र महत्त्वाच्यवसायोऽप्यनुपपत्रः, परमाणुसमूहेऽपि विशिष्टे महायपरिणामाऽपाधात् । अत पर धान्यगशौं महन्त्रविशेपाध्यवसायः सूपपदः । [ अवयवी का आशिक अर्चन अनुपपन्न ] अवयवी को अवयव से भिन्न मामले में अवयवों में उस के वतन को अनुपपत्ति भी बाधक है। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शाहनवाता. स७ इलो- १३ जैसे देखिये-अवयवी को अषयब से अतिरिक्त मानने पर यह विकल्प उपस्थित होता है कि अपने प्रवयवों में प्रथयधी एकवेश से रहता है अथवा काप यानी समस्त रूप से रहता है। इन में प्रथम समान्य माह हो सकता क्योंकि अब सवयक एवं रहने का तात्पर्य यह है कि अबषयी का एक देरा रहता है । अब यहाँ प्रश्न होगा की अश्मयों में जो यह अवयबो एकरेश रहता है, वह गया एकदेशेन = एकदेश से रहता है ? अथवा कासन्न - सामस्त्य से रहता है ? इसमें प्रथम पक्ष में यही प्रश्न होगा कि अपयवा-एकवेमा का एकवेश भी क्या एमावेश से रहेगा?या समस्त रूप से रहेगा? इस प्रकार एकवेश बर्तन में अमवस्था चलेगी। अथवा 'एकदेशेन समवेयाव ?' इस विकल्प को इस प्रकार लगाया जाए-अवमवी का सत्सवयवों में सतववयवात्मक एका वृप्ति माना जाममा सो पारमाश्रम होगा और यदि तत्तववयवों से भिन्न किसी प्रक्लप्त मवयष से तत्तदवयवों में प्रत्यको का बर्तन मामा जायगा तो सस सपलत पचयों में भी अवसवी का वर्सन मानता होगा. क्योंकि उस अक्लप्त अवयव में बिना उस अवयव से लाल अवयवों में अक्षयवी का वर्तन नहीं हो सकता । उन अपलप्त अवयवों में मो समयकी का वर्तन उन्हीं अषयों से मानने में मारमाश्रय एवं अन्य बलप्त अवयवों का अवमप्त उन अवयों के साथ सम्बन्ध न होने से उन अवयवों के द्वारा अवयवो का वर्तम मामना सम्भव न होने से उस अक्लप्त अवयवों में प्रथमवी के रहने के लिए अवयवान्तर की कल्पना करनी होगी । इसप्रकार अबमयों में एकवेया से अवयवी के वर्तन का पक्ष अनवस्था दोषयस्त है। [ अवयवी का पूर्णतया अवपत्रों में वर्तन अनुपपन्न ] इसीप्रकार द्वितीयपक्ष भी मान्य नहीं हो सकता क्योंकि उस पक्ष में प्रत्येक अवयव में प्रवक्की पूर्णरूप से समवेत होने से अवयवयत्व से अवगधों में बहत्व को प्रसक्ति होगी। इसप्रकार एकदेश और फारसम्म, किसी भी रूप से अवर्षों में भवयषी का पसंन सम्भव नहीं है । और बर्तन का उक्त दोनों प्रकार से अतिरिक्त कोई तीसरा प्रकार होता महीं मह पहले बताया जा चुका है। फलतः अबयवों में समवेत प्रथयों से भिन्न प्रतिरिक्त अवयवी की सिद्धि नहीं हो सकती। इसके अतिरिक्त दूसरे पक्ष में यह भी वोष है कि बसे वो अश्य में द्वित्वको पर्याप्त होने से बोनों प्रयों का ग्रहण न होने पर केवल एक प्रम के ग्रहण से द्वित्व का पहण नहीं होता उसीप्रकार यावषयवों में एक अवमत्री की पर्याप्त मानने पर यायत् अवषयों की अग्रह दशा में अवयवो का ग्रहण न हो सकेगा। यदि प्रत्येक में अवयवी की पर्याप्त मानी जायगी तो 'पट एक एक तन्तु में पर्याप्त हैमकार के व्यवहार को प्राप्ति होगी। इसके अतिरिक्त एकवोध यह भी है कि अप अवग्रवी अवयवों से अतिरिक्त एक निरंश नध्य होगा तो उसको अपेक्षा पृथतरदेश में उसका अवस्थान पृक्तिसल्लत न होगा। पयोंकि जो पदार्थ निरंचा और पत्तिमान जोता वह अपने आश्रम में व्याप्त होकर रहता है जैसे घटस्व परमाधि माप्ति और रूपस्पादि मुण, किन्सु घटादि अव्यवी द्वाप अपने आश्रय भूतलादि में व्याप्त हो कर नहीं रहता, प्रातः ससे मरंग एक स्प नहीं माना जा सकता। यदि घटादि को सवयवसमूलरूप ' माने तो उक्त घोष नहीं हो सकता क्योंकि सांपा यस में अपने प्राधय में व्याप्त हो कर प्रोस्थत होने का नियम नहीं है। [संयुक्त अवयनसमूह ही अवयवी हैं ] यह भी मातथ्य है कि यदि अवयवों को भवयवसमूह रूप न मान कर अवयवों से सबंया भिन एक व्यरूप माना जामगा, तो बहतर प्रवयव और अल्पतर अवयषों से आरस्थ होनेवाले अबको के Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समा- का एवं हिन्दी विवेचन ] एकस्व में कुछ विघोष न होने के कारण उनमें स्थूलसूक्ष्मारि का भेद न हो सकेगा। पति यह कहा जाय कि-"अषयवातिरिक्ताषयवी में जो सक्षम-स्थल का भेक शोसा है वह पहप प्रययबों और अधिक अवयवों से भारस्थता प्रपतहोता"-तो यह ठोकायोंकि अल्पावयवारग्यता और आधक प्रषयवारस्यता अल्पावयवसंयोगजन्यत्व और अधिकावयवसंयोगजायस्वरूप प्रतः उरुसंयोगों से पन्य किलो प्रत्यबी का अम्पगमन कर उक्तसंयोग से विशिष्ट अवयों का ही अवयवी शाक से उपवहार करना उचित है । अतः अवयवों के उक्तसंयोग से भिन्नावयवी की कल्पना का कष्ट बहन करमा अनुचित है। [अवयव भिन्न अवयवी में परोचता की आपत्ति निश्चकाश] यदि यह कहा जाय-'अवयको यदि प्रवयवों से भिन्न न होगा तो प्रवनी अपने मूल अवयव परमाणु से पमिन्न होगा । मत्तः परमाणु के समान अवयवी भी अप्रत्यक्ष हो जायगा-तो यह ठोक नहीं है क्योंकि पपयामेव पक्ष में भी सभी अवमयी, वायू पिशाचाधि में व्यभिचार होने से, नियमप्तः प्रत्यक्ष नहीं होते किन्तु कुछ ही मषधी प्रत्यक्ष होते हैं । अतः उनकी प्रत्यक्षता का प्रयोजक अवयवभिन्नता नहीं होती किन्तु प्रत्यक्षयोग्यता होती है । वह योग्यता परिणामविशेषनियत होती है। प्रतः पटपमावि सवयी अपने मूल अवयव परमाण से अमिबहोमे पर भी उन में परिणामविकोपनियतप्रत्यक्ष-योग्यता होने से उनका प्रत्यक्ष होतामाशय है कि जो परिणाम प्रत्यायोग्य परिणामविशेष को प्राप्त होते हैं वे एमात्य और स्थूलत्वकप में प्रत्यक्ष के विषय होते हैं मोर जो उरु परिणाम को नहीं प्राप्त होते वे प्रत्यक्षयोग्य नहीं होते। जैसे वायु पिशाचावि के घटक परिणाम । अवयवी को परमाणुसमूहरूप मामने पर उसमें महत्व का प्रत्यक्ष भी अनुपपन्न नहीं हो सकसा पयोंकि विलक्षणसंयोगविशिष्टपरमाणुसमूह में महत्त्वपरिणाम की उत्पत्ति में कोई भी नहीं है। जब संयोगविशेष से परमाणु समूह में भी महत्वपरिणाम का उवय होकर महत्व का प्रत्यक्ष हो सकता है तो धान्यरात्रि का उवष और उसके प्रत्यक्ष का उपपावन अनायास किया जा सकता है। फिच, अवयविनोऽवयवाभेदेऽनम्युपगम्यमाने 'मृदेवयं घटनया परिपाना 'दन्तव एवते पटतया परिणताः' इत्यादयो व्यवहाराः, त्रिभक्तेपु तन्तुगु ‘त एवे तन्तवः' इत्यादिप्रत्यमिक्षा, अपवगुरुत्वादेषयषिगुरुत्याविशेषादिकं च न पटेत । अवयत्ररूपादिसमदायने बकायययरूपा घुपतिमुपेश्य पृथगनयन्यनुरोरेन रूपादौ रूपादे नाकार्यकारणभावादिकम्पने गौरवं वानियारितसरं स्यादिनि । एतेन 'वस्तुगत्या विलक्षणसंस्थानापच्छेदेन संनिकर्षाद् यद्रव्यगतपटत्वादिप्रहस्तसयक्तरुत्पादविनाशभेदादिप्रत्ययान्यथानुपपरयाऽयची पृथगेवेनि सिद्धम्' इत्यपि निरस्तम् , 'पृथगेव' इत्यसिद्धेः, उत्पाद-विनामामेदारियाऽभेदादिसंवलितत्वसंभवान् , तबाप्रतीतिप्रामाण्यात् । एवं च 'पृथिव्यादयवसारः परमाणुरूपा नित्या एष, कार्यरूपम्त्य निन्याः' इति तेयां प्रक्रियापि निरस्ता, परमाणुनामपि कायांभिन्नतयाऽर्थान्तरमावगमनरूपस्य नाशस्य, विभागजातस्य चोत्पादस्य समर्थनात् । यथा हि बहनामेकशब्दत्र्यपदेशनिदानं समृदयजनित उत्पादः, Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गावातलो. तथैकस्य महशब्दथ्यपदेशनिदानं विभागजातोऽपि स कि नाभ्युपेयः १ । उपत्रहरन्ति वि भग्ने पटे 'बहूनि कपालान्युत्पन्नानि' इति । एवं परमाणूमामध्येफनाशे युक्तो बहुत्वेनोत्पादः । तदाह: 'महुआग को संजोगा जो उपाओ' नणु एगर्षिभागम्मि वि जुज्जइ पहुआण उप्पाओ॥ [ सम्मति–१३७] ॥ इति । [ अवयव-अवययी भेद पल में दूपणमाला ] उपर्युक से अतिरिक्त यह भी सातव्य है कि-प्रवयवी को पत्रयों से मभिन्न न मानने पर कई वरेष उपस्थित होते हैं से-"मवेवेयं घटतया परिणता=यह मत्तिका ही घटस्वरूप में परिणत हो गई",-'तन्तम एष एते पटतया परिणता-ये सन्द ही पटस्वरूप में परिणत हो गये"-ये व्यवहार अवयव ले अवयची को भिन्न मानने पर नहीं उपपन्न हो सकते। इसी प्रकार पररूप में प्रतीत होनेपाले तन्तुओं के परस्पर विभक्त शो आने पर, "ये तन्तु वही है जो पहात्मना परिणत वीस रहे थे".. इस प्रकार की जो पहात्मा परिणत तथा विभक्त तन्तुओं में अमेव को प्रत्यभिक्षा होती है वह भी अवयव अयपवी के मेव पक्ष में नहीं पपन्न हो सकती। इसी प्रकार अवमष-अषयोमेद पक्ष में अवयव-गुरुरव में अवमयीगुरुटव के अधिोष यानी साम्य की उपपत्ति भी मही हो सकती ।। क्योंकिअवयवी में अश्मयों का भी संनिधान रहने से असमय और पषषषी का पिभिसगुषरय केवल अवयव गुणस्य से अधिक सकता है। उसी प्रकार अपयव-समवयवी अंमेद पक्ष में अवपथ के रुपाविगुणों के समुदाय से ही एक अवयवी में कपादि को जो उत्पत्ति होती है उतको अपेक्षा करके अवयवों से अतिरिक्त भवपवी के अनुरोध से अवयवीगत पानि के प्रति अवयवगत रूपाविको कारण मानमे पर अनेक कार्यकारणभाष की कल्पना के गौरव पति का भी परिहार नहीं हो सकता। [पृथक् उत्पाद-विनाश प्रतीति से भेद शंका का निवारण ] कुछ लोगों का यह कहना है कि-"प्रचयबों के विलक्षणसंस्थान से उत्पन्न विशिष्ट अवयवी में बासेनिशर्ष से जिस मध्य में घरस्वादि का प्रत्यक्ष होता है उस व्यक्ति के पाव-चिताश की प्रतीति होती है और उसके उत्पाद विनाश के साथ उत्पाव-विनाश से मुक्त रहनेवाले उसके अषयों से उसमें भेद की भी प्रसीति होती है। यह प्रतीति घटत्वाविप से प्रत्यक्ष होनेवाले द्रष्य को उसके प्रत्यय से पृथक न मानने पर नहीं हो सकती । अतः अवयी अवयवों से भिन्न ही होता है यह बात सिद्ध होती है।" किन्तु यह कथन भी इसलिये निरस्त हो जाता है कि 'यवस्मो अवयवों से सर्वथा भित्र ही होता है। यह बाल असिम है क्योंकि उत्पाद और धिनायर प्रोग्य से संवलित तथा मेवादि अमेदावि से संबलित होता है, क्योंकि प्रोष्य से संचालित उत्पावधिमाला को प्रतोति तथा प्रमेव से संबलित मेदादिको प्रतीति हो अमारण होती है । इस प्रकार वस्तु कपिद नित्यानित्य उभयात्मक होने रो-'परमाणुस्वरूप पृष्षी आधि चार द्रव्य नित्य ही होते हैं और कार्यस्वरूप पृथ्वो भावि मिश्य ही होते है ।'-यह अतिरिक्त अवयचीवाधियों की प्रक्रिया भी निरस्त हो जाती है। क्योंकि कार्य से अभिन्न होने के नाते परमाणुमों के भी प्रान्तरस्वरूप में गमनरूप नाश और विभागजस्य उत्पाद का समर्थन किया आ चुका है। १ बहकानामेकशन्दे मदि सयोगाद् हि भवत्युत्पादः । नन्हविभागेऽपि युपसे बहकानामुत्पाद: ।।१।। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा-टीका एवं हियो विषम ] आशय यह है कि-जसे अनेक अवयवों के समुदाय से अर्थात् जन भनेक वयवों के परस्पर संयोग से उनका ऐसा जस्पार होता है जो उन्हें अमेक होने पर भी एक सबसे पपगायोग्य ना बेता है । उसी प्रकार भनेक अवयवों के विभाग से मी ऐसा उत्पाद क्यों माना जाय जो एक को 'मत' शब से व्यवहार होखे योग्य बना देता है क्योंकि घट का भङ्ग होने पर बहुनि कपालानि उत्पन्नानि'.--'एक घट अनेकफपाल बम गया' ऐसा ज्यबहार लोकप्रिय है। सो जिस प्रकार एक घर का नाश होने पर मनेक कपाल का बहुस्वेन उत्पाव होता है वैसे ही अनेक परमाणुओं का भी बहरवेन उत्पाव युक्तिसिन है। जैसा कि सम्मति सूत्र-१३७ में कहा गया है यदि अनेकव्यक्तिओं के संयोग से ऐसा उत्पात्र होता है जो अनेक में एक शव के व्यवहार का निमित होता है, तो निश्चय ही एक के विभाग से अनेक व्यक्तियों का ऐसा उत्पाद भी मानना युक्तिसङ्गत है जो एक में बहुसार के व्यवहार का निमित्त हो सके।" __योऽप्याह-कार्यकारणातिरिक्तं ध्रुवमद्वैतमात्र सत्त्वम्' इमि तन्मतमपि मिथ्या, कार्यकारणोभयशुन्यस्याऽतस्य व्योमोलमोनमा ! नि, 'अहम् तिषः, पदासो बा १ । प्रसज्यपश्शे प्रनिषेधमात्रपर्यवसानाद नाद्वैतसिद्धिः, प्रधानोपसर्जनभानाङ्गाङ्गिमायकल्पनायां दैतप्रसक्तेः । पदासपक्षेऽपि द्वैतप्रसक्तिरेव, प्रमाणप्रतिपन्ने द्वैते तत्प्रनिपेधेनाऽद्वैतसिद्धः । द्वैताददैतस्य व्यतिरेके पररूपव्यावृत्त स्वरूपाऽव्यात्तारमकस्पेन द्विरूपत्वात , अव्यतिरेके च सुमरामिति । किश्श, प्रमाणादिसनावे न द्वैतयादा मुक्तिः, तदभावे च शून्यतापातादिति । अपिच, द्रव्याद्वैत रूपादिभेदाभावप्रसङ्गः । न च चक्षुरादिसंबन्यान् तदेव द्रव्यं रूपादिप्रतिपत्तिजनकमिति वाच्यम् सर्चात्मना तत्संपन्धे सर्वदा तथैव प्रनीतिप्रसवतेः, रूपान्तरस्य तद्वयतिरिक्तम्याभ्युपगमे चाऽवव्याघातात् । प्रधानाद्वैतमपि महदादिविकाराभ्युपगमे न युक्तम् , विकारस्प विकारिणोऽत्यन्तमभेदे 'विकारी' इति व्यपदेशाऽयोगात , भेदाभेदाऽनेक्रान्तसिद्धेः, व्यनिरके च तापतेः । निरस्तश्च प्रधानादनवादः सांख्यधार्तायाम् । अमानवादोऽप्यनन्तरमेव निपेत्स्यते वेदान्तिवार्तायाम् । [ अद्वैत तच पारमार्थिक होने का मत मिश्या ] मिस विद्वान ने मह कहा है कि "नस्य कार्य कारण से पतिरित नितान्त नित्य और सर्वविधमेवरहित अयमात्रस्थरार है ।"-उसका माह मत भी मिचा है, मयोंकि कार्यकारण दोनों के शून्य अत-आकामाकमल के समान है। अर्धार ऐसी वस्तु जिसका न कोई कार्य हो और न कोई कारण हो तो वह माकाशपुष्प के समान है। दूसरी बात यह है कि तश्य को अय-अद्वैत या अद्वितीय कहना युक्तिसङ्गत भी नहीं हो सकता पयोंकि प्रदेसम्मपटकन को प्रसज्यप्रतिषष अशा पधु वात प्रतिषेध, दोनों में एक भी प्रतिबंध का बोधक महीं माना जा सकता, क्योंकि पमपल का त के प्रतिषष में ही पर्यवसान होता है अतः उस पक्ष में किसी भायात्मक प्त सरप की सिद्धि नहीं हो सकती। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सामा. . .१३ मधि "साभाषको उपसर्वन और उसके प्राश्रम को प्रधान मानकर दोनों में प्राङ्गी माय की कल्पना की बाय"-तो यह मी ठीक नहीं है क्योंकि उस कल्पना में मौत की प्रस लिमनिवार्य है। क्योंकि मानोभावत के किना सम्भव नही हो सकता। पचास पक्ष में मीस की प्रसक्ति अपरिहार्प हैयोंकि इस पक्ष में पढ़ताम्ब का "सभिन्न तसरश कोई वस्तु ऐसा अर्थ होगा। और यहांत को प्रामाणिक मानने पर ही सम्भव है। [अद्वैत दैत से भिन्न होगा या अभिन्न १) इसके अतिरिक्त यह श्रीज्ञातव्य है कि अत यदि त से भिन्न होगा तो वह पररूपरमात और स्वष्टपास्यावृत होमे से द्विरुप होगा। इस प्रकार त-प्रसक्ति अनिवार्य है। यदि अनुत इत से अभिन्न होगा तो इतकी सत्ता अवश्य प्रसतहोगी। दसरीवाल पर भी ध्यान देने योग्य है कि यदि मद्वैत में प्रमाण आदि का सदाको लमाण दिन है। माना होने में सबाव से मुक्ति नहीं मिल सकती। यदि प्रमाणावि का अभाव होगा लो त के समान प्रदत की भी सिशिन हो सकने से सर्वश्रुग्यता को मापत्ति शोगी। वसीप्रकार यदि त तरको प्रयात्मक माना जायगा तो उसमें रूपाविसमीपवाओं के प्रपने आश्रम से प्रभिन्न होने के कारण उनमें परस्परमेव के अभाव की प्रसक्ति होगी। यवि मह कहा जाम कि-एक हो तस्य वा स्वा मावि इन्द्रियों के सम्बन्ध से रूप-स्पादि विलक्षण प्रसोति का जमक होता है-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि चक्ष मादि का प्रध्यात्मक अवस के साथ सस्मिना सम्बन्ध मानने पर लवंका समान ही प्रतीति की प्रसक्ति होगी। यदि रूपावि की उस से अतिरिक्त मानकर यक्ष आदि के सत्मिना सम्बन्थ का अभाव बताकर उक्त प्रापत्ति का परिहार किया जायगा तो अवत का व्याघात होगा। [लोख्य का प्रधानाद्वनवाद अमंगत ] सोल्यों ने प्रामाईत सिद्धान्त का स्वीकार किया है किन्तु महतस्व-अहंकारावि विकारों को स्वीकार करने पर यह मास मो युक्तिसनत नहीं हो पाता क्योंकि विकार और विकारी में अत्यम्तमेद मामले पर हमम पर पकारी प्रधान की अढत सत्ता, यह व्यवहार नहीं हो सकता। क्योंकि शिकारी सम्म में 'चन्' प्रत्यय ऐसे सम्बन्ध का उमाश है को भेवनिमत होता है । यदि विकार में विकारों का भवाभेव माना जायगा, तो अनेकारतबाद की प्रसक्ति होगी। मवि भेव माना जामगा, तो हूंत को आपत्ति होगी। इस प्रयानवेसवादको सांस्यमत की वर्धा में निरस्त किया जा चुका है। अतः इस प्रमझ में इसके बारे में कुछ अधिक कहना अनावश्यक है। प्रहातपाय का भी निरास परिघ्र ही वेदान्समस को पर्धा के प्रसङ्ग में किया जायगा अतः यहाँ उस विषय में पृथा कहने को आवश्यकता नहीं है। शमाहतमतमपि न युक्तम् , एवं हिं तद्-अनादिनिधनं शब्दन मेव जगनरूतत्त्वम् , सत्प्रकृतित्वात् , पटशराबादीनामिव मृत । नदु मा हरिणा- [ चाक्यपदीय- ] "अनादि-निधनं नम शब्दतचं पदक्षरम् । वियनतर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यता || १॥" इति । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा० ६० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] अत्रादि-उत्पादः निधनं विनाशः, तदभावाट् 'अनादिनिधनम्' प्रकृतेर विकृतैकरूपत्वात् । 'अक्षरमि'त्यकाराद्यचरस्य निमित्ताने मोग भिधेयरूपः । प्रक्रियेति भेदानामेए संकीर्तनम् | 'ब्रह्म' इति विशुद्धस्वनामकीर्तनम् | शब्दहोय खल्वैकमनवच्छिम् तचावच्छिन्नेषु स्वविकारेष्वनुस्यूतमवभासते सर्वस्यैष प्रत्ययस्य शब्दानुविद्धत्वा तदनुवेधपरित्यागे च प्रकाशरूपताया एवाऽभावप्रसङ्गात् । तदुक्तम् I , "न सोऽस्ति प्रत्ययो लोकं यः शब्दानुगमाते । अनुविद्धमिव ज्ञानं स शब्देन वर्तते ॥ वासरूपता येद् व्युत्क्रामेदवबोधरूप शाश्वती । न प्रकाशः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवमर्शिनी ॥ " [ वाक्य ० १२४|१२५ ] ८७ [ शब्दावाद भर्तृहरि का मत निरूपण ] 1 उपकरणशास्त्र में दाद्वैत मत की स्थापना की गई है। किन्तु वह भी युक्तिमत नहीं है। जैसेदेखि स्त्र का मतष्य यह है कि अनवि-निषम-उत्पतिविरहित हो जगत् का पारमार्थिकस्वरूप है। क्योंकि वह जगत् को प्रकृति यानी उपादान कारण है जो जिसकर उपावान कारण होता है वही उसका पारमार्थिक स्वरूप होता है, जैसे घट-शरावादि का उपादान कारण मृतिका ही उनका पारमार्थिकस्वरूप है। जैसा कि दीप में भर्तृहरि की अनादिनिधन, कारिका में कहा गया है- कारिका का अर्थ: अनादि निधन राम्व में 'आदि' शब्द का अर्थ है उत्पत्ति और निधन का अर्थ है विनाषा और नन् पत्र का अर्थ है उनका अभाव। इस प्रकार अनादि मिथन का अर्थ है- उत्पत्ति विनाशरहित इस विशेषण से जगत् के प्रकृतिभूता के सम्बन्ध में यह सूचना दी गई है कि यह एकमात्र अधिकृत स्वरूप है। अभाद वह किसी अन्य का विकार कार्य नहीं है 'अक्षर' शब्द से यह कहा गया है कि वह प्रकारावि वर्णों का निर्मित है। अकारादि वर्णों को 'अक्षर = विध्युत न होनेवाला' कहकर उसमें शब्दग्रह्यरूप अक्षरप्रकृति का अमेव सूचित किया गया है। इससे यह बताया गया है कि शब्द का 'अभिधान' = वरत्मिक विवस होता है। 'अर्थभाव' शथ्य से यह बताया गया है कि शव का अभिधेयाश्मक-अर्थात्मक विष होता है। 'मक्रिय' शब्द से सभ्य यज्ञ से प्रातमेवालि भेदों-विशेयों की सूचना दी गई है ' शब्द से उसके विशुद्धताम का निर्देश किया गया है। इस प्रकार कारिका का यह अर्थ फलित होता है कि शन्य हो पारमार्थिक पदार्थ है जो स्वयं उत्पत्तिविनाशरहित है और 'ब्रह्म' इस नाम से व्यवहृत होता है, तथा गाय और अर्थरूप में उसका विवर्तन परिणमत होता है । उसी से चित्र्यपूर्ण जग की रचना होती है। इस कारिका से यह स्पष्ट विदित होता है कि शब्दही एक अनवक्रि यान अर्थर्यमत तत्व है। वही अपने अवधि = परिमितविकारों में अनुस्यूत होकर अति होता है। सभी ज्ञान से अनुविद्ध होता है। ज्ञान में शब्द के अनुवेध का निबंध कर देने पर शान की प्रकाशरूपता ही अनुप हो जाती है जैसा कि भर्तृहरि की न सोऽस्ति वापसा चेत् ०. · दो कारिकाओं में स्पष्ट कहा गया है। पहली कारिका का अर्थ यह है- लोक में ऐसा कोई ज्ञान नहीं होता जिसमें शब्द का अनुगम न हो, अर्थात् जिसमें काम हो । सभी ज्ञान शब्द से अनुविद्ध हो प्रतीत होता है। ALE Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SE [ शास्त्रवार्ता स्त० ७ को १३ ० दूसरी कारिका का अर्थ यह है कि ज्ञान की वायूपता शाश्वत है। यदि उसे अस्वीकार कर दिया जायगा तो प्रकाश ज्ञान की प्रकाशरूपता ही न होगी, क्योंकि ज्ञान की बानूपता ही उसे प्रत्यवमर्शात्मक अर्थात् विषयग्राहक बनाती है । ] सा चेयं वाकू-त्रिविधा वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती च । तत्र येयं स्थान-करण - प्रयत्नक्रमव्यज्यमानाऽकारादिवर्ण समुदायात्मिका वाक् सा 'वैखरी' इत्युच्यते । तदुक्तम् - [वाक्य • “स्थानेषु विधृते वाय कृतवर्णपरिग्रहा । वैखरी बाकू प्रयोक्तृणां प्राणवृत्तिनिबन्धना ॥१॥" अस्यार्थः-स्थानेषु ताल्वादिस्थानेषु, वायां = प्राज्ञसंज्ञे विधूते - अभिघातार्थ निरुद्धे सति, 'कृतवर्णपरिग्रहेति हेतुगर्भविशेषणम् ततः ककारादिवर्णपरिणामाद् 'बैखरी' विशिष्टायां रावस्थाय स्पष्टरूपाय भवा वैखरीतिं निरुक्तेः, वाक्, प्रयोक्तृणां संबन्धिनी तेर्पा स्थानेपु वा, तस्याश्व प्राणवृत्तिरेव निबन्धनम्, तत्रैव निबद्धा सा तन्मयत्वादिति । 7 [ त्रिविध वाणी में वैखरी वाणी का स्वरूप ] प्रत्येक ज्ञान में अनुविद्ध होनेवाली वाकू तीन प्रकार की होती है। वैखरी, मध्यमा और पश्यन्ती। जो व स्थान-करण और प्रयत्न द्वारा अकारादि वर्णों के समुदायरूप में प्रभिव्यक्त होती है उसे वैखरी' बा कहा जाता है। इस प्रकार अर्थघोषक वाक्यों का निर्वाहक श्रोत्रग्राह्य अकाशवर्णसमुदाय हो बैखरी वाक् है। जैसा कि भर्तृहरि की 'स्यानेषु विधृते' इस कारिका में कहा गया है | कारिका का प्रर्थः- तालु प्रावि स्थानों में प्राणात्मक वायु का विधारण यानी अभिघात के लिये निशेध करने पर वाकू ककारादि वर्णों के स्वरूप का परिग्रह करती है। इसीलिये उसे बेलरी कहा जाता है। क्योंकि वैखरी शब्द का निर्वचन है 'बिखरे भवा वैखरी' जिसका अर्थ है-बिखर में= विशिष्ट सरावस्था में अर्थात् स्पष्ट अवस्था में होनेवाली ( वाणी ) शब्दप्रयोक्ता पुरुषों की यह वाक् अथवा प्रयोक्ता पुरुषों के ताल्वादिस्थानों से सम्बद्ध वाक् का मूल प्राणात्मक वायु को प्रवृत्ति हो होती है। अर्थात बाकू का आविर्भाव प्राणवायु पर निर्भर होता है। क्योंकि बाक् प्राणमय होती है । या पुनरन्तः संकल्प्यमाना क्रमवती श्रोत्रप्रावर्णरूपाऽभिव्यक्तिरहिता वाकू सा मध्यमेत्युच्यते । तदुक्तम्- [ शक्य० ] "केवलं युद्ध पाढाना क्रमरूपानुपातिनी । प्राणवृत्तिमतिक्रम्य मध्यमा वाक् प्रवर्तते ॥" अस्यार्थः-स्थूलां प्राणवृत्तिमतिक्रम्य हेतुत्वेन वैखरीवदनपेक्ष्य क्रमरूपमनुपततीत्येवंशीला, केवलं बुद्धिरेवोपादानं हेतुर्यस्याः सा. प्रवर्तते संकल्पविकल्पादिधारानुबन्धिनी भवति मध्यमा वाक् । वैखरी-पश्यन्त्योर्मध्ये भावाद् मध्यमेति संज्ञा । मनोभूमाववस्थानमस्याः । - [ मध्यमा वाणी का स्वरूप ] जो वश् मन के भीतर संकल्प्यमान होती है, एवं क्रमिक होती है एवं श्रोत्र से ग्राह्य अर्थात्व प्रणयोग्य वर्ण रूप होती है किन्तु अनभिव्यक्त रहती है उसे मध्यमा चाकू कहा जाता है। जैसा कि- मतृहरि ने 'केवलं बद्ध्युपावामा ०' कारिका में कहा है जिस वाक् का केवल बुद्धि हो उपादान है। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मा० क० टीका एवं हिन्दी विवे और जो वैखरो समान प्राण की स्थूलवृति को कारणरूप से अपेक्षा न कर क्रमिकरूप को ग्रहण करती हुई प्रवृत्त होती है अर्थात् संकल्पविकल्प की धारारूप में चलती है वह मध्यमा वाक् कही जाती है। वैखरी और पश्यन्ती के मध्य में होने से 'मध्यमा' संज्ञा दी गई है। इस की अवस्थिति शरीर के बहिर्देश में न होकर मनोभूमि में ही होती है। ६६ या तु ग्राह्याऽभेद क्रमादिरहिता स्वप्रकाशा संविद्रूपा वाक् सा पश्यन्तीत्युच्यते । तदुक्तम् - [ वाक्यपदीय० ] “अविभागा तु पश्यन्ती सर्वतः संहृवक्रमा । स्वरूपज्योतिरेषान्तः सूक्ष्मा वागनपायिनी ॥|१||” 'पश्यन्ती' प्रत्यक्षस्वरूपा बागियम् यस्य वाच्य वाचक योषिभागेनावभासो नास्ति, सर्वतश्च सजातीयविजातीयापेक्षया 'संहतो' वान्यानां वाचकानां च क्रमो देश-कालकृतो यत्र, क्रमविवर्तशक्तिस्तु विद्यते । 'स्वरूपज्योतिः 'स्वप्रकाशा वैधते, वेदकभेदातिक्रमात् । 'सूक्ष्मा'= दुर्लक्षा 'अनपायिनी' कालभेदाऽस्पर्शादिति । अत एव शब्दार्थयोः संबन्धस्तादात्म्यमेव । न हि 'अयं घटः' इतीदमर्थे तटस्थघटपदस्योपरागोऽस्ति, किन्तु घटपदाभेद एव भासते इति व्यवहारोऽपि सकलः शब्दानुविद्ध एव दृश्यते । न हि 'भोचये दास्यामि' इत्याद्यनुल्लिखितशब्दः कश्चिदपि स्वयं भोजनदानाद्यर्थं प्रयतते, परं वा 'य- देहि' इत्यादिशब्दं विना प्रवर्तयति । जीवित मरणस्वरूपाविर्भावोऽपि शब्दाधीन एव, सुषुप्तदशायामनुल्लिखित शब्दस्य मृताऽविशेषात् । तदुत्तरसमये च कृतश्चित् शब्दात् प्रबुद्धस्यान्तर्जल्पात्मना शब्देनैव जीवितानुसंधानात् । न चाऽद्वयरूपे तत्वे कथमाविर्भाव-तिरोभावादिरूपप्रञ्च भेदप्रतिभासः ? इति वाच्यम् तिमिरतिरस्कृतलोचनस्य विशुद्धेऽप्याकाशे विचित्ररेखाभेदप्रतिभासवदनाद्यविद्योपप्लुप्तचिश्वस्य प्रपञ्चभेदप्रतिभासात् । यथा च तिमिरविलये विशुद्धाकाशदर्शनं तथा निखिला विद्याविलये शुद्धशब्दब्रह्मदर्शनम् । तच्चाभ्युदयनिःश्रेयसफलधर्मानुगृहीतान्तःकरणैः प्रणवस्त्ररूपमवाप्यत इति । [ पश्यन्ती वाणी का स्त्ररूप ] जिस वाक में प्राह्मार्थ का प्रभेव तथा क्रमावि नहीं होता एवं जो स्वप्रकाशसंविद् रूप होती है उसे 'पश्यन्ती' वाक् कहा जाता है। इस का स्वरूप भर्तृहरि की 'श्रविभागा तु पश्यन्ती० ' इस कारिका में स्पष्ट किया गया है यह 'पश्यन्ती' वाक् प्रत्यक्षबोधस्वरूप है। इस में वाध्य श्रीर वाचक का मित्ररूप में अवभास नहीं होता । इस में सजातीयविजातीय किसी की भी अपेक्षा तथा वाध्य और वाचक में देशकालकृत कम नहीं होता किन्तु इस में क्रमिक बिवसों को उत्पन्न करने की केवल शक्ति हो होती है । यह स्वरूपज्योति अर्थात् स्वप्रकाश होती है। क्योंकि यह स्वभिन्न ग्राहक की पपेक्षा नहीं करती एवं दुर्लक्ष होती है और कालविशेष के सम्बन्ध से शून्य होने के कारण विनाशरहित होती है । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रमा सलो . १३ [ शब्द और अर्थ में तादात्म्यसंबंध का समर्थन ] इस पाक के इस स्वभाव के कारण हो शव मौर अर्ष में ताबारम्य सम्बश्य होता है, अन्य को सम्मान्य नहीं होता। अयं घर:' इस प्रतीति में समर्थ में उस से भिन्न घटपद का सम्बरम प्रसीत नहीं होता शिन्त घरपद के अमेव का ही मान होता। इसप्रकार जान के समान समस्तव्यवहार भी शम्यानुषिद्ध ही वेखा जाता है, पोंकि 'भोक्ये' =भोजम करूंगा, बास्यामि = मान गा' इसप्रकार के शरट का जाय किये सिना कोई ही मनाय गोजम यामाहा में प्रवृत्त रही होता । एवं भुया-मोचन कर' हि याविवादों के उल्लेख किये बिना कोई भी मनुष्य किसी पाय मनुष्य को भी भोजन और दान में प्रवृत्त नहीं करता । जीवन और मरण का स्वरूपजान भी शाबायोन ही होता है। मनुष्म मुषप्तदशा में शम्ब का पहले नहीं करता अतः उस समय बह मृततुल्य होता है। सुप्तावस्था में भी मनुष्य जीवित रहता है इस बात का शान मुषुप्ति के बाव उस समय होता है जब वह शरव द्वारा अगाये जाने पर अतर्जस्यात्मक शब्य का प्रयोग करते हुये निव्रात्याग करता है। इसप्रकार उस के जीवन का जान भी सम्व से ही होता है। [शब्दमात्र से प्रपंचमेद की उपपचि ] शम्यत्तस्व को अहम मानने पर यह पांकर हो सस्ती है ..“यदि एकमात्र शव हो तात्विक पदार्थ है उस से भिन्न नहीं है तो फिर अकेले उससे पाविर्भाव-तिरोभावा प्रपञ्च भेव की उपपत्ति नहीं हो सकती है। किन्तु मह शंका नहीं है पर्योकि जिस मनुष्य का नेत्र तिमिर रोग से ग्रस्त रहता है उसे जसे विशुद्ध प्रकाश में भी विभिन्न प्रकार की रेखाओं का अबभास होता है, उतीप्रकार अनादि अविशा से प्रस्त पित्त्याले मनु'य को प्रपञ्चभेट का प्रतिमास हो सकता है। जैसे तिमिररोग का विलय होने पर रेखाधि का वर्शन न होकर विशुद्ध आकाश का हो वन हाता है उसीप्रकार समस्त अघिद्या का विलय हो जामे पर शुद्ध पदब्रह्म का धर्मन हो सकता है। किन्तु यह पर्शन अभ्युदय और निःश्रेयस फल को देनेवाले धर्म के पनुष्ठान से जिस का अन्त:करण निमंल हो जाता है उन्हीं को प्रणव यानो ओंकार के रूप में प्राप्त होता है। [शब्दाद्वैतवादनिराफरणम् ] गत्र च शब्दप्रत्ययादी को नाम शब्दानुवेधः परस्याभिमाः ? न नाम संयोगः समवायो चा, व्यपारेच संगोगात गुणादीनामेव च समवाया ।-'घटो नीलानुविद्धः' इत्यत्रय नादात्म्येऽनुवेधपदप्रयोग' इति घेत ? न, एकान्ताऽभेद तनुपपसेः । न हि घटी घटानुविद्धः' इति प्रयुअते प्रामागिका "विवक्षाऽनियमाचा तथाप्रयोगाऽप्रयोगोपपत्तिः, यथा 'कुण्डे कुण्डस्वरूपम्' इति प्रयोगः, न तु 'कुण्डे कुण्डम्' इनि" इति चेत् ? न, तथापि शब्दयोधयारकान्ततादात्म्य शब्दप जबत्वात् वीरपापि जडतापनी शब्दस्य बोधरूपत्वेन(व वयोधमाजवादापसेः। तथा चान्यस्याऽन्ययोधाऽयोद्धन्यबदन्यशब्दश्रोतन्यं न भवेत् । भावे बा सफलप्रमानवोघाभिमशब्दप्राहिलाद निरुपायं सर्वस्य सर्वचित्तविश्वं स्थान् । तथाच समन्तभद्रः१४ अप्टब्य स्तबक = को कारिका २-३, पृ० ६१ ६४ । ---- Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा०० टीला एवं हिन्दी विवेचन ] "बोधात्मता च्छन्दस्य न स्थास्यथ तच्छ्र ुतिः । यद् चोद्धारं परित्यज्य न बोधोऽन्यत्र गच्छति ॥ १ ॥ न च स्यात्प्रत्ययो लोके यः श्रोत्रा न प्रतीयते । शब्दाऽभेदेन सत्येयं सर्वः स्यात्पर चित्तवित् ||२||" इति । अतः शब्दानुषिद्धः प्रत्ययो न जगतः शब्दमयत्ये साक्षी ! [ शब्दाद्वैतवाद का विस्तार से निराकरण ] शास्त्री भर्तृहरि के इस मत की यहां समीक्षा की जाती है-दात्मक व्यवहार और प्रत्यथादि में जो शब्दानुवेध शावकों को श्रभिमत है वह विचार करने पर उपपन्न नहीं होता। वेध का अर्थ शब्दसंयोग अथवा शब्दसमवाय नहीं किया जा सकता। क्योंकि संयोग नियमत: में ही होता है। एवं समवाय भरे द्रव्यगुणाति का हो होता है । जैसे ११ यदि यह कहा जाय कि 'नील घट में घटी नोलानुषिद्ध:' ऐसा व्यवहार होता है इस or में अनुषपद का प्रयोग तादात्म्य में होता है। प्रसः शब्द और प्रत्ययाति में जो शद । नुवेध बलाया गया है उसे गारद तादात्म्यरूप माना जा सकता है तो यह ठीक नहीं, क्योंकि प्रत्यय और शव में अस्प सामेव मानने पर प्रत्यय में शस्वतावरम्यरूप म्यानुवेध नहीं हो सकता क्योंकि अत्यस् भिल में साम्य नहीं होता, इसीलिये प्रामाणिक विद्वान् 'घटः घटानुषिः ऐसा प्रयोग नहीं करते । [ विवक्षा के अभाव से तथा प्रयोगाभाव की आशंका का निवारण ] !! यदि यह कहा जाय कि "अश्यन्त अभि में भी तादात्म्य होता है फिर भी जो 'बटो जानुषिद्ध: यह प्रशेष होता है किंतु 'घटो घटानुषिसः यह प्रयोग नहीं होता है उस का क्रम से कारण है (१) घट में नीलरूप से नील के तादात्म्य की विवक्षा और (२) घटरवरूप से घटला की अविवक्षा । यह उसीप्रकार सम्भव हैं जैसे कुण्डे में कुरूप का तथा कुण्ड का अश्यतामेव होने पर भी कुण्डस्वरूप में कुण्ड्यूसिव को विवक्षा होने से 'कुण्डे कुरूप यह प्रयोग होता है, किन्तु कुण्ड में कुण्डवृतित्व को शिक्षा न होने से 'कुकुण्डम्' यह प्रयोग नहीं होता" सो यह कयण मी ठीक नहीं है। क्योंकि उक्त रीति से बोध में शमयतावात्स्यरूप शब्दानुवेध की उपपति सम्भव होने पर भी शब्द मोर बोध में अत्यन्तादाम्य मानने पर शव्द जय होने से बोध में मी जडरव की आपति होगी। अथवा शब्द में बोधरूपता होने से ब्वाईतवाद की हानि होकर ज्ञानामधाव की आपत्ति होगी । [श्रवणभाव अथवा सर्वचज्ञता की आपत्ति ] दूसरी बात यह है कि शब्द और घोष के ऐवयपक्ष में जैसे एक व्यक्ति को अन्यव्यक्ति के योभ का ज्ञान नहीं होता उसीप्रकार अन्य व्यक्ति के शब्द का श्रवण भी नहीं होगा। यदि होगा तो समस्त प्रमाता के बोध से अभिन्न शब्द का पहण होने से बिना किसी विशेष उपाय के ही सब मनुष्यों में सर्वलि के ज्ञान को आपत्ति होगी। जैसा कि समन्समय ने कहा है- यदि बोधात्मक क्योंकि शब्द मोधात्मक है और प्रत्ययमात्र शब्दरूपं ही है तो होगा तो एक पुरुष के शब्द का अभ्यमुरुष को न हो सके बोध बोढा शाता पुरुष को छोटकर अन्यत्र कहीं नहीं जाता। यदि प्र. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शास्त्रदाता सबलो १३ इस मत में संसार का ऐसा कोई प्रत्यय नहीं हो सकता, जो श्रोता से गृहीत न हो, अतः शम्न और बोध के अभेद पक्ष में सभी मनुष्य में परचितसा को आपत्ति होगी। प्रप्त: भगव के शाम्यमयष में शब्दानुवित प्रत्यय साक्षी नहीं हो सकता,पयोंकि उक्त रीति से प्रत्यय की शब्दानुषिद्धता प्रसिद्ध है। किंच, शब्दमयत्वं जगतः शब्द परिणामरूपत्तम , नीलादिगरिणामच शब्दस्य स्वाभाविकशब्दस्वरूपपरित्याग, सदपरित्याग वा ।। आधे, अनादि निधनत्वविरोधः । द्वितीय नीलादिसंवेदनफाले पधिरस्यापि शब्दसंवेदनापत्तिः । 'स्थलशब्दपरिणामपरित्यागेऽपि सन्मशब्दरूपाऽपरित्यागात् प्रथमरिकल्पे न दोष' इति चेत् । न, सूक्ष्मस्थ सतस्तादृशदलोषमयाभावे ताशस्थूलरूपाऽसंभवाव , समस्य शब्दस्य तादृशार्थपरिणामः, मूक्ष्मस्याऽर्थस्य बा तादशशब्दपरिणाम इति विनिगन्तुमशक्यत्वाच । 'घटादिरों घटादिशदोपरागेणानुभूयत इत्यर्थ एव शब्दपरिणाम' इति चेत् ? न, 'अब घटाइत्यत्र हि 'अयं घटपदयाच्या' इत्येवानुमका, न तु 'अयं पटपदात्मा' इति । [शब्द के नीलादि परिणाम के ऊपर विकल्पद्रय ] दूसरी बात यह है कि जगत की शवषयता शनवपरिणामरूपता के अधीन है अतः नीलाधारमक परिणाम के सम्मान में यह प्रपन होता है कि (१) शव का नोलाविस्वरुपपरिणाम पान के स्वाभाविकरूप का परित्याग होने पर होता है प्रथया (२) परित्याग के अभाव में होता है? प्रथम पक्ष में शाम के अनादि निधनस्व को प्रनुपपत्ति होगी और दूसरे पक्ष में मीलादि के संवेवन काल में वायर को भी प्रासंवेवन की आपत्ति होगी क्योंकि इस पक्ष में नीलादि यह कानादिरूप होता है। यदि यह कहा जाय कि- "शब का नीलादि परिणाम प्राद के स्थलपरिणाम का परित्याग होने पर होता है किन्तु शब्ब का समाप बना रहता है, अत: प्रथम विकल्प में अनादिनिधनत्व को अनुपपत्तिरूप दोष नहीं हो सकता, क्योंकि स्यूलरूप में शब्द को निति होने पर भी मुश्मरूप में शब्द का प्रस्तित्य ना रहता है"-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि मृधमशन में सम्मपादास्तरसप अवयों का संयोग हुये विना पान का कोई स्यूलरूप नहीं हो सकता । सम में मधमशब्दातर का संयोग सजातीय-विजातीय स्वगत मे शून्य मावा हया में सभ कहा है। दूसरी बात यह है कि समसद का नीलादिरूप प्रर्य में परिणाम होता है. अथवा सूबम का नीलाधारमक स्थलब्ध में परिणाम होता है, इस में कोई विनिगमना नहीं है। पत एष जगत का तस्व सूक्ष्मशल्य है अथवा मूवम अर्थ है यह निर्णय पुर्घट होने से पावमान को अगस का तत्य घोषित करना पाटिको के लिये युक्तिसङ्गात नहीं है । यदि यह कहा जाप कि- 'घटादि अर्थ घटादिशबों से सम्बदरूप में अति घटादिशब्दतावाइण्यापनप में अनुमूस होता है इसलिये अर्थ शब्द का परिणाम है।'-तो पह ठीक नहीं है क्योंकि, 'अमं घटः' इस ध में 'अयं घटपरवाच्यः' यही अनुभव होता है। कि 'अयं घर परारमा यह अनुभव । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा० क० टोका एवं हिम्बी विवेचन ] fer, शन्दार्थयोरेकान्ताभेदे खड्गादिशब्दोच्चार बदनविदारणमपि वैयाकरणस्य प्रसज्येत । यत्नेन मुखे निवेश्यमानस्य खड्गभागस्येव खड्गशब्दस्यावस्थाविशेषात् न बदनविदारकत्वमिति व १ न, अद्वैतेऽवस्था भेदस्यैवाऽसिद्धेः । स्वयमेव विचित्रस्यमा शब्दजोति प्रत्यवस्थं मेदोपपत्तिः, स्वातिरिक्त भेदकाभावाच्च नाद्वैतव्याघात' इति चेत् : इन्स तर्हि जगद्वैचित्र्यस्यैव 'शब्द' इति नामान्तरकीर्तनमायुष्मतः । [ खद्गादिशब्द से सुखछेदनापचि ] केस में यह के शब्द और अर्थ में एकान्त प्रमेव मानने पर गादिशश्व का उपचारण करने पर व्याकरण मत में मुखविदारण की आपति होगी। यदि यह कहा जाय कि 'सावधानी से मुख में खड्ग का संनिवेश करने पर जैसे खड़ को उस अवस्था से व का विवरण नहीं होता उसीप्रकार खड्गशब्द के अवस्था विशेष से भी मुखविवारण की प्रालि नहीं हो सकती ।" तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि शब्दाद्वयपयन में अवस्थाभेद ही प्रसिद्ध है। यदि यह कहा जाम कि - "ब्रह्म स्वयं ही विचित्रस्वभाव है अतः प्रवस्यामेव से उसमें भेद की उपपत्ति हो सकती है किन्तु यह मेव स्व से पतिरिक्त मेदक से न होकर स्वयंकृत होता है अतः उससे अस का व्याघात नहीं होता। " तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि इस कथन से यह पर्यवसित होता है कि जगत् का निश्य कर्तृ निरपेक्ष है और चिरंजीवी वैयाकरण ने उसी को 'शब' यह नामान्तर प्रवान किया है। 'विकः सकलो भेदानुपानी प्रपञ्चः इति तच्वतोऽभिभमेव शम्रो ति चेत् १ एवं तहिं द्विचन्द्रादिवदसन् प्रपञ्च इति तत्प्रकृतित्वं शब्दज्ञह्मणो न स्यात् । न हि सतोऽसकृ तित्वं नाम । एवं "अनुरूपत्वाद्बीच नयत् । वाचः सारमपेक्षन्ते शब्दाऽयम् ॥" [ 1 -इत्यभिधानमयुक्तं स्यान, सारजलस्य स्वावस्थाविशेषबुदबुदादितिरोभावक्षमन्येऽपि शब्दह्मणः स्वावस्थानाकान्तप्रपचतिरोभावानमात् 'अविद्याशार्या शब्दब्रह्मणस्वायत्या *यामनुपाख्यः प्रपञ्चो भागते, तद्विलये तु न इत्यद्वितीयवसाय' इति चेड् कस्यायमीगवसायः ९ । 'योगिन' इति चेत् ? स एव तर्हि संशयपथं पृच्छयताम् किमस शब्दा यमानं जगत् पश्यति स्येति । [ प्रपश्य की अविद्यामूलकता का खण्डन ] i= यदि यह कहा जाय कि भिश्राप से अवभासमान सम्पूर्ण प्रश्न प्राधिक= श्रविद्यामूलक है असदश्य सात्विक दृष्टि से है तो यह क नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर जैसे ि होने से असर होता है उसीप्रकार आवश्यक प्रपश्य भी असर होगा और उस स्थिति में शव्यब्रह्म उसकी प्रकृति यानी उपादान न हो सकेगा क्योंकि सत्वार्थ असद को प्रकृति नहीं बन सकता । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रमा सलोपर [प्रपंच शब्दमाम की अवस्था विशेषरूप नहीं है ] इसप्रकार यामारणों का यह काम कि-"जैसे पीपी-युददे और फेम जल ले पनुषिद्ध होता है। अत एव जल ही उसका सार ताश्विकरूप होता है उसीप्रकार स्थलारद और अर्थ उपाएमक जगत् शब्दब्रह्म से मनुविद है अत एच. शाम्ब्रह्म ही उसका सार सास्विकरूप है ।"-पह असंगत है। क्योंकि सीधी बुददे और फल सारभूत जल की सत प्रवस्थाविशेष होते हैं । अतः सारभूत मल अपने में उन्हें तिरोहित कर सकता है किन्तु असतू माना TRI प्रसारभूत शम्दमा का अवस्थाविशेषरूप नहीं हो सकता, प्रस: समयका उसे अपने स्वरूप में तिरोहित नहीं कर सकता । यदि यह कहा जाय कि-'प्रपत्र शबनम से अभिन्न अपवा भिररूप में अनिर्वाश्य है और यह अविद्यावशा में भासित होता है - किन्तु अविद्या का विलम हो जाने पर भासित नही होसार कप में अद्वितीय मसाका निश्चय होता है"- सो यह कहना भी नहीं है, क्योंकि यह मित्राय किसे होता है इस प्रश्न का उत्सर यही हो सकता है कि उक्त निश्चय योगी को होता है। इस स्थिति में योगी मेहोस संविग्ध विषम के बारे में पूछा जा सकता है कि यह लगव को कावासयमात्ररूप में देखता है ? अषया विचित्ररूप में देखता है । क्योंकि इस विषय में कुछ कहने का अधिकारी षही है। किश्च, अविधा ग्रह्मणो भिन्ना, अभिमा बा! | मिन्ना चेव ? वस्तुभूना अवस्तुभृता बा! न तावदवस्तुभूता, अक्रियाकारितात , अमवन । न च नार्थक्रियाकारित्नमप्यरूपाः, तिमिरवद् प्रमजनकल्याऽभिधानात , अवस्तुमाहात्म्यात् वस्तुनोऽन्यथाभावेऽतिग्रसक्तेः । वस्तुभूता चेन् ? तदा वन अविद्या घेति तमापनम् । अभिमा येत १ ब्रह्मवन' मिथ्याधीनिमित्त म स्थात् । नस्मादिदानी शब्दब्राह्मण आत्मज्योतीरूपेणाप्रकाशनं नाविधार्मिभृतत्वात् , किन्तु तथाऽसयादेवेति प्रतिपत्तथ्यम् । एवं चास्य बैंग्वयादिवार मेदकल्पनमपि न युज्यते, एक-दयास्मकतस्यानुपगमे भेदपरिंगणनस्याऽशक्यत्वात् । [प्रपंच के मूल अविद्या का ब्रह्म से भेद पक्ष में विकल्प] इसके अतिरिस यह मो विचारणीय है कि यदि प्रपश्च का भान अविद्यामूलक है सोह अविधा शवब्रह्म से भिन्न है या प्रमिमा पनि भिन्न है तो बह वस्तु भूत है या अवस्तुभूत? भिन्नता पक्ष के इन विकल्पों में द्वितीयविकल्प के अनुसार अबरतुभूत अविधा नहीं मानी जा सकती क्योंकि यह प्रपत्र के प्रयभाशरूप प्रक्रिया का जनक है। अत: ये अधिष्ठानरूप में प्रपत्रावभासरूप अकिपा का अमक होने से ब्रह्म अवस्नुभूत नहीं होता उसी प्रकार प्रपश्चावनासरूप अर्यक्रिया में निमिस होने से अविश्वा भी अवस्तु भूत नहीं हो सकती। उक्त आपत्ति के भय से अविद्या में अर्थक्रियाकारित्व कोही न मामना ठीक नहीं है क्योंकि तिमिर के समान विद्या को भ्रमजनक कहा जा चुका है। सघ.बात सो.मह कि.मविद्या को अवस्तु भान कर उसके बस से शम्बयामरूप वस्तु का प्रपञ्चरूप में अन्यथामा माना भी नहीं जा सकता, पयोंकि मवस्तु से वस्तु का आयथाभाव मानने पर किसी व्यवस्थित रूप से हो अन्यथा न होणार अन्य रूप है भी उसके अन्यथाभाष की प्रसारित होगी। जबकि प्रपा का व्यवस्थित रूप में ही मस्तिस्क स्वीकार्य है। यदि उक्त.आपछि Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा. टीका ए हिन्दी विचन ] को परिहारार्थ अविद्या को बस्तुभूत मामा जायगा तो शबनम और अविद्या न दो वस्तु का अभ्युपगम होने से वंस की भापति होगी। अविद्या प्रससे साभिन्न है यह प्रथम गोकानांकन माविष्ट बह्म से भिन्न होगी तो उसी के समान पहा मिथ्यामान का मिमित न हो सकेगी अतः यह मानना उचित है कि संसार पशा में शवना का प्रारमण्योति-स्वप्रकाशरूप में बोनाम नहीं होता इसका कारण मह महीं कि वह प्रषिक्षा से अभिमुस है अपितु इसका कारण यह कि स्वयंज्योति रूप में शाब्बतख का अस्तित्व ही नहीं है। शवाय बार मानने पर माकने बखरी आदि भेषों की कल्पना भी युक्तिसंगत नहीं हो सकती, पोंकि एकानेकात्मक तश्व न मानकर केवल एकात्मक तत्त्व मानने से मेव का उपपावन किसी प्रकार से माय नहीं हो सकता। ___ सस्मान् द्रव्य-भावभेदाद् द्विविधा वाक् । तत्राद्या द्विविधा-द्रध्यात्मिका, पर्यायात्मिका च । तत्र शब्दपुद्गलरूपा द्रव्यात्मिका, श्रोग्रामपरिणामापमा च सेव पर्यायारिमका । तामन्ये 'स्वरी' इति परिभाषन्ते । झिनीयापि द्विविधा-व्यक्तिरूपा, शक्तिरूपा च । आधा सविकल्पिका धीरन्तर्जल्पाकारप्रतिनियनशब्दोल्लेखजननी । सामन्ये 'मध्यमा' इत्यध्ययस्यन्ति । द्विसीया च सविफस्यद्धयापारककर्मचयोपशमशक्तिरूपा तामन्ये पापन्तीमायक्षप्त इति दिक् । तस्मादुल्पादश्ययाऽभावे धौव्यस्याप्यसंमय इति युस्तमुक्तम्-'अन्यथा त्रितयाभार' इति । मस्तस्मात् कारणात , एकदैकय कि नोत्पादादित्रयम् ।। यदेव अत्यन्नं तदेव कश्चित्पचते, उत्पत्स्यते च । यदेव नष्टं तदेव नश्यति नष्पन्यति च । यदेवारस्थित सदेवावनिहत, अवस्थास्यते चेनि ॥ १३ ॥ [जैन मत में खरी-मध्यमा-पश्यन्ती बाप का ताधिक स्वरूप ] अतः पाक के सम्बन्ध में वस्तुस्थिति यह है कि वाक के वो भव है-सण्यसाक और भावधाक । इन में द्रव्यबा के वो प्रकार है अध्याःमक वाक और पर्यायात्मक याक । शव के रूप में परिणत होने योग्य जो भाषावगंणा के पुद्गल है उन्हें दध्यात्मक पाक कहा जाता है, वही वाकयोधमानपरिणाम को प्राप्त होती है सब उसी को पर्यायवाफ कहा जाता है, बसो बाफ्को बंयाकरणों द्वारा 'बखरो' शबद से परिभाषित किया गया है। भाषाक के मो धो मेष है। पक्ति (वृद्धि रूप मोर जातिाप बम में पहली बाक् सपिकरूपकनिरूप है जो अन्तर्जरूपाकार होती है तथा प्रतिनियतशय के पल्लेख का जनक होती है । उसे हो याकरण लोग 'मध्यमा' रूप में जानते हैं। द्वितीय भाषवाक सविकल्पकबुद्धि के आधारकको के क्षयोपशम सम्प्रापर होने वाली आत्मशक्तिरूप है जिसका बंधाकरण लोग 'पायसी' शबद से ध्यवहार करते हैं। [ उन्पादादिलप्य समर्थन का उपसंहार ] ___ इसप्रकार उक्त रीति से उ.पार व्यपरहित केवल ध्र स्वरुप पान्ध को मान्यता का निराकरण हो जाने से यह सर्वया सिड है कि उत्पावण्यय के प्रभाव में प्रौप भी सम्भवहीं है । अस. १३ नो Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पासवाला पो०१४-१५ कारिका के उत्तरार्ध में यह यत दी ह arura, लाय और धौम्य इन में अग्यातर के मभाव में सोमों का अभाव हो जाता है। यत: उत्पाद व्यय धौम्य में एक का अभाव होने पर सीमों का अभाव असत होता है, अतः एक काल में एक बस्तु में स्पावावित्रयमों अमाम्य होगा? कहने का अपाय यह है कि वस्तु अपने पूरे काल में एक साथ हो उत्पावपयनौम्प नितयात्मक होता है। अर्थात जो वस्तु अंशत: अतोतकाल में उत्पन्न हो चुकी है वही वर्तमान में किसी पंश से उस होती है और बहो कि श्रम से भविष्य में भी उत्पन्न होती रहती है। एवं जो वस्तु अतीत में किसी प्रकार में नष्ट हो चुका है वही वस्तु वतमान में किसी मंश से नष्ट होती है और भविष्य में किसी अंश से मष्ट होती होगी। इसीप्रकार को बस्तु किसी क्ष में भूतकाल में अवस्थित थी वही किसो अंश से वतमान में अवस्थित होती है और यही किसी बम में भविष्य में अबस्थित होती रहेगी ॥११॥ १४ वो कारिका में वस्तु की उत्पाद प्यष प्रौप्यरूपता के सम्बन्ध में अब तक किये गये विचारों का उपसंहार किया पया है .. इदमेवोपसंहरनाइमूलम्-एकत्रैकवैधतविस्थं प्रयमपि स्थितम् । न्याम्पं भिन्ननिमित्तावासदमे न पुज्यते ॥ १४ ॥ एकत्रैष अधिकृतघटाइयस्तुनि एकवैध पियतिकाले, एतत् अयम् उत्पाद-व्ययधौव्यलक्षणम् , इत्पम्-उक्तरीत्या, मिन्ननिमित्तावालभिन्नापेशत्वाद , अभूतभवन-भूताऽमवन-तदुभाधारसभावल्य भेदादिति रा न्याययंवटमानम् , तदर्मरेनिमिसाऽभेदे न पुज्यत एकत्र पयम् , मिनापेक्षाणामेकापेक्षन्वाऽयोगाद , एकस्य भेदाऽयोगाद वेति भावः ॥१४॥ [निमितभेद से उत्पादादित्रय का एकत्र सहारस्थान ] घटादि एकवस्तु में एककाल में उत्पाब, उपम और प्रोग्य तीनों उक्त प्रकार के निमितभेद से उपपन्न होते है । निमित्तमेव का अर्थ है अपेक्षामेव अपवा खत तीनों का कम से अभूतमनन-भूताश्मन और समुभय का आधाररूप स्वभावमेव । प्राय यह है कि एक ही वस्तु एकही काल में किसी अपेक्षा से जापान, किसी अपेक्षा से विनष्ट और किसी अपेक्षा से स्थिर होती है। अथवा एकही वस्तु अभूतमान स्वभाव से उत्पन्न, मूसामवन स्वभाव से नष्ट और अभयाभावस्वभाव से स्थिर होती है। निमितमेव के अभाव में उत्पावाविषम फा एकवस्तु में एफकालिक अवस्थाम प्रमुफ्त है। क्योंकि निमिसभेव-अपेक्षाभेष से सम्भवित रूपों में एकापेक्षिता नहीं हो समसी । और न स्वभावभेव के बिना एक यस्तु में परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्मों का एकत्र एक काल में सम्मव को हो सकता है ॥१४॥ कुछ विज्ञाम् उक्त वस्तुस्थिति का अनुभव करते हुए भी उस का निषेध करते है. उनका यह कार्य प्रभाममूलक है। यह बात १५ वी कारिका में प्रतादी गई है परे पुनरिन्थमनुभयन्तोऽपि प्रतिक्षिपन्तीति सेपामशानमायिकृर्षभाइ-- मूलम्-इष्यते च परमोहात्तरक्षणस्थितिधर्मणि । अभावेऽन्यतमस्यापि तवं न यावेत् ।। १५ ।। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा० क० टीका एवं हिदी विवेचन ] · · इष्यते च अनुभूयते च परे: - सांगतैः, मोहात अज्ञानात तत् उत्पादादित्रयम, क्षणस्थितिधर्मणि वस्तुन्यभ्युपगम्यमाने । कथम् ? इत्याह-अभावेऽन्यत्तमस्याप्युत्पादादीनां मध्ये, तवस्तुनि, तक्षणस्थितिफत्वम् यद्=यस्मात् न भवेत् । तत्त्वले भवनादुत्पम् अग्र मचणेऽभत्रनान नष्टस्, तदावस्थितेश्व gane हि क्षण स्थितिस्वभावमुच्यमानं पर्यवस्यैदिति, अग्रिमऽन्यस्याsara deन्ययाभावाभावे क्षणिकत्वन्यापातादित्युपपादितश्वर ( पूर्व ) म् । एवं परंस्यात्मकं वस्त्रनुभूयमाना श्यात्मकमन नाभ्युपगम्यते । तत्र च श्यात्मकत्वं विना स्वाभ्युपगमान्यथानुपपत्थैव व्यात्मकत्वं बलादेष्टव्यमिति भावः ॥ १५ ॥ २७ [ मौद्धमत में भी त्रैरूप्य का स्त्रीकार ] ata वस्तु को क्षणमात्रस्यायो मामते हैं और ऐसा मानने पर उसमें उत्पाद-यय- प्रथ्य सोमों जान में भी अपगत हो जाते हैं। क्योंकि उक्त तीनों में किसी एक का भी अभाव होने पर वस्तु में refer को उपपत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि जिसे क्षणमात्रस्थितिक कहा जाता है वह लरक्षण में प्रस्तित्व प्राप्त करने से उत्पन्न, उत्तरक्षण में अस्तित्वहीन होने से नष्ट और तरक्षण में अवस्थित होने से ध्रुवस्वरूप सिद्ध होता है। क्योंकि यदि वस्तु को अग्रिमक्षण में स्तिमशीन म माना जायगा तो उसका श्रन्यथामा रूपान्तरगमन न होने से उसके क्षणिकरण का उपाधात होगा । इस प्रकार यदि लक्षण में वस्तु को अस्थि का लाभ न मामा आपगा तो वह अन्वक्षण के समान उस क्षण में भी असत् होगा । एवं यदि उस अरण में अवस्थित न होगा तो उस क्षण में अस्तित्वयुक्क न हो सकेगा, क्योंकि संरक्षण में अस्तित्व रक्षण में अवस्यितश्व का व्यापक है। पावक का अभाव होने पर व्याप्य का अभाव भी अनिवार्य होगा। यह सब से पहले ही कहा जा चुका है। इस प्रकार बौद्ध वस्तु को उत्पाद व्यय धौम्य त्रितयष अनुभव करते हुये भी उसे जितात्मक नहीं मानते किन्तु जैसा ऊपर बताया गया है कि वस्तु को सित्मक माने विनर बौद्ध का 'वस्तु क्षणिक होती है' यह अपना सिद्धान्त भी नहीं उपपद्म हो सकता । तदनुसार क्षणस्थिति वस्तु को इच्छा न होते हुए मी त्रियात्मक मानना अनिवार्य है ।।१५।। १६ वीं कारिका में उक्त कथन के विरुद्ध बौद्ध के अभिप्राय को शंका रूप में प्रस्तुत कर उसका परिहार किया गया है पराभिप्रायमाशय परिहरति- मूलम् - भावमानं तदिष्टं वेशदित्यं निर्विशेषणम् । क्षणस्थितिस्वभावं तु न पाद-व्ययौ त्रिना ।। १६ ।। 'भावमात्रं तत् वस्तु क्षणस्थितिक मिष्टम्, न तु क्षणस्थितिकत्वमपि तत्र तदतिरिक्त मस्ती' विवेत् ? इत्थं तद् वस्तु निर्विशेषणं जातम् । एवं च 'किंरूपं तत्' इति निषयोऽद्यापि देवानांप्रियस्य | क्षणस्थिविस्वभावं तु तदुच्यमानं द्वि-निर्थितम् उत्पाद-व्ययौ विना न युक्तम्, क्षणोमस्थित्यपेक्षयेत्र ऋण स्थितिस्वभावत्वव्यवस्थितैः ॥ १६ ॥ , Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ नास्त्रमा सलो . १९ [उत्पादव्यय के विना क्षणिता दुपट ] बौद्ध के अभिप्रायामुप्तार-"क्षणस्थायी मानी गई वस्तु भावमात्र है। उसमें उससे अतिरिक अणस्थितिकत्वरूप कोई धर्म महों है ।" किन्तु यह कथन अतिसयत नहीं है क्योंकि बस्तुको भावमात्र सगस्पितिरूप मानने पर वस्तु निविशेषण हो जाती है। प्रतः 'वस्तु का क्या स्वरूप है यह निश्चय अब तक उसे महो । अतः उक्त रीति से बौद्ध के अभिप्राय का वर्णन उसके अज्ञान का सूचक है। यदि वस्तुको क्षणस्थितिमात्ररूप न कहकर क्षस्थितिस्वभाष कहा जायेगा तो निम्रित ही यह स्वभाव उत्पाद और व्यय के बिना अनपपन्न है क्योंकि क्षण के प्रमतर अस्थिति की अपेक्षा से ही मरिमा सामको उपसशि हो । श्राशय यह है कि वस्तु क्षणस्थितिक तभी हो सकती है जब उस क्षण में उसकी उत्पत्ति चोर अग्रिमण में उसका व्यय हो । क्योंकि बस्तु उस क्षण के पूर्व में असद है। मत: उस क्षण में उत्पन्न हये बिना उस क्षण में स्थिति नहीं हो सकती प्रौर अपिमक्षण में उसकाम्ययन मामले पर अग्रिमक्षरण में भी उसको अवस्थिति सम्भव होने से भो उसका क्षणस्थितिमात्र स्वभाव मही सिब हो सकता ॥१६॥ १७ वो कारिका में बचनमात्र से वस्तु के क्षणस्थितिकत्वस्वभाव का मायुपगम करने में बोच बताया गया है। वाङ्मात्रेण तथाभ्युपगमे त्याहमूलम् - सविस्थंभूनमेधेति द्वाम्नमस्तो जातुधित् । भूत्वाऽभावश्च नाशोऽपि तवति न लौकिकम् ॥ १७ ।।। "मविश्वंभूतमेय-मणस्थितिकमेव, स्वभावात , न विनायध्यपेत्तयेति भावः" इनि चेत् ! जानुचित कदाचित्र , दाफः शीघ्रम् , परिणामिकारणं बिना, नमस्ता-आकाशात उपपपत्ते, प्रमाणाभावान , नभस्त एवं वा न ययनिष्ठते । भूत्वाऽभावथ माशोऽपि तदेव भावमात्र मेत्र 'तदेव न भवती वि प्रतीतेः, इति न लाँकिफमेतत् , किन्तु प्रामाणिकम् । एवं च भावाभावरूपत्वान वस्तुनो भित्रकाले स्त्रकाले चोत्पादादित्रयात्मकत्वमेव | [वस्तु की क्षणिकता निरपेक्ष नहीं हो सकती ) बौद्ध की ओर से यदि यह कहा जाय कि-''वस्तु स्वभाव से हो मणस्थितिक होती है। उसे क्षणस्थितिक होने के लिये कोई अन्य अपेक्षा नहीं होती"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वस्तु गोत्र परिणामी कारण के बिना आकाश में कभी भी उत्पन्न नही हो सकती क्योंकि परिणामकारण के अभाव में वस्तु को उत्पत्ति में कोई प्रमाण नहीं है। इसी प्रकार विना कारण प्राकाण से ही उसकी प्रवस्थिति अयश अस्तित्व लाभ के अमनार अस्तित्यच्युति रूप विनाश भी बिना कारण प्राकाश से सम्भव नहीं हो सकता, क्योंकि वस्तु माषमात्ररूप ही नहीं है, क्योंकि "जो वस्नु तरमण में भावाएमक होती है वही वस्तु परिक्षण में नहीं होती" ऐसी प्रतीति सर्वमान्य है। ये सम बाल अर्थात कारण के विना कार्य को उत्पत्ति-स्थिति और माश का न होमा केवल लोकोक्तिमात्र नहीं है अपितु प्रमाणसिद्ध है । अत: उक्त प्रकार से वस्तु के भावाभावात्मक होने से भिखकाल तथा स्वकाल में उसकी उत्पावादिषितयरूपता अपरिहार्य है। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्पा-टीका एवं हिन्दी विवेचन । इथं च "ये यद्भावं प्रत्यनपेक्षास्ते तावनियताः, यथाऽन्त्या कारणासामग्री स्वकार्योत्पादने, विनाशं प्रत्यनपेक्षाश्च मावा इति विनाशनियतास्ते" इति परेषामभिधानमपि न प्रकृतसाधकम् प्रत्युतानुकूलमेव, मावस्योत्तरपरिणाम प्रस्पनपेचतया तावनियसस्वोपपचे, पूर्वक्षणस्य स्वयमेत्रोत्तरीभवतोऽपरापेक्षाऽभावतः क्षेपाऽयोगात , उत्पन्नस्य चोत्पत्ति-स्थितिविनाशेष कारणान्सरानपेक्षस्य पुनः पुनरुत्पत्ति-स्थिति-विनाशत्रयमवश्यंभाथि, अंशेनोत्पमस्पांशान्तरेण पुनः पुनरुत्पत्तिसंभवात् । इति सिद्धमेकदैऋत्र त्रयम् । [ये यात्रा इत्यादि नियम से त्ररूप्य की उपपत्ति ] इस तथ्य के बाधकरूप में बौखों का यह कहना कि-"जो बस्तु जिस स्वरूप के प्रति अन्य निरपेक्ष होती है वह वस्तु जप्त स्वरूप से सम्पन्न हो होती है। जैसे किसी कार्य की अन्तिम कारणसामग्री उस कार्य के उत्पावन में अश्य मिरपेक्ष होने से उस कार्य की उत्पादक होती ही है। इसी प्रकार बस्तु विनाया के प्रति अन्मनिरपेक्ष होती है अत एष वह विनाशानुगत ही होती है। अत: वस्तु के विनाशानुगताः मी तिति होने रामा कन्ना या गाभर भी वस्तु की उत्पाबाक्षि यरूपता में बाधक नहीं है बल्कि अनुकलशो है। श्योंकि वस्तु अग्रिमपरिणाम प्रति निरपेक्ष हो है, अतः उक्त नियमानुसार उसे अग्रिम परिणाम से सम्पन्न होना न्यायप्राप्त है. पयोंकि पूर्वक्षण मय स्वमं ही उत्तर आण में परिणत होता है तो उस परिणाम में किलो सम्प की अपेक्षा न होने से उसमें विलम्ब पसंभव है । इस प्रकार उत्पन्न वस्तु को उपसि स्थिति और बिना में अन्य कारण की अपेक्षा न होने से उत्पन्न का पुनः पुनः उत्पाब, पुनः पुनः अवस्थान, तथा पुनः पुनः विनाश मवर्षमावी है, क्योंकि एक अंश से उत्पन्न का प्राय अंशों में पुनः पुनः उत्पात्र सम्भव है। इस प्रकार एक काल में एक बहतु में उत्पाद-स्थिति और ना सीमों की सिद्धि निष्कंटक है। ये त्वादुः-'घटोत्पादकाले घटनाशाभ्युपगमे 'घटो नष्ट': इति प्रपोगः स्यात् , अन्यनाशे च घटस्योत्पायकान्त एव' इति--तेयतात्पर्यज्ञाः, स्यादपस्यन्दनेन द्रव्यार्थतया घटपदस्य तथाप्रयोगसंष्टत्यात , अंशे तत्प्रतियोगित्वम्य, अंशे नदाधारत्वस्य च संभवात , विरोधस्यापि वीपार्थावरुद्धण्याल्पप्रतिरुदत्वात् । न खलु निक्षेपतरवदिना वचन कापि प्रयोगव्यवहाराघश्ययस्था। सदिदमुवाच पाचकमुख्या-"नाम-स्थापना-द्रश्य-भावतस्तन्यासः" [त. सू० १-५] इति । 'घरः' इत्पभिधानमपि पट एव, "अर्थाऽभिधान-प्रत्ययास्तुस्थनामधेयाः" इति पचनान् , याच्य-वाचायोमें दे प्रतिनियनशयत्यनुपपनेव । इति नामनिःोपः । घटाफारोपि घर' एक, तुल्यपरिणामत्वान'; अन्यथा तयायोगात् , मुरुयार्थमात्रामावादेव तत्पनिकृतित्योपपत्तः । इति स्थापनानिक्षिपः । मूस्पिण्डादिद्रव्यघटोऽपि पट एत्र, अन्यथा परिणामपरिणाम भात्रानुपपत्तेः । इति द्रष्यनिक्षेपः । चटोपयोगः, घटनक्रियेव वा घटा, वस्यैव स्वार्थक्रियाकारित्राव । इति भावनिक्षेपः । एतद्विपयविस्तरस्तु विशेषाचश्यकादौ । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० [ शास्त्रवा० ० ७ बलो०१७ ------ [ उत्पत्तिकाल में 'नष्टः ' प्रयोगापति अज्ञानमूलक है ] अन्य विद्वानों का यह कहना है फिट की उत्पत्तिकाल में घट का नारा मानने पर उसी काल में घटी नष्ट:' इस प्रयोग की आपत्ति होगी । यदि तत्काल में उत्पन्न घटका तत्काल में नाशन मान कर अन्य का नाश माना जायगा तो घट एकान्ततः उत्पन्न होने से विनाशादिरूप न हो सकेगा ।'किन्तु यह कथन उनके अनेकान्तवाद के तात्पर्य के प्रज्ञान का सूचक है। क्योंकि 'स्यात्' पत्र के योग सेक (म) ष्टि से घटोत्पावकपल में मृत्पिणात्मक का नाश होने से उक्त प्रयोग प्रष्ट है, क्योंकि घट में किसी अंश से मारा का प्रतियोगिता और किसी अंश से नाश का प्राधारस्व मे दोनों समय है, क्योंकि एक वस्तु में उत्पाद और नाश का एक काल में विशेष भो 'अपेक्षाभेव से' इस तृतीयागमित अर्थ के वोधक 'स्थात्' पद के योग से मिल जाता है। इसप्रकार निक्षेपल के वेतन विद्वानों को कहीं किसी भी प्रयोग या व्यवहारावि की व्यवस्था में क्षति नहीं हो सकती। [ नामादिनिक्षेप चतुष्टय से सुव्यवस्था ] जैसा कि वाचक मुख्य भाषामे उमास्वाति के तत्त्वार्थ सूत्र प्रथम चध्याय के सूत्र में कहा गया है कि वस्तु का पण नामस्थापना तथ्य और भाव हम चार निक्षेपों से होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि नाम निक्षेप दृष्टि से 'घट' यह शब्द भी घट हो है। क्योंकि कहा गया है कि अर्थ-श्रमि बान और प्रत्यय (बुद्धि) ये तीनों समान होते हैं। यह कथन निपष्टि पर ही आधारित है। इसके अतिरिक्त यह भी शातय है कि राय को अपमान कर शव और अर्थ में भव मनने पर प्रतिनियक्ति यानी शब्दविशेष में अविशेष को बोषक की भी उपपत्ति नहीं हो सकती । जिस प्रकार घटादि नाम घटादि अर्थस्वरूप होता है उसी प्रकार स्थापना निक्षेप की रटि से घटादि अर्थ का आकार चित्र भी घटस्वरूप ही होता है क्योंकि अर्थ और आकार बोलों मध्यपरि म हैं। यदि स्थापना और अर्थ में अमेब न माना जायगा तो दोनों में सहपरिणामरूपता नहीं हो सकी। इस पर यदि यह शंका की जाय कि -"अर्थ और स्थापना में ऐक्य है तो स्थापना को हो कहना उचित हो सकता है उसको उसको प्रतिकृति कहना उचित नहीं हो सकतातो यह ठीक नहीं है क्योंकि अर्थ अर्थादानमात्र सापेदा होने से केवल मुख्यार्थमात्र ही होता है। और स्थापना सुखार्थमात्र न होकर कुछ अधिक भी होती है, अर्थात् अर्थपादान निरपेक्ष होने से अथवा अतिरिक्त उपादान सावेक्ष होने से अर्थ से भिन्न भी होती है । मत एम उसे केवल प्रथम कह कर अर्थ को प्रतिकृति कहा जाता है। इसी प्रकार प्रथमनिष्टि से मृत्पिादित्य यानो मान की पूर्वावस्था भी पह हो है, क्योंकि यदि उन दोनों में कश्विद् प्रमेव न होगा तो उनमें पायाम उपादेय भाव न हो सकेगा, क्योंकि उस स्थिति में घट के अन्य कारणों में मुहिम में कोई विशेष न होने से 'वही घट का उपादान है और अन्य कारण केवल निमिल है' यह अथधारण वृघंट होगा । जैसे उक्त निक्षेपों के अनुसार नाम-स्थापना और तथ्य घर है उसी प्रकार भावनिक्षेपको दृष्टि घटपयोग या घटाकार ज्ञान तथा घटनक्रिया प्रथम जलाहरणक्षम घट ही मुख्य घट है, क्योंकि यही दुस्याएं घट को अर्थक्रिया का जनक है, क्योंकि घराकारमान तथा ज्ञाहरणविश्रनुकूल घरा Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यायन रोका एवं हिन्दी विवेचन ] १०१ बस्या होने के बाद ही जलाहरग क्रिया होती है। निक्षपों के सम्बन्ध में विस्तृत बिमार विघोषाधयकभाग्य आदि प्रयों में राष्टध्य है। अत्रेदं विधार्यते-ननु नामादीना सर्षवस्तुभ्यापित्वं न वा ? आधे व्यभिचारः, अनमिलाप्यमावेषु नामनिक्षेपायचे, दृष्यजीव-जन्यद्रन्यायसिद्धयाऽभिलाष्यभावन्यापिताथा अपि वक्तुमशक्यत्वाच । अन्त्ये ""जस्थ वि य ए याणिज्जा, चउकय निपिसवे तत्व" इति बन्न विरोधः, अत्र यचस्पदयोाप्त्यभिप्रायेणोक्तेरिति चेत् । ___ अन वदन्ति-तत्तद्वयभिचारस्थानान्यत्वविशेषणात् न दोषः, संभवत्र्याप्त्यभिप्रायेणय 'यत्र तत्र' इत्युक्तेः । तदिदमुक्तं नश्यार्थदीकाकृता "यचौकस्मिन् न संभवति नैतावता भवत्यध्यापिता" इति । अपरे वा केलिप्रज्ञारूपमेष नामानभिलाप्यभावेष्यस्ति, ट्रव्यजीवथ मनुष्यादिरेश, भाविदेवादिजीवपर्याय हेतुन्यात् । द्रव्यदृश्यमपि मृदादिरेष, आदिष्टद्रव्यखाना घटादिपर्यायाण हेतुत्वाव" इति । एतच मतं नातिरमणीयम , व्याथिकेन शब्दपुद्गलरूपस्यैष नाम्नोऽभ्युपगमात , मनुष्यादीना ट्रन्यजीयत्त्वं च सिद्धस्यैध भावजीयत्वप्रसगाव , आदिधद्रव्यहेतुइव्यद्रव्योपगमे भाषद्रव्योच्छेदप्रसङ्गाश्चेति । "गुण-पर्यायवियुक्तः प्रज्ञास्थापितो द्रव्यजीया" इस्यन्येपा मतस्तदपि न सूचमम् , सतां गुण-पर्यायाणा पुद्धयाऽपनयनस्य कन मशक्यत्वात् । न हि यादृच्छिकझानाऽयताऽर्थपरिणतिरस्ति । "जीवशब्दार्थझस्तग्रानुपयुफ्तः, जीवशब्दार्थशस्य शरीरं पा जीवरहितं द्रव्यजीत्र इनि नाऽव्यापिता नामादीनाम्' इत्यपि यदन्ति । नामादिनिक्षेप की सर्ववस्सुव्यापकता के ऊपर आक्षेप-समाधान ] निपावि के सम्बन्ध में यह विचार किया जाता है. कोई आक्षेप करते हैं-वामाथि निक्षेप समस्त वस्तु के व्यापक हैं अथवा नहीं। प्रथयपक्ष में व्यभिचार है क्योंकि जो भाव अनमिलाप होत है उनका माममिःक्षेप नहीं हो सकता । इसी प्रकार नामादि मियों को मिलाप्य समस्त बस्तुओं का मो ध्यापक नहीं कहा जा सकता क्योंकि जीप और द्रव्य में परिक्षण प्रसिद्ध है, क्योंकि ब्रम्पजीव-जीव का कारणण्य एवं प्रध्यप्रणय पानी द्रव्य का कारण द्रश्य असिन शोने से जीव और द्रव्य में यात क्षेप की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। 'नामादिनि अप समस्त वस्तु के व्यापक नहीं है- यह वित्तीय पक्ष मी मान्य नहीं हो सकता क्योंकि-अप विय ग' इस अनुयोगद्वार सूत्र का विरोध होता है। सूत्र में यह स्पष्ट कहा गया है कि-जिस वस्तु में उक्त पार निक्षों से प्रतरिक्त निक्षेप का शान न हो उस वस्तु में कम से कम उक्त चारों निःक्षेपों का प्रवर्तन कर उसका निरूपण करना चाहिये । इस प्रकार सूत्र में यह और सत् एव के उल्लेख रो नामादिनिःक्षेप की वस्तु व्यापकता में पत्रकार के अभिप्राय का असंविध बोध होता है। १.पाच च न जानीपान चतुष्क निक्षिपेत् तत्र । बत्थ दिलेसं जागइ । वि. आ. भा. २६१८ ] अस्थ य जं जागेज्जा [ अनुयोगद्वार १५ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १०२ [शास्त्रात हो. १७ इस आक्षेप के संदर्भ में व्यायाकार का प्रत्युत्तर यह है कि नामादि की सर्ववस्तुष्यापकता का पक्ष स्वीकारने में कोई दोष नहीं है क्योंकि जिन प्रमिलाप्यथायों में तथा कोष और तम्य में मामादिनिःक्षेप की व्यारित में व्यभिचार दृष्ट होता हो व्याप्यक्षि में सन्नित्व का निवेश करने से सर्ववस्तु में नामादिमिक्षप की ग्याप्ति सम्भव हो सकती है। और इस प्रकार उक्तरोति से ज्याप्तिसम्भव के अभिप्राय से ही उस पुत्र में 'यत्र तत्र'पदों के संनिया में कोई प्रसङ्गति नहीं हो सकती। यहो पात तस्वार्थ सूत्र के टीकाकार श्री सिद्धसेनगगि ने इस प्रकार कही है कि-'यदि किसी एक प्रस्तु में नामाविनिःोपों में कोई निःक्षेप नहीं घट सकता. तो केवल इतने मात्र से वस्तु मात्र में सामारिनिःक्षेपों को व्याप्ति का अभाष नहीं हो सकता। इस कथन से यह संकेत स्पष्ट रूप से प्राप्त होता है कि जिस वस्तु में नामाबिनिःक्षेप सम्भव नहीं है-श्याप्यक्षि में उस वस्तु के भेद का निषा करके वस्तु में नामाधिनिःक्षेप की व्याप्ति का समर्थन किया जा सकता है। [केव लिमज्ञारूप नामनिक्षेपवाला मत अरमणीय ] अन्य जन विद्वानों का समाप के समाधान मह महना है मिलायभायों में भी सामान्यरूप से नामनिःक्षेप का अभाव नहीं है क्योंकि केवली को उन भावों की भी प्रता होती है। अतः 'केबलीप्रशा' से मिप्य होने के कारण निरूपकात्यल्प से नाम का साम्य होने से केवलोप्रक्षा हो उमका नाम, एवं उस नामनिःक्षेप की प्रबत्ति उनमें भी होती है। अतः केवलिप्रमाविषया' स नाम की प्रवृत्ति उनमें भी होती ही है। ऐसा होने पर भी उन्हें अलभिला-ब इसलिये कहा जाता है कि अग्यवस्तुओं के समान उनका किसी लोकिक नाम से भभिलाय नहीं होता। इस प्रकार स्यजीस भी मतिय नहीं है, क्योंकि मावो ख्याविरूप औवपर्यायों का होने से मनुष्याविही यकीन हैं। सो प्रकार म्यनग्य भी प्रसिद्ध नहीं है क्योंकि घटादिपर्यायरुप औपचारिक घों का न होने से मासकाविही प्रपन्य है । इसप्रकार व्याप्यक्षि में अमभिलाप्य भाव, जीव लथा द्रष्य के मेद का निवेश न करने पर भी सर्ववस्तु में नामाविनिःक्षेपमनुष्य की व्याप्ति हो सकती है।" किन्तु ग्यास्याकार के अनुसार यह मत रमणीय नहीं है क्योंकि व्याथिक नम की राष्ट से शवपुदगल होमाम है । अतः केवली प्रज्ञा को नाम कहकर अनभिलाप्य भावों में नामनिक्षेपको सम्भव प्रताना उचित नहीं है। इसीप्रकार मनुष्याधि को थ्यमोश्च और मत्तिकादि को दस्यतरप कहना भी उचित नहीं है क्योंकि मनुष्यआधि को ध्यजीव कहने पर बल सिद्ध हो मायजोय हो सकगे, क्योंकि एकमात्र से ही किसी उत्तरजीवपर्याय के हेतु नहीं होते । एवं मबादि को, औपचारिक प्रथ्य का तु - सोने से ध्यरूप मानने पर भावाव्य का उच्छेब हो जायगा, गोंकि कोई औपचारिक सूक्ष्म (नी) ऐसा नहीं है को प्रौपचारिक द्रव्यातर का हेनु न होता हो । [शुद्धजीवद्रव्य द्रव्यजीर है-यह मत भी स्कूल हैं। अन्य विद्वानों का मत है कि प्रज्ञा से कल्पित, गुण पर्यायों से शून्य शुश जीव ही रयजीव है। उनका प्रामाम यह है कि जीम में गुण मोर पर्याय तो संलग्न ही है किन्तु प्रशा से गुरणपर्यायों को अलग रख कर जीव की ऐसी एक शुद्ध अवस्या प्रशा से देखो आए कि जो गुण पर्याय से शून्य है. और यही गुणपर्यापयुक्त जोब का हेतु है । अत: जीव की वही अवस्था द्रष्यजीव है। किन्तु स्मात्याकार के अनु. सार यह कायम भी युक्तिसङ्गात नहीं है क्योंकि जोष के साथ गुणपर्यायों का लम्बरच अनादि है। अत: Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मा.कोका एवं हिन्दी विवेचन] मपि द्वारा उनके गुणपर्यायशुन्य अवस्था की कल्पनाही अशक्य है। क्योंकि किसी भी अर्चको कोई भी परिणति किसी के यायिक यानी आहार्यशान के अनुसार नहीं होती। [द्रव्यजीर की कल्पना अयुक्त ] कुछ लोगों का यह भी कहना है कि-'वर्तमान में जीवशक्षा के कान में अपरिणतजीव उसरकाल में जीवशम्मामशान में परिणत होने वाले जोव का कारण होने से द्रव्यजीव है । अथवा जीवशवबामाता का जीवरहित अर्थात जीवशनार्थमान में परिणत प्रात्मा से रहिस शरीर भाषिकाल में जीव शम्वार्थवान में परिणत होने वाले आरमारूप भापका कारण होने से ब्रम्पजीव है । अतः सध्यजीव की प्रसिमि बताकर अभिलाप्प समस्तवस्तुओं में नामाविनिक्षेप के चतुष्टय को पारित का अभाव बताना उचित नहीं है।"-किम्मु यह भी ठीक नहीं है पोंकि लीबाबाजान में परिणत पारमा ही जीव नहीं होता किन्तु सामान्यतः नाममात्र परिणत आत्माजीक होता है और आपका किसी न किसी काम में परिणत होला सर्वकालिक है अत: उत्तरीति से वरुपजीव को कल्पमा प्रयुक्त है। भाष च पगिर्भिकाल माननिय मामिला मार्मिकस्य तु चत्वारोऽपीति । यदाह भगवान् जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणः [वि. आ.भा. २८४७] 'भाचं चिप सहणया सेसा इच्छति सम्वणिक्रयेवे" इति । अत एव घरणगुणस्थितस्य साघोः सोनमविशुद्धत्वे सर्वनयाना भाषाहित्य हेतुतयोझावितम् । अत एव नैगम-संधा-व्यवहार-जुत्राणामपि चत्यागे निक्षेपाः, तेषा द्रव्यार्थिकमेदत्वात् । शब्द-समभिरूटे-भूतानां तु भावनिक्षेप एघ, पीयार्थिक भेदत्यादेषाम् । [ द्रव्यार्थिक-पर्यापार्थिक के अभिमत निक्षेप ] उक्त निःक्षेपों में पर्यायायिक मय को केवल मावनिःपकी माम्य है किन्तु ग्याषिक को चारों निक्षप मान्य है जैसा कि जिनभावण अमाश्रमण मे [विशेषा २-४७ में कहा है कि गाम्य नयों को केवल भावनिक्षेप ही इष्ट है और अन्य नयों को सभी निक्षेप हुएट हैं। इसीलिये चारित्रगुण में प्रचाचित साधु में सर्वनविशुद्धता को सिद्धि में सर्वनों के भाववाहिरव का हेतुरुप से उद्धापन किया गया है। पर्यायाधिको भावनिक्षेप और प्रग्याधिक को नामादि चारों निक्षेप अभिमत होने से ही नंगम संग्रह-यवहार और ऋजुसूत्र को भी चारों निक्षेप अभिमत होते हैं क्योंकि ये रारों ध्याथिक श्रेणि के मय हैं एवं पर्यायाधिक श्रणि केनय होने से शरद समिक और एवं सूत को भावनिक्षेप ही अभिमत होता है। "संग्रहः स्थापना नेच्छति' इत्येके, संग्रहप्रयोनानेन नामनिश्शेष पत्र स्थापनाया उप. संग्रहात । न बणाम आत्रकाहिय हाज्जा, ठाणा इत्तरिया पा होज्जा, आक्काहा पा होजा" इति सूत्र एव तयोनिशेषाभिधानाव कथमकरूपम् इत्याशनीयम् , पाचक-याचकादिनाम्नामध्ययावत्कयिकत्यात नदध्यापकत्वात् स्चूलभेदमात्रकथनात् । पदप्रतिकृतिभ्यां १. भावमेव पन्दनया; पोत इच्छन्ति मनियात् । २. नाम यावस्कथितं भवेत् . स्थापनेवरी वा मवेत यावधिका वा भवेत् । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रबार्ता० स०७ लो०१७ नामस्थापनयोर्मेद' इति पेन् । कथं तहि गोपालदारके नामेन्द्रत्वम् ? । अथ 'नामेन्द्रत्वं द्विविधम-इन्द्र' इति पदत्वमेक्रम , अपरं चेन्द्रपदसंकेतविषयत्यम् । आधं नाम्नि, द्वितीयं च पदार्थ इति न दोप इति' घेत ! हि व्यक्त्याकृतिजातीना पदाधल्वेनेन्द्रस्थापनाया अपीन्द्रपदसंकेतविषयत्वात् कथं न गोपालदारफया नामेन्द्रन्यम् ।। 'नामभावनिक्षेपसांकर्यपरिहारावेन्द्रपदसंकेतविशेषविपयत्यमेव नामेन्द्रत्वं निरूल्यत' इति चेत ? हन्त सहि सोऽयं विशेपो नाम-स्थापनासाधारण एवं संगृह्यतामित्येतनिष्कर्षः । [मंहनय में, नामनिक्षेप में स्थापना का अन्तर्भाव-पूर्व पक्ष ] कतिपय विद्वानों का मत है फि-स्थापनानिःक्षेप संग्रहनस को प्रभीष्ट नहीं है । बयोंकि वह मय संग्रहण-संओपोकरण में, कुशल होता है। अत एव उसके अनुसार स्थापना मिःक्षेप नामनिःक्षच में ही संग्रहीत हो जाता है। यषि महांका की जाय कि-"श्री अनुयोगहार शून में कहा गया है किनामनिःक्षेप वायत्कथिक होता है-मर्थात यायववस्तुमासी होता है, और स्थापना स्वरी-अस्थिर प्रयावद्धस्तुभाषी तथा यावत्कषिक-यावधस्तुभाची. ऐसे दो प्रकार की होती है। इस प्रकार अनुयोगबार पत्र में माम और स्थापना निःक्षेप में भेव का प्रतिपावन होने से पोनों में एकरूपता कैसे हो सकती।" को पह गंभ! मि नहीं है, लोडि ग के याबस्तुभाची नहीं होता, जैसे पाचक, याचक आदि नाम पाचक याचक पुरषों के अस्तित्व तक उन में प्रयुक्त नहीं होते प्रपितु पाचन-याचन मा क्रियाओं के अस्लिरव तक ही प्रयुक्त होते हैं। अतः मामनिःक्षेप में वस्तु को कालिकध्यापकता नहीं है। अत: नामनि:शाप में मी यात्राकथिकस्वरूप से स्थापनामिक्षेप का साम्प होने से अनुयोगहार का तात्पर्य हम दोनों के पलभेदमात्र के प्रतिपादन में ही मान्य हो सकता है । अत एवं सूक्ष्मदष्टि से स्थापना निक्षेप का नामनिक्षप में अन्तर्भाव बताना असङ्गत नहीं है। [ नाम निक्षेप की व्याख्या से स्थापना का किसी तरह बधिर्भार नहीं है ] यदि यह कहा जाय-'पाप और प्रतिकृतिश्प होने से नाम और स्थापना में भेद र पष्ट है अतः स्थापना को नाम में अन्तर्भूत करना उचित नहीं हो सकता'-किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि नाम को पवारमक बताकर स्थापना से उसका पार्थक्य बताना युक्तिसङ्गल नहीं है क्योंकि काम पषि पवात्मक होगा तो प्रामकरण के प्राधार पर गोपालवालक नामेन्द्र कैसे हो सकेगा? क्योंकि वह इन्द्रनाम का वाच्य है न कि अन्नपवस्वरूप है। यदि इसके उत्तर में यह कहा जाय कि 'नामेन्द्र के हो प्रकार हैं एक 'x' पदस्प और दूसरा पसंकेतविषयप। इनमें पहला नामेन्द्र नामस्वरूप होता है और द्वितीय पवार्यस्थप होता है। प्रतः गोपालशलक द्वितीय नामेन्द्ररूप होने में कोई बाखा न होने से उक्त दोष नहीं हो सकता"-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि व्यक्ति (प्रय । आकृति -साकार (स्थापना) और जाति ये तीनों, पब के अर्थ (चाफम) होने से इन्द्र स्थापना भी इन्द्रपन के संकेत का विषय होगी। अत एव गोपालपालक के समान की स्थापना में भी नामेन्द्रत्व को आपत्ति होगी। इसके प्रतिकार में यदि यह कहा जाय कि-'सामान्मतः इन्पवसंकेस विषय को नामेन्द्र नहीं कहा जा सकता क्यों क ऐसा कहने पर भावेन में इन्परसंकेतविषयव होने से नार्मान.क्षेप पौर भावनि:क्षप का सोकर्य हो जायगा। अतः भायान्य में इनपद संकेतविशेष के विषय को ही Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा० ० टीका एवं हिन्दी विवेधन ] नामे मानना उचित है। क्योंकि संकेत विशेष से भाषाविषयक संदेश को प्रण करने से भावनिःक्षेप में नाकर्य का परिहार भी हो सकता है। और इस संकेतविशेष को स्थापनावृत्त मानने से स्थापना का मनिःक्षेप में अन्तर्भाव भी नहीं हो सकता" - किन्तु यह भी ठीक नहीं है क्योंकि संग्रह जब वस्तु writer करता है तो उसको दृष्टि से नामेन्द्र के उक्त निर्वाचन में नामस्थापना उभयसाधारण harशेष का ग्रहण कर स्थापना हो तामनिःक्षेय में संगृहीत कर देना ही उचित है। · अत्र वदन्ति अनुपपयमेतद् मतम्, उपचाररूपसंकेत विशेष ग्रहे द्रव्यनिःक्षेपस्याप्यन विरेकप्रसङ्गात् यदच्छिकविशेषोपग्रहस्य चामामाणिकत्वात् पित्रादिकृतसंकेतविषयस्य प्रहणाद् नाम-स्थापनयोरैक्यायोगात् । एवं च बहुपु नामादिषु प्रतिस्विकरूपाभिसंधिरेव संग्रह - व्यापार इति प्रतिपत्तव्यम् । यच्छयैव संप्रइव्यापारोपगमे तु नाम्नोऽपि भावकारणतया कुतो न द्रव्यान्तर्भाव इति वाच्यम् १ 'द्रम्मं परिणामिया आवसंषद्धम्, नाम तु वाच्यवाचकमा केनेत्यस्ति विशेष' इति येत् ? तहिं स्थापनाया अपि तुन्यपरिणामतया भावसंबद्धस्यात् किं न नाम्नो विशेषः उपधेयसकर्येऽप्युपाध्यांर्यात् विभाजकान्तरोप स्थित निःशेषान्तरस्येष्टत्वात् " जत्थ जं जाणिज्जा लिक्खेवं णिक्खिवे शिरवसेसं " इति [ अनुयोगद्वार यू. ७ ] सूत्रप्रामाण्यादिति पर्यालोचनीयम् । } १०५ " [ नाम का स्थापना में अन्तभाव अनुचित उत्तरपक्ष ] इस पक्ष के प्रतिवाद में व्यापाकार मे मध्य विद्वानों के प्रतिवावरूप में यह कहा है कि उक्त मत असङ्गत है क्योंकि यदि नाम निःक्षेप की उक्त परिभाषा में नाम स्थापना उभयसाधारण संकेतविशेष का उपादान कर स्थापना का नाम में अन्तर्भाषि किया जायगा तो उस परिभाषा में उपचाररूप संकेत विशेष का ग्रहण कर द्रव्यनिक्षेप का भी नामनिःक्षेप में प्रन्तर्भाव प्रसक्त हो सकता है। क्योंकि में भी नाम का औपचारिक स्वेालक संकेत सम्भव है। [ पिता आदि का किया हुआ नाम ही नामनिःशेष है ] इसके अतिरिes दूसरी बात यह है कि मामभिःक्षेप को उक्त परिभाषा में नुसार किसी संकेत विशेष को ग्रहण करने में कोई प्रमाण न होने से पिता गुरु भनि द्वारा किये हुये संकेत के विषय कोही नामनिःक्षेपरूप में ग्रहण करना उचित है। अतः नाम और स्थापना में वय असङ्गत है । अतः विभिन्न नामों का तताभावि में अनुगत प्रतिस्विक एक रूप में अभिप्रायर्णन को ही संग्रह नय का कार्य मानना उचित है। जेसे जीव- अधीकादि तयोधक नामों का प्रत्येक सामार्थ में अनुगतशरदय में सापवर्णन करने से जोब अनोवावि तत्वों का सद् रूप से ऐक्य स्वीकृत होता है। यदि अपनी स्वतंत्र इछानुसार संग्रह का कार्य माना जायगा तो नामानुसन्धानपूर्वक ही वस्तु की रचना होने से नाम भी भाव का कारण होने से नाम निःक्षेप का भी निशेष में अन्तर्मान क्यों न हो सकेगा ? क्योंकि भाप के कारण को कहा जाता है। * यत्र च यज्जानीयात् निक्षेपं निक्षिपेत् निरवशेषम् [ अनुमोगद्वार सूत्र ७ - पूर्वार्द्धम् ] Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ [स्त० ७ ० १७ [ भाव के साथ नाम और स्थापना का सम्बन्ध भिन्न भिन्न है ] इसके उत्तर में यमिह कहा जाय कि “परिणामी होने से जो भाव होता है अर्थात् जो भा का परिणामी कारण होता है यहाँ द्रव्य होता है किन्तु नाम को भावसंबद्ध होता है वह परिणामी होने से नहीं होता अपितु वाच्यवाचक साथ द्वारा भायसम्बद्ध होता है। अतः इस लय के का निक्षेप में नाम निःक्षय का अन्तर्भाव नहीं हो सकता तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इस से fare करने पर स्थापना को भी नाम से पृथक मानना ही उचित होगा क्योंकि वह भी तुल्यपरि नामरूप से भाव मानी स्थानीय अर्थ से सम्बद्ध होती है । विन्तु नायवत् याच्या वाचकभाव द्वारा सम्पद नहीं होती है क्योंकि नाम और नाम संकेत विशेष विषय अन्य स्वरूप उपाधि से नाम और स्थापना उपयों में ऐक्म होने पर भी वाक्य याक भाव द्वारा भाषसम्बद्धष और तुल्यपरिणामरूप से भायसम्बद्ध रूप नाम स्थापना की उपाधियों में ऐक्य नहीं है । अतः उपाधि के भेव से उपधयों में भेव अपरिहार्य है। जैसे स्थापना में नामगत निविभजनमें से भिन्न निक्षरविनत्जक धर्म द्वारा स्थापनाको नाम निक्षेप से भिन्न निक्षेम माना जाता है, उसीप्रकार उक्त चार निःक्षेषों में विद्यमान निक्षेपविभाजक धर्मो से अतिरिक्त यदि कोई निक्षेपविभाजक धर्म उपस्थित हो तो उन चारों से भिन्न निक्षेप भो मान्य है। जैसा कि 'जरथ या अनुयोगद्वारसूत्र से प्रमाण सिद्ध है। यह सूत्र स्पष्टरूप से इस तथ्य का प्रतिपादन करता है कि जिस बन्तु में जा जो निक्षेप ज्ञात हो उन सभी से उसका निरूपण करना चाहिये। इस प्रकार सूत्र में शिक्षण के लिये सामान्यरूप से 'य' पर और निरवशेष का प्रयोग होने से नामावि निक्षेप की सत्ता में वियोगों से स्यादेतत् सूत्रकार का तात्पर्य व्यरूप से प्रतीत होता है । प्रदेशी नगमात् पञ्चान स्वीकारत यात्रापि चतुः निक्षेपस्त्रीतु स्वतस्वीरे संग्रहस्य विशेष युक्त इति । मैचम्, देशप्रदेशयत् स्थापनाया उपविभागाभावेन संग्रहाविशेषण, अन्यथा यथाक्रमतिशुद्रा एवंभूतस्य निःक्षेपशून्य I प्रसन्नादिति न किञ्चिदेतत् । एतेन व्यवहारोऽपि स्थापना नेच्छति' इति केचित् भ निरस्तम, नीन्द्रप्रतिमा नेन्द्रद्वारा भत्रति न वा भवषिभ्रान्त एव न चा नाम:दिप्रतिपक्षय्यमगिरि इत्यर्धजरतीयमेतद्यद्भुत-लोक पर हारानुरोधिम् स्थापना गन्तृत्वं चेति । 1 [ प्रदेश निक्षेत्र के स्वीकार से संत्र की विशेषतायुक्त ] वि यह कहा जय कि जैसे गमनय जीव-धर्म- यमं आकाश पुन और उनके बेश इन ग्रह का प्रवेश स्वीकार करता है किन्तु सप्रहृमय उनके देशों को छोड़कर उन पांचों का ही प्रदेश स्वीकार करता है- प्रकार प्रदेश के सम्बन्ध में नगम से संग्रह का क्षय होता है, उसी प्रकार निव के सम्बन्ध मे भी नंगम और संग्रह में इस प्रकार का क्षय मानना उचित है कि जंगम की दृष्टि में नाम स्थापना भवि चारों निशेष है और संग्रह की दृष्टि में स्थापना का नाम में अन्तर्भाव हो जाने से नाम, प्रष्य और भाव में तीन हो निःशेप तो यह कथन क नहीं है क्योंकि देश और प्रदेश में औपचारिक भेव होता है। अतः देश की प्रदेश से पृ गणना में करके जीवादि पाँच को Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा००टीका एवं हिन्वी विवेचन ] ही प्रवेधावान् बसाना सहपा के लिये उपयुक्त हो सकता है। किन्तु लाम और स्थापना में औपः। रिक मेव न होकर वास्तविक भेद होता है। अत: FATTATRI नाम में अत्तविकाके तीन-कीनिःोप बसाना उचित नहीं हो सकता । इस प्रकार प्रवेश के सम्बन्ध में और निक्षेप के सम्मान में संग्रहमय में समान बलक्षम्य आवश्यक है। पौद ऐसा न माना जापगा तो कम से मिशेषों की विशुदि होने से एवाभूतनय निशेष गुण्य हो जापया, मर्याद जैसे संग्रहमय से स्थापना का नाम में अन्तर्भाव हो गया । उसी प्रकार उत्करोति से नाम भावमा कारण होने से नाम का प्रष्य में अन्तर्भाव हो जापगा। इस प्रकार द्वस्याधिक नम कोटि में द्रव्य और भाव वो ही शेव रहे। पौर ऋणसूत्रादि पर्यापाधि नयों से द्रव्यानिकीप का त्याग होने से भावनिक्षेप हो बस जाता है। इस प्रकार सरोतर नयों को संकोच कारक मानमे पर एवम्भूतमय में भावनि छोप का भी परिश्यागत हो सकता है । अतः प्रदेश के समय में मंगम से संग्रह के लक्षण्मा को मान्स बनाकर निकोप के सम्बन्ध में भी नैगम से संग्रह के लक्षण्य की कल्पना नियुकिक होसे से किश्वस्कर है। इस संदर्भ में कुछ विद्वान मह मा व्यक्त करते हैं कि "व्यवहारनय की दृष्टि में भी स्थापना मिशेष का नामनि:शेप से पृषक अस्तित्व नहीं है" किन्तुं यह मत भी निरस्तप्राय है क्योंकि ऐसा नहीं है कि इग्न की प्रतिमा में इन्द्रपद का व्यवहार न होता हो। अथवा वह व्यवहार होता हुमा भी भ्रममूलक हो, किंवा प्रतिमा में पत्रव्यवहार के विरोधी मामेवादि व्यवहार का सोकर्य हो । इसलिये स्थापना में लौकिक इन्व्यवहार को मानमा मोर स्थापनेश्वश्व का स्वोकार न करना अर्थभारतीय जैसा हो जाता है। 'जुत्रो द्रव्यमपि नापति, अत एवाधास्त्रयो नया द्रष्याथिकभेदाः, अग्रिमाध सत्तारः पर्यायाथिक मेदाः' इति वादी सिद्धसेनः । अस्मिमभ्युपगमे उन्जुसुअस्स एगे अणुवउसे एर्ग दवावस्मयं पृचं णेच्छह" इति [अनुयोगद्वार स.१४] विरोधः स्यादिति सिखानवृशाः । 'अतीतानागतपरकीय भेदपृथक्त्वपरित्यागाद जुसूत्रेण स्वकार्यसाधकल्वेन स्वकीयवर्तमानवस्तुन एबोपगमाद् नास्य तुल्यांशध्रुवांशलक्षणद्रव्याभ्युपगमः । अत एव नास्याऽसम्धटितन-माविपर्यायकारणतस्पद्न्यन्नाभ्युपगमोऽपि, उक्तसूत्रं स्वनुपयोगाशमादाय बतंपानापश्यकपर्याय दूग्धपदोपचारात समाधयम् , पर्यायार्थिफेन मुख्यद्रष्यपदार्थस्यैव प्रतिक्षेपात् । अवैषधर्मापाराशद्रव्यमपि नास्प विषयः, शध्दनयेनतिप्रसङ्गात्' इति केचन सिइसेनमतानुसारिणः । 'नैतत् कमनीयम् , नामादिवदनुपचरितद्रव्यनिःक्षेपदर्शनपरत्वादुक्यवस्य । न देवम् , शब्दादिध्यपि कश्चिदुपचाप द्रव्यनिःक्षेपप्रसङ्गात् । पृयपत्वनिषेधेऽपृथक्रयेन द्रव्यविधेररावश्यकत्वात, एकविशेषनिषेधस्थ तदितर विशेष विधिपर्यवसायित्वाव' इत्यादिस्तु जिनभद्रमुखारबिन्दमिर्गवचनमकरन्दसंदर्मोपजीविना बनिः । [ऋजुत्रनय में द्रव्य का अस्वीकार-सिद्धसेनमरिमत ] पादी सिद्धसेनसरि का कहना है कि जनभनय प्रस्य का भी अपुपगम नहीं करता । इसी* ऋजुत्रस्यकोऽनुपयुक्त एक द्रध्यावश्यक पृथक्य नेच्छप्ति । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सावा स्त० ७ श्लो० १७ लिये केवल नेगम संग्रह-व्यवहार ये सीन ही प्रत्यधिक नम हैं, क्योंकि इन्हीं तीन को द्रव्य माध्य है। अमिन शब्य समभिह तथा एवम्भूत पर्याय तय है क्योंकि उन्हें मु से पर्याय ही मान्य है । १०८ व्याख्याकार का कहना है कि- घुस अभ्यगम में अनुयोगद्वार' आपम के 'उज्जुमुअस्स एगे अणुवते गं बावस्तयं, हुतं छ' इस सूत्र का विरोध होता है क्योंकि इस सूत्र में यह बताया गया है कि सभी समतिमनस्क सामायिकाहि प्रावश्यक ऋजुसूत्र को दृष्टि में एक यर पक रूप हैं उसे उन में नानाश्व अभिमत नहीं है। अतः सिद्धान्त के विशेषज्ञद्वानों को बावी सिद्ध सेन का उक्त कथन रचिकर नहीं है। किन्तु सिद्धसेन के कलिम अनुयायी विद्वानों यह कह कर सिद्ध सेनसूरि को उक्ति का समर्थन करते हैं कि ऋजुसूत्र प्रतीत अनागत. परकीयमेव और पृथवश्व का परित्याग कर वर्तमान वस्तु का ही अभ्पुरगम करता है, क्योंकि यही अपने कार्य को सायक होती है। जब उसे उसमें सुयश और अशा का अभ्युपगम ही नहीं, तब सभय लक्षण द्रव्य का भी अम्युपगम नहीं रहा अर्थात् वह ऋजुसून मध्य के 'तुल्या' यानी सहमापरिणामस्वरूप कि सामान्य को और पूर्वापर भग्वापस्थास कोश- कुगुरु-पिण्ड - कपाल-घटादि बिसा परिणामों में 'श' यानी अनुगामी व्यरूप उता सामान्य को नहीं स्वीकार करता। इसी लिए "नूत भाविप कारकत्वं द्रव्यत्वभू इस प्रस्थ के लक्षण में घटक भूत-भाव-पर्याय व वर्तमान में है हो नहीं सत् है, बलि 'मूलादिपर्याय (अर्थात् मृताऽभवतरूपविनाश पर्याय और अनूभवनरूप उत्पादात्मक पर्याय) के कारस्वरूप प्रयत्व' का भी अभ्युपगम नहीं हो सकता। तात्पर्य यह है कि उसकी दृष्टि में जैसे तु और क्षरण स्थायितथ्य का अस्तित्व नहीं है, उसी प्रकार उत्पादविनाशाली अधिकद्रव्य का भी अवगम नहीं है। किन्तु उसकी दृष्टि में पर्यायों का हो उत्पादिनाश अभिमत है। इस मत के सारं अपतनक अन्यमनस्क सामायिकादि आवश्यक में ऋसूत्र को दृष्टि से एक प्रयावश्य रूपता के प्रतिपश्वक उक्त सूत्र में अनुपयोग अंशरूप द्रव्यसाय को लेकर वत्तमान आवश्यक पर्याय में aurus का wife प्रयोग है। अत: 'ऋजुसूत्र की दृष्टि में दध्य का अभ्युपगम नहीं हैं इस कथन में उक्त सूत्र का विशेष नहीं है क्योंकि पर्याधिक तय को मुख्य ध्यपदार्थ ही अस्वीकार्य है, avarfretou का अभ्युपगम तो वह भी करता है यतः पर्यायार्थिक ऋजुसूत्र नय में प्रत्यवार्थ के अभ्युपगम से सिद्धान्त का विरोध नहीं हो सकता । अमों के आधारभूत रूप को ऋजुसूत्र का विषय मानकर सन में थ्य के अभ्युपगम के सात्पर्य में उक्तसूत्र को सार्थकता का उपपादन नहीं माना जा सकता क्योंकि ऐसा मानने पर अन्य शब्दों में भी कथित प्रकार के द्रव्य को विषय मान कर व्रम्य । म्युपगम का प्रतिप्रसङ्ग हो सकता है। [[सिद्धमित रमणीय नहीं है- क्षमाश्रमणमतानुयायिय ] जिनवरिंग क्षमाश्रमसा के सुप्णारविन्द से निकले चनो मकरन्द पर निर्भर रहनेवाले विद्वानों के मतानुसार, नामावि के समान अनुपचरित वयनिःक्षेप को सूत्र का विषय बताने में ही फक्त सूत्र का तात्पर्य होने के कारण सिद्धसेनमतानुयायियों का उक्त कथन समीकीन नहीं है। क्योंकि परि अनुपश्चरित वयनिःक्षेप को ऋसूत्र का विषय बताने में उक्त सूत्र का तात्पर्य न माना जायगा Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मा टीका एवं हिन्वी विधान १०६ तो शग्वादिनयों के विषय में भी कारणत्वाविरूप नव्यसायम को लेकर गुरुवपक्ष का औपचारिक प्रयोग सम्भव होने से उम नयों में भी डायनिक्षेप के अम्युपगम का प्रतिप्रसङ्ग होगा। दूसरी बात यह है कि उक्तसूत्र में अनुपयुक्त पनेक प्राधायक में मध्यपृषय का निबंध किया गया है, अतः उममें पपृथक तपस्यता का विधान अनिवार्य है क्योंकि किसी सामान्य वस्तु के एक विशेष के मिषेष का उसके इतर विषेष के विधान में पर्यवसान होता है। स्यादेन-द्रव्याधिन नामादिचतुष्टयाभ्युपगमे द्रव्यार्थिकत्वन्याहतिः । 'द्रव्यं प्रधानतपा, पर्याय च गीणतयाऽभ्युपगच्छन् द्रव्यार्थिकोऽपि भावनिःक्षेपसह इति चेत् । इन्स ! ताई त्वदुक्तरीत्या शब्दनया अपि द्रव्यमापसहा इति कथमुक्तव्यस्था ? एनेन 'थ्यार्थिकपर्यायार्थिफयोद्वयोस्तुत्यवदेवोभयाभ्युपगमः, परमावस्य सर्वथाऽभेदन, अन्त्यस्य सु सर्वथा भदन, दांत दयायिकस्यापि पर्यायसहस्त्रम्' इत्पस्तम्, एवं सति पर्यायार्थिफस्प शब्दादरवि द्रव्यसहत्त्वापरः, अत्यन्तभेदाऽभेदग्राहिणोद्धयोः समादितयोरपि मिथ्याष्टियान , अभेदे पर्यायद्वया(? द्रव्या)सहोक्तिप्रसङ्गान , मेदे पर्यायार्थिकेनापि द्रव्यग्रहे द्रव्यार्थिकस्याऽन्तगइत्वासपत्त्यैतन्मतस्य भाष्यकृतय निरस्तत्याम्चेनि । __ मैषम् , अविशुद्धानां नगमादिभेदाना नामाघभ्युपगमप्रश्णत्वेऽपि विशुद्धनगमभेदस्य द्रच्यविशेषणतया पर्यायाधुपगमाइ न तत्र भावनिक्षेपानुपपत्तिः, अत एवागमः-*जीवो गुणपडितनो यस दबढि अस्स सामा" इति । अत्र हि समतापरिणामविशिष्टे जीवे सामायिकत्वं विधीयत इति । न चैवं पर्यायार्थिकत्यापत्तिः, इतराऽविशेषणत्वरूपप्राश्चान्येन पर्यायानभ्युपगम त् । शब्दादीनां पर्यायानयाना तु नैंगमवद विशुद्धयमा न नामावभ्युपगन्नस्मम् । अवगत तद्विपयत्वं तु नोकताविभागव्याधाताय, स्वातन्त्र्येण पर्यायविषयत्वं त्यच्याहतमिति पर्यालोचथामः । [ भावनिक्षेप के स्वीकार में द्रव्याधिकत्त्र के भंग का आक्षेप ] यदि यह प्राक्षेप किया जाप कि.."क्ष्याथिक में मामावि चारों निक्षेपों का अम्मुपगम करने पर उन नयों के व्याथिफर को हानि होगी, क्योंकि द्रव्यमानविषय नम को हो ग्याषिक नस कहाजाता है। यदि को-'प्रष्य को प्रधानरूप से पोर पर्याय को गौणरूप से उपाधिक का विषय माने तो उसमें भी भावनिक्षेप के भ्युपग्रम का समर्थन शक्य है तो यह ठीक नहीं, क्योंकि उक्त रीति से पर्याय को प्रधानरूप से तथा प्रय्य को गौणरूप से अभ्युपगम करने को रोसि से शब्दमयों में भी प्रत्यमि क्षेप का मायुपगम प्रसक्त होगा । तब इस स्थिति में नामाथि निक्षेप चतुष्टय म्याधिक के विषय है और एकमात्र मावनिःक्षेप हो पायाधिक का विषय होता है यह भोपवस्या पी गई है वह कैसे उपपन्न होगी? इस प्रसंग में किसी का यह कहना कि-रुयाधिक और पर्यापार्षिक योगों में समामकी जीवः गुणप्रतिपमानयस्य वार्षिकस्य सामायिकम् । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवातक स्त. लो. ११ रूप से व्यनिक्षेप और भावनिक्षेप का श्रम्पपगम है मनसर केवल इतना ही है कि प्रत्यापिक एकाततः व्रख्याऽभिन्नरूप में पर्याय को विषम करता है और पर्यायाथिक एकान्तर द्रवम से भिवपर्याय को विषय करता है। समकार प्रख्याधिक भय भी पर्यायविषयक होता है ।"-तु यह कपन भी अपास्सप्रायः है। क्योंकि जिस रीति से यायिक में पर्यायविषयकाष की उपपत्ति होगी उस रोति से वाविपर्यायाधिक नप में मी एकान्ततः पर्यायभिन्नरूप में प्रध्यविषयकाल का अभ्युपगम सम्भव होने से प्रायविषयकस्य को प्रापत्ति होगी । दूसरी बात यह है कितव्याथिक मोर पर्यायाधिक में. जो क्रम से, पर्याय में एकान्तिक द्रव्यामेद और आय में एकामितक पर्यायमेव को, उनका विषम पता कर उनमें अन्तर बताया गया | E' चिता और पांव में एका तथा एकान्त मेद मान्य न होने से बोनों नयों में मिथ्याशिव का प्रसङ्ग होगा। लाध होण्य मोर पर्यायों में ममेव मामने पर काव्याधित पर्यायों में भी प्रख्यात्मना श्रमेव होने से पर्यायद्वय की 'घट में रुप और रस है सप्रकार को सोक्ति की अम्पपसि होगी। एवं द्रव्य पोर पर्याय में अत्यन्तभेवपक्ष में पर्यायाधिक मय से भी ज्य का महण मानने पर पर्यायाधिक से भिन्न प्रयापिक मम के वयय की प्रसक्ति होगी । इसलिये यह मत भाष्यकार द्वारा ही रस्त किया गया है। फलतः प्रत्याधिक नब से नामादिचतुष्टय का अम्युपगम करमे पर उस नस में अध्यार्थिकत्व की हानि तववस्थ है।" [ न्यार्थिकमंग के आक्षप का प्रतीकार ] - इस प्राक्षेप के उसर में व्याख्याकार का कहना है कि उक्त भार उचित नहीं है। क्योंकि नगम-संग्रह और व्यवहार के सोनों नप विशुन और प्रविशुत भेव से दो प्रकार के होते हैं। उनमें अधिशुश नगमारि नय नामादिका मुख्यम्प से भी सम्पगम करते हैं और विशुद्ध नेगमाविनय द्रय के विशेषणरूप में पर्याय का मयुपगम करते हैं । अतः नैगमावि नयों में मानि:शेष को अनुपपति नहीं होती। इसीलिये आगम का यह स्पष्ट उधोष है कि 'समभावरूप गुग में परिणतजीव अम्बाधिक नय की दृष्टि में सामायिक होता है। इस आगम से समतापरिणामविशिष्ट कोच में सामायिकश्ष का विधान होता है। इसप्रकार समतपरिणाम को अध्याधिक का विषय कहने से प्रत्यायिक मम में पर्यापविषमस्व को स्वीकृति सूषित होती है। यदि यह कहा जाय कि-पर्याय को इण्यार्थिक का विषय मानने पर सूस्याथिक में पयायकत्व की आपत्ति होगी-तो पाह ठीक नहीं है। क्योंकि समतापरिणामरूप पर्माय को जीव के विशेषणरूप में म्युपगम करने पर भी अन्य में अमिशेषणाने प प्राधान्य से पर्याय का मधुपगम न होने से पर्यायाधिकरण की आपात नहीं हो सकती है, क्योंकि प्रधानरूप से पर्यायको किरनेवाले कोपर्यायाधिकहा जामावि पर्यायाधिक नमों में नंगयादि मयों के समान विशुद्ध अविशुद्ध का मेद नहीं है। अतः पयायिक नों के विमुद्धमान होने से उनमें नाम स्थापना और व्यका अभ्यमगम नही हो सकता। अत एव मात्र विषयक कता जाता है। उपचार से शतमें मी सामादि विषयवस्व होता है किन्तवा अवास्तव औपचारिक होने में वक्त विभाग का प्रति प्रयाथिक नामावि तुष्यविषयक और पर्यायाधिक भावमाधविषयक होता है। इस विभाग का व्याघास नहीं हो सकता. बयोंकि यह तथ्य पर्यालोचनसिन है कि औपचारिक नामावि विषपकरव से पर्यायाधिक मय में स्वतन्त्र प्रधानरूप से पर्याय-विषयकस्य का व्याघात नहीं होता। ननु तथापि "'णामाइनियं दयट्टियल्स भावो अ पज्जवणयस्स" [वि. आ.मा. ७५] Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था टरेका एवं हिन्दी विवेचन ] इति मजगानिकारेऽभिधाय, उपोद्घाले भावं चिय सद्दणया सेसा इति सरणितखे।" [वि. आ. भा. २८४७ ] इति वदता भाष्यकृतां कोऽभिप्रायः ? इति चेत् । अयमभिप्रायः -पूत शुद्धचरणोपयोगरूपभाषमालाधिकार संबन्धाद नंगमादिना जलाहमादिरूपभावघटाम्युपगमेऽपि बटोपयोगरूपभावघटानभ्यूपापान योक्तिः, पथशानियेणाच्च न प्रन्ययस्याभिधानतुल्यता । अग्रे तु पत्रस्याधिकारार् विशेपोकिता, इनि 'व्याकिस्त चामादित्रयम्' इत्यत्र नायधारणम् , 'पर्यवनयस्त भावः' इत्यत्र शावधारणम् , इत्यनेन सानोण नामादित्रयविषयस्वमेव द्रव्याथिकल्यवभिप्रेत्य भयान्तरेण या पूर्व तयोक्तिः । अन एवोक्तं तत्त्वार्थवसी"अत्र चाया नामादयन्त्रयो विकल्पा द्रव्यार्थिकस्य, तथा तथा सार्थत्वात् , पाश्चात्य पर्यायनयस्व, तथापरिणतिविज्ञानाभ्याम्" इति । अत पय घ नामं रावणा दरिए ति एस दर्गडियस णिक्यो । भायो अ पज्जाष्टि(रस)परूक्षणा एस परमस्थो ।" इति सम्मति(-६)गाायाम् । अथवा, 'वस्तुनिवन्धनाध्यक्सायनिमित्सव्यवहारमूलकारयातामनयाँ प्रतिपाद्याभुनापारोपिता-नध्यारोपिरानाम-स्थापना-द्रव्य-भावनिवन्धनब्यत्रहार निवन्धनतागनयोरेर प्रतिपादयन्नाहानार्थ:-इति द्वितीयावतरणिका । इति दृढतरं मु(भिविमाननीयम् । इत्येवं मुनिक्षेपो मौवशेषावता सुधीः । तथा तथा आयुष्शीत यथा संभा न घाघते || इति ॥१७॥ [ भाग्यकार के द्विविध कथन का अभिप्राय !] उक्त रीति से नगमाधि में नामाघि निक्षेप और भापनिक्षेप के अभ्युपगम में भाष्यकार कर समर्थन बताने पर यह प्रश्न अ सकता है कि भाष्यकार में मलप्रकरण में मह कहा है कि नामानि तीन निक्षेप नष्पारिक के धौर मात्र निक्षेप पर्यायाधिक चिरय है' सी और चाही ने उपोवनात प्रकरण में यह कहा है कि 'पर्यायाचिफनप यानि मात्र कोही विषम करता है और द्रव्यायिक नय सभी फीक्षेपों पो विषय करते हैं।' न वोनों कथनों में स्वाटरूप से विरोध प्रतीत होता है। अतः भाथ्यकार के इस विविध प.धन का क्या अभिप्राय है ? पप प्रपन के उत्तर में व्याख्याकार ने उक्त कथन का यह अभिप्राय बताया है कि प्रथम पाथन शुद्धचारित्र में मनोयोगरूपभाषमल्ल के प्रकरण से सम्बन है। प्रतः उसमें बताना है कि नंगमाधिनय को मंगलरप में कौन निक्षेप अभिमस है। वस्तुस्थिति यह है कि नेगभनय की दृष्टि में माम-थापना और द्रव्यरुप मङ्गल अभिमत है पोंकि भगवयाम अगवस्मृति तथा जलाहरणादि में सात घटादि उसे मङ्गलारमना मम्युपगत है १, नामाविधिक दास्तफस्प भायव मास्तिकस्य । २. भारपेच धानमनयाः शेषा इच्छन्ति सर्वनिशेषान् । ३. नाम स्थापना अयं सोप दयास्ति त्रस्य निक्षेपः । भावश्च पवारिता (स्य)प्रपणेष परमाधः ॥१॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ [शास्त्रबासी० स०७ लो.१५ किन्तु षठोपयोग-घटमानरूप भावट जसे मलारमना अधुपगत नहीं है। अतः उरूप्रकरण ते सम्पद उक्त कथन का अभिप्राय गमाविको मङ्गलरूप में नामावित्रविषयक मताने में है। ऐसा मानने में कोई भी नहीं है, क्योंकि साममिक्षेप का पृथक प्रयुपगम में होने से पृथक मिळेपरूप में शान में अभ्युपगत नाम को सत्यता नहीं है। प्रसः नाम के समान प्रत्यय में मङ्गलरूप से गमाविविषयत्व को प्रसक्ति नही होती। पोषधासप्रकरण की स्थिति इससे अलग है, वह व्यवस्था पनि वस्तु को वास्तविकस्थिति के प्रतिपादन का प्रकरण है। अत: जप्त प्रकरण में नामानि निक्षपचतुष्तय को मैगमादि का विषय कहा गया है। अतः उक्त वो कपन प्रकरण मेव मूलक होने से उन में विरोध की सम्भावना नहीं हो सकती। अथवा भाष्यकार के प्रथम कपन का अन्य नय से समर्थन किया जा सकता है, वह नय हैनामाविषय में मुख्यरूप से प्रध्याधिक विषय का अभ्युपगम । प्रतः उक्त कथन का माप यह है जिनामादिनिक्षेप त्रय मुख्यरूप सेण्याथिक नय का विषय है, कि उसका यह तात्पर्य है कि मामाविनिक्षेपत्रममात्र ही तण्याधिक का विषय। क्योकि-यधिकस्य नाम मा पर . काररूप अवधारणा से मुक्त नहीं है। प्रतः अन्यत्र प्रत्याथिक को भावनिःक्षेपविषमक भी बताने से इन बचन की असङ्गतिमली हो सकती । तथा 'पर्यायनयस्य भावः' यह वमन एवकाररूप भववारण से युक्त है। अतः भावनिक्षेपही पर्यायायिक का विषय है यही भाष्यकार का अभिप्राय है । इसीलिये तरवार्थसत्र की वृत्ति में भी कहा गया है कि पार निक्षेपों में प्रारम्भ के नामानि सीन मिःोप प्रध्याप्पिक के विषय होते हैं क्योंकि व्याधिक तसाप से मुख्यतया जहाँ तीम निक्षेपों को विषय करतार अन्तिममापि पर्यायनयका बात है. क्योंकि पर्यायनय का विषय होता है वस्तु का तलनूप में परिणाम और उसका शान थे वोतों मावात्मक हैं। इसीलिमे सम्मलिमत्र की गाया में भी इस बात को परमार्थरूप में प्रतिपादित किया गया है कि नाम, स्थापना और प्रम ये तीनों निक्षेप प्रत्याथिक के विषय है मुख्यरूपसे विषय है। भावनिक्षेप पर्याययिक का मुख्य विषय है । [भाध्यकार के विविध कथन का अन्य अभिप्राय ] भयवा भाष्यकार में उक्त योनों बच्चों का अभिप्राय इसप्रकार प्रक्षगत किया था सकता है कि पूर्ववचन आचार्य ने यह बताया है कि द्रव्याथिक और पर्यायायिक दोनों वस्तुजन्य अध्ययसायमूलक व्यवहार के जनक है। अर्थाय वम्याथिक मे नाम-स्थापना-अध्यात्मक परसु का अनारोपात्मक मित्रयो करामाधारमना वस्तका व्यवहार होता है। पपीयामिकनयस नाव का अनारोवारमकाध्यबसाय होकर भावपमधार का उबमहोता और वित्तीयवचन से यह बताया गया है कि प्रध्यापिकनय नाम-स्थापना-वय और भाव इन चारों से होनेवाले व्यवहार का जनक है। अन्तर इतना है कि नाम-स्थापना प्रष्य का व्यवसार उनके आरोपानात्मक सम से होता है और मास्यवहार मात्र के प्रारोपाएमक ज्ञान से होता है। क्योंकि द्रव्यायिकको दृष्टि में भाषका वास्तवन अस्तित्व नहीं है अतः वह आरोपित हो भाव का प्राहक होता है। पर्यायाचिकनय साब के भनारापारमा जान से भावमात्र ध्यपहारका कारण होता है। इसप्रकार बिद्वानों को प्राचार्य के दोनों पचनों के अभिप्रायमेव का अनुसरधान कर लेना चाहिये। मि:क्षेपसम्बन्धी प्रयोग का निष्कर्ष महाते हुये व्याख्याकार का कहना है कि-"किस विद्वान ने निक्षेप को अवगत कर लिया है उसे मोहप का परिवार प्रति मिशेपमेव को दृष्टि में रखे विमा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यारीका एवं हिन्दी विवेचन] वस्तुष्यबहार की प्रवृत्ति का परिहार करने के लिए उत्त होकर, वस्तु के निरूपण में तत्तनिकापा का प्रयोग इसप्रकार करमा चाहिये जिससे प्रयोक्ता का प्रभिप्राय वस्तु के स्वरूपनिरुपण में बाधका न हो।"-अभिप्राय यह है कि यदि मायाव का प्रयोग किसी ऐसे संदर्भ में आया है जिसमें अश्व का आशुगमनमारूष अर्थसंगत मझी हाता, ऐसे संदर्भ में अश्वशम् की ज्याच्या नाम, स्थापना, पा ब्रम्प निकोप की ष्टि से अश्वासन के निर्धारण से करना चाहिये क्योंकि ऐसा करने से ही आचमात्र के प्रयोफ्ता का मभिप्राय उस संघभविशेष में अश्वशक्षा के प्रयोग के प्रतिपाल महोगा ॥१७॥ १८वा मारिका में पूर्वपक्षी के इस बयान में दोष प्रदर्शन किया गया है कि बासु में उत्पादावि विरूपता का सापक मोर-प्रमोव-मामरूप का उपवासमावियोग से अन्यचासिद्ध हो जाता है ---- याचो पादादित्रयात्मकत्वे शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्योदयसाधकस्यान्यथासिद्धिर्वासनाविमोपेणेति पूर्वपक्षिणोक्तं तद् दयितुमाहमूलम्घासनाहेनुकं यच्च शोकावि परिकीर्तितम् । तवयुक्तं यतचित्रा सा न जात्वनिषन्धना ॥ १ ॥ यच्च की वासना निकीतता नहु निमस्तानमा तयुक्तम्, पतरिचना-शोकादिजनकन्वेन नानाप्रकारा सायासनासमनन्तरमानक्षणलक्षणा न जातुन कदाचित् अनिपन्धना=नितुझा ।। १८॥ [शोकादि बासनामूलक होने का कथन अयुक्त ] स संदर्भ में बौद्ध को प्रोर से जो यह कहा गया है कि-शोकावि पासमानुक है. भिलवस्तुहेतुक नहीं है । अर्थात यह कहना कि-'घाममा सुष्ण का नापा घटार्थी के शोकका, सुकुष्टात्मना उत्पाद मुकुटाओं के प्रमोच का, और आकार य में निरपेक्ष-यानी उदासीन सामान्य मुवर्थोिं के मायथ्य का, प्रयोजक होता है-यह ठीक नहीं है। क्योंकि घटात्मना सुवर्ण के नाश को घटार्क को पल होता है उस का कारण सुवर्ग का घात्मगा नाश नहीं है किन्तु 'बराकारशून्य सुवर्ण इष्टसंपादक नहीं, इसप्रकार की जो घटापों को बामना होती है वह शोक को जनक है । प्रायथा यदि मुवर्ण का घदात्मना नावा स्वरूपतः शोक जनक है। सो उस का रूप घतार्थी और घटनिरपेक्ष दोनों के प्रति समान होने में दोनों को शोकोत्पत्ति होनी चाहिये । यही बात प्रमोद और माध्यस्थ्य के विषय में भी जातव्य है।"-कित विचार करने पर बौद्ध का यह कथन मुक्तिसंगतमही प्रतीत होता। क्योंकि जिस धासमा को शोकावि का कारण बताया गया है वह विभिनाकार समनस्तर समक्षणरूप है अतः वह कभी मितुक असबा समानहेतुक नहीं हो सकती। १६ श्री कारिका में पूर्णकारिका में उक्त अर्थ का उपपाषन किया गया है - अन हेतुमाहमूलम्-सदाभाषेसरापत्तिरेकभावाच्च पस्तुनः । तावेऽतिमसनादि नियमासंप्रसज्यते ॥ ११॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ [मास्त्रमा ह लो . १८-१९ सदाभावेरापतिः-अत्र भाष उत्पतिः, इतरपदार्थोऽनुत्पत्तिा, निहतुकत्वे तस्या उत्पत्तिशीलन्वे सदोल्पग्पापत्तिः, अनुत्पत्तिशीलत्वे च सदानुल्यन्यापचिरित्यर्थः । चित्रवासनाया दोपान्तरमाह-एफभाषास्थ=एफस्वभाराच्च रस्तुनः, तशाचे चित्रवासनोत्पादेःभ्युपगम्यमाने, नियमादसिप्रसङ्गादि । आदिना विपर्यया-ऽनेकस्वभावत्यादिग्रहः । तथाहि-एकस्माद विचित्रबासनाभ्युपगमेऽधिकृतात कुलश्चित् सकलव्यवहानियामकपासनोत्पत्तौ तन्मात्रं जगदित्यतिप्रसनः । 'जातिभेदाए नियमोपपत्तेनाय दोषः' इति चेत् ? न, जात वस्तुल्यात् । फल्पितश्च जाति मेदो न कार्य भेदनियामकः, अन्यथा कल्पितान तदभेदान कार्याऽभेदोऽपि स्यात् । __अस्तु वा यत्किश्चिदेतत् , मा भृत् तथापि रूपादेः रसादिवासना, नीलादेः पीतादिवासना तु स्यान् , जातिभेदाभावात् । 'नीलादेः पीतादिवासनाना सजातीयानामप्यजननस्वभावत्वान नायं दोष' इति चेत् ? न, वाइमामलान | नील हि नीलवासनामेर जनयति न तु भिन्न पीतादिवासनामितिबद् घटोऽपि शोकवासनामेव जनये न तु प्रमोदवासनामिति । 'एकस्यैव तस्य शोकादिनानावासनाजननस्वभावत्वा न दोष' इति घेत ? इन्च । एवं येन स्वभावेन तस्य शोकजनकत्वं तेनैव प्रमोदजनकत्वे, शोफस्थलेपि प्रमोद इति विपर्यय: स्यात् , अन्यथा घ स्वभावभेदापत्तिः। एतेन 'उपादानभूतप्रातिस्विकमनस्कारभेदात् कार्य भेद इत्यपि निरस्तम् , एकस्य घटादेरनेफोपादान-सहकारित्वाऽयोगात् । न च तथादर्शनादेव तथाभ्युपगमा, नस्य तथाभूतचित्रवस्तुनिमित्तत्वाव , अन्यथैकरममावत्वाम्पुपगमविरोधात । ___ व्यवस्थापित थायम -[ अने. जय. भाग - ४६] * यतः स्वभावतो जातमेकं नान्यत्ततो भवेत् । कन्स्नं प्रतीत्य ते भृतिमारमान तत्स्वरूपवद् ॥१|| अन्यच्चैवंविधं चेति यदि स्यास्किं विरुध्यते। दत्स्वभावस्य कालन्यन हेतुल प्रथम प्रति ! ॥२॥ इत्यादिना अन्न प्रन्यनवाऽनेकान्मजयपताकापी । एकानेकस्वभावे च वस्तुनि न किशित् दूपणमुत्पश्यामः । न हि शोकचासनानिमित्तस्वभावत्वमेव प्रमोदादिवासनानिमिचरून * व्यायाः यतः स्वभावतः .. कारणगताव जास मेवां सत्प्रत्ययादि काय, नायप्रस प्रत्यादि ततः स्वभावाद् भवेत् । किमित्यत आइ-मत्स्तंन्-सम्पूर्ण प्रतीत्न = आश्रित्य तं स्वमा भूतिभावत्वात् - उत्पत्तिस्य भानत्वात् एकस्य कार्यस्य तत्स्वरूपक अधिकृतककार्यस्वरूपयत् । न हि सरन्यत न पात्प्रत्ययो सत्प्रत्ययस्तमिप्तहेतुजपचेति चित्रम् ।। १ ।। ___ व्यापा:- आह-अन्यच्धेत्यादि । अन्यचन-कार्यान्तर न, एवंविघं चेति -पृस्नं प्रतीत्य तं भूतिभावं चेति यदि स्मात् = यदि भवेत् . किं विरुध्यते । अत्रोत्तरमाह-सत्स्वभाव स्य = नारणगतस्य कात्स्यन ==सर्वात्मता हेतुत्वं प्रतीत्योत्पावापेक्षया प्रथम प्रति = मा कार्य प्रति विध्यते, व सर्वामनास्योपयोगादिति ।। २६॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मा टीका एवं हिन्धी विवेधा ] ११५ भावस्वमिति, ध्पयो-त्पादादिशक्तिभेदाव , एकसमादेव घटनाशादनेकेषां घटार्थिनां युगपच्छोकोस्पादेऽप्यनेकोपादानसंबन्धनिमित्तानास्वभावभेदाद । तदिदमुक्तम्-"न पैकानेकस्वभावेऽप्यथमिति, तथादर्शनोपपत्तेः" इति ॥ १६ ॥ [पासना अहेतुक होने पर दोषपरम्परा ] बासन। यदि मिहेंतुक होते हुये उत्पत्तिशीत होगी तो उसके सवाभाव की यानी तवा उत्पत्ति की आपत्ति होगी और परि अनुस्पतिशील होगी तो सर्वदा उसके इतर यानी उत्पत्ति से इतर प्रति अनुत्पत्ति को आपत्ति होगी। उसके अतिरिक्त दूसरा ओष यह है कि एक स्वभाव वस्तु से यवि विविषाकार बासना की उत्पत्ति मामो जायगी तो मिमम से अतिप्रसङ्ग, विपर्यय और अनेकस्वभावरण को आपत्ति होगी। जैसे देखिये-पति एकरूप वस्तु से घिधिमाकार कासना को उत्पत्ति होगी तो किमी एक ही वस्तु से सम्पूर्ण व्यवहार के नियाम बासना की उत्पत्ति होने से प्रस्तुमात्र में अगत् को परिसमाप्ति रूप मसित होगा । ' हो पा विभिन्न आईतवारा विभिन्नाकार बासमा की उत्पादक होती है यह मानकर भी इस दोष का परिहार नही किया जा सकता क्योंकि मौसमत में जाति वास्तविक है। कल्पित जाति मेव कायमेव का नियामक नहीं हो सकता, क्योंकि कस्पित आतिमेव से यरि कार्यभेव को उत्पत्ति होगी तो कल्पित जातिऐप से कार्याऽभेद की मी प्रसक्ति हो सकती है। यदि किसी प्रकार जातिमेव को कल्पना करके कार्यो की उपपत्ति को भी जाय तो रूपाधि से रसादि पासमा की आपत्ति का परिहार सम्मन होने पर भी मोलावि से पोताविवासना की उत्पति का प्रसनतो अनिवार्य ही होगा क्योंकि मील-पीसारितभी के कपमासीय होने से उन में जातिमेव मही है। यपि यह कहा जाय कि मील पीतावि में सजासोयता होने पर भी नीलादि से पीतादि मासना की उत्पत्ति इसलिये नहीं होती कि नीलादि में पीताविबासमा का प्रजनका स्वभाव है।'तो यह ठीक नहीं है क्योंकि मह समाधान केवल पचममान है-उसमें कुछ पुक्ति नहीं है। पयोंकि जैसे यह कहा जय कि-नोल बस्तु मील्वासना काही जनक होती है, पीता विवासना का अनक मही होती, क्योंकि पोताविवासमा का अजनकत्व उसका स्वभाव है। उसी प्रकार यह भी कहा जा कहा जा सकता है कि यर भी शोकषासमा का ही जनक है प्रमोवघाप्तमा का नहरें। फलतः घटार्थों को भी घर से प्रमोवनी उपत्ति न हो सकेगी। यदि इसके उमर में बौर की पौर से यह कहा जाय कि-"एक ही घर में शोक-प्रमोवाति विषयक प्रकवासनापान का स्वभाव है अत: उक्त दोष नहीं हो सकता'-तो ऐसा कहने पर विपर्यप की आपत्ति होगी, सत घट को जित समाव से शोक का जनक माना आपगा पनि उसी समाव से मह प्रमोर का भी जमक होगा तो शोक स्थल में प्रमोद को मापत्ति होगी। पदि भिन्न भिन्न स्वमाष से शोक-प्रमोद का जनक माना जायगा तो एक वस्तु में समावभेव की सापति होगी। जो गौर को अभिमत नहीं है। इस सन्दर्भ में यह कहना कि-'घटरूष सहकारी कारण के अभिन्न होने पर भी ससद मनस्कार-समतातर मामक्षणल्प उपायाम कारण के भेव से पोक प्रमोवावि कार्यमेवोपास हो सकती ह'-मह वोफ नहीं है, क्योंकि एक ही घट विभिन्नोपावाम कारणों का सहकारी नहीं हो सकता । भाशय यह है कि यदि तसत् उपायामकारण शोक-प्रमोवादि विभिन्न कार्यों के प्रति स्वयं समर्थ हो Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ [ शाल० लो० १६ सो जनके लिये घट सहकारी को कल्पना निरर्थक है और यदि वह स्वयं समर्थ नहीं है तो घट रूप एक सहकारी के सविधान से उनमें विभिन्न कार्यों को उत्पादकता युक्तिसंगत नहीं हो सकती । यह कहा जाये fie - "एक सहकारी के निधन से विभिउपादानोपकार द्वारा विभिन्न कार्यों का उदय बेअर आता है, अत एवं विभिन्न कार्यों के उदय के प्रति विभिन्न उपादान कारणों के एक सहकारी की कल्पना स्वीकार की जा सकती है।" यह ठीक नहीं है क्योंकि विभिस्रोपाज्ञान सार से जो विभिावान कार्यों का जन्म होता है यह विभिन्न कार्यों के उत्पत्ति प्रयोजक विभिन्न स्वभावोपेत एक सहकारीनिमितक है, यदि ऐसा नहीं माना जायगा तो विभिन्न कार्यों के प्रति विभिन्न उपाशन कारणों का जो सहकारी स्वीकार करना है उसे एक व्यक्ति रूप मानत्रा विरु होगा। इस सच को गनेकान्तजयपताकादि ग्रन्थों में मूलग्रन्थकार श्री हरिभद्रसूरिजी ने वो कारि कामों से स्वयं प्रतिपादित किया है। कारिकाओं का अर्थ इस प्रकार है कि- 4 (१) बोद्ध मत में कारण जिस स्वभाव से एक कार्य का जनक होता है उस स्वभाव से अश्य कार्य का अक नहीं होता है। क्योंकि कार्य का मूलभावरच उत्पथिकस कृरस्न कारण के अधीन होता है जो कार्य जिस कारण से उत्पन्न होता है उस कार्य को उत्पत्ति में वह कारण करन यानी समरूप से विनियुक्त हो जाता है। फलतः कारण एक कार्य के उत्पादन में सम से विनियुक्त हो जाने से उसले कार्यान्तर की सम्पति नहीं हो सकती। जैसे जिस मिट्टी से कोई घट उत्पन्न होता है वह मिट्टोपित करनरूप से उस घट के उत्पादन में हो विनियुक्त हो जाता है । अतः उस मिट्टीपि से प्रश्य मृत्पात्र को उत्पत्ति नहीं होती। इस प्रकार यह स्थिति स्पष्ट है कि जिस कार्य के प्रति जो स्वरूप कारण होता है उससे उस एक ही कार्य की उत्पत्ति होती है - कामन्सिर की नहीं। बौद्ध की इस मान्यता के रहते हुये भी इस मान्यता का अनेकान्ताब स्वीकार में पर्यव साम विखाने के लिए दूसरो कारिका में पत्थकार का यह कहना है कि (२) यदि एक वस्तु को एवंविध और अत्यधि अर्थात् विभिन्न स्वनाथांपेल माना जरब और उस एक-एक स्वभाव से विभिन्न कार्य के प्रति उसे कारण माना जाय तो उस वस्तु था जो स्वभाव प्रथम कार्य के प्रति जनक है वह स्वभाव उस का समय से जनक है और जो स्वभाषासर है वह कार्यान्सरका जनक है ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं है। इस प्रकार वस्तु को एकामेक स्वभाव मानने पर कोई बोष रष्टिगोचर नहीं होता । यह है कि घट भी जो शोकवासना और प्रमोदाविवासना का निमित्त होता है वह एक से नहीं किन्तु स्वभावमेव से होता है । और वह स्वभावमेव व्यउत्पामाथि शक्तिनेदाथीम है। आशय यह है कि घट में विनाश और उत्पाद दोनों को शक्ति है। विनाशक्ति से बह विनाशस्वभाव को और उत्पात से वह उत्पाद स्वभाव को प्राप्त करता है। विनाश स्वभाव से अर्थात् विनाशोपेतस्यरूप से वह घटार्थी की करेकवासमा का जनक है और उत्पादस्वभाव- उत्पा भोपेतस्यरूप से पटार्थों को प्रमोदवासना का जनक है। यह भी है कि एक घटना से अनेक घटार्थों को एक साथ जो शोकोत्वति होती है उसमें भी घटनाश एक स्वभाव से जनक न होकर स्वभावभेव से जनक होता है और वह स्वभावद है विभिन घटार्थो के समनन्तरज्ञानक्षणरूप विभिन्न उपादानों के साथ सम्बन्ध की निमितरूप । आशय यह है कि यद्यपि घटना एक है किन्तु वह विभिन्न उपायामों के साथ सम्यन्धका निमित है, 8 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्माकटीका एवं हिस्सी विवेत्तम ] मस एष वह एक होते ये भो विभिन्नोपवातसम्बERem ममासमेट से विभिन्न पदार्थोओं में विभिन्न शोक काम करता । यही बात भएकाने कस्बभावेऽव्ययम् नि, तथादर्शनोपपत्तेःइस वचन से प्रतिपाधित को गई है, जिसका अर्थ यह है कि 'तु को एकस्वभाव से विभिन्न कार्यों का जमक मानने पर जो वोट होता है यह वस्न को एकानेकस्वभाष मानकर विभिन्न स्वमायों से विभिन्न कार्यों का जनक मानने पर नहीं होता। क्योंकि एमा वस्तु से विभिन्न स्वमाय द्वारा विभिन्न कार्यो का जयप वेखा जाता है। उदाहरणार्थ, एमा प्रवीप से प्रकाश-बम- अन्य दीप प्रकाशनादिविभिन्न कापों का उका होता है ।। ११॥ २०वी कारिका में उस दोष का परिहार किया गया है जो प्रस्तुत स्तबक को 'किच स्याद्वाविनो' इस ७ वीं कारिका से प्रवशित किया जा चुका है - 'किश्च स्यावादिनी नैय' [ का० ७ ] इत्यादिनीक दोष परिहरनाहमूलम्-न मानं मानमेवेति सर्वथाऽनिश्चयश्च यः। उक्ती न युज्यते सोऽपि यवेकानन निषन्धनः || २० ॥ 'न मानं मानमेव' इत्यभिसंधाय सर्वथाऽनिश्चयश्च या पूर्वपझरादिनीकता, सोऽपि न सुज्यते, यत यस्मात् एकान्तनिबन्धनः, स=अनिश्चयः । तथाहि-न तापदस्माकं माने कश्चिदमानल्यसमावेशादप्रामाण्यसंशयादर्थाऽनिश्चयः, मानत्या-ऽमानत्वयोः कश्चिदविरोधान, अबधृतविरोधयोधमै योरेका घर्मिणि प्रनिभासम्यक संशयवाद , "स्वपर्यु दासपरिकण्ठिवं चित्तम्" इति भाष्यप्रतीकेन तदर्थलामा । धर्मयोविरोधावधारणं च क्वचिन पाक, अवचित्र पत्रान् विनय सहैव । अत एव प्रागुपस्थितविरोधयोः स्थाशुष-पुरुषत्वयाविरोधानमन्ववेनापि स्थाणी प्रतिभासः | सथाऽत एव च श्यामला-ज्यामत्स्योरेका प्रदेऽपि विरोधस्फूतौं तथात्यम् । अत एव च पदाचित मंसर्गशब्दादिना सहेच विरोधस्कृती तथावस् । इत्थं च नया एवेतरनयविषयविरोधायधारणे संशेरतेऽपि । तदुक्तम्-'परविचारणे मोहा' इति, न तु स्यावाद इत्यवधेयम् ।। ये तु-'एफा तत्तदभायोभयप्रकारकवानमेव मंशया, एकत्रत्त्यस्य विशेश्नाकत्वार्थत्वाद् न समुन्धये तिच्यासिर, तन्न नसहभापप्रकारतानिरूपितविंशेन्यतामेवा' इति नैयायिकादयो पदन्ति-तेपो 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इति संशवानुपपत्तिः । न च तत्र चतुष्कोटिक एव संशयः, द्विकोटिकस्यैवानुभवात् । 'समुच्चये प्रकारतादाद् विशेष्यतामेदो न तु संशय' इत्यत्र व शपथमात्रस्प शरणत्यादिति। येऽपि तत्-सदभाव तत्तदशाप्यादिविषयता अन्यतमत्वेनाऽनुगतीकृत्य तदपटित संशमत्वमाश्ते षामायन्यापोइपर्यघसानम् । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ [ गास्नातक त ७ प्रलो. २० Fष्टता [अनेकान्तपाद में सर्वत्र संशयापत्ति का उद्धार ] बोजाति को भोर से जो अनेकातिवादी के प्रति इस दोष का उद्धापन किया गया था कि पनेकाम्तवानी के मस में प्रमाण एकान्ततः प्रमाण नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा मानने पर प्रमाण. वस्तु में एकामरूपता रहने पर वस्तुमात्रकी अनेकामरूपता का भला होगा, अतः प्रमाग अन्नमाम भी होगा । इस प्रकार पर्षवाहीशान में प्रामाण-अप्रामाण्य शेनों का संशय हो जाने से अमिनयाभाव प्रसक्त होगा।" किन्तु विचार करने पर पता चलेगा कि अमेकाम्तबाव में यह पौष प्रसत नही होता, क्योंकि मनेकान्तवादो के मत में प्रमाण में अप्रमाणाव का कश्चित समावेश माना जाता है, अत: प्रामाण्यसंशययुक्त प्रपंनिश्रयाभाव नहीं हो सकता। प्रमागरम और अप्रमाणस्व में पाणिव अबिरोष होने से प्रमाण में अप्रामाण्य संमाय घसम्भव है, क्योंकि जिन धर्मों में परस्पर विरोष निर्णीत होता है-ऐसे वो धमों का एक धर्मी में न हो संशय कहा जाता है। समय का यह अर्प स्वपयुवासतिष्ठित चितम्' इस भाष्यप्रतीक से प्रबगत होता है। इस प्रतीक कार्य पह है कि चित्तान, अपने विषयभूतवस्त्र के पचास पानी विपरीत वस्तु को ग्रहण करने में, परिपानीप्रपने पिर विषयका निकराने में असमर्थ MEHETीकार रता है जो एकधर्मी में परस्परविरुद्धसया मितबोधमो का प्रतिमासाप होता है। [इस प्रकार मान में संशपस्व के खिये उसमें एक धर्मों में परस्परविरस वो धर्मो का भान प्रावश्यक होने से एक ज्ञान में कथित प्रमाणस्य अप्रमागम का मभ्युपगम करने पर उसमें अमामाम्प का संसम नहीं हो सकता क्योंकि दोनों में अपेक्षामेव से अधिशेष होने के कारण उनमें विरोषाबधारण दुर्घट है। [विरोधावधारण का तीन प्रकार ) इस प्रकार संशय में एक पीके विशेषणरूप में भासित होने वाले वो धमों में विरोध का अपपारण मावश्यक है। यह विरोधाधारण कही तो पहले होता है और कहीं साव में होता है समा कहीं साथ हो होता है। इसीलिये स्थाणुत्व और पुरुषस्य में विशेष का-पूर्वकाल यि हमे पर वर्तमान में स्थाणुस्व-पुरूषत्व के विरोध का उल्लेख महोने पर भी संशयात्मक ज्ञान में, घमी में चन दोनों का प्रतिमास होता एवं कहाँ संगम के वाव विरोध अवधारण होता है, इसीलिये श्यामत्व और अश्यामत्वका एक घर में 'श्याम एवायं पश्यामः''श्याम ही श्याम हो गया' इस प्रकार प्रान होने पर बार में उन दोनों में विशेष का माधारण होने पर वह मान अपने विषय के मिर्षय में अपवलायी होने से संशयात्मक होता है । तथा कहीं संजय के साथ ही संशयविषपीभूत षो में विरोध का प्रवधारण होता है। इसीलिये जहां विरोधात्मक सम्बन्ध से धर्मदय को उपस्थिति अर्थात नित्यत्वमनिस्याबविश्यम् स प्रयधारण कान से उपस्थिति होकर 'शयः नित्योऽमित्यो .यह संशष को उत्पत्ति होती है उसमें भमिस्पस्म में मिस्यस्व के विरोध का प्रकारविषया प्रभवा सम्बन्धविषया भान होता है । एवं जहां 'शाम्रो निस्यो न वा' इस विप्रतिपतिवापय से संवेह होता है वहां विप्रतिपतिपायघटक विधायक नाब से विरोध की उपस्थिति होमे है संशय में एक पम में दूसरे धर्म के विरोष का भाम होता है। इस प्रकार मय अपने विषय में अपमय के विषय के विरोध का अवधारण होने पर संदायास्मक भी होते हैं। सा कि सम्मति सूत्र में कहा गया है-'परविचारणे मोहाः' - प्राय नय के विषय का Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा टीका एवं हिमी विधन ] १११ प्रतिक्षेप करने में असमर्थ होते हैं । यह असमर्थता हो उन की संरातसुरूपता की अपशोप्तिका है। किन्तु स्याताव में स्थान पर का सममियाहार होने पर मोहास्मस्कता नहीं होती किन्तु ये विषय की सापेक्षतता के निर्णायक होते है । [नैयापिकात संशयलक्षण की समीभा] मेगापिकामि विद्वान ऐसा कहते हैं कि एकधी में ततमोर तबभाव उमपप्रकारक ज्ञान ही संशय है । यहाँ 'एक थर्मी में इसका अर्थ है 'एकधिशेष्यतानिहपिस' । अतः एक विशेष्यतामिकवित तत-सवमाषउमयनिष्ठप्रकारतामुघशाली शान संशय है। अतः समृपयाय में संशपलक्षण की प्रसिस्याप्ति नहीं होती, पोंकि उसमें तनिष्ठप्रकारसा और तभाननिष्टप्रकारता निरूपित विशेष्यतामा में भेष होता है । -इस यायिक मत में 'प्रपं स्थाणुर्वा पुरुषो या' इस प्रकार के संशप की प्रमुपपत्ति होती है क्योंकि वह अभावप्रकारक नहीं है। उसे स्थागुत्व और स्याणस्वामाव एवं पुष्ष्य प्रार पुरुवस्वानाय इन चार भोको प्रकार मानकर उसे स्ताकोटक संमाय मीनार कहा जा सकता योंकि संघायमात्र द्विकोटिक ही अनुभमलित है। दूसरी बात यह है कि 'समुच्य में प्रकारता के भेर से विध्यता का भव होता है और संशय में नहीं होता इस बात में शपथ हो छोर और कोई प्रमाण नहीं है। पुछ लोग संगाषभित्रज्ञान की तत-तवभाव-तदभामव्याप्य मावि मिल जितनी विषयताएं है उन सब का अन्यतमावलप से अनुगम करके सतहिषमताभन्मतमविण्यासाग्यमानस्य को संवाय का लक्षण मानते हैं। उनके मन में संशयस्व संशयान्यापोह यानी संशयभिन्न भिन्नत्व में पर्षसित हो जाता है, जो अपोह को निरस्त करनेवाली युक्तियों से ही मिराकृत हो जाता है। _इत्थं च, बिरोधः किमिह तद्वदत्तित्त्रम् , तद्वत्ताग्रहप्रतिबन्धकप्रहविषयत्वं पा!' तज्ज्ञानमपि प्रकारतया, संसर्गविधया मा। नाया, सदवृत्तिवलक्षणविरोधस्य तदभाषच्यातिपययनायिनः संशवेनास्पशाद , तदमायच्याप्यवचा निश्चयस्य संरायप्रतिबन्धकत्वात् । तदभावस्य च कार्यसहभावेन हेतुत्वात् । तदभारव्याप्ययत्तानिश्चयत्वं च न तदभाषाऽप्रकारकत्वदितम् । गौरवान् । अन्यथा ' यथभाषच्याप्यन्याप्ययान वहिव्यायवान् पर्वतः' इति परामर्शद्वयात 'पर्वतो वल्लिमान , तदभाषव्याप्याश्च' इति संशयरूपानुमिते चरित्रात् , विरोषाऽविषयकधर्मिकस्थाणुत्व-सदभावप्रकारकशानेऽपि संशयव्यवहाराच्च, अन्यथा तस्य संशयान्यत्वे ततो नित्रयकार्यापनः । अत एव न द्वितीयादिरपि । . इति स्वतन्यनीत्या मुन्सो मानविषयतया परस्परग्रहप्रतिबन्धकतारच्छेदकधर्ममेव विरोधपदार्थमाचनाणाः प्रतिक्षिप्साः, क्वचिदू रूप-रसयोराप तथात्वेनैकत्र तदुभयप्रहस्यापि संशय स्वापत्तेः । मूलव्याख्या ग्रन्थ में इस चर्चा का प्रारम्भ जिस वाक्य से हमा है उसमें इस्पा' यह शब्द 'अप' के अर्थ में प्रयुक्त है। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता ० स्त० ७ ० २० संशये तदभावव्याशिपर्यवसायिविरोधभानेऽपि तदभावव्याप्यवत्तानिश्रयत्वाभावात्, तदंशेधारणात्मक विषयताया एव तदंशे निश्चयत्वात्, अन्यथाऽनध्यवसायेऽतिव्याप्तेः । न चानुस्कटककोटिकः संशय एवानध्यवसायः अनुत्कटत्वाऽनिरुक्तेः ( अ ) स्पष्टतावदवधारणाख्यानध्यवसायविलक्षण विपयतानुभवाच्चेति अन्यत्र विस्तरः । " १२० 7 1 एवकारप्रयोगानुपपत्तिरूपोऽनिश्चयोऽपि नास्माकम् स्यात्कारगर्भत्वेन तदुपपत्तेः, चित्रे पटेऽशापेक्षया 'कथञ्चिद् नील एव' इतिवत् श्यामे घटे कालापेक्षया कथञ्चिद् 'न श्याम एव' इतिवत् एतत्कालवृत्तौ स्वभावापेक्षया कथञ्चित् स एवायम्' इतिबद्-इत्याद्यूलम् ॥२०॥ [ संशयलक्षणान्तर्गत विरोध का स्वरूप क्या है ? ] , 'परस्परविरोधवत्तया निर्णीत धर्मयुगल का एक धर्मो में प्रतिभास ही संशय है' संशयलक्षण के इस निर्वाचन के सम्बन्ध में यह प्रश्न है कि-संशय में भरक्षित होने वाले धर्मो में जो विरोध विवेक्षित है वह तद्वदवृत्तित्वरूप है अथवा तत्प्रकारकज्ञान के प्रतिबन्धक ज्ञान का विषयत्वरूप है। तथा इस विरोध का ज्ञान प्रकारविधथा विवक्षित है अथवा संविधया ? प्रश्न का श्राशय यह है कि एक धर्मों में जिन दो धर्मों के ज्ञान को संशय कहा जाता है उन धर्मों में से एक धर्म में धर्मान्तराश्रायावृतित्व का प्रथवा धर्मान्तरप्रकारक ज्ञानप्रतिबन्धक ज्ञान के विषयत्व का प्रकार विधया अवधारण अपेक्षित है प्रथवा संसगंविधया ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रथमपक्ष अर्थात् तद्वदवृत्तित्वरूप विरोध का प्रकारविधया ज्ञान आपेक्षित है' यह पक्ष स्वीकार्य यानी युक्तिसंगत नहीं हो सकता क्योंकि सद्वदवृत्तिस्वरूप विरोध तवभाव की स्वाभाववचवृत्तित्वरूप व्याप्ति में पर्यवसित होता है। अत एव वह संशय का विषय नहीं हो सकता, क्योंकि संशय में उसका भान मानने पर संशय संशयरूप न रह कर तदभावव्याप्यप्रकारकनिश्चयरूप हो जाने से स्वात्मक संशय के प्रति प्रतिबन्धक हो जायगा । फलसः तवभावव्याप्यत्रकारक निश्वयाभाव कार्यकालवृत्ति होकर कारण होने से संशय की उत्पति न हो सकेगी। क्योंकि संशयकाल में संशयात्मक तदभावव्याप्यप्रकारक निश्चय के रह जाने से उसका अभाव नहीं रहेगा । यदि यह कहा आय कि- " तद्वद्याध्यवत्तानियश्व को कुक्षि में तवभावाऽप्रकारकस्य का निवेश कर दिया जायगा । अतः वह्नयभावस्याप्यप्रकारकनिश्चयस्व वह्निस्वरूप वह्नभावाभाष प्रकारकत्वाभाव से घटित होगा । इसलिये वह्नि-वघभाव उभय प्रकारक संशय में बह्नघभाव में वह्निमवृत्तित्वरूप वह्नभावव्याप्यत्व का मान होने पर भी उसमें वह्निरूप व भावाभावप्रकारकत्व के भी होने से उक्त संशय वलयभावव्याप्यत्तानिश्वयरूप न हो सकेगा। श्रत एव संशय को स्व के प्रति प्रति बन्धकत्वापति नहीं हो सकेगी" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि तत्प्रकारकबुद्धि में तवभावव्याप्यवत्ता निश्चय को जो प्रतिबन्धकता होती है उस प्रतिबन्धकता को अवच्छेदक कोटि में तवभावस्वरूप तत् के अमादाप्रकारकख का निवेश करने में गौरव होगा । इसके अतिरिक्त दूसरा दोष यह है कि यदि तत्प्रकारक वृद्धि में तदभावव्याप्यवसा निश्चय को तवभावस्वरूप तत् के अभावाऽप्रकारकत्व अर्थात् तवप्रकारकत्व घटिततदभावव्याप्यवनिश्वयत्वरूप Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याटीका एवं हिमी विवेचन ] से प्रतिबन्धक माना आषा तो 'पर्वसो वलिमाम बल्ल अभावव्यायाम' यह मान स्व के प्रति प्रतिअम्बक नहीं होगा। क्योंकि उस कान में बलिप्रकारकरवामाव घटित वलपभावग्याप्यप्रकारकनिश्चयस्वरुप प्रतिबन्धकतावच्छेचकनहीं है। फलतः 'लयमावण्याप्यख्याध्यवान बहिण्याच्याश्च परस:' इस परामधा से 'पर्वतोपहिमान पहचभावण्याप्योन' इसप्रकारको भानुमिति जो धर्मी में बलि प्रकारक मोर पस्न निकाहने संसारकात होगी। तीसरा दोष यह है कि एक धर्मी में स्यागुत्व और माणुस्वामावप्रकारक विरोधाऽविषयक मान में भो संबायस्व का व्यवहार होला है, उसकी इस पक्ष में अनुपपति हो बापणी । इसका अम्यु पगम भी नहीं किया जा सकता क्योंकि यदि यह ज्ञान संपाय से मन्य होगा तो उससे मिश्चषकार्य को अपवि स्थाणुरवप्रकाएक निश्रय के स्थाणस्वाभावप्रकारकज्ञान प्रतिवन्धरूप कार्य की एवं स्थाणुरवाभावप्रकारक मिश्रम के स्थाणवप्रकाएक साल के प्रतिपय कार्य को आपत्ति होगी । फलतः उक्त मान के बाद सरसमानाकारतान की पत्ति न हो सकेगी। विरोधाविषयक उक्त ज्ञान में संशयत्वव्यवहारानुपपत्तिरूप बोष संशय में विरोध के संसर्गविषया मानपक्ष में भी मपरिहार्य है। तृतीयकोष के कारण हो संशय में अस अन्यविध विरोध के प्रकारविषया अथवा संसर्गविषया माम के भम्युपगम का विसीय पक्ष भी अग्राह्य है। [दूसरे प्रकार के विरोध की समीचा ] यति-"स्वतन्त्र रीति से विरोधपदार्थ का इस प्रकार निर्वधन किया जाय किमो धर्म शानविषयतया परस्परमान को प्रतिबन्धकता का अवाक होता है वही परस्पर का विरोध है और संशय का यह निर्वधन किया जाय कि इस विरोध को ग्रहण करनेवाला एक पमी में धमंय का कान हो संपाय है-तो उक्त दोष नहीं हो सकता क्योंकि विशेष्यतासम्बध से स्थाणत्वाभावप्रकारकशान के प्रति स्वप्रकारकमान विशेष्यतासम्बन्ध से स्थागुत्व, तमा विशेष्यता सम्बन्ध से स्थाणामप्रकारक जान के प्रति स्कमकारकझामधिशेयतासम्बन्ध से स्वास्वाभाव, प्रतिबन्धक है। इसप्रकार स्थावरण और स्यानुस्वाभाव में परस्परमह की प्रतिमन्धकता है। अतः स्थास्य और स्थाणुरयामावत्यये बोनों धर्म, विरोषपदार्थ के उस नियंचनानुसार, विरोधस्वरूप हो जाते हैं। प्रस: एक धर्मों में स्थाणुस्व और माणस्वाभावप्रकारक जान के भी विरोधप्राहक हो माने से उक्तमान में संशयासण्यवहार की अनुपपत्ति महीं हो सकती।" किन्तु बिरोधपदार्थ का मोह-अवरना शताया इसप्रकार निबंधन करनेमाले विद्वान भी इस कारण निरस्त हो जाते हैं कि एकधर्मी में उक्त विरोषप्राहक पदय के नाम को संवाय मानने पर 'घट: रूपवान सबसि जान में भी संशयस्व की प्रापत्तिहो आतीयोंकि 'यो यः रूपवान सरमामाबवान' समानकाल में समान' मानपज्ञान का प्रतिबाधक होता है। प्रसः रूपरव-रसत्व भी रूप रस के परस्परप्रहका प्रतिबन्धकताबमवक होने से नियत विरोषस्वरूप हो जायगा। अतः उक्त जान भी एकप्रमों में विरोषणाहक रूपरसस्वरूप धर्म का हान हो जाता है। [संशय में प्रकार विधपा विरोधमान में दोष का उद्धार ] व्याल्पाकार मे सक्त विरोध के सम्बध में उक्त विकल्पों में प्रथमपक्ष का समय 'संशमे १. मूलम्पास्यासप में 'इति शम्द का अर्थ है अवि और उसकी योजना प्रतिक्षिप्ता के पूर्व में अभिप्रेत है और स्वतन्त्र पद के पूर्व में प्रतेन' शब्द का समभिन्याहार विक्षित है । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ मास्त्रवा० मत ग्लो०२० नसभाक्ष्यास्ति' स्यादि ग्राम से किया इस प्रन्थ का प्रारम्भ उच्यते-पागे न बोषः" इन कामों मध्याहार से अभिमत है। पन्थ का प्राशय यह है कि संशय में सदभावव्याप्ति में पर्यवसित तद्रवपू. त्तिस्वरुप विरोध का मान मानने परमो तत-सामावप्रकारक संशष में सदमावस्याप्यवसामिभापत्व नहीं होगा, क्योंकि तवंश में अवधारणामक विषयता हो लवंशविषपक निश्चयस्वरूप है । संशय में तहिस्वधर्म का तमभावव्याप्यत्वाप तावसित्वरूप से मान होने पर भी उस धर्म में अवधारणात्मक विषयता न होने से संशय में तनावमाम्यवत्तानिश्चयश्व नहीं हो सकता। [ 'इत्थं च अन्यसंदर्भ का अन्य रीति से व्याख्यान ] अथवा 'इत्थं च से लेकर 'प्रतिक्षिप्ता' पर्यात ग्राम का नामासम्म समुचित व्याख्यान यह ह मारा, संगम में मासमान धर्मों में विरोषावधारण को आवश्यकता बताने पर पन्य पूर्वपक्षी विद्वानों का यह कहमा है कितनवृत्तिवावि विरोध का संमाय में भाम मामने पर संशय तदभावप्यायप्रकारक निभ्रमरुप हो जायगा अत: संशय के प्रति संशय हो प्रतिबन्धक हो जाने से उसको उपपतिम हो सकेगी। विरोणाविषयक एक घी में स्थाणरव और स्थाणुस्वाभावप्रकारक शान में संशयत्व की अनुपपति होगी। अतः यदि संशय में विरोध माम मानना ही है तो उसमें परस्परमह प्रतिबन्धकसाबमोदकधर्मरूप बिरोष का मान पानना उचित है। क्योंकि इस विरोध का भान मामने पर उक्ता भीष नहीं होंगे-किन्तु ऐसा मानने पर प्रमाण में अप्रामाण्य संकाय के अनुदय का समर्थन जनों से मही हो सकता क्योंकि प्रामाण्य प्रोर अप्रामाण्य के जान में भी वचित परस्परपह की प्रतिबन्धकता होने से उस प्रतिबन्धकता के प्रथमश्वक प्रामाण्यत्व और अप्रामाण्यवरूप विरोभ वगाही अप्रामाण्य के संगाय का पारग न होगा। किन्तु म्याख्याकार का कहना है कि इस विषय को प्रस्तुत करनेवाले पूर्वपक्षी वक्ष्यमाण (-- आगे कही जाने वाली) पूक्तियों से प्रतिक्षित हो जाते हैं । पमाण पुस्लिमों में प्रथम मुक्ति यह है कि परस्परमहप्रतिबन्धकताबनधर्म को विरोध मानकर उसके भान द्वारा संशय में विरोधविष्यकरप का समर्थन करने पर घट रूपयान रसवांन वद्धि में संशवको आपत्ति होगी, क्योति रूपत्व-रसत्य भी उस रीति से स्थालविशेष में परस्परग्रहप्रतिवधकतावच्छेवक होते हैं। दूसरी युक्ति संशय में तासित्वरूप विरोध का भाम मानने पर मो संशय में तवभावव्यास्यप्रकारक निवपत्य की आपत्ति देकर संशयानुपपत्तिड़प रोष बताया गया है उसका समाधान रूप है। सिद्धारतो जम का आशय यह है कि विरोधाऽविषयक एकथमिक स्याणस्व-स्थाणुत्वाभावप्रकारक जान में जो संशयाव के व्यवहार की मापति बतामी गयी है-बह उचित नहीं है क्योंकि 'संशयधिवयोमूत धमो में संशय में ही विरोषमा भान होता है यह जनों की मान्यता महीं है जिसे पहले ही यह कहते हुए स्पष्ट कर दिया गया है कि कहीं विरोष का अवधारण संशय से पूर्व होता है और कहीं संजय के बाव होता है। अतः उक्तशाल के पूर्व प्रथवा बाद में उसमान में मासभरन स्थाणुत्व प्रौरयाणस्वामाव में विरोध का प्रबंधारण माम लेने पर उसमें संशय के जैनसम्मत उक्त लक्षण की स्याप्ति नहीं हो सकती । संशम के साथ विरोध की स्फति-पक्ष में को संबाय में सदभावमिश्नमत्व का श्रापादन कर संशयानुपपत्ति का प्रदर्शन किया गया है उसका समाधाम यह है कि संशय में तवभावम्याप्यांश में अवधारणात्मविषमता न होने से तवंश में प्रवधारणात्मक विषयताखाली नामस्वरूप निश्चयत्व संशय में सम्भव नहीं है। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या १० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] १२३ यदि यह कहा आय कि-"सवभावासकारक साप्रकारकापनत्व ही प्रकारकनिषत्व है। अप्सको कुक्षि में सबंश में अवधारणात्मक विषयता का निवेश प्रनावश्यक है।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि निश्चमत्व की कृशि में रामक बिल: - 4: सरकार ने किश्चिद रुपयत्' इस प्रकार के सत्प्रकारकानध्ययसाय में मसिम्माप्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि'अनुरकट एक कोरिक समाम को ही अनध्यवसाय कहा जाता है। अतः भमध्यवसाय में तत् के समान तवभाव का मौ प्रकार विषया मान होने से मिण्यमस्व को तवभावाप्रकारकत्वे सति तस्प्रकारक मानस्वरूप मानने पर भी मामध्यवसाय में तत्प्रकारकनिश्चयस्य की अतिव्याप्ति नहीं हो सकती"सोपाठीकायोंकि अनकहरनका निट लिन सम्भव होने से मरकटकोटिक संशय को अनध्यवसाय न गन कर 'तबंध में अस्पष्टतात्पषिषमतामाालोमान'को हो तद्विषयकानधन सामना उषित। अतः निचयनको क्षि में अवधारणामविषयप्ता का निवेशनकर सब मावाप्रकारक तत्प्रकारक ज्ञानस्व को निश्चयत्वरुप मामाने पर तविषयकानाध्यवसाम में तहिषयमनिश्चमत्व की आपसि दुर होगी। दूसरी बात यह है किसे भानध्यवसाय में अस्पष्टताल्पविषयता मानुभविक है उसी प्रकार निश्चष में सनव्यवसाप च्यात्त अवधारणात्मक विषयता भी मानुमाविक है। अतः तदभावाप्रकारकतरप्रकारक वामस्य को नियम का लक्षण मानने की अपेक्षा सवंश में अवधारणनामक विषयता को तत्प्रकारक मित्रपका लक्षण मानने में लाघव है। इस विषय का विस्तृत विचार अन्यत्र प्रष्टव्य है। [एवकार प्रयोग की अनुपपति के दोष से निस्तार] व्याख्याशार का कहना है कि अनेकान्तबाव में प्रमाण को एकाम्तता प्रमाण म मान कर कथित अप्रमाण मामने पर भी केवल अर्थ के मिश्चम को प्रापत्ति का हो परिहार नहीं होता किन्तु 'एषकार के प्रयोग की अनुपपत्तिरूप अनिचय की भापत्ति' का भी परिहार हो जाता है । अर्थात् 'स्यात्' पद का योग करके वस्तु के किसी धर्मविशेष का एषकार से प्रबंधारण भी किया जा सकता है। जैसे-चित्रघट में नौलमा को अपेक्षा 'घटः कथविद् मील एव' अर्थात् 'घट अमुकभाग की अपेक्षा नील ही हैं। इस अवधारणा के समान एवं प्रयामघट में पाक से रक्तरूपको चरपतिकाल को अपेक्षा 'यटः कश्चिद प्ररथाम एपघट अमुक काल में श्याम ही है इस अवधारण के समान, ए पाक से घर में रक्तरूप की उत्पत्तिकाल में विद्यमान घट में स्वभाष यानो घरस्वरूप की अपेक्षा "कचित् स एवापमस्वस्वरूपापेभपा अश्यायघट यामघष्ट से अभिन्न हो है" इस प्रबधारण के समान, बस्तु के अन्म अन्य स्वरूपों का भो यात्'-पर सहकृत 'एव' पर से प्रसधारण, भनेकान्तबाव में भी सबंया शक्य है। २१ को कारिका में एकान्तवारी के मत में प्रमाण को एकान्ततः प्रमाणरूपता का अभ्युपगम घुर्घट है इस विषय को स्फुट किया गया है .. परस्य तु दुर्घटोऽयमित्युक्तमेन प्रकटयतिमूलम्-मानं पेन्मानमेवेति प्रत्यक्ष लैहिक ननु । तसन्मानमेवेति स्पास् तापाइते कपम् ॥२१।। मानं थेदधिकृतं मानर्मच-सर्वथा प्रमाणमेव, इति हेतोः सर्वथा प्रमागत्यात् , 'मनु' Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवास० त० ७ लो० २१ t इत्याक्षेपे, प्रत्यक्षं किं स्यात् तस्य सर्वथा मानत्वात् मानसामान्यव्यापकस्वभावत्व एव तथात्वोपपत्तेः । पराशयमाशक्याह-तत्-अधिकृतं मानं तत्प्रत्यक्षं नानुमान, प्रत्यक्षस्वभावत्वाच्चेत् ? एवं सद्भाव दिले अनुमान मानवमन्तरेण कथं मानमेवेति स्याव, प्रत्यक्षस्य विमानत्वेनैव मानत्वात् अनुमानमानवेन चामनित्वात् इति । १२४ 3 [ प्रमाण भी सर्वधा प्रमाणरूप नहीं है ] यदि after किसी प्रमाण को सर्वथा प्रमाण ही माना जायगा तो प्रत्यक्षप्रमाण भी लेकि अनुमान प्रमाण से अभित्र हो जायगा क्योंकि प्रत्यक्ष में एकान्तवासी को सबंधा प्रमाणश्व मान्य है और यह उसे व्यापकरूप से सामान्यतः सभी प्रमाणों के रूप में प्रमानस्थमश्व मानने पर ही उपपत्र हो सकता है। इस पर एकता की ओर से यदि यह शंका को जाय कि - " अभिकृत प्रमाण अर्थात् प्रत्यक्षप्रमाण प्रत्यक्ष करणभाव होने से प्रत्यक्ष हो है अमवरूप नहीं है, इसलिये प्रत्यक्ष को मानात्मक माने दिन भी उसके सर्वथा प्रमाणत्व में कोई बाधा नहीं है ।" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष में सद्भाव तत् अनुमान का भाव अर्थात् अनुमानप्रमाणश्व माने बिना प्रत्यक्ष प्रमाण हो है'यह कैसे हो सकता है ? जब कि एकान्तवादी को अनुमानप्रमाणत्व उसमें दृष्ट न होने पर उसे प्रत्यक्ष रूप से ही प्रमाण और अनुमानप्रमाणत्वरूप से अप्रमाण मानना आवश्यक होता है। अत्र नैयायिकादयः- नन्वनुमानान्यत्वेऽपि प्रत्यश्वस्थ प्रत्यक्षं मानमेव' इति प्रयोगो न दुर्घटः । न हि 'मानमेव' rear retrayi: कस्याप्येकस्य कृत्स्नमानरूपत्याभावात् किवयोगव्यवच्छेदः । तत्र च व्युत्पतिवशात् मानश्वावच्छिन्नप्रतियोगिता का योगोपस्थितैर्न दोषः प्रत्यक्षेनुमानस्यावच्कियोगसच्चेऽपि मानल्याच्छियोगाभावादिति 1 , अत्रेयमेक्कार मर्यादा 1 विशेष्यसंगतैवकारस्यान्ययोगव्यवच्छेदोऽर्थः यथा पार्थ पत्र धनुर्धरः' इत्यादी । विशेषणमं गते त्रकारस्या योगव्यवच्छेदोऽर्थः यथा 'शङ्खः पाण्डुर एव' इत्यादी । क्रियासंगत वकारस्याऽत्यन्तायोगव्यवउछेदोऽथ यथा 'सरोजं नीलं भवत्येव' इत्यादी । अत्र तत्तद्विशेष्यसंगकारा देस्त सदस्य योगव्यवच्छेदादी शक्तिः । [ न्यायमत से 'प्रत्यक्षं मानमेव प्रयोग के उपपादन की आशंका ] नैयाका प्रत्यक्ष को अनुमान से मि मानते हुये भी 'प्रत्मानमेव प्रत्यक्ष एकान्ततः प्रमाण ही है इस प्रयोग की दुर्घटना का निराकरण करते हैं। उनका आशय यह है कि प्रश्व माममेव' इस प्रयोग में माम श के उत्तर लगे हुए एवकार का अर्थ का संपूर्णता ) नहीं है, कोई भी एक प्रमाण समग्रप्रमाण स्वरूप नहीं होता । मतः 'मानमेव' का 'कुन मानम्' अर्थ के प्रत्यक्ष मानम् इस अर्थ को असम्भव हा प्रत्यक्षं मानमेव' इस प्रयोग को द कहना उचित नहीं है। किन्तु 'प्रत्यक्षं माममेव' इस प्रयोग में 'एव' कार का अर्थ 'अयोगव्यवच्छेद है, और पति है कि पत्र से समभिव्याहुत एवं कार तद्धमविछिन्नप्रतियोगि Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] १२५ are अयोग के छेद का बोधक होता है। छातः इस व्युत्पति के अनुसार 'प्रत्यक्षं मानमेव' इस वाक्य से प्रत्यक्ष में मानाचावन्न प्रतियोगिताक अयोग प्रर्थात् मानसामान्य के साम्याभाव देव का बोध होता है। अतः प्रत्यक्ष भी मानस्वरूप होने से उसमें मानसामान्य के सा भाव रूप प्रयोग का देव सम्भव होने से 'प्रत्यक्षं मानमेव' इस प्रयोग के दुर्घटस्वरूप बोध की नहीं होती है क्योंकि प्रत्यक्ष अनुमान का प्रयोग होने पर भी मानव का अयोग यानो तादात्म्याभाव नहीं है। [ विशेष्यसंगत एत्रकार का अर्थ ] इस संदर्भ में प्रसंगवश व्याख्याकार मे प्रसिद्धि के अनुसार अर्थ मर्यादा बताते हुये कहा है fs एवकार तीन प्रकार का होता है- ( १ ) विशेष्यसंगत एवकार (२) विशेषणसंगल एवकार और (३) क्रियासंगत एवकार उम में विशेष्यसंगत एवकार का अर्थ है अध्ययोग श्यम जैसे 'दार्थ एव धनुर:' इस प्रयोग में एवकार विशेष्यवाचक पार्थ पव से समभिष्यात सहोरिल) है अल एव वह प्रयोग का बोधक होता है। उसके अन्ययोग्य अर्थ के एक देश अन्यश्व में पापा का प्रतियोगितासम्बन्ध में अम होता है। पार्थान्ययोगव्यवच्छेद अर्थात् पार्थान्यनिरूपितवृतिस्वाभाव । उसका अन्वय धनुर्धरस्यरूप विशेषण पवार्थ के एक देश में होता है और उप से गृह्यमाण धनुर्धरत्यय का पाथणस्वार्थ में अमेदसम्बन्ध से धन्वय होता है अतः उक्तवाक्य का अर्थ यह पर्यवसित होता है कि पार्थ पाव्य में अवृत्ति तुव के आश्रय से प्रति है। अर्थात् पार्थ में ऐसी विलक्षण पशुधरता है जो पार्थान्थ में अवृत्ति है, ( पार्थाम्य में जिसके योग का व्यदेव से [ विशेषसंग कार का अर्थ | विशेषण संगल एवकार का धयं है अयोगव्यवच्छेद जसे 'शङ्खः पाण्डर एव' इसमें एवार विशेषणोधक पाण्डुर पब से सहोपवरित है अत एक इस वाक्य में वह प्रयोगष्पवदेव का बोधक है। अयोग का अर्थ है सम्बन्धाभाव उसके एकवेश सबन्ध में 'पावडर एकदेश पाण्डवका अन्वय होने से पार एवं का अर्थ होता है - पारत्वसम्बन्धाभाव का प्रभाव उसका स्वरूप सम्बन्ध से शंखपदार्थ में प्रत्यम होने से उक्त वाक्य का अर्थ होल है 'भांखः पाण्डुरश्वसम्बन्धभाषा star' अर्थात् शंख में पाण्डर का सम्बन्धाभाव नहीं होता। सभी पंज पाण्डर ही होते हैं। [क्रियासंगत एवकार का अर्थ ] क्रियासंगत वकार का अर्थ है सत्यायोगस्यद्येव । जैसे, 'सरोजं नीलं भवत्येष' इस वाक्य में 'एव' पद 'भवति' इस क्रियापन से समभिव्याहृत सोचरित है एवं उसका अर्थ है अत्यन्त योगच्छेव । उसके एक देश अत्यन्तायोग में 'भोलं भवति' इस हाय के अर्थ मोलाकोहपति का अन्यय होता है, अतः सरोज में नीलक के उत्पत्ति के अत्यन्तायोग का प्रभाव प्रतीक्ष होता है अतः मीलान्य सरोज में मीलक के उत्पत्ति का अयोग होने पर भी मोल्सरोज में मीलउत्पति का योग होने से सरोज में नीलकर्तृ के उत्पत्ति का प्रयोग नहीं होता अर्थात् सरोज में सोमवव्यापक उत्पत्यभाव का प्रभाव होता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि तसविशेष्यसंगत एवकार को तत्त्वस्ययोगभ्यवपाद्वेव में एवं सत्तद्विशे Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ [ शास्त्रमा स्त०७ लो. २१ पगसंगत एक्कार की तसविशेषण के प्रयोग व्यवसाझेद में, एवं सत्तक्रियासंगस एपकार को तत्तक्रिया के अत्यन्तामोगध्यवशेष में शक्ति होती है। नव्यास्तु-'अत्यन्तायोगव्यवच्छेदो नैवकारार्थः । अत्यन्ताऽयोगो हि न सर्यस्य तज्जातीयस्यायोगवश्वम् , तयवच्छेदस्प सिद्धयसिद्धिपराहतत्वात् । नापि तज्जातीय सर्वप्राध्योगव्यव छेदः, सरोजं नीलं भवत्येव' इत्यादी बाधात् । किन्रवयोगे रजातीयावच्छिमत्वस्य व्यवच्छेदः । सच तज्जातीयस्य कस्यचिदयोगव्यवछिनत्व पगासन इत्यय मध्यम खेर एक यानिकी देशान्वयित्वेनात्यन्ताऽयोगव्यवच्छेदो गीयते। अयोगव्यवच्छेदस्तु 'ज्ञानमर्थ राकात्ये' इत्यादौ । स पान्वयितावनछेदकाघरछेदेन प्रत्याश्यते, 'शानं रजतं गृहास्येव' 'नरो वेदानधीत एव' श्त्यायप्रयोगात् । नियामकस्तु' क्रियाविशेषयोगादिरेव । एवं चैवकारस्प इयमेवाथैः-१, अयोगव्यवच्छेदः, २. अन्ययोगव्यपछेदश्चेति ! अन्ययोगव्यवच्छेद एव वाऽर्थः, सर्वत्रशक्तिपकल्पने गौरवात् , 'शवः पाण्डर एव' इत्यादौ पाण्डरस्वाधिनुपस्थित्या पाण्डरलाययोगव्यवच्छेदस्य प्रत्याययितुमशक्यत्वात् , पाण्डुसन्ययोगस्यवच्छेदस्य तधान्ययात् , 'नीलं सरोजं भवत्ये' इत्यादायपि नीलामन्ययोगस्य व्यवच्छेषत्वात् , अयोगव्यवच्छेवस्यवान्ययोगव्यवच्छेदस्यापि क्वचिदन्ययिताघरछेदकसामानाधिकरण्पमात्रेणान्वये कियारिशेपयोगादेनियामकत्वात् , 'ज्ञानमयं गृहात्येय' इत्यादी पतिको धर्मिपरतयाऽग्राहकापन्ययोगन्यवच्छेदान्धपसंभवान् ।। ___अन्योगश्च प्रातिस्विकरूपेण तात्पर्यसममिय्याहारविशेषवशाद भासते । तेन गन्धादेः संपुससमवायादिनाऽन्यत्तित्वेऽपि 'पृथिव्यामेव गन्धः' इत्पादनानुपपत्तिः, अन्यसमवेत स्वादेव्यवच्छेदान्वयात् । अत्र च गन्धादौ तवृत्ति सदन्यतित्वष्यवच्छेदश्येति इयं प्रतीपते, इति 'पृथिव्यामेवाकाशम् ' इत्यादने प्रसङ्गः । 'चत्रस्य वेदं धनम्' इत्यादी चनान्यस्वत्वादेधने व्यवच्छेदः, न तु चैत्रादिस्वत्वाप्रयोगरूप, उभयस्यामिकादासपि 'चैत्रस्यैव' इत्यादेः प्रसङ्गात् । एवं 'शीतस्यैव स्पर्शस्य जलवृत्तित्वम् । इत्यत्र जलवृत्तित्वे शीतान्यस्पर्शसंपन्धस्य, 'चैत्रो जलमेव अवत' इत्यत्र चैत्रे जलान्यभक्षणक वाय, 'चत्रेणवायं दृश्यते' इत्ययामिश्चैत्रान्यत्तिदर्शनविषयत्वस्य, न तु दर्शने चैत्रापतित्वस्य, चैत्रदर्शनस्य तदन्याचित्वेनोमपदृश्यमानेऽपि ताटशप्रयोगप्रसङ्गात् । एवं च साधारण्यादन्यसंबद्धमेव च्यवच्छेद्यम् , अन्यसमवेतत्वादेरप्यन्यसंवद्धत्वात् , साक्षात् पारम्पर्यण विशेषान् । 'शंखः पाण्डर एय' इत्यादी पारान्यतादात्म्यस्य व्यवस्छेदः, पाणरान्यस्यस्यैव वा । इत्थं चान्यत्वे व्ययच्छेदे च शक्ति, अन्पसंपन्चे लक्षणा, व्ययम्छेद एव पा Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का सीका एवं हिन्यो विवेचन ] १२७ शक्ति; समभिन्याहारादिबलोपस्थिते च पार्थान्यन्यादी लक्षणा, लक्ष्य-शक्पयोरचेवकागर्थयोरेवकारनियन्त्रितन्युत्पत्तिविशेषान परस्परमन्वयः। [नव्यमत-अत्यन्ताऽयोगायवच्छेद एक्कार का अर्थ नहीं ] नव्यने यायिकों का कहना है कि अत्यन्ताऽयोगव्यवच्छेष एवकार का अर्थ नहीं हो सकता पर्योकि अत्यम्तायोग को याद सम्मातीयसमस्सनिष्ठ अयोगरूप माना जायगा तो उसका व्यवस्व उसकी सिद्धि और प्रतिशि दोनों में ग्याहत होगा । बसे, 'मोल सरोज भवत्येव' इस स्थल में सरोजातीय समय में नीलोत्पति का प्रयोग नहीं है क्योंकि सरोग विशेष में नीलोत्पति का योग होता है, प्रतः उसके प्रसिद्ध होने से उसका मावश्व शक्य नहीं हो सकता क्योंकि प्रसिद्धप्रतियोगिका भाव नहीं होता । तथा, 'परमाणवः भवस्येव' इस स्थल में उत्पत्ति का प्रयोग परमाणु सजासीप समस्त में सिद्ध है। अत एव उसका भी व्यवच्छेव करमा शपय नहीं है। क्योंकि किसी भो परमाणु में उत्पत्तियोगरुप 'उत्पत्ति अयोग का व्यवस्व सम्भव नहीं है। यदि यहा जाय कि-"तरजातीय समस्तत्तिस्वका अयोग के साथ सम्बन्ध न कर भयोगव्यवच्छेत्र के साथ संबम्प जोडकर यह मामा नायगा कि क्रियासङ्गत एमकार से सजातीय समस्त में क्रिया के अयोगपषध का बोध होता है प्रतः उक्त बोष महीं हो सकता"-तो पल भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर 'सरोज मोल भवत्येव' इस स्थल में बाघ हो जायगा क्योंकि सोजत्रातीमसमान में नीळकर्मक समायोm at wweी । क्योंकि समस्त सरोमान्तर्गत नीलान्यसरोक में मीलफत क उत्पत्ति का अयोग होने से उसका म्यवस्व समस्त सरोज में असम्भव है। नम्पमत में क्रियागत एवकार का अर्थ ] पतः क्रियाप्तङ्गत एवकार से क्रिया के प्रयोग में कियायोधकपरसमभिव्यादतपब से यजातिविशिष्ट का बोध होता है सजातीयावच्छिन्नस्य अर्थात् तम्जातिध्यापकत्व का बोध मानमा युक्तिसंगत हो सकता है पोंकि भील सरोजं भवायेवास स्थल में नीलकतंक उत्पति का अयोग सरोजाख का श्यापक नहीं है, अत एवं उसमें सरोजस्व के ग्यापकरण के अभाव का बोध हो सकता है। इसप्रकार मियाप्तंगत एवकार का अर्थ होगा व्यापकत्व अयोग और व्यवच्छेव । इन में, ज्यापकत्व में सरोज पदार्य का अम्बष होगा निक्तित्वसम्बन्ध से; और व्यापकत्व का अन्वय होगा स्वरूप सम्बन्ध से अभाव में और अभाव का स्वरूपप्तम्बाय से अवय होगा मीलं सरोज भवमेव' इस स्थल में उत्पत्ति मिलापताश्रयत्वाभावरूप प्रयोग में, उस अभाव की प्रतियोगिता है आषधस्वरूपसम्बन्ध में और प्रवच्छेदकता है उत्पत्ति में, जो उक्त स्थल में सूधातु का अर्थ है । इसप्रकार उस उक्त वाक्य से होनेवाले शायनीष का प्राकार होगा 'मोसामिन सरोज सरोजण्यापकत्यामाववअभावनिहपितप्रतियोगितानिरूपितापरवकतावत्पतितिपिताश्रयतामा किन्तु इसप्रकार नीलोत्पत्ति के प्रयोग में सरोजव्यापकस्वाभाव का बोध मानने पर उसका पर्यवसान सरोजविरोध में नीलोत्पति के अयोगव्यवाद में होता है। पयोंकि किसी सरोज में नीलोत्पति के प्रयोग का अभाव होने पर ही मीलोस्पति के प्रयोग में सरोजव्यापकत्व का अभाव हो सकता है। फलतः क्रिपासनास एवकार का भी अयोगध्यवच्छेन हो अर्थ सिद्ध होता है। और उसका अन्य सरोमजासीय एकवेश में सरोजविणेष में होने से ही उसे अत्यन्तायोगव्यवच्छेब कहा जाता है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवासात सो०२१ 'मानमर्ष महास्येव' इस पल में प्रयोग ज्यानको अस्यातायोगस्यमधेर नही कहा धाता। क्योंकि ऐसे स्थलों में प्रयोगव्यवधेश की प्रतीति अभ्ययितावश्येवमानस्वायच्छेवेत ही मामी जाती नेहो प्रतीति ने करना पड़ गयेषगान रजत की ग्रहण करता हो है' एवं 'नरो वैवानचीते एबममा वेवाव्ययन करता ही है" इसप्रकार का प्रयोग मह। होता। पयोगम्मवमव का अन्वय कहाँ अन्धमितसमठेवकाबनेम हो और कहां अपितावावकसामानाधिकरण्येन हो इसका नियामक क्रियाविशेषमोय अर्थात क्रियाविशेषयोधक क्रियापदों का समभिण्याहार (सहोसधारणही। मत एव सरोजमीनं भवस्ये' इस स्थल में 'भवति' क्रियासमभिष्यात एवकार से सरोजस्वसामामाणिकरण्येन मीलोत्पत्ति के अयोग के पवाव का बोध होता है और 'जानम गमात्येव यहाँ एबकार से ज्ञानस्वावलोवेन ही अर्थप्राइकर के अयोगव्यपोव को प्रतोति होती है। इसप्रकार मग्यमतानुसार एक्कार के दो हो अर्थ सिद्ध होते है (१) आयोगायबच्छेव और (२) दूसरा अभ्योगण्यवस्व [ एवकार का एकमात्र अन्ययोगव्यवच्छेद ही अर्थ ] कित पौर अधिक परामर्ग करेंतो उचित यह लगता है कि एकमात्र अन्ययोगपरस्येव हा सर्वत्र एवकार का अर्थ है अन्यथा उक्त अयों में एप पर की होक्ति की कल्पमा में गौरव है। दूसरी बात यह है कि बिनोषणसमत एमकारका अयोगव्यवच्छेष अर्थ मानने पर खः पाण्डर एक इस मल में पाधारपव से पाण्डव की मत्पशा विषया उपस्थिति न होने से पापाराव के प्रयोगपवाछेद को प्रतीति भी गायोतिपादय का संसली आकाइमाभास्थ होने से पापुरएवरूप परार्थताबमालेखक का एवकाराचं घटक अयोग में प्रन्वय सामव है। अतः इस स्थल में पास में पाराम्यपोगग्यवच्छेदकानी होष माना अषितामोल सरोज भवस्येव' इसस्थल में भी सरोण में नीलादि से प्रग्य के योग यवरखेव को ही प्रतीत होती है। अति उस वाक्य से 'कालाग्ययोगव्यवस्ववत्सरोजं मपति सप्रकारका बोध होतास बोध में एवकार का कियासंगतत्व क्या है ? प्रन्सवितावावेदकलामामाधिकरप्पेन स्वाबोधन में क्रियापसापेक्षस्वरूप है । बर्यो कि असे अयोगव्यवच के स्थविशेष में प्रचयितावस्यकलामामाविकरपयेन भग्वय रियाविशेक के पोगरूपनियामक से नियन्त्रित होता है उसीप्रकार शायपोगव्या मछेव का भी स्थलविशेष में अन्वयिता. वझवसामानाधिकरण्येत पाषय माविशेष योगमा विषामक में सिविल हो सकता है। 'शाममयं गहाल्पव' इस स्थल में सिह प्रत्यय धमोपरक है। अत एव यहाँ मी अचंपाहक के मन्मयोगण्मयसव का ही अन्वय अपितावच्छेवकावयेवेन होता है। [अन्य योग का प्रतिभास भित्र भित्र रूप से ] अध्ययोग, तात्पर्यविशेष अथवा समभिव्याहार विशेष से प्रातिस्विरूप से अर्थात कहीं शतविशेषाश्ययोग के सम्म माप्य किसी रूपविशेष से, तो कहीं तत्तदिगोषणाययोम के साहारूप से और कहीं सिरतपदोपस्थाप्य तत्तवधाययोग के सारशल्प से, भासित होता है। इसलिये गायक पृथ्वीभिन्न में स्वामय संयुक्त समवायसम्हरव से रहने के कारण पृरुषोभिन्न काम्बाश्रयसंपुरुसमवायसम्बयामिन्नत्तिस्वकप सम्बन गन्म में रहता है तो भी 'पविम्यामेव गम्मः' इस प्रयोग की अनुपपास नहीं हो सकती, मयोंकि यह पथिोष मणवा समिध्याहारविशेष से 'पृथ्वीमिनसमवेत रूप आपयोग के ही भ्यबाछेव का अम्बष्ट है और वह गम्भ में बाधित है क्योंकि गता पृथ्वी से Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यक सोका एवं हिन्दी बियेचन ] ૧૨૯ अग्य में समाहा । 'पृषिमागे ग म अनाररिस होती यदि अन्मयोग का प्रातिस्विक प्रति सम्वावस्यव्याप्यरूप से भान न मान कर तलवन्मसम्बरवाषरूप मान माना जाता। क्योंकि उस विपति में गन्ध में प्रवामिन का उक्त सम्बन्धावनिवृत्तिस्य रुप सम्बन्ध रहने से पृथ्वी अन्यसम्मम्धाभाष बाधित होता। किन्तु सम्बन्धत्वव्याप्यरूप से प्रभ्ययोग का भाम मानने पर उक्त स्थल में पृथ्बोप्रायमोग का समवायसम्बन्धावच्छिन्नवृतिस्वरुप सम्बन्घत्वग्यामधर्म से भान मानने के कारण उक्त प्रयोग की अनुपपत्ति नहीं हो सकती। पृथिव्यामेव गन्धः स पाक्य से गन्ध में पृथ्वीपुत्तित्व पातो पृथ्वीसमवेतत्व और तदन्यवृत्तित्व का व्यवच्छेष अर्थात पृथ्वोभिन्नसमवेतस्वाभाव, वोनों मयों को प्रतीति नियम से होती है 1 अत एवं प्रकाश में एवीन्यनिपितसमवेतरखामावस अर्थ अधाधित होने पर मौपच्चीसमवेतश्वरूप अर्थ साथ होने से प्रथिव्यामेवाकाशमस प्रयोग को आपत्ति नहीं होती। इसी प्रकार मंत्रायवेवं धनम्' इस स्थल में धन में बनान्यनिरुपित स्वत्व के प्यमयेद की प्रतीति होती है न कि क्षेत्रनिरुपितस्त्राव के अयोगम्यपच्छेव को प्रतीलि होती है। क्योंकि यषि विसीयप्रतीति मानी जायगी सोय मैत्र उभयस्वामिकथन में भी 'पत्रस्यवेवं यनम्' इस प्रयोग की वापत्ति होगी। क्योंकि उस धन में भी चंअनिरूपित स्वत्व के अयोग का अभाव है। किन्तु प्रथम प्रोति मानने में कोई रोष नहीं है, क्योंकि उक्त धन में चान्यनिरूपित स्वस्व के मी रहने से उसका मनाप बाधित है। इसी प्रकार 'शीतस्य स्पर्शस्य जरूसितम्' इस स्थल में जलवृत्सिव में शोता. यस्पर्श के सम्बन्ध का, मंत्री जलमेव भुयते' इस स्थल में चत्र में जलायभक्षणकर्तृत्व का; एवं 'चत्रणवायं दृश्यते' इस स्थल में बनान्यवृतिदर्शनविषयःव का व्यवच्छेद घोधिप्त होता है। अन्तिम वाक्प ले वर्शन में मैन्यत्तिस्य के व्यवहद का पोय नहीं माना जा सकता, क्योंकि वेसा मानने पर चत्र-वर्शन में क्षेत्रान्यत्तित्व का अजाम होने से चयमैत्र उभय से दरषमानपदार्थ में भी 'चैत्रेणैव प्रय दृश्यते' इस प्रयोग की आपत्ति होगा। सर्वत्र अन्यसंवद्धता ही एपकार से व्यवच्छेद्य ] इस प्रकार साधारणरीति से अन्यसम्बन्धत्य ही सर्वत्र एवकार में व्यवदेश होला है। अन्य समवेतत्यादि भी अन्यसम्बाउन्यरूप होने से हो स्मखमय होता है। किन्तु ज्ञातव्य है कि माथ सम्माद्धत्व कहीं साक्षास सम्बय से अन्यमानत्वज्य होता है और कहीं परम्परा सम्बन्ध से अन्यसम्पा. स्वरूप होता है। 'शंख: परि एवं इस स्थल में शंज में पारान्य सादारभ्यरूप पारात्यमोग का ध्यबस्व प्रतीत होता है अथवा पाण्डुरास्यत्व का ही व्यवस्टेष प्रतीत होता है। इस प्रकार मन्यत्व और प्यवच्छेव इन वो अर्थ में 'एष' पत्र की शक्ति है। 'शंग्ण पार एवं' इस स्थल में शक्ति द्वारा 'एच' पत्र से शंख में पारान्यस्य के अभाव की प्रताप्ति हाती है और पार्ष एम धनुर्धरः' इत्यादि स्थल में एव' पद को अन्यसम्बन्ध में सक्षणा द्वारा पायिहासन्ध के अययस छेद की प्रसोति होती है। [व्ययकछेदमात्र में शक्ति माने तो लाघव ] अषया लाघव से एक्कार की शक्ति व्यवस्दमात्र में ही है 'पार्य एवं धनुधरः' यही समभिव्याशाराविश्वल में पार्थान्यत्वापि की उपस्थिति होने से पायसम्बन्ध में एव पद की लक्षणा हो माती है, एवं 'शखः पावर एव' में पाण्डुरसम्बत्व में लक्षणा हो जाती है भोर ध्यय येव प्रभाव में Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रमा स्त०७इलो. २१ उसका प्रतियोगिता सम्बन्ध से प्रापय होता है। यद्यपि अन्यत्र एकपर लक्ष्य और शस्य अर्थ का परस्पर में अन्वय नहीं होता है किन्तु एव पर शक्य और लक्मार्थ का एक्कार से मिपन्धित व्युत्पत्ति विशेष से परस्पर में मन्यम हो सकता है। अतः एव पक्ष के हास्या और लण्यार्थ के परस्परान्वय के हष्टान्त से अम्मपक्ष के शम्याप और लक्ष्य प्रर्य में परस्परान्वयबोष का आपावन महीं किया जा सकता, क्योंकि अपवस्तिवावय में एखकारनियन्त्रित व्यरसिका असाव।बह व्युत्पत्ति इस प्रकार -एचपदप्रयोक्यलक्षमाधनिष्ठविषयतामिपिसशपयार्थविषयता एबपक्षप्रयोज्य:भवति । इसका मूलभूत कार्यकारणभाव इस प्रकार है कि 'एक्सवप्रयोज्यलक्या मिष्ठविषपतानिरूपितशम्यामिष्ठाविषमसासम्बन्धेन शमशेषं प्रति 'एषपमिष्टशक्तिमाममन्योपस्थितिः विशे यतासम्बधेन कारणम् । प्रस: घटपन की नील में लभमा मानकर 'नीलः घटः न शुबलः' इस पोम के सात्पर्य से 'घटो न शुक्लः' इस प्रयोग को आपत्ति नहीं हो सकती। 'गुणवदेव द्रव्यम्' इत्यादौ द्रव्यादावेच गुणवदाद्यन्यत्त्वस्य व्यवच्छेदः, न तु द्रव्यवादी गुण्यदायन्यचित्तस्य । चैव एव पचति' इत्यादी लक्षणयोपस्थिते तारशक दी चैत्रान्यत्वादिव्यवच्छेदः । 'आत्मनैव ज्ञायते' इत्यादौ शानादावामान्यसमवेतत्वस्य व्यवच्छेदः । 'शीत एव सझे जलयुत्तिः' इत्पत्र जलवची शीतान्यस्पर्शतादात्म्यस्य, जलशतिस्पर्श वा शीतान्यवस्य । 'जातिमत्वेव सत्ता, इत्यादी 'समवति' इत्यध्याहारेण समपाये जातिमइन्यत्तित्व विशेषस्य व्यवच्छेदः । इह भनने मैत्रेणैव पत्यते तेमनम् हन्यत्र मैत्रायस्पिस्तादृशांतव्यवच्छेदो लक्षणमा योध्यते, ततद्भवनहतितेमनादौ मैत्रान्वपश्यमाणलादेन्यवच्छेतुमशक्पत्वात् । एवं "आत्मनेर तेमनं ज्ञायते, इयते, पच्यते, भुज्यते' इत्यादावामान्यज्ञेयत्वादेसिद्धत्वेन व्यवच्छेदाऽसंभवादियमेव रीतिरनुसतव्या | [विविध प्रयोगों में एचकार के व्यवच्छेय का निर्देश ] (१) 'गुणध येव वृष्यम्' इत्यादि वाक्यों में एक्कार से प्रत्यादि में गुणवदावि के भैर का यमस्येच होता है, किन्तु अध्यात्वादि में गुणववादि से भिन्न वृत्तिस्य का ध्यवच्छेव नहीं होता, पयोंकि पंसा व्यवच्छेव मामने पर प्रस्वरूप पवायरवेश में भवन होगा और वह अन्वप भी उपपन्न नहीं हो सकता, क्योंकि द्रव्यपर से व्यत्व म्वरूपतः उपस्थित होता है। प्रतः उसमें गुणवद्धिन पत्तिस्य के अमाव का योष नहीं हो सकता, क्योंकि पदार्थ के अन्वय बोध में अन्वयितावच्छेवकरूप से अन्नयी की उपस्थिति कारण होती है।() 'ध एव पचति' इत्यादि वायम में ति' प्रत्यय की धर्मों में लक्षणा करने से उपस्थित पाककवि में एवकार से बवान्यायावि का सबच्छे होता है। (३) मात्मनंब जायते' रिपारि वाक्य में एवकार से ज्ञानादि में आरमान्य-समवेतत्व का यवमय होता है। (४) 'शोत एव स्पर्णी नलवृत्तिः' इस वाक्य में अलवृत्ति में मातायस्पर्श के तावारम्य का व्यवसाय होता है अथवा मलवत्तिस्पर्श में पौतान्यस्व का व्यषलेव होता है। (५) 'जातिमत्येव सत्ता' इत्यादि बामों में समति' पर का अय्याहार कर के समवायरूप धास्वयं में जातिमभिन्न के सिस्थविशेष थानी स्वरूपसम्बन्धावछिन्नतित्व का व्यवसव होता है। (१) 'ह भवने मवेणव पक्ष्यते तेमनम' इस बारम में मंत्रान्य में एकअपनवृत्ति तेमनकर्मक मावि मैत्रहुंक पाकानुकूल कृति का अभाव Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का एवं हिम्को विवेचन ] १३१ लागा द्वारा घोषित होता है क्योंकि एतवमतितमनार में मंत्राम्सकी कमाविपाककर्मत्यादि का ग्यवस्थेव अशक्य है क्योंकि पाक मेश्रककाव के प्रश्बय से अवरुद्ध है, अतः उसमें मंत्रालयका करण का अन्वय नहीं हो सकता है, मस: मंत्रायककपाककर्मत्व में एष पद के प्रात्पर्यग्राहकका संनिधान होने से उस मर्म में एमकार को लक्षणा नहीं हो सकती। (७) सीप्रकार 'मारमनंव तेमनं जायते' इस्पावि बावों में एपकार से आरमान्यालमवेत मानविषपश्व की अनसिसि होने से उसका अपवयव महीं हो सकता । असा 'आत्मनैव ज्ञायते प्रथया इह भव' त्यादि के अनुसार एष पद की आरमायसमवेतत्व में लक्षणा करके जाना में उसके व्यवसका अथवा भारमपब की अनात्मा में लक्षणा करके उसमें तेमनविषयकाहानाथालयस्व के व्यवसलेव का बोध माममा चाहिये। अपरे पृन:-एवकारस्यात्पन्नाभायः, अन्योन्याभाबश्वार्थः । 'पृथिव्यामेव गन्धः' इत्यत्र पृथिवीपदे पृथिव्यन्यस्मिल्लक्षणया गन्धे प्रकृत्यास्तिविभवम्यर्थस्य लाणिकान्धितविभक्यान्वितस्यैवफारार्थन्यवच्छेदस्य घाऽन्वयः । 'पार्थ एय धनुर्धरः' इत्यत्र शक्य पार्थे विशेषयस्य धनुर्धरस्प सादात्म्येन, लक्ष्ये च पार्थान्यस्मिन धनुर्धरान्योन्याभावस्यापाराधेयभावेन । 'शीत एव स्पर्शो अलवृत्तिः' इत्यत्र शीतपशीपस्थापितयोः शीत-तदन्ययोरभेदेन स्पर्मोऽन्वयः, शीतान्वितस्पर्श जलवृत्तितादात्म्यम् , शीतान्यस्पर्श च जलवृत्तरन्योन्याभाववस्वं प्रतीयत इण्याथलम्'। [एत्रकार का अर्थ अत्यन्ताभाव-अन्योन्याभाव, अन्यमत ] ___ अन्य विद्वान् एवहार का दो अर्थ मानते हैं-मस्पाताभाष पार अन्योन्याभाव । इसके अनुसार 'पृथिव्यामेष गन्धः' इस वाक्य में पृथ्वीपर को पृथ्वी अन्ध में लक्षणा होमे से गन्ध में पृथ्वी रूप प्रकरपर्थ से अन्तित समवेतत्याप विभक्ति-अयं का और पृथिवी-प्रत्यरूप लाक्षणिकार्य से अन्वित समवेतस्वरूप बिभात्यर्थ सेषित एवकारार्थ प्रयन्साभाव का अम्बय होता है इसलिये उस पाक्य से स्वीसमवेत: पृथोभिलासमवेतः गन्धः' इस प्रकार का बोध होता है। पार्य एष धमुधर स वाक्य में पारूपशपयार्य में धनु ररूपविशेषण का ताबारम्थसम्बाध से और पार्याम्यरूप लम्याध में धनुर्धर शन्धार्थ से प्रषित मन्योन्यामायाप एयकार्य का प्राधा राधेवभाष स्वरूपसम्बन्ध से सम्मय है। एवं 'शोत एप स्व: अलवृतिः' इस वाक्य में पासपा के पार्थ पोत घोर लाक्षणिकार्य शोतान्य का अमेव सम्बन्ध से स्पर्श में मन्वय होता है । एवं शीतपद के शक्यार्थ से निवास स्पर्श में बलत का सावा. हम्प सम्बध से एवं शोतान्यरूप लाक्षणिकार्य से अश्विात स्पों में अलसिशया से अग्यिस अन्योन्याभावरूप एवकारार्थ की प्राप्ति होती है। इस प्रकार उस्तवाक्य से 'शोत: स्पर्य जालतिः शीतास्यस्पर्शः जललिमिनइस प्रकार का बोध होता है। अन्ये तु–'अन्यो व्यकछेदशार्थः । व्यवच्छेदोऽपि च द्वधी-अत्यन्ताभावश्च, अन्योन्याभावश्च । एचकारे च प्रायेण समभिटयाहतप्रातिपदिकसमानविभक्तिकन्यम् , विभक्त श्रवण तु लुप्तत्वात् , स्वभाववैचित्र्याच्च । तदर्थेऽन्यस्यान्वयो न व्यवच्छेदस्य, समभिव्याहतप्रातिपदिकार्थस्य चैत्रकारोपस्थितेऽन्यपि ममप्यन्ययः । एवमन्ययान्तरनियमोऽपि, स्वीकार्यान्विनार्थान्तर Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गास्त्रपात सालो. २१ पोषकत्वमपि तस्य स्वभावचिन्यादेव । एवं च पृथिव्यामेव गन्धः' इत्यत्र पृथिव्यां गन्धः, पूयिष्यन्यस्मिन् न गन्धः' इत्यन्ययः । 'चैत्रो जलमेव मुक्ते' इत्यत्र चित्रो जलं मुक्ते, जलान्यत् न भुक्त' इति । 'पार्थ एव धनुर्धर' इत्यत्र 'पार्थो धनुधरः, पार्थान्यो न धनुर्धरः' इति । 'शंखः पाण्डः, न पाण्डुरान्यः' इति' इति वदन्ति | • [एवफार का अर्थ अन्य और व्यवच्छेद-मतान्तर ] अन्य विद्वानों के मतानुसार 'एच' का अर्थ है यम्य मोर म्यवसझेव । व्यवच्छेय भी दो प्रकार का है-प्रत्यान्ताभाव और प्रायोन्मामाव । एक्कार प्रायः समभिव्याहत प्रातिपषिक[=नाम] का समामविभक्तिक होता है किन्तु एब पर उत्तर विभक्ति का लोप हो जाने से उसका प्रयोग नहीं किया पाता । अथवा स्वभावतः एवषद के संनिधान से प्रतिबन्ध हो जाम से विभक्ति का श्रवण नहीं होता । एषपदोतरविमाश्यर्थ में एनपद के अन्यरूप अर्थ का अन्वय होता है. व्यवच्छेवरूप श्रयंका प्रत्यय नहीं होता। समभित्यात प्रातिपविक के अर्थ का एक्कार से उपस्थित सम्यरूप प्रषं में मी अम्बय होता है। इसी प्रकार उसके अत्यन्तामाप और अन्योम्यामावरूप अर्ष के भी अन्वयका व्यवस्थित नियम होता है 1 'एषपर अपने एक अर्थ से अन्वित अपने ही अन्य अर्थका पोषक होता है'-मह भी उसके स्वमाया ही होता है किन्तु यो का ऐ बाब नहीं है, क्योंकि अन्यत्र भनेकार्थक हरि' आदि पक्षों में प्रपने एक अर्थ से अन्वित अपने ही अन्य अर्थ की पोषकता नहीं होती। इस प्रकार पृथिव्यामेष गम्घ.' इस पाक्य से 'पृषि मन्ष:- पृषिम्यन्यस्मिन् न गन्धः' यह बोध होता है। पूसरा बोष एवं पत्र के संनिधान से सम्पन्न होता है क्योंकि एष पद के 'अन्य' रूप मर्थ में पृथ्वी पदार्थ का अविष हो जाता है और 'अन्य' रूप प्रपंका एषपदोसर सप्तमीविभवस्यर्थ वृत्तियधिशेष में अन्वय होता है। उसका अन्वय एयपद के द्वितीय अर्थ अध्यन्तामाब में होता है । 'चत्रो जलमेव मुक्ते' इस वाक्य से "चत्रो जालं मुलते-'मला-यद न मुहाते' यस प्रकार का बोध होता है एवं 'पाचं एक धनुघर' इस वाक्य से 'पार्थो धनुषरः पार्थान्यो म धनुर्धरः' यह बोध होता है। इसी प्रकार गांख: पाण्डरः एच' इस पाक्य से 'शंखः पार न पाण्डुरान्यः' इस प्रकार का घोष होता है । अन्तिम दोनों वाक्यों से वित्तीय भर्य का बोध एवपद के अन्य और सम्योग्यामार का प्रथं द्वारा निष्पन्न होता है। अम्र मः-'प्रत्यक्षं मानमेय' इत्पनाऽस्तु मानत्वायोगव्यवच्छेदः, मानान्य योगय्यबच्छेदी वा, तथापि 'प्रत्यक्षेऽनुमानत्वेन न मानत्त्वम् , 'प्रत्यक्षमनुमानत्वेन न मानम् ' इति प्रतीत्या विशेषरूपेण सामान्याभावस्य, विशेषरूपेण सामान्य मेदस्य वा सिद्धो न सर्वथा नव्यचच्छेदः शक्यः । - "शक्य एव मानस्वत्वपर्याप्ताबनिनप्रतियोगिताकोऽयोगा, मानन्यपर्याप्नाचछिमपतियोगिताको बाययोगो इपयन्छेत्तुम् , विशेषरूपेण सामान्यामारस्पातिरेके नस्य विशेषरूपपर्याप्तालिमप्रतियोगिनाकवाव , 'अनतिरक च विशिष्टरूपपयांप्सायनियनपतियोगिवाकस्मात्" इति चेत् ? न, तब विशिष्टानतिरेकेण शुद्धाऽपर्याप्तस्य शिशिष्टाऽपर्याप्तत्वात् । अतिरिक्तपर्याप्तिकम्पने नत्र विशिष्टनिरूपितत्व-तत्तवपन्धादिगधेपणायाममनवम्यानात् । 'अनु Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या टोका एवं हिन्दी विदेघन ] मानवेन न मानत्वम्' इत्यत्रानुमानत्यस्य मानत्याऽवृनितथा व्यधिकरणधर्मावच्छिमातियोगिताकाभावपर्यवसाना( ? ने च) अनुमानेऽपि तथाप्रयोगप्रसङ्गात् । [प्रत्यक्ष में मानवायोग और मानभेद का सर्वथा उपयछेद अशक्य-उत्तरपच ) उपर्युक्त अनेक मत्तो मार्य : निण करने के : आता मह विखा कि प्रत्यक्ष मानमेव' इस वाक्य में एषकार प्रत्यक्ष में मानव के श्रयोग का व्यषनव हो या मानान्ममोग का व्यवहो किन्तु मानस्वाभाव अपघामामाग्याप का सर्वथा व्यवच्छेच तो अशक्य है क्योंकि 'प्रत्यक्षे अनुमानरवेम न मानत्वम्' इस प्रतीति से विशेषरूप से सामान्यभाव अर्थात अनुमानस्वात्मकमानत्व का अभाव यानी अनुमामस्वनिष्ठतामात्म्यसम्मन्यावचिन्नासच्छेदकतानिशक्तिमानस्वनिष्ठलियोगिताक क्षमा सिर है। इसी प्रकार 'प्रत्यक्षं अनुमानत्वेनम मालम्स प्रतीति से विशेषरूप से सामान्यमेव-अनुमामा भिष्कवरोधकतानिपिसमानसामान्यनिष्ठतावास्यसम्मम्पायजिन्न प्रतियोगिताक अभाव सिश है। [अत्पक्ष में मानत्यायोग के व्यवच्छेद की शक्यता-पूर्वपश्च ] पदि यह कहा जाय कि-"प्रत्यक्ष मानमेव' इस वाक्य में यदि एक्कार से मामस्वत्व. पर्याप्तावश्वकासाकप्रतियोगिताकसामान्याभाव अथवा मानत्वपर्याप्तासम्छेवकताकप्रतियोगिताक मामसामास्यमेवबायोगरूप अत्ययोग का व्यवसाय क्योंकि उक्त प्रतीतिभों से प्रत्यक्ष में सप्रकार का मानस्वाभाव या मामभेव सिल नहीं है क्योंकि विशेषरूप से सामाग्पाभाव पवि विशिष्ट सामान्यमेव से भिन्न होगा तो यह विशेषरूपपर्याप्सावशेषकसानिरूपिलसामान्यनिष्ठप्रतियोगितामा प्रभाव होगा, न कि सामान्यषनिष्ठावग्रेवकताक प्रतियोगिताक अभाषरूपहोगा। यदि विशिष्द सामान्यामाद से अभिन्न होगा तो विशेषरूपविशिष्ट सामान्यकपनिाठ अवशेषताक प्रतियोगिताक होगा फिर भी सामान्यधर्मनिष्ठावच्छेमताक प्रतियोगिताक सामान्याभावरूप नहीं होगा । जैसे घटत्वेन प्रध्यसामान्याभाव, घटस्वविशिष्ट व्याभाव से अतिरिक्तश्व पक्ष में घटत्वमिष्ठावमवकताक सामान्यनिष्ठप्रतियोगिताक प्रभाव है, एवं प्रतिरित पक्ष में घटत्वविशिष्ट अन्यत्वनिष्ठावशेषकताकप्रतियोगिताकामाब है। किन्तु द्रव्यएम मिल्छामच्देषकताकप्रतियोगिताक प्रध्यसामाग्याभाष रुपमहाँ है । उसोप्रकार 'अम्मानस्वेन नमानस्थम' अथवा अनुमानसेन न मानः' इन प्रतीप्तिओं में प्रथम प्रसीति खे अनुमानस्वनिष्ठ तादात्म्यसम्बन्धामिनावशेषतामिपितमानवनि प्रतियोगिताकामाब प्रया अनुमानस्वपिविष्टमानवस्वनिष्ठावच्छेवताकप्रतियोगिताकाभाव सि.स होता है कि मामस्वत्पनिकटावबछेवकताकप्रतियोगिताक मामस्वसामान्याभाव सिद्ध नहीं होता और द्वितीय प्रतीति से मानस्वमिष्ठअवस्छेदकताकमान सामान्यनिष्ठतायाभ्यसम्बन्धान प्रतियोगिताक अभाव मबया अनुमानाम विशिष्टमानस्वनिष्ठ प्रवच्छरकताक माननिष्ठप्रतियोगिताकमेव सिम होता है किातु मानत्वपर्याप्तावच्छेवर तानिरूपित प्रतियोगितानिरूपकमानसामान्य मेद सिद्ध नहीं होता। अतः 'प्रत्यक्ष मानमेव' इस बाप में एवकार से मानत्वसामान्याभाष अथवा मानतामाम्यमेव के स्वच्छव का बोध होने में कोई बाधा नहरें है।" [विशिष्ट-शुद्ध के अमेद व्यवच्छेद की अशकता-उत्तरपच ] तो पह ठीक नहीं है, क्योंकि म्यायमत में विशिष्ट और युद्ध में अमेव होने से को गुड में Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ मास्ववा० स्त०७ लो० २१ अपर्याप्त है वह विशिष्ट में पर्याप्त नहीं होता। मत एम अनुमानस्वविशिष्ठमानस्वस्व में पर्याप्त अत्यन्ताभावीय प्रतियोगिताबच्छेवकता भामस्वत्व में भी पर्याप्त होगी एवं अनुमानस्वविशिष्ट मानव में (पर्याप्तमेवीयप्रतियोगितामधेयकता मानव में ही पर्याप्त होगी। इसलिये उक्त प्रतीति से मानस्वस्वपर्याप्साबमाछवकताक प्रतियोगिताकात्यन्ताभाष एवं मानत्वपर्याप्तावस्यकताकप्रतियोगिताकमेव भी सिट है। अत एष उसका प्यवसछेव पास्य नहीं हो सकता । [अतिरिक्तपर्याप्ति मानने में अनवस्था ] यदि इसके उसर में यह कहा जाय कि-"पर्याप्ति स्वरूपसम्बन्धविशेषरूप नहीं है किन्तु अतिरिक्त है । अतः विशिष्टानिष्ठ पर्याप्ति का शुद्ध हिटरव भावायक नहीं हो सकता, क्योंकि विशिपटमिष्ठपति यति बिशिष्टारमक होती तो विशिष्ट -ग्रड में ऐक्य होने से वह शुद्धात्मकमी होतो! सब उसका शुद्धनिष्ठाप आवश्यक होता। किन्तु सब विशिष्ट निष्ठपरित विशिष्ट से भिन्न है तो उसका शुनिष्ठ होना आवश्यक महीं है। अतः प्रत्यक्ष में विशिष्टमामस्वत्वपर्याप्तावस्थेवकसाक प्रतियोगिता अत्यस्ताभाव एवं विशिष्मानस्वनिष्ठावकताप्रतियोगितामाम्योत्याभाव के सिव होने पर भी शुद्धमानत्वस्वमिष्ठापच्छेवकताकप्रतियोगिताकास्यन्ताभाव एवं शुबमानस्यनिष्ठावा;षकताकप्रतियोगिताक पम्पोन्यामाव सिद्ध नहीं हो सकता।"-तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि पारित को स्वरूप सम्बन्ध वियोष न मानकर अतिरिक्त मानने पर अनबस्था होगी। कारण पर्याप्ति यति सम्बन्धी से अतिरित होगी तो इसके साथ पर्याप्ति के सम्मथ की कल्पना फरमो होगी। और यह सम्बन्ध यवि सम्बन्धीस्वरूप होगा तो पर्याप्तिको लम्वधीस्वरूप मानने पर नो बोष होता है उसका परिहार हो सकेगा। यदि वह सम्पग्य भी सम्बन्धी से भिन्न होगा तो उसके भी सम्बन्धान्तर को कल्पना करनी होगी । फिर उस सम्बन्ध के विषय में भी उसी प्रकार के प्रश्न और उत्तर का क्रम चलेगाफलतः पर्याप्ति को स्वरूपसम्बम्पविशेषरूप न माम कर सम्बन्धी से भिन्न मानने पर प्रनवस्था होगी। [विशेषरूप से सामान्याभाव का प्रतिक्षेप-पूर्वपक्ष ] यदि यह कहा जाय कि "अनुमानस्वेन म मानत्मस प्रतीति को तावात्म्पसम्बन्धावश्विन प्रनुमानत्वनिष्ठ अब साहेवकप्ताकप्रतियोगिताक अमार विषयक मामने पर ही बससे विशेषरूप से सामान्याभाव सिट हो सकता है किन्तु उसमें गौरव है क्योंकि उस प्रभाव की प्रतियोगितात्रयेवक कोटि में अनुमामश्य और अनुमानयत्व बोनों का प्रवेश होता है अत: जहाँ अनुमानस्व को सादाराम्यसम्बन्ध से अभावप्रतियोगितावमाछेदकला के अभ्युपगम का प्रसङ्ग होगा वहां स्वरूपसम्बन्ध मे अनुमामस्वत्व को ही प्रतियोगितावच्छेदक मानना उचित होगा । यदि अनुमानत्वेन न मानवम्' इस प्रतीति को भनुमानश्पनिारस्वरूपसम्बधाबसिनावाटेवरताक प्रतियोगिताक अभावविषयक माना जाधमा तो अनुमानश्व के स्वरूपसम्बन्ध से मानत्वनिष्ठ महोरे से यह व्यभिकरण धर्मावरिछन प्रभाव होगा। मतः स प्रतीति से विशेषरूप से मामान्माभाव की सिद्धि बताते हुये मानस्वस्थपर्याप्तावसझेवताकप्रतियोगिताक अभाष को भी सिद्ध कह कर उसकी व्यवधता का निराकरण उचित नहीं है।" [ अनुमान में 'अनुमानवेन न मानत्वं' इस प्रयोग की आपति-उत्तरपक्ष ] सो मह ठीक नहीं है क्योंकि मुखधर्म के प्रभावप्रतियोगिताबकवाय पक्ष में यह प्रतीति भी अनुमानस्वनिष्ठ तादाम्यसम्बन्धाय चिन्नावरवक्ताकप्रतियोगिताकप्रभाव विषयक हो सकती है। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मा टीका एवं हिन्दी विवेचन ] और यवि गुरुधर्म को प्रभावप्रतियोगितावच्छेनफल्न मान्य न हो तो 'अनुमानत्वत्वेन न मानस्वस्' इस प्रतीति से प्रत्यक्ष में विशेषरूप से सामान्याभाव की सिधि द्वारा मामस्वावपर्याप्तावस्येवताक प्रतियोगिसक अभाव की सिद्धि का समर्थन किया जा सकता है। यदि यह सबनकर उक्त प्रतीति को मनु मानवनिष्ठस्वरूपसम्बम्पावच्छिन भवनोवताक माननिष्ठप्रतियोगिताक अमाप विषयक हो माना जायगा तो यह आधिकरणयविभिन्न प्रतियोगिताक अमाव हो जायगा । फिर प्रत्यक्ष के समान अनुमान में भी 'अनुमानत्वेनम मानरयम' इस प्रयोग को आपत्ति होगी। किश, व्यधिकरणधर्मावच्छिनामावस्य प्रामाणिकवाद मानस्त्रावच्छिमप्रतियोगिताकस्य घटाभावस्य प्रत्यक्ष सन्चात् कथं तव्यवच्छेदः मानन्यायच्छिमभाननिष्ठप्रतियोगिताकस्थ सामान्यरूपेण विशेषाभावसत्त्वे वा तादृशातत्सामान्यनिवप्रतियोगिताकस्याभावस्य व्यवच्छेपत्याद न दोष" इति चेत् ? न, मानन्धेन मान-पटोमयाभावस्य तथात्वात् । 'मानमात्रनिष्ठप्रतियोगितोपादाना न दोप' इति चेत् १ न, तथापि 'प्रत्यक्षघटौ न मानम् ' इति प्रतीते प्रत्यक्षघटोभयस्त्राबछेदेन सादृशमानत्वावच्छिनामावस्य सस्वात् तत्र सद्ध्यवच्छेदाऽयोगात् । प्रत्यक्षत्वानच्छिन्नाधिकरणताफस्य च तादृशाऽभावस्य सिद्धयसिद्धिपराहतत्वेन ध्याच्छेत्तुमशक्यत्वात् । अथ बैंशिष्टयथ्यासज्पत्तिधर्मावछिनाधिकरणताकाभावसच्चे तदन्यत्वमप्युपादेयमिति चेत् ? न 'य एव लदे वयभारः स एव इद-पर्वतयो' इत्येकत्यप्रत्ययात, व्यधिकरणावच्छियाधिकरणताकाभावस्य सत्त्वाश्च । "शुद्धाधिकरणताकत्वविशिष्टविशेषयातया तदन्यत्वरूप व्यवच्छेस' शक्यत्वादन दोप" इति चेत् न, 'मानत्वेन पटो मानमेव' इति प्रसङ्गात । 'मन्त्र निरुक्तविशेषणतयापि मानान्यनमस्तीति चेत् ! तयैव तहिं प्रत्यक्षेऽपि समिति सदस्यो दोषः । तदधिकरणावृत्तिवान्तभावे च भावाभावकाम्बितेकवस्त्रापात इति दिक् । [मानत्यपर्याप्तावच्छेदकता भेदव्यबस्छेद अशक्य ] इसके अतिरिक्त यह ज्ञातव्य है कि 'घटस्वेन पटो मास्ति' इत्यावि प्रतीतिओं से पधिकरणधर्मावछिन्न प्रतियोगिताक अमाव प्रामाणिक होने से प्रत्यक्ष मानत्वेन घटोन' इस प्रतीति से समक्ष में मानस्वावनिप्रतियोगिताकमेव सिद्ध है। यह अभाव मी मानत्वपर्याप्तावच्छेवकताकप्रतियोगितानिपक है।मत: 'प्रत्यक्षमेव मानम्' सापय में 'पद' पब से मानस्वपतिअवश्यकताकप्रतियोगिताकमेव का व्यवच्छेव नहीं हो सकता। यदि यह कहा जाय कि-"मानवेन घटोग' इस प्रतीति से ग्रामवावच्छिन्नघमिष्ठप्रतियोगिताक भाष सिब होता है । अतः प्रत्यक्ष में मानत्वाचन चिनमाननिष्ठप्रतियोगिताक अभाव तिस महीं है अतः उसका व्यवस्व हो सकता है। यदि सामाग्यरूप से विशेवासाय की ससा मानकर 'मानत्वेन मनमानम इस प्रतीति से प्रत्यक्ष में माणस्वाय पिलमाननिष्ठप्रतियोगिताक प्रभाव की भी सिधि बतायी जाय तो भी उस प्रतीति से मानत्वावलम्ब मानसामान्यनिष्कप्रतियोगिताक अभाव सि महीं है। पतः उसका ध्यषव सम्भव होने से प्रत्यक्ष Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ मात्रा . स. एलो २१ मानमेव' इस वापस मैं एव' पद से प्रत्यक्ष में मानायव पबच्छेद की अनुपपत्तिरूप दोष नहीं हो सकता"--तो यह ठीक नहीं है. क्योंकि 'मानस्पेन मानयोभर्य म' इस प्रतीति से मानस्वारण्डिनमानसामान्यनिष्ठप्रतियोगिताक प्रभाव भी सिम है । यदि उसकी व्यावृत्ति के लिये यह कहा जाय कि-"मानरमावछिन्नमानसामान्यमाय मिष्ठप्रतियोगिताक अभाव त प्रतीतियों से मित्र नहीं है। पता उसका वन्येव सम्भव होने से उक्त वोष नहीं हो सकता"- तो यह भी ठीक महीं है क्योंकि प्रत्यक्षघटीम मानम्' इस प्रप्तीति से प्रत्यक्षघटोमयस्वावदेवेन प्रश्पक्ष में भी मानस्वपर्याप्तावस्थेबकताकनिरुपितमानसामान्यमिठप्रतियोगिताक प्रभाव सिम है-अतः उसका भी व्यवच्छेद नहीं हो सकता। यदि यह कहा जाय कि-'प्रत्यक्षस्वामिप्राधिकरणताक उक्त अभाव व्यवस्था है और वह 'प्रस्यमघटौ न मानम्' इस प्रतीति से सिद्ध नहीं है, पतः उसका पदाव हो सकता है-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि उस ममाष सिद्धिअतितिको विकल्पों से पराहत होने के कारण उसका व्यवमोद अशक्य है। आशय यह है कि पषि 'प्रत्यक्ष ममानम्' ऐसी प्रतीति प्रामाणिक हो तो उससे प्रत्यक्षत्वावच्छिन्नाधिकरणताक मानसामाग्यभेद सिद्ध होगा और जब वह प्रत्यक्ष में सिद्ध है तो प्रत्यक्ष में उसके व्यवच्छेद के प्रति उसको सिद्धि हो बाधक हो जायगी। यदि उक्त प्रसीति के प्रमाणिक न होने से प्रत्यक्षत्वायचित्राधिकरणाताक मानसामान्यमेव प्रसिद्ध है तो 'प्रत्यक्षमेव मानम्' इस वाक्य में एक्कार से उसके व्यवस्छद का बोधा नहीं हो सकता पयोंकि प्रसिद्ध प्रतियोगिक अभाव अमान्य है। [मानसामान्यभेद में तइन्यत्व के निवेश का प्रतिक्षप ] यदि यह कहा माय कि-'भ्रमप्रत्यक्ष न मानम्' एवं 'प्रत्यक्षघटौ न मानम् इस्पादि प्रतीलियों से प्रत्यक्ष में श्रमत्वविशिष्ट प्रत्यक्षात्यावच्छिन्नाधिकरणताक एवं प्रश्वमघटोभमत्यरूप ध्यासव्यत्तिय. विभिन्नाधिकरणसाक मानसामान्य मेव प्रत्यक्ष में प्रप्रपात हो तो मानसामान्यमेव में ताशाधिकरणतास मन्यस्य का निवेश कर ताशाधिकरणताका-यमानसामान्यभेट मा व्यवच्छेव माना का सकता है. क्योंकि एवम्भूत मानसामाग्यमेव प्रत्यक्ष में प्रसिद्ध है" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि य एवं लदे वलयभाव: स एवं स्वपपंतपो-जो बहनभाव लवत्यावधिनाधिकरणताक है यही हपर्वतोभयावावछिन्नाधिकरणताक है' इस प्रतोति से ध्यासण्यतिविभिन्नाधिकरणलाक और अध्याय. असिधवचिचाधिकरणताक अभाय में ऐक्य सिद्ध है । अत: वैशिष्टय म्यासस्यसि धर्मावच्छिनाधिकरणताक मानसामान्य मेर एवं 'घटो न मानम् प्रत्यापि प्रतीप्ति से सिद्ध घटस्वाच्चित्राधिकरणप्ताक मानसामान्मभेव में एक्य होने से वैशिष्टय व्यासज्यतिनिधियनप्रतियो। साफ मामलामा मेव अहासिस है । अतः जसका व्यवस्थेव नहीं हो सकता। उसके अतिरिक्त सकी शत यह है कि 'प्रत्यक्ष घटस्वेन न मानम्' अथवा 'अनुमानत्वेन न मानमत्यादि प्रतीति से प्रत्यक्ष में स्पधिकरणवर्भावबिनाधिकरणताफ मानसामान्यमेव सिम है। अतः हो शिष्टपव्यालम्पत्तियविन अधिकरणसाकाय मान सामान्यभेव हो जायगा और वह तो प्रत्यक्ष में नि है शप्त एव उसका मो व्यव. च्थेव आयम है। __ यदि यह कार जाय कि-समधिकरणधर्माधानाधिकरणलाक मानसामान्य मेव शुशारिकरगसाकस्व-निरपसिनाधिकरणताकस्से विशिष्ट विदोषरगतासम्बन्ध से मानसामाग्यमेव प्रत्यक्ष में सिद्ध नहीं है । अत एवं उक्त विशेषगतासम्बन्ध से प्रत्यक्ष में मानसामाग्यमेव का व्यवसव हो साता Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा० ० टीर एवं हिस्बो विवेचन ] १३७ है - सो यह मो ठीक नहीं है क्योंकि उक्त विशेषणतासम्बन्ध से प्रत्यक्ष में मानान्यस्य घट में भी नहीं अत एव घट में भी उसका व्ययच्छेव सम्भव होने से 'मानवेन घटो मानमेव' इस प्रयोग का प्रसंग बाधवाय यह कहा अन्य कि- 'घट में मानसामात्यम से घटस्थापनाधिकरणाकश्य विशिष्टविशेषणता सम्बन्ध से है उसीप्रकार शुद्धाधिकरणाकश्य विशिष्ट विशेषणता सम्बन्ध से भी है। क्योंकि घर में मानव के न होने से उसमें सभी प्रकार मानाभ्यश्व का सद्भाव निर्वाध है। प्रत घट में उक्त विशेषणतासम्बन्ध से मानान्यत्व का व्यवच्छेव सम्भय न होने से उक्त प्रयोग का प्रसंग नहीं हो सकता' तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि सामान्यश्व को विशेषणता मानान्यत्वस्वरूप होने से सर्वत्र एक ही है। अतः यति घटाषि में सामान्यत्यविशेषणता में मिरवािधिकरण तामस्य है तो वही विशेषता प्रत्यक्ष में भी विद्यमान होने से प्रत्यक्ष में भी निरवािधिकरणाकविशिष्ट विशेषणतासम्बन्ध से सामान्यस्य सम्भव होने के कारण उसमें उक्त समय से भी मानान्यत्व का व्यवच्छे नहीं हो सकता । उतः 'प्रत्मक्षं मानमेव' इस वाक्य में एवकार से मानाम्पत्य के व्यवच्छेम की अनुपपत्तिरूप वोध सववस्थ है । सम्बन्ध में तदधिकरणवृत्तित्म का प्रन्तर्भाव करके यह कहा जाय कि प्रत्यक्षवृत्तिस्यामच्छेवेन रिवािधिकरणका विशिष्ट विशेषणता सम्बन्ध से माता का व्ययभव हो सकता है क्योंकि मानान्यस्व की विशेषणता में निश्वनिरषिकः सातरल्य घटाविवृलिए है। प्रत्यक्षवृतिस्पेन निरवधिनाधिकरणत्व अनुमानमेवाषि को विशेषणता में है-मानसामान्य मेद को विशेष में नहीं है अतः उक्त विशेषणता सम्बन्ध से प्रत्यक्ष में मागसामान्यमेव का व्ययव हो सकता है, क्योंकि जिस विशेषणता में प्रत्यक्ष सिवाय छेवेन निश्वािधिकरणसाकव है उस सम्बन्ध से मानसामान्यभेव नहीं रहता" तो इस कथन से भी मायिक को अभिगतसिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि उसका अभिमन है भाषा प्रभावक एफबस्तु का निराकरण जो उपर्युक्त रीति से नहीं सम्पन होता है, क्योंकि उक्त सम्बन्ध से मानान्यश्व का व्यवच्छे होने पर भी शिष्टघानाधिकरणareer एवं व्यायव्यवृतिधर्मावच्छिनाधिकरणतत्व तथा व्यधिकरणयमविच्छिनाधिकरणतलाक विशिष्टविशेषण सम्बन्ध से प्रत्यक्ष में मानान्यत्व का निषेध नहीं हो सकता। इसलिये एवम्भूत विशेषण सम्बन्ध से मानान्यश्व और उक्त विशेषलतासम्बन्ध से मामान्यश्व का इन दोनों सेविका अभ्युपगम नेयायिक के अपने कपन से ही सिद्ध हो आता है । तस्मा दपेक्षा गर्भ तदनेकपर्शयकरम्बितल्या वस्तुनस्तथा तथा प्रयोगं ततदपेक्षालाभार्थं स्यात्कारमेव प्रयुञ्जते सर्वत्र प्रामाणिकाः, अन्यथा निराशमेव सर्व वाक्यं प्रसज्येत । न च समभिव्याहारविशेषाय पेक्षालाथः इतरसमभिव्याहारवलात् किञ्चिद्राक्यार्थापैशाला मेऽपि तसम्म निःश्रेयाद्यनुगतपदार्थापेक्षायाः पात्कारसमभिव्याहारं विनाऽलाभात् । · इत्थं च 'स्यात्प्रत्यक्षं मानमेव ' 'स्याद् न मानमेच' इत्याद्येव प्रयुज्यमानं शोभते, अनेकान्तयोतन स्यात्पदेन तत्तदपेक्षोपस्यितेः अन्यथा मानवस्य मानान्यत्वव्यवच्छेदस्य सकलमान व्यक्त्य पृथग्भूतस्य सापेक्षप्रत्यचाऽपृथग्भावप्रतीतौ तदपेक्षाऽविषयत्वरूपाऽप्रामाण्यापातात् 1 न चेदेवम्, पाकरकते घटे 'अयं श्याम एव' इति कुतो न प्रयोगः ? कथं चैतदप्रामाण्यं Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शास्त्रमा स्तर को २१ सकलसिद्धम् । न पत्र न श्यामत्याभावस्प श्यामाम्यस्वस्य वा व्यवच्छेदः, श्यामान्यत्वस्याऽव्याप्यक्तित्वेऽपि प्राक् तदभारान् , व्यायवृत्तित्वे च मुतराम् ।। 'श्याम एय' इत्पत्र श्यामान्यरूपवान् स्पबच्छेधा, व्यवच्छेदश्वानान्योन्याभावः, स वाऽव्याप्यतिरिति न दोष" इति चेत् । न, 'प्राक् श्याम एम' इत्यस्य साधुत्वारपतेः । श्यामान्यरूपवश्वस्य व्यक्छेघरपे च साधुत्यापत्तिरेर 'अयं श्याम एवं इस्यस्य । नचातइतिश्यामान्यरूपे एतत्कालतित्वष्यवच्छेद लक्षणादिना प्रतियतोऽप्रामाण्यम् , अन्यस्य तु प्रामाण्यमेवेति वाच्यम्, स्वरसत एव तत्राप्रामाण्यव्यवहारान् । ['स्यान' पदघटित वाक्यप्रयोग का औचित्य ] इस सम्बन्ध में अब तक के सम्पूर्ण विचारों का निष्कर्ष यह है कि यतः पातु ससपेक्षा से तसबनेकपर्यायों से करमित होती है प्रत एव प्रामाणिक बिवर्ग वस्तु का तातपर्याय के रूप में बोध कराने के लिये तत्तस्पर्याय की सत्ता के प्रयोजक तत्तवपेक्षा के नाम के लिये सबंध 'स्या' पद में घटित ही धाक्य प्रयोग करते हैं। विस्मातकारयटित प्रयोग की अपेक्षा को लायगो तो सभी वाय मिराकाक्ष-अपेक्षाशून्य हो आयेंगे । अर्थात किसी भी वाक्य से वस्तु के किसी भी स्वरूप का सापेक्ष बोध म हो सकेगा । यदि यह कहा जाय कि 'समभिस्याहार विशेष से अपेक्षा का लाभ हो सकता है. जसे 'घोऽस्ति इस पायम में घर पद में अस्तिपक्ष का समभिपाार होने से जिस अपेक्षा घर में अस्तिष है उस अपेक्षाका लाम हो मायगा पप्रपेक्षालाम के लिपे स्याह पद का प्रयोग अनावश्यक है"--तो यह ठीक नहीं है क्योंकि 'स्मात्' पप से भिन्न पत्र के समभिग्याहार से दास्या के किसी एक अपेक्षा का लाभ सम्भव होने पर भी तत्तव मय और सस निक्षेप मावि में अनुगप्त पदार्थ को अपेक्षा का 'स्मास' पब के समभियाशार के बिना लाभ नहीं हो सकता । कहने का तात्पर्य यह है कि'स्याच वटोऽस्ति' यह कहे धिना यदि केवल 'घटोऽस्ति ना मात्र कहा जायगा तो इस वाक्य में घरपा बस्य निक्षेस प्रथा पर्यावाधिकतय से अभिमत अमं के तात्पर्य से नियुक्त है अथवा नामाविनिक्षपों में प्रमुक निक्षेप विशेष को अपेक्षा अभिमत अयं के तात्पर्ष से प्रयुक्त है इसका निश्चम नहीं हो सकेगा। किन्तु स्मात् पद का प्रयोग होने पर बसा प्रयोग के प्रमित्राय का चिन्तन करने से प्रकृत घदपक का प्रयोग वक्ता ने किस अभिप्राय से किया है उसका अवधारण सम्भय हो सकता है। [स्यात् प्रत्यक्ष मानमेव' इसी प्रयोग का औचित्य ] इस प्रकार यही उचित प्रतीत होता है कि प्रत्यक्ष मानमेव' यह प्रयोग न कर 'स्यात् प्रत्यक्ष माममेष' स्यादन माममेव' मुस प्रकार 'स्यात' पद घटित ही प्रयोग करना चाहिये। क्योंकि स्यात् पद अनेकाम का चोसक.मलः उससे त्यात प्रत्यक्षं मा.मेव' इसमें जिस अपेक्षा अमानश्व व्यवच्छेच है, तथा स्यात् न मानमेव' इस पावप में जिस अपेक्षा से मामस्य व्यवच्छेध है उन अपेक्षाओं की उपस्थिति हो सकती है। यदि स्यात पद का प्रयोग न कर केवल 'प्रत्यक्ष मानमेव' यह प्रयोग किया जायेगा तो उस वाक्य से को मानत्व और मानापश्वव्यवस्व में केवल प्रत्यक्षापेक्षया अपृयाभाव की प्रतीति होती है वह मप्रमाण हो जायगी। क्योंकि मानत्व और मामास्यत्व-उमर समस्तमानरूपक्किमों से अपथामृत है, अत एव सकलमानापेक्ष है, शि उक्त प्रतीति में उन धमों की Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याका टीका एवं हिन्दी विवेचन प्रतीति सकलमानापेक्ष न होकर देवल प्रत्यक्षापेक्ष होती है, प्रतः उन धर्मों के सलमानरूप अपेक्षा को विषय न करने से उक्त प्रप्तोति में अप्रामाण्य अपरिहार्य है, क्योंकि जो वस्तु जिसे सापेक्ष होता है उस अपेक्षा को विषय न कर उस वस्तु को विषय करनेवाली प्रतीहि अप्रमाण होती है। क्योंकि यदि स्यात्-पब से अप्रटिस प्रयोग को भी प्रमाण माना जाएगा तो पाक से रक्त घर में अर्थ श्याम एक' यह प्रयोग स्यों नहीं होता और इसके सर्वसम्मत अप्रामाण्य की उपपत्ति किस प्रकार झोगी ?इन प्रश्नों का कोई उत्तर महो सकेगा। कारण, महो ऐसा नहीं कहा जा सकता कि पाकात पर में श्यामस्थामाव पपवा स्यामाम्यस्य का व्यवच्छंच नहीं है क्योंकि स्पामापरव पदि अम्पायति है तो पाकपूर्वकाल में घर में उसका व्यवसाय निर्वाध है। यदि पास्यत्ति है तो निवियाव घट में उसका व्यबोध है पयोंकि उसके ग्यारयवृतिपक्ष में यह पाक रक्त घट में नहीं रह सकता क्योंकि प्राक्काल में उसमें श्यामस्व विद्यमान था। [ श्यामान्यरूपवान को ध्यवच्छेद्य मानने में आपत्ति ] यदि यह कहा जाट कि-'श्रयं इया ए मा में एमका से यात्रामात्र प्रया पामा प्रव का व्यवच्छेद धभिमल नहीं है किन्तु श्यामान्यरूपवान् व्यवस्छेध है। अर्थात् श्यामान्यरुपयत का अन्योन्याभाव बोध्य है और वह पाप्यवृत्ति होने से पाकरत घट में नहीं है अतः कोई दोष नहीं हो सकता-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि एषकार से इपामान्यरूपक्वमेव को रोष्य मानने पर 'प्राकव्याम एव' इस प्रयोग में असाघुस्यापत्ति होगी क्योंकि अन्योन्याभाव के ग्याप्यवृत्तित्व मत में ग्यानात्यरूपवमेव घर में पाकपाककाल में भी नहीं रहेगा। सहि प्रयामाग्यरूपवस्व को व्यवजोग माना जायमा सो पाकरक्तघट में 'मयं पयाम एवं इसमें साधुरवापत्ति अनिवार्य होगी क्योंकि पाकर घर में भी चामान्यरूप का अभाव प्राककाल में। यदि यह कहा जाय कि 'यामास वाश्य से एसियामाभ्यहप में एतत्कालवृत्तित्व के अभाय का सक्षणाबि द्वारा एबकार से बोध होने से रक्त प्रयोग अप्रमाण है क्योंकि एसअसिायामान्यरूप में एतरकाल'तत्व का अभाव याधिस है, और 'प्राक पयाम एव' यह प्रयोग प्रामाणिक होगा क्योंकि एतात्तिश्यामान्यरूप में प्राककालतिरवका अभाव प्रचाधित है"-तो यह मी ठीक नहीं है, क्योंकि पाकरक्तघट में 'अयं श्याम एवं' इस प्रयोग में अप्रामाण्य का व्यवहार स्वार सिक है। प्रल: उसे प्रतीति विशेष के अभिप्रायमात्र से अप्रमाण बताना उचित नहीं है। कथं च चित्रे' घटेऽव्याप्यतिनानारूपसमायेशवादिनाम् 'अयं नील एव' इति न प्रयोगः १ । 'नीलान्यसमवेतत्वस्यवान व्यवच्छेद्यत्वाप नायं दोप' इति चेत् । न, 'गगनं नीलमेव' इति प्रसङ्गात् । 'नीलसमवेतन्यमप्यत्र प्रतीयत' इति चेत् ? न. तथापि रूपं नीलमेव' इति प्रसङ्गात् । 'रूपत्वावच्छेदेन नीलसमवेत्वाभावाद न दोप' इति येन १ ग, तथापि नीलं नीलमेव' इति प्रसङ्गात् ।- जायत एव-नील नीलमेवेति" इति चेच ? यदि जायते तदा गुणनिना नीलपदेन, न तु द्रन्यवृत्तिना अपात्रते तु वृध्पवृनिना तेनेति । नीलसमवेमद्रव्यत्तमप्यत्र प्रतीयत' इति धेन् ? न, अपन नील एव' इत्यतोऽनीलत्वच्यरच्छेदमात्रस्येव प्रत्ययात, प्रकृतेऽपि नीलाग्यवमधिकृत्य इह नील एत्र' इत्यप्रत्ययप्रसजान्छ | तस्मान् तत्तत्काल-देशाग्रंशापेक्षय शिधिव्येचछेदो वा प्रतीयते, इति सम्यगनहितः परिमावनीयम् ।। २१ ।। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० [ शास्त्रात तरलो. २१ [चित्रपट में 'अयं नील एवं' यह प्रयोग क्यों नहीं होता! ] स्थास पब के प्रयोग में लचिपासको का उ पाय चित्र पठ में मध्याप्पत्ति अनेकपसमावेगा पक्ष में 'अयं नोल एच' या प्रयोगयों नहीं होता। यदि यह कहा जाय कि-"पल पाक्य में एक्कार से नीलाम्पसमधेसरव ग्यवच्छेध है और यह चित्र घट में बाधित है, अतः यह वोष मही झोसमाता"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मामले पर 'गगनं नीलमेव' इस प्रयोग को मापत्ति होगी क्योंकि गगन में नीलामसमवेतत्वाभाष है। यदि यह कहा जाय कि'उक्त वाक्य में नीलाग्यसमवेतस्वाभाव के साथ नीलसमवेतस्वकी मी प्राप्तीति होती है, अतः ममम में नोससमवेसाव नसोने से 'गगनं मीलमेव' इस प्रयोगही भापसि नहीं हो सकती"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उत्तप्रकार का अबलम्बन करमे पर भी 'रूप नीसमेव' इस प्रयोग की मापत्ति होगी, क्योंकि मीलात्मकरूप में नीलाग्यसमवेतत्वामाव और समवेतस्प बोनों अबाधित है। परि पहबहा बाय कि रूप नौलमेव अस माय से रूपल्यावस्थेवेन नीलसमवेतःव को ही प्रतीति हो सकती है, किन्तु रूपावापपछेवेन नीलसमवेतत्व न होने से इस प्रयोग को आपति नहीं हो सकती'-सो यह भी ठोक नहीं है, क्योंकि 'नीनं नीलमेष' इसप्रकार के प्रयोग की आपत्ति फिर भी होगी। यदि यह कहा जाय कि-'मलं मोलमेव' यह प्रयोग इष्ट हो है-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि गुणपरक नीलपद के साथ यह प्रयोग गा है । उस्मपरक नीलपर के साथ यह प्रयोग इष्ट नहीं है और भाषसि द्रध्यपरक नोलपत्र के साथ अभिमत है, क्योंकि वध्यमानीवपतममियात एवं' पर से नीलान्पहामवेतत्व का व्यवच्छेद होता है तथा मीलतमयताव की प्रतीति होती है और पे बीमों मीलगुण में विद्यमान है अतः नीलगुणपरक प्रथममीलपवं पौर नीलमपरक द्वितीयमोल पव को लेकर 'नीलं भीलमेघ' इस प्रयोग को मापति का वारण अगषय है। यदि यह कहा जाय कि. “मलस्यपरक नीलपर में नीलपर और एषपच का समभिन्याहार जिE वाक्य में होता है उस पाक्य से नौलसमवेत सध्यत्व की मी प्रतीति होती है। अलः नीलगुण में नीलसमवेत प्रव्यस्व माक्षित होने से उस आपत्ति नहीं हो लसतो" तो यह तक नहीं है क्योंकि अन्यत्र 'नील एव' इस वाक्य से ऐसा प्रयोग करमे पर 'एव' पद से अनीलत्वका व्यवधेशमाघमीप्रतीत होता है। अपः उक्त बास्यों में नीलान्यसमवेतश्यके व्यवच्छेद और नीलसमवेत द्रव्यः पावि की प्रतील मानना उचित नहीं है। इसके अतिरिक्त दूसरा दोष यह है कि बहपाका नोलाषयव में तात्पर्य अमे पर चित्रघट में भी यह मील एवं' मह प्रतीति होती है किन्तु उक्त प्रकार से उक्त प्रयोगों का व्याख्यान करमे पर 'हनोल एवम प्रतीप्ति के अमाप का प्रसंग होगा क्यों कि निवघर में नीलान्यसमवेसस्त्र का प्रभाष बाधित है। अतः सावधानी के साथ विचार करने पर महो मानना उचित प्रतीत होता है कि किसी भी वाक्य से ससरकारन और सत्तद्देश और तलवंश की अपेक्षा से ही किसी विधि या पवटको प्रतीति होती है, अतः उस प्रकार की प्रतीति की उपपत्ति के लिये उचित अपेक्षा के लाभ के लिये वस्तुस्वरूपयोधक प्रत्येक वाक्य में स्यातपरप्रयोग आवश्यक है ।। २१ ।। २२ वी कारिका में ऐसे व्यक्ति को शिक्षा प्रदान किया गया है जिसका. रक्षता का दुरुपपोग करते हुये यह कहना है कि प्रत्यक्ष का प्रत्यक्षात्मना प्रमाणत्व पही अनुमामात्मना अप्रमाणस्व है। असा पनुमानात्मना अप्रमाण होने पर भी प्रत्यक्ष के सर्वथा मानव का मन नहीं होता Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या १० टीका एवं हिम्मो विवेचन ] १४१ यस्तु दुर्विदग्धः 'प्रत्यक्षस्य स्वमानत्वमेवाऽनुमानन्वेनाऽमानत्यमिति न सर्वथा मानत्वदतिः' इत्याह,- शिक्षयितुमाइ मूलम्-न स्वसत्त्वं पराऽसवं मवसच विरोधतः । स्थसस्थाऽसत्ववन्यापान चबास्स्पेव तत्र तत् ।। २२ ।। दह सर्वभावानामेव न स्वसव पराऽसन्त्रम् , कि तर्हि ? कश्चिदन्यव , कुतः १ इत्याईतवसस्वविरोधता=अमिननिमित्तत्ये सत्यम्यवाऽसत्त्वविरोधात् , भित्रनिमित्त्वे तु कशि भिन्नमुभपमेकरूपतामासादयेदपि, यथैकापल्याण्वेवापरापेक्षया महदिति । पदवदाम प्रतीत्यसन्याधिकारे भाषारहस्ये- [ गाथा-२६] "भिमनिमितणशो पा य सेसि हंदि ! भण्णा विरोहो । वंजय-घडपाईअं होइ णिमित्तं पिच १॥" हरि [ स्व का सम्म और पराऽसन्ध दोनों एक नहीं है ] अनेकान्सवाव में समाप्त वस्तुओं का स्वसत्त्व ही परासश्व नहीं है-किस्तु परासत्व, स्वसस्य से कवि भिन्न है। क्योंकि अभिननिमित्तक-एकनिमिसापेक्ष सस्वाऽतस्व का परस्पर विरोष होता है। भिन्ननिमित्तक यानी विभिन्नापेक्ष सश्वासस्व अपेक्षामेव से भिन्न होते हुये आश्रयात्मना एकरूप होता है । प्रस: स्वअपेक्षा से सर और परापेक्षा से भसत्त्व स्व-पर रूप अपेक्षाभेव से मिज है, किन्तु एकाश्यनिष्ठ होने से आधाराषेष में एकान्तः भेव म होने के कारण भिन्न है। सत्वाऽसव की यह कविता और अभिन्नता एक व्य में एकही अपेक्षा प्रतीयमानणाव और प्रत्यकी अपेक्षा प्रतीयमान महत्व को, अपेक्षाब से भिन्न होते हुये मी आश्रमात्मना मभिन्नता, के समान सिट है। अंसा कि व्यापाकार ने स्वनिमित भाषाशयप में 'प्रतीत्यसत्य' भाषा के अधिकार में प्रति 'प्रस्थय स यतिकपण के प्रकरण में इस तथ्य की चर्चा का उल्लेख करते हुये कहा है कि-"विलक्षणरूप में प्रसीव होने पाले मात्र भिन्न मिमित्तक होते हैं-अतः उनमें विरोध कसे कहा जा सकता है। यह अवश्य है कि विलक्षण प्रतीति के विषमभूस भावों का निमित्त अनेक प्रकार का होता है। जैसे कोई व्यञ्ज निमित्त होता है और कोई घटक निमित्त होता है । उवा० एकाध्य में अस्ष मोर महत्व को प्रतीति के समावेश का निमित्त कम से सनिहित महान और अणु प्रध्यान्तर, ये उपजक निमित्त होता है और एक वस्तु में सरव और असत्व की प्रतीति के समावेश का निमित्त स्वाव्यक्षेत्रकालभाव और पराप्यक्षेत्रकालमा घटक मिमित होता है अखि स्वाध्यामि का और परमष्यादि प्रसव का तटस्प ग्यासक हो नहीं होता अपितु उसका घटक होता है, वमोकि उसके बिना वस्तु का सरख और असत्व उपपन्न नहीं हो सकता। अन्ये त्वाः-दृष्टान्त एवायमसिद्धा, मिन्नापेक्ष योरणुत्व-महश्चयोरेवाभावात् , महत्यपि * भिनारमिनश्वतो न च तेषी हुन्त [ मण्यते विरोधः । व्या घटकादिकं भवति निषिप्तमपीह चित्रम् ।।१।। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ [ शास्त्रमात तो २२ । महत्तमादणुव्यवहारस्यापकष्टमहत्यनियन्धनत्वेन भातत्त्रात् , नित्यानिन्ययोग्णुत्वयोः परमाणुन्यणुकयोरेष मापादिति । "जुटाव विश्रामा नास्त्येवाणुत्यस् । त्रुटौ चापट महत्त्वमेवाणुत्व व्यवहारनिवन्धनम् । तच्च नित्यमेव | गगनमहत्त्वावधिकस्त्वपकों न बहुवजन्यतारच्छेदकः, त्रुटिमहत्यायधिकोस्कपण साकापश्या तस्थानुगतस्याभावात , टिमहत्वावधिकोत्कस्य तज्जन्यतावच्छेदकस्यात् , गगनमहमवादेरपि जन्यत्वापातात् । व्यंजकन्यं च जातिविशेषेण शक्तिविशेषेण बा, इति नेन्षनादिसंसर्गिणा सूक्ष्मत्र यादीनां महतो सतामन्त्रकारे इन्धनादिव्यजकत्वापत्तिः," इति तु मीमांसकानुसारिणः । [अणु और महत स्वतंत्र परिमाण होने की आशंका ] इस संदर्भ में अन्य विद्वानों नेमयिकों का यह कहना है कि-"स्वसत्व और परासरव के कथमिमन्त्रि होते हुये एकरूपता के साधन के लिये जो अणुत्व और महस्वरूप हाटान्त प्रस्तुत किया गया है वह असिम है। क्योंकि विभिन्नापेक्ष मणत्व और महत्त्व का अस्तित्व ही नहीं है। क्योंकि मम् मध्य में भी महसम हप की अफे!! बहार होता हैस में मिलावहार अपकृष्टमहस्वमूलक होने से औपचारिक है। वस्तुस्थिति यह है कि अणुरव में महत्व का समानाघिकरण्य ही नहीं है, केवल उसफे वो मेब ह नित्य और अनिरय, जो हम है परमाणु और अणक में [अणु जैसा कोई परिमाण ही नहीं है मीमांसक ) मोमोमामतामुसारी द्धिामों का यह कहना है कि अवयवधायका विनाम त्रुरि-प्रसरेण में ही होता है अत एवं भगुपरिमाण का अस्तित्व ही नहीं है । प्रसरेण में जो अवश्यवहार होता है बम का निमित्त प्रसरेणुगतापकृष्ट महत्व हो है और वह नित्य है। यदि यह कहा जाय कि-गगनमहत्वापेक्षया अपकृष्टपरिमाण के प्रति अवयवगत करव काम होता है अतः अवयवचस्व का सम्यतावपछेदक होने से प्रसरेण को निरषयव मामने पर उसके परिमाण में अपकर्ष मानना प्रसार है। असः उसमें होनेवाले अगुस्य व्यवहार को उपपत्ति के लिये उपमें प्रणुरुष का अभ्युपगम अावश्यक है"-तो यह टीम नही है गोंकि असरेणुगत महस्वाधिक उत्कर्ष के साथ सांकर्य होने से अपकर्ष को महश्वगत जाति नहीं माना जा सकता । अत एक बहुत्य के जन्मताबकछवाहप में उसकी कल्पना अशक्य है। दूसरी बात यह कि यदि गगनमहरवाधिकापकर्ष अवयमस्व का अन्यतावच्छेदक माना जायगा तो त्रुटिंगत महत्वावधिकोस्कर्ष को भी विनियमनाविरह से असमवगतवतबका सभ्यतावच्छेवक मारमा होगा और ऐसा मानने पर आकाशगत महत्वावि में मी मम्मत्य को प्रापति होगी। अतः धुटि में अपकृष्ट महरष को मानने में कोई बाधा न होने से उसी से उस में अस्वष्यवहार की उपपत्ति सम्भव होने के कारण अगनिमाण को तिलिमही हो सकती । अस एकत्र अणुत्व और महत्व को प्रतीति का समावेश सिद्ध न होने से उक्त स्टान्त द्धि है। [मम अग्निकणमंसूष्ट इन्धन के अन्धकार में प्रत्यक्ष का प्रतिक्षेप] यि यह कहा जाय कि अणुपरिमाण न मानने पर अन्धकार में इन्धनादि से संसष्ठ सूक्ष्म Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा.क. दोका एवं हिम्यो विवेचना १४३ वह्नि आदि से इन्धन आदि के प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी क्योंकि मणपरिमाण के अनम्युपगमपक्ष में सूक्ष्मबल्लि माविका परिमाण भी मह परिमाण ही होगा और महत्वपरिमाणविष्टि लि आदि निषमतः इन्धनावि का अभिभ्यम्बक होता है। तो यह कीक नहीं है क्योंकि पल्लि मावि महापरिमापवान् होने से संसष्ट वस्तु के व्यग्नक नहीं होते अपितु जातिविशेष अथवा पाक्तिविशेष का मामय होने से व्यस्मक होते हैं। इन्धनादि से ससष्ट बलि भादि में उस जातिविशेष या माविमापन रहने से उससे धनावि के प्रत्यक्ष को भापत्ति नहीं हो सकती।। ने भ्रान्ताः, 'अयमितो महान , इतश्चागुः' इति वृद्धथै फत्र भिन्नापेक्षयोरणुत्व-मह क्ययो विलक्षणयोरेवानुभवात् । 'इतोऽणुः' इति प्रयोग 'एतदपकृष्टमहत्ववान्' इत्युपचारेण पिल्यैतदपेक्षाणुत्वपर्यायापलापे 'इती महान' इयाप 'एतदपकृष्टाणुत्ववान' इति विकृत्य समर्थयतो महत्त्वमेव चापलपतः का प्रतीकारः। महसमपेक्षा विनव स्वरसतोऽनुभूपत' इति चैन ? सोऽयं स्वरसः परस्परमस्वरसग्रस्तः । परिमाणमात्रमेव निरपेझमनुभूयते महन्या-ऽणुत्वे तु सापेक्षे एवेति पुनरनेशन्तेऽनुभवसिद्धो विवेकः । अथ-महत्यापलापे तदाश्रयम्य प्रत्यक्षत्वं दुर्घटम् , महदुतरूपचन्द्रश्यस्यैव वासुपस्यनियमान , अणुत्वापनापे तु न किचिद बाधकमिति घेत ? न, लाघवाइद्भतापुत्वस्पैब ट्रव्यचाक्षपईतुत्वात् । उत्कर्पा-ऽपकवियि परस्यापेक्षिकाणुत्वमहत्वातिरिको दुर्वचौ, मौकर्येण जातिरूपयोम्तयोक्तुमशक्यत्वात् । [अणु-महत स्वतन्त्र परिमाणवादी को अनुभववाध ] ध्यास्थाकार ने भगुल्य में महत्त्स के सामानाधिकरण्य का प्रत्यायान करने वाले नयायिक विद्वानों को यह महते हुए भ्रान्त कहा है कि 'प्रय मिती महान नाणः = यह इस बग्य सेतो महान है किन्तु इस द्रव्य से अणु है इस बुमि से एकवस्तु में अपेक्षामेव से परस्परविलक्षण हो अगुत्व और महस्व का अनुभव होता है। यदि यह कहा जाय कि-"यह इस इश्य को अपेक्षा प्रण है-इसका अर्थ है यह इसको अपेभा अपकृष्ट महत्व का आश्रय है। अतः स प्रतीति से एतत्सापेक्षा अणुत्व की सिनि महीं हो सकती तो यह ठीक नहीं है क्योंकि किधिवधिक पपकर्ष विशिष्ट महत्व से परि सापेक्ष अण-व का अपलाप किया जायगा तो 'इत्तो महान-यह ठप अमुक दम से महान् हैं इस प्रतीति का भी यह इस्य इस प्रव्य को अपेक्षा अपकृष्टाणत्ववान् है' यह अर्थ करके किधियिक अपराध विशिष्ट अणुत्व से महत्व का भी अपलाप किया जा सकता है जिस का कोई प्रतिकार मणस्वापलापी द्वारासम यदि यह कहा जाए कि 'महत्व का अनुभव स्वारसिक होता है उसमें किसी को अपेक्षा नहीं होती' सो यह स्वरस परस्पर सस्यरस से प्रस्त है अर्थात यह भी कहा जा सकता है कि 'मगुत्व का अनुमब स्वारसिक है उसमें किसी की अपेक्षा नहीं होती। इस प्रकार अणुव अपलापी और महत्त्वापलापी बोनो का स्वरस एकदूसरे के अस्वरस से प्रस्त होने के कारण सापक नहीं हो सकता । अतः अनुभवसिद्ध विक इस अनेकान्त पक्ष में ही सिक होता है कि केवल परिमाणसामान्य काही अनुमय निरपेक्ष होता है। सिग्तु महत्व तथा अणुक का मनुभव तो सापेक्ष ही होता है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रमा सलो . २२. [ अणुपरिमाण का अपलाप भी अशक्य है। पवि यह कहा जाय कि-"कोई पापक न होने से अणुत्रा का प्रपलाप हो सकता है किन्तु महत्व का अपलाप नहीं हो सकता, क्योंकि महत्व का अपलाप करने पर महरष के आश्रयरूप में अभिमत द्रव्य का चाक्षुष प्रत्यक्ष पुषंट हो जायगा क्योंकि महत् और उद्भूतरूपवान् द्रव्य का ही नियमतः चाक्षुषप्रत्यक्ष होता है।"-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रध्यवानुष के प्रति महत्व और उन्नत रूप को कारण म मानकर लायक से केवल उद्भूताणत्व की हो कारण मान लेने से उक्त प्रापत्ति निमृत की जा सकती है, क्योंकि जिम यों का चासष प्रत्यक्ष होता है-उवभूताणुस्व की कल्पना उन्हीं वस्यों में की जायगी । दूसरी बात यह है कि जो लोग उस्कर्ष-अपकर्ष को पारमाणमत मानते हैं ने आपेक्षिकमहत्व से अतिरिक्त उत्कर्ष का और अपेक्षिकम्रणव से अतिरिक्त अपकर्ष का नियम महीं कर सकते । क्योंकि सोक्यं के भय से खातिरूप में उन का विधान अशक्य है और अन्यरूप में उमको अनुगतरूपता अशक्य है। क्रिश्न-"एवमणुत्ववत् परिमाणमाप्रमेव काल्पनिकम् , इति 'महदादिपरिमाणं रूपादिभ्योऽर्थान्तरम् , तन्प्रत्ययविलक्षणबुद्विग्रामस्वाद , सुखादिवत्' इत्यत्र यदि रूपादिविषयेन्द्रियसुद्धिविलक्षणयुद्विग्राह्यत्वादिनि हेत्यर्थः तदा हेतुस्सिदः, तथाव्यवस्थितरूपादिव्यतिरेण १५८ दाविपरिमाणस्य : ३५६ गा पद । अ 'असु-महन्' इत्याकारतन्प्रत्ययधिलषणकल्पनादिग्रावस्यादिति हेतुः, तदा विपर्यये षाधक प्रमाणाऽभावादनकान्तिकः । न यस्याः किंभिदपि परमार्थतो प्रायमस्ति । फल्पना त्वेकदिल्मुखादिप्रकृत्तय विशिष्टरूपादिप्पलब्धए तद्विलवणरूपादिभेदप्रकाशनायाऽसद्विषयिणगेच प्रवर्तत इति । युक्तं चैलत् , परपरिकल्पितरादभावेऽपि प्रासाद-मालादिषु महादादिप्रत्ययप्रादुर्भतेरनुभवाच । न चायमांपचारिकः, अस्वलद्सूतित्वात् । तदुक्तम् - [प्र. रा. २-१५७] "मालादी च महत्वादिरिष्टो यश्चौपचारिकः । मुरगाऽविशिष्टविज्ञानग्राहारवाद नौपचारिकः ।। १ ।।" -वृति बदन्तस्तावागताः कथं प्रतिक्षेप्याः १ । एकस्य स्वलक्षणम्य भिन्नपूरुपीयनानाकम्पनाहेतुसमनन्तर सहकारिन्वे स्खभामभेदप्रसङ्गान् वयमेर हि सान् प्रत्याचक्षाणा शोभेमहि, नतु यूयमेकान्तेनानेककार्य जननकस्वभावमेकं बाइमात्रेणाभ्युपयन्त इति दिक् । इसके अतिरिक्त अणस्थ को काल्पनिक मानमे पर बौर की मोर से पह भी कहा जा सकता है कि परिमाणमात्र हो काल्पनिक है । इस पक्ष में आप (नैयायिक) की ओर से इष्टापत्ति नहीं की जा सकती क्योंकि 'सर्व द्रव्यं परिमाणवन्' इस सिद्धान्त को हानि होगी।। [नैयायिक की ओर से परिमाणसाधक अनुमान ] परि बौद्ध के सामने यह कहा जाय कि-'परिमागमान को काल्पनिक नहीं माना जा सकता क्योंकि अनुमानप्रमाण से परिमाण सिंक है-अनुमान का प्रयोग इसप्रकार होता है 'महाविपरिमाण Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थ.. का एक हिन्दी विवेचन ] १४५ रूप मावि से भिन्न है मयोंकि रूपाविविषयक प्रतीति से विलक्षण मुधिरा पाहा है। जो एवम्भूत होता है वह रूपावि से भिन्न होता है जैसे सुसावि स अनुमान में यह प्राशंका नहीं की जा सकतो कि महवाविपरिमाण सिद्ध न होने से पह भनुमान माधयातिक्षिपस्त है क्योंकि महाविपरिमाण 'महकाविपरिमाण'शग्वापरयरूप से पक्ष है।जो प्रतिरितपरिमाण का अपलाप करना चाहते हैं उनके मन में भी महवादिपरिमाणम का कुछ न कुछ प्रर्थ अवश्य है। अतः महाविपरिमाण. यापय उनके मत में भी सिद्ध है। ऐसा कहने पर इस दोष का मो उद्धावनमत किया जा सकता कि अतिरिक्तपरिमाग के प्रपलप कला के मत में महताविपरिमाप्त वाम्बार्य में रूपाविमिन्नत्व जाति है क्योंकि महाविपरिमाणशम्वार्थत्वाधावेम रूपाविभिन्नःव साध्य है। इस अनुमान में यह शंका मी महा की जा सकती कि महाविपरिमाण में से रूपाविमिन्नत्व सापनीय है उसीप्रकार सुखावि भिन्नत्व भी साधनीय है अतः सुखादि का दृष्टान्तरूप से उपन्यास प्रसइन्त है, क्योंकि मुनारि बान्त्रिपवेन मही है और 'महाविपरिमाण' शब से श्यवाहत होनेवाला असं वायोग्यवेध है अत: महाविपरिमाण में सुखाविका मेव उन विद्वानों के मत में भी सिख है भो परिमाण का माझेवियवेध किसी सर्ष में अन्तर्भाव कर उसका अपलाप करना चाहते हैं। सप्तएष सुखादि का दृष्टान्तरूप से उपन्यास युक्त है।" [नैयायिक के अनुमान में हेतु में स्वरूपासिद्धि दोष ] मंदायिक केस अनुमान में बौद्ध की मार से ज्याल्पाकार ने मालयातिदि-बाप-दृष्टान्तासिसि भादि दोषों की उपेक्षा कर हेतु के सम्बन्ध में सम्मावित दोषों के माधार पर हो इस अनुमान के निराकरण का मार्ग अपनाया है । बसे, जर का कहना है कि यदि उक्त हेतु 'रूपारियिषयकेन्द्रियजम्प बुद्धि से विलक्षण प्रत्यक्षात्मक वृद्धि द्वारा ग्राह्य रूप होगा तो पक्ष में हेतु के न होने से स्वरूप प्रसिद्धि होगी, क्योंकिपाधि महाविपरिमाण साथी प्रत्यक्ष पाराध्यवस्थित भल: रूपादि का त्यागकर महवाधिपरिमाग का प्रस्थल भसिस है । इसलिये उसको रूपादि-अविषयक प्रत्यक्षात्मक पखिग्राह्यश्वरूप से संबेवन मोने के कारण उक्त प्रत्यक्षात्मक विग्रामवरूप की प्रसिद्धि स्पष्ट है। यदि मैधायिका की ओर से यह कहा जाय शि-परिमाणशव्याधसामान्यरूप पक्ष में रूपाविभिन्नश्व का अनुमान अभिप्रेत है और उसके लिये हेतु है नीलरूपाविप्रत्यय से विलक्षण (भिन्नाकार) 'मा महत्-स्याकारककल्पनाइद्धिविषयस्य' । माय यह है कि महाधि विजातीय परिमारणों का अस्तित्पन हो है-प्रतः अणुत्व-महत्व की बुष्टि कल्पनात्मक है और कल्पनामकशि मिरधिपताम नहीं होती लता उसके अधिष्ठानात्मक विषय के रूप में परिमारणसामान्म का इस्युपगम आवश्यक है।"किन्तु बीच कहेगा कि यह मानुमान भी ठीक नहीं है, क्योंकि विपर्यय में अपदि रूपावि में उक्त हेतु के अम्पुपगम में कोई बाधक प्रमाण म होने से उक्त हेतु अनेकान्तिक है, क्योंकि अणु महत' इत्याकारक कल्पनात्मक बुद्धि में अधिष्ठान विधया परिमाण का मान मानने के समान रूपादि का भान मामने में कोई बाघकायोंकिवीमोंही पक्ष में अणमस कल्पनातिकताको पारमायिक विषय अर्यात अणुत्व-महत्वादि का प्राभपभूस कोई वस्तु विषम नहीं होता। यह स्पष्ट है कि कल्पना सर्वत्र प्रसहिषयकही अर्थात करूयमानधर्म के नामय को विषय न करनेवाली ही होती है। जैसे कहे जानेवाले रिसो घावि तम्य में विभिन्न हिसमुख प्रवृत्त अर्थात विभि Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ [गारवा .. लो२२ भविषवस्थित नीलपीताद्यात्मक विशिष्टरूपों को उपलब्धि होने पर पवित्रम सप्रकार वित्रत्मप्रकारक कल्पनावृति होती है और यह बसिनोल-पीतादिरूपों से विलक्षणहप की प्राहक प्रतीत होती है, किन्तु स्तुगत्या सस वृद्धि में चित्रत्व के अधिकानप किसी विलक्षणहप का मानम होकर मोलपीलाविरूपसमूह काही मान होता है। अतः वह बस विषय के आश्रयभूत किसी वस्तु को विषय न करने से असविषयक होती है और उस दिसे मित्रत्व के अधिष्ठामरूप में किसी अन्य पदार्थ की सिखिमही होती, ठीक उसीप्रकार इदमण-महब' इन प्रतीति में भी अणुस्व-महरख के अधिष्ठामरूप में रूपावि का मान मानकर अणुस्व-महस्वादि के अधिष्ठानरूप में परिमाणसामाण्य की सिद्धि का निराकरण हो सकता है। बोड इस का समर्थन करते हुए कहता है कि यह मुक्तिसङ्गत भी है क्योकि प्रासाद और मालावि अतिरिक्त अवयवोद्रव्यरूप न होने से उनमें परपरिकल्पित मर्याद न्यायशेषिकको अभिमत महस परिमाण का प्रभाव होने पर भी काल्पनिक महत्परिमाण को लेकर 'महान् प्रासाद' 'महतो माला' इसप्रकार की प्रतीति का प्रादुर्भाव अमुभवसिद्ध है। यवि यह कहा जाए कि 'प्रासादाधि में महत प्रत्यय प्रौपचारिक घाभी धानत है तो यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह प्रत्यय अस्सलसिक है अर्थात अबाधित अभ्रान्स है। जैसा कि प्रमापाबात्तिक में धर्मकीसि में कहा है-मालावि में अवापिकादिको जो औपचारिक महत्व इष्ट है-वह उचित नहीं है क्योंकि घटादि में सो मुख्य महवाकार ज्ञान होता है, प्रासाद में होनेवाला महाकार शान उससे अविलक्षण है । अलः प्रासबाधि में महदाकारमानो औपचारिक नहीं माना जा सकता। श्रम व्याख्याकार कहते हैं कि प्रतिरिक्त अवययो और उसमें अतिरिक्त महस्थ का उपरोक्त कथन द्वारा निरास करीवाले बौखों का प्रतिक्षेप नैयायिकाधि से कैसे हो सकेगा? इसलिये व्याख्याकार ता कलमा है कि-'स्वलक्षण एकवस्तु को विभिनपुरुषों को होनेवाली विभिन्न कल्पनात्मकवृद्धि के हेतुभूत सममन्तर जान का सहकारी मानने पर स्वभाव मेद का प्रसङ्ग होगा, क्योकि एक स्यभाव से सहकारी मामने पर मिल भिन्न पुरुषों को मिन्न मित्र कल्पनात्मकशि न हो सकेगी-इसप्रकार अनेकारतवायी की ओर से तो स्वभाव मेव का पापादन कर मौजूमत का प्रत्यख्यान किया जाना पुक्तियुक्त हैं. किन्तु नायिक, जो कि वचनमात्र से एकान्तरूप में एकवानु को एकस्वभाव से अनेक कापों का जनम मानते है वे बौद्ध को परस्त नहीं कर सकते क्योंकि उनके मन में से एक वस्तु में एकत्यभाष से अनेक कार्य को जनकसा होती है उसीप्रकार मौसमत में भी एक स्वभाव से स्वलक्षण एक वस्तु को विमिनपुरुषाय धिभिता कल्पनाम के हेतुगत विभिन्न समनतर जाम की सहकारिता हो सकती है। एतेन मीमांसकानुमारिणोऽपि निरस्ताः, घटादियन त्रुटीनो दृश्यमानानां इत्र्यपयांयत्वेन वृक्षमतदुपादानावस्यकत्यात, अन्यथा घटादीनामयुत्पादाधनुभवापलापन संग्रहनयाश्रयणप्रसात् । इदमेवाशयनः प्राह-न च सत-परासश्चम् तत्रः-स्वस्मिन् स्वमन्वाइसच्चवा नास्त्येव, न्याया विचार्यमाणम् । स्वसभ्यं हि स्वसुधाऽसत्चविरोधीति तत्र न न स्यात् । परासरप Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Fut - Er. एवं वि विरोध तु न तदिति वत् स्यादेव प्रत्युत यदि तभ स्यात् तदा तदभावनियतं परसत्यमेव स्यादिति भावः || २२ || १४७ [ अणुद्रव्य को न मानने वाले मीमांसक का प्रतिक्षेप ] पति, मीमांसानुसारी विद्वानों ने जो प्रसरेणु में अवयवधारा का विश्राम मान कर अनुस्व का वजन किया था वह पुलिस नहीं होने से मिरल हो जाता है। क्योंकि जैसे टायमान घटा द्रव्यपर्याय रूप होने से सूक्ष्मद्रव्योपाचानक है उसी प्रकार स्वयमान प्रसरे को भी वयपर्याय होने से सूक्ष्मद्रव्योपवासक मानना आवश्यक है । अतः त्रसरेणुओं में भी सामवस्य की निर्वाध सिद्धि होने के कारण उन में प्रथयधारा की विश्रांति नहीं मानी जा सकती। फलतः असरेणु के अवयवों में अणुश्व को सिद्धि मावश्यक होने से मोमांसमानुपायीओं की ओर से उत्तरोति से अव का मिशकारण असम्भव है। यदि दृश्यमानमपथरूप होने पर भी असरे के उत्पत्ति आदि का अपलाप किया जायगा तो पटादि के भी उत्पादादि के अनुभवों का अपलाप होने से संग्रहलय के माश्वव का प्रसंग होगा अर्थात् यह मानने को स्थिति उपस्थित होगी कि घटादि समस्त पदार्थ सद्य से शव हैं, उनकी उत्पति आदि को प्रतीति कारुपनिक है । व्याख्याकार का कहना है कि इसी बात को अर्थात् एक वस्तु में अपेक्षाभेद से अगुव और महत्व इन विरुद्ध धर्मो का जैसे एकत्र समावेश होता है उसी प्रकार सत्य प्रसश्वरूप विरुद्ध धर्मो का भी अपेक्षा मे से एकत्र समावेश हो सकता है-इस बात को मूलकार ने प्राशय से यामी संकेत से इस प्रकार कहो है कि स् में स्वसत्य के असल के समान परासव जो नहीं है' यह बात स्याय से विचार करने पर सङ्गत नहीं होती, क्योंकि स्वस यह स्वसश्व के असर कर विरोधी है। अतः स्व में स्वसत्व के असरव काम होमा हो उचित है किन्तु स्वसत्त्व परसव का विरोधी नहीं है. अतः स्व में स्वरूव होने पर भी हो सकता है, अन्यथा यदि स्व में पासस्य न होगा तो परसव पास के अभाव का नियत होने से व में परसत्व का प्रसङ्ग दुनिया २३ व कारिका में वस्तु में सएव असत्त्व दोनों के अभ्युपगम के सम्यश्य में प्रतिपक्षी के आक्षेप तथा सिद्धान्त द्वारा उसके परिहार का प्रदर्शन किया गया है अक्षे- परिहाराबाह मूलम् - परिकल्पित मेमवित्वं तत्त्वतो न तत् । ततः क इह दोष मेनु तद्भावसङ्गतिः ||२३|| 2 'एतत् परासन्त्रम् परिकल्पितम् अो (तच) न स्वतन्त्र व्यायातकमिति चेत् १ नन्वित्थं तत् पशसत्त्वम्, ततो नास्ति शशशृहत् । ततः परासवस्य तत्रत इइ स्वस्मि श्रभावात् को दोषः !' इति चेत् १ ननु निश्रयेावसंगतिः = परसत्वस्यापत्तिः | = प्रतिपक्षी का आक्षेप यह है कि यदि परसव को कल्पित मान लिया जाए और पह स्वस्व का कोई ध्याधातक तो है नहीं इसलिए स्वस्थ तो निरावाय रह सकता है, तब क्या हानि है ? अगर बाप कहें तब तो वह काल्पनिक हा मे सेव के समान पालश्व जैसी कोई तात्विक ही नहीं होगी तब हम कहते हैं कि 'मत हो इसमें क्या दोष है ?" Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ शास्त्रमाता इ. ७ को २३ प्रतिपक्षी के इस प्राक्षेप के परिहार में सिशाम्तीका यह कहना है कि यदि पराऽसस्व काल्पनिक होने से वस्तु में उसका अभाव होगा तो उसमें परसत्य की प्रतिपादिरूप से भी घटादि के सत्त्व की आपत्ति होगी, क्योंकि एसवका अभ है परसत्त्वाभाव, अत: उसका अमाव परसस्वरूप होगा क्योंकि अभावामा प्रतियोगीस्वरूप होता है। परासरथमें शशाकीजो समानता जतायी गई वह उचित नहीं है, पाँग का सस्वत: मार मानमे २२ कोई पास नहीं होती। परन्तु स्त्र में परासस्व का समाप मानने पर स्व में इक्तरूप से परसव की आपति होती है। अन नैयायिकादयाननु वयं श्री शशीयत्वषत मुला-ऽसत्त्वयोः स्व-परापेक्षात्वं कम्पितम्' इत्येव नमः। न दिसत्ये स्वापेक्षवं पृथक्त्वादाविव सावधिकन्वरूपम् , निरवधिकखात् सतायाः । नापि घटामारे घटापेशन्यवन सप्रतियोगिफत्वरूपम् , निष्प्रतियोगिकत्वाव भावस्य सचाभावस्य च सप्रतियोगिकन्वेऽपि सचाप्रतियोगिकत्वमेव न तु परप्रतियोगिकत्वम् , (ति न परापेक्षस्वमस्ति । नापि पक्षे संयोग-सदभावयोर्मल-शाखाधवनिमत्यवत् घटे सन्याऽसत्त्वयोः स्व-परापच्छेद्यस्वरूपं स्व-परापेक्षत्यम् , जातेरेवाऽन्यायश्चित्वाभावान , किं पुन: सत्तायाः इति । ततः कथं 'स्त्रापेक्षया सन्यम् , परापेक्षया चाऽसस्वम्' इत्याईनानामयं प्रचादः । इति । [सव और आगन्त्र में स्व-परापेमत्व काल्पनिक है-नयायिक ] इस संवर्भ में मयामिकावि कहते हैं कि हमारा तो इतना ही कहना है कि जैसे श्रृंग में शशसम्म विश्व कल्पित होता है उसी प्रकार सस्थ और लत्व में क्रमशः स्थापेक्षाव प्रौर पररपेक्षत्व कल्पित है क्योंकि वस्तु का सस्व और असत्य दोनों निरपेक्ष होते हैं। दूसरी बात यह है कि सत्ता में स्वापेक्षास्व का निबंधन नहीं हो सकसा जैसे देखिये-(1) पृस्वाव में सायधिकरवरूप स्वाभाव के समान सत्ता में सावधिकस्वरूप स्थापेक्षस्व नहीं माना जा सकता, क्योंकि घर: पहात पृथक' इस प्रतीप्ति के समान 'घटः प्रमुच्यात सत्ताबान' इस प्रकार की प्रतीति प्रसिस होने से हासा निरषिकती है । इसी प्रकार (२) घटाभाव में घट प्रतियोगिकरवरूप घटापेक्षत्व के समान ससा में लप्रतियोगिमस्वरुप स्वापेक्षाय भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि भाव की सत्ता निष्प्रतियोगिक होती है। अतः उतशेति से जैसे सस्वका सापेक्षश्व सम्भव नहीं है, उसी प्रकार प्रसत्त्व का परापेस भी सम्भव नहीं है क्योंकि अगर तो सत्तामावरूप होने से उसमें सप्रतियोगित्व होने पर मी या सत्ताऽभाव सत्ताप्रतियोगिक ही होता है परप्रतियोगिक नहीं होता है इसलिये वह परारेख नहीं हो सकता । परपेक्ष तो वह कहा जाता है को स्व और स्वयटक से अन्य को अपेक्षा करे । जब कि असत्य तो स्वघटक व कोहो प्रतियोगीइप से अपेक्षा करता है । इसी प्रकार यह भी मानना समुषित नहीं है कि (३) अंसे वृक्ष में दिनमान संयोग और संयोगामाब में मृल-शासायनित्यसप मूल-शाखादिसापेकस्व होता है उसी प्रकार घर में विद्यमान तस्व-प्रसत्व में स्व-पराषच्छेनस्वरूप स्व-परापेक्षापहो सके, पोंकि जब जातिमात्र में स्वाभावसामानाधिकरभ्य अथवा अवछिन्नवृत्तिकत्यरूप अव्याप्यक्तित्व नहीं होता तो फिर सत्तारूप मासिविशेष में अव्याप्यवृतिस्व कैसे हो सकेगा? प्रतः माहतों के सामने यह विकट प्रान है कि उनके मत में यह श्वाव कि 'पतु में स्वापेक्षा से सस्व और परापेक्षा से प्रसव होता हैकसे उपपन्न हो सकता है? Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या टोका एवं हिन्धी विवेचन ] (४९ अत्र घम:- माध्यमि जो दावारपार किमपहले सत् । वक्तुं न शक्तः किसतासि मन्दो मुङस्थ माधुर्यमिवातिमका ॥१॥ तथाहि-सदभिमता सत्ता तावत सतर्कताडिता दरमेव पलायिता | न हि स्वरूपसत्ता मायानामतिरिक्तसचया कश्चिदुपकारोऽस्ति, स्वतोमधुराया इस सुपाया मधुरद्रयान्तरसंयोगेन । नापि स्वरूपाऽसतां तेषां तया कवितपकारः, बलानामिव सफलार्थसिद्धिहेतुना विपश्विनपश्चितकलालापेन | फयं च सब जात्यादिषु सयवहारः, तत्र सचाया अभावात १। 'एकाधंसमवायेन तत्र स' इति चेत्र ? न, 'सत्' 'सत्' इति प्रतीतेः सर्वत्रैकाफारस्यात् । 'संघन्धाशे ना तस्या वैलमण्यमेवेति चेत् ? इन्त ! तहिं प्रकाशिऽपि तथास्वमेवास्तु । अस्तु वा 'हरिः' 'हरिः' इत्यादी हरिपदवाच्यत्वमिव सत्पदवाच्यायमेव सर्वत्रानुगतम् । 'सत्पदसंफेतविषयत्ताचच्छेदफतयंव तसिद्धिः' इनि घेन ? न, तान्त्रिकाणां परस्परं तसंकेतभेदाच , स्वसंकेतमात्रस्य चाथाऽव्यवस्थापकत्वात् । 'घटः सन्' इत्यादायनुभवसिद्वेष सत्तेति चेत् ? मिद्वैव सा, केवलं तस्या अतिरेका, साधारण्यं च न सिद्धम् । 'द्रव्य जन्पतावच्छेदकतया तसिद्धिः' इति तु निरस्तमधस्तात । तस्मादुत्पाद-व्यय-धीच्ययोगरूपंव सत्ता युक्ता, नान्या । [ सत्त्वाऽसय में स्वपरापेत्तत्व की पारमार्थिकता जैन ] इस आक्षेप के सम्बन्ध में सिझामनपक्ष की ओर से व्याख्याकार का कहना है कि लोक को वस्तु के जिसस्वरूप का प्रत्यक्षानुभव होता है उसके वर्णन का सामाय न होने पर किसी को बचनमात्र से उसका अपलाप कर अपनी पाचारला प्रदशित करना उचित नहीं है। उचित यह है कि जैसे गुरको मीठास का अनुभव करने वाला व्यक्ति काम्द से उसका वर्णन करने में असमर्म होने पर उसके सम्बन्ध में मन्य-यानी सदस्य प्रमवा अत्यन्त मूफ बन जाता है उसी प्रकार वस्तु के लोकानुभव सिद्धस्वरूप के सान्य में भी उसके वर्णन का सामभ्यं न होने पर व्यक्ति को उस सम्बन्ध में मन्द प्रयया मूक हो जाना चाहिये । [ अतिरिक्त सत्ता का स्वीकार खत्त से पारित ] व्यास्याकार का आशय यह है कि जिस सप्ता को सस्वरूप मानकर उसके सापेक्षस्व का मिराकरण प्रतिपक्षी नंयापिकावि को अभिमत है, वह ससा तो सस मे तारित होने पर पूर भाग जाती है अर्थात सत्तक से बाघ होने के कारण प्रतिपक्षों से मानी गई निरपेक्ष सत्ता की सिश असम्भव है। यह इसप्रकार-भान यवि स्वरूप है सब होता, तो अतिरिक्त सत्ता मागने का कोई फल नहीं हो सकता, पयोंकि उसके सम्बन्ध से बस्तु को सत्ता का लाभही उसके द्वारा वस्तु के ऊपर जपकार महा मा समासा है किन्तु जो माघ स्परप से ही सब है उसके लिये वह सम्भव नहीं है पोंकि इसपक्ष में भाव स्वमावत: सत् होता है। प्रत. जेसे स्वभावतः मधुर अमृत में मघुराख्यान्तर का संयोग निरर्थक है उसीप्रकार स्वभावतः तद्रूप भाव में प्रतिरिक्त सत्ता का अभ्युपगम निरर्थक है । यति भाव स्वरूपतः अलव होगा तो भी अतिरिक्त ससा से उसे ठीक को प्रचार कोई लाभ नहीं होगा किसे सकल अर्यका मोध कराने वाले विद्वानों के विस्तृत मधुर मालाप से अस (धुण्ट) जनों को कोई लाभ नहीं होता। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० [ शास्त्रमा स्त. लो. २३ [थ्य और जाति में सच्चप्रतीति समानाकार ही है ] दूसरी बात यह है कि तम्म, गुण और कर्म में सहयवहार की उपपास के लिये अतिरिक्त सत्ता का अभ्युपगम किया जायगा तोजाति प्रावि भाव पार्थो में वह अतिरिक्त सत्ता न रहने से उनमें सहपवहार कैसे हो सकेगा? यदि मह कहा जाय कि-"अभ्यावि तीन पायों में ससा समवायसम्मष से साधबहार की उपपाविका होती है और सामान्माबि सीन पदार्थों में वह एकार्थसमवाय पर्यात स्वसमवापिसमवायसम्बन से साचवहारको उपपाधिका होती है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि द्रव्याधि सोन परायों में एवं सामान्यादि तीन में सक्ष' स्याकारक प्रतीति तमामाकारक होती है, अतः प्रमावि और सामान्यावि में होने वाली 'सत्' प्रतीति में सम्मास्यमेव को कल्पमा उचित नहीं हो सकती। यदि यह कहा भाय कि- 'इत्यादि और सामान्यादि में होने वाली स्व प्रतीति में प्रकारांश में हो एकाकारता है किन्तु सम्पन्धो में उसमें लक्षप्य इष्ट है।-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि यदि सम्मघांश में उसे बिलक्षण माना जायगा तो प्रकार में भी जसे विलक्षण मानने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती। पनि उक्त प्रतीति में प्रकारांश में एकाकारता का उपपावन अावश्यकही हो तो जसे हरि' शम के कपि-सिंह-अश्व-इन्ट मायक हो । हारि : इस जा को हरिपक्वानपत्वविषयक मानकर उसमें प्रकाश में एकाकारता मानी जाती है, उसी प्रकार सत् कामको विमिन बस स्वरुपों का बोध होने से अनेकार्थक मान करमी सतपक्षापत्य प्रष्यावि और सामान्यावि में होने वाली 'मत' 'सत' इत्याकार प्रतीतिभी में प्रकाश में एकाकारता का उपपादन किया जा सकता है । प्रतः अतिरिक्त ससा को सिधि नियुक्तिक है। [ 'सत्' पद्-संकेतविषयतावच्छेदक रूप से सत्ता की सिद्धि दुकर ] यदि यह कहा आप कि-'सत पत्र के संत की विषषता के अवच्छेवकरूप में अतिरिक्तससा की सिद्धि प्राथापक है क्योंकि उसे न शनने पर सत् पद का संकेत हो सम्भव नहीं हो सकता"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि सत पत्र के संकेत के विषय में मात्रिकों में प्रति विभिन्नशास्त्र के अनुयायी में परस्पर मतभेव है-जैसे, पाकिमत में प्रत्यक्षसिद्धरत में, पौड मत में अक्रियाकारिएपविशिष्ट में, मेनमत में उत्पाव-व्यय धौथ्य युक्त में प्रौर वेवान्तमत में शुक्रबा में, भ्यायावि के मत में अतिरिक्त ससारूप जातिविशिष्ट में, मत पद का संकेत माना गया है । अत: सत् पर के सांकेतिक प्रथों में मतमेव होने से 'अतिरिक्त सत्ता आति हो सत्पत्र को संकेसविषयत्ता का प्रवक्षेत्रक है या कहता नियुकिक है। यदि 'सत्' पब के ग्यासमतसम्मत संकेत के आधार पर ही ससा जाति की सिद्धिको बायगी तो यह सम्भव नहीं है मोंकि एकपक्षीयस फेस मात्र से किसी प्रको सिद्धि नहीं हो सकती अन्यथा ऐसा मानने पर विभिन्न पुषों द्वारा विभिन्न अर्थों में पविशेष का समेत सम्भव होने से प्रप्रामाणिक अमेक अथों की सिदि का प्रसङ्ग होगा। यवि यह कहा जाय कि-'घट: सन्' इत्यादि प्रत्यक्ष अनुभव से सत्ता सिद्ध है तो इस कथान से भी प्रतिपनी के प्रतिरिक रसा के साधन का मनोरथ पूरा नहीं हो सकप्ता, मयोंकि उक्त अनुभव से ससा को सिद्धि होने पर भी वह सत्ता घरपटादि आधारभूत पवाथों से भिन्न है ? या तस्वरूप है ? यह बात सिद्ध नहीं हो पाती। "समवायसम्बन्ध से अन्यभाव के प्रति तावास्यसम्बाध से इस्य कारण Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या १० टोका एवं हिन्दी विवेचन] १५. है, अतः प्रप्यनिष्ठकारणता निरूपितकार्यता के अवमानक रूप में सत्ता की सिजि होगी" यह भी नहीं कहा जा सकतापोंकि उक्तरूप से सत्तासिद्धि का निराकरण पूर्व में प्रशित किया जा पका है । प्रतः यह मानना ही उचित है कि सत्ता उत्पाब-श्यय प्रोग्ययोग रूप है-उससे भिन्न नहीं है। न चात्रापि “यधुत्पाद-व्यय-धौव्ययोगादसना सत्वम् , तदा शशशृङ्गादेरपि स्यात् । स्वतश्चेत् , स्वरूपसत्वमापातम् । तथा, उत्पाद-व्यय-धीच्याणामपि यद्यन्यतः सत्त्वम् । अनवस्थाप्रसपिता, स्वतश्चेत , भावस्यापि स्वत एव तद् भविष्यति, इति व्यर्थमुत्पादादिकल्पनम्"इत्पादिपर्यनुगोगावकाश, एकान्तपक्षोदिसदोषम्य जात्यन्तरात्मक वस्तुन्यप्रसरात् 1 न हि मिनीपाद-व्यय-ध्रौव्ययोगाद् मावस्य सत्वमस्मामिरभ्युपगम्यते, किन्तूत्पाद-व्यय-धींच्ययोगात्मकमेव सदित्यभ्युपगम्यत इति । तत्र सवं सकलव्यक्त्यनुगत व्यञ्जनपर्यायताम् , प्रतिव्यक्त्यनुगर्न चार्थेपर्यापतामास्कन्दति, इदमेव सादृश्याम्तित्व-स्वरूपास्तित्वमित्यपि गीयते । तच सय सापेक्षमेव सरनुभूयते, 'मातत्यादिना घटः सन्, न तु तन्तुजनितस्वादिना' 'इदानी घटः सन् । न तु प्रान्' इत्याउनुभयात् । बुदिक्षिशेषकतापेक्षयाध्यादेशापराभिषानया सापेषमेव नत् , यथा 'अय मेकः, अयं चैकः' इति कल्पनाकृतापेक्षया द्वित्वादीति | [ उत्पादादि के योग से सत्ता मानने में प्रश्न परम्परा ] पति यह कहा जाय कि-"त्पादावित्रयरूप सता के सम्बन्ध में भी यह प्रान किया जाय कि उत्पादच्ययनोम के योग से यदि असत में भी सत्ता की निष्पत्ति मानी मायगी तो शराङ्गादि में भी सत्व की आपत्ति होगी और मवि इस वोष के पारणार्थ यह कहा जाय कि जो स्वतः सत् होता है उसी में उत्पावादि के योग से सत्त्व होता है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि इससे उत्पादावि के बिना भी वस्तु को स्वरूपतत्ता तो मित्र हो जाती है फिर उत्पादावियोगरूप नयी सत्ता पपा आएगो : अतः सत्ताको उत्सावादि योगरूप मानना निरर्थक हो जाता है। तथा इसके अतिरिक्त यह भी विचार राय है कि यदि प्रभाव की सत्ता उत्पावास्त्रिय योग से होगी तो उत्पावानिय की भी पसा किसो भन्म से ही मानी जायगो। फिर उस अन्य की सत्ता किसी अन्म से मामी जायगी-इल प्रकार सत्ता की कल्पमा में अनवस्था को आपसि होगी। यदि उत्पावावित्रय की स्वत: सप्ता मानी माम पो तो उसी के समान भाव को भी स्वतः सत्ता सम्भव होने से उत्पादवि की कल्पमा व्यर्थ होगी।" [ अनेकान्त पत्र में उक्त प्रश्नों को अवकाश नहीं ] किन्तु विचार करने पर इन प्रश्नों को अवसर महीं मोलता. क्योंकि वस्तु की एकान्तरूपता के पक्ष में करे गये बोष अनेकान्तरूप वस्तु के अभ्युपगम पक्ष में नहीं हो सकसे । कहने का आशय यह है कि सिद्वान्ती भाव को जो ससा मानते हैं वह भाव से भिन्न उपाय-व्यय प्रौप्य के सम्मथ से नहीं मानते किन्तु भावात्मक उत्पावादि से ही भाबको तसा मानते हैं, अर्थात 'सत'शम्च से प्रयवहत होने वाली बहो है जो स्वयं उत्पावध्यमानीन्यस्वरूप होसी यही सिद्धान्ती काम्पुपगर किन्तु इस सम्बन्ध में यह विशेष जाता है कि जो सव समानाकार सकलयक्तियों में अनुगस होता है वह यजमपर्यायरूप होता है और जो सत्य एक एफ मक्ति में अनुगत होता है यह अर्थ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ { शास्त्रातात. लो. १३ पर्यायरूप होता है । असे समस्त कुण्डल में अनुगत उत्पावध्यपनौव्यरूप सस्व है और समस्त मुकुट में मनुगस उत्पादाविरूप सत्व है और वही ग्यम्मनपर्यायरूप है और कुबल. कुटादि प्रप्तिम्पक्ति में प्रातिस्विकरूपेण अनुगत उत्पाषावित्रय रूप सससस पत्तिरूपोमाने ही पिपिम्प है। इसी ध्यानपर्याय को साहरयास्तिस्व अर्थात साइण्यात्मक सस्व और अर्थपर्याय को स्वरूपास्तिरम मानी स्वल्पारमा सत्व भी कहा जाता है। यह दोनों ही प्रकार का सस्व सभी को सापेक्ष ही अमु. सूत होता है क्योंकि घट मास्वत्व-मुस्जयत्व रूप से सत है और तम्तुनिसस्य रूप से सब नहीं हैइस प्रकार घट के पजपर्यायात्मक सस्व का अनुभव होता है। एवं घट इस समय घटोत्पादक कारणव्यापार के भन्सारकाल में सच है किन्तु पूर्वमाल में सव नही है-इस प्रकार घट के पर्यायात्मक सत्य का अनुभव होता है। शिविशेषकुत प्रपेक्षा-जिसका दूसरा नाम 'आदेश' है-उससे भी बस्तु का सत्व डीक उसी प्रकार सापेक्षही होता है, जैसे 'प्रयमेकः प्रयं पैकः' इस कापमा यानी बुद्धि से सम्पन्न अपेक्षा से विस्थावि सापेक्ष होता है। तात्पर्य यह है कि घट का व्याजमषात्मक सत्त्व 'मयं पटः' इस वृद्धि को अपेक्षा से होता है अर्थात घट घटविषिषपतया सव होता है और पदापियशिविषयतया सत नहीं होता। इसी प्रकार घट का उत्पश्याविरूप अपर्याय भी 'घट मिटि से उत्पन्न होता है तन्तु से मही' इत्याकार बुद्धि सापेक्ष होता है। अर्थात घट मिट्टी से उत्पन्न होता है। इस मुदि का विषय होने से उत्पाशादित्रमरूपसत्त्वात्मक होता है और तम्तुजन्यत्व की बुद्धि को प्रपेक्षा उरपाबाविरूपसत्वरमक नहीं होता।। एवं चेइ सममजी प्रपनेते, तामिदानीं दिङ्मात्रेण दर्शयामः, तथाहि-१. स्यादरल्येत्र, २. म्यात्रास्त्येव, ३. स्यादवाव्यमेय, ४. स्यादन्यद स्पानास्त्येव, ५. स्यादस्त्येय स्यादवकध्यमेष, ६. स्यानारत्येव यादवक्तव्यमेव ७, स्पादस्त्येत्र स्थापास्त्येव स्यादवक्तव्यमेव, इत्पुल्लेखः । अत्र सर्वश्रेषकारप्रयोगोऽनभिमतार्थ याच्यर्थम् , इतरथा प्रतिनियत्तस्वार्थानभिवानेनानाभिहिततुल्यतापतेः । सदुक्तम् "वाक्येऽवधारण तावदनिष्टानिवृत्तये । कनन्यम् , अन्यथानुक्तसमन्यात्तस्य कुत्रचित् ।। १ ॥" इति । स्यात्कारप्रयोगश्च मापैचनतिनियतस्वरूपातिपनये । पत्रापि घामों न प्रयुज्यते, नत्रापि ध्यवच्छेदफलोषकाग्यदर्थात् प्रतीयते । नदुक्तम् "सोऽप्रयुक्तोऽपि या तज्ज्ञः सर्वार्थान प्रनीयने । यत्रकारोऽयोगादित्यवच्छेदायोजनः ।। १ ।।" इति । [ सापेक्षसच्याउसच का सूचक सप्तमंगीन्याय ] इस संदर्भ में प्यारयाकार ने वस्तु के सरवाइसव को सापेक्षता का प्युपायम करने के लिये सप्तमङ्गी न्याय का प्रदर्शन किया है जो इस प्रकार है (१) बस्तु स्यारस्त्येव'-वस्तु कति सत् होती ही है । (२) 'वस्तु स्मानास्त्येव वस्तु कश्चित् भासत होती ही है। (1) 'अस्तु स्पाययक्त ज्यमेव'-वस्तु कथपिद 'अबाध्य' होती ही है। (४) 'वास्तु स्यात् मस्ति एच. स्याद नास्त्येव'-वस्तु Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याटीका एवं हिन्दी विवेचन ] १५॥ यांचा सत् है हो और कर्याचा असत् ही है। (५) 'वस्तु स्थावस्येव स्थाववतव्यमेव'-वस्तु कश्चित् सत् और कश्चित् अवक्तव्य होती ही है। (१) 'यात्रास्त्येव स्मारवक्तव्यमेवन्यस्तु उपबित् असत् , कश्चित् भवाच्य होती ही है। (७) स्यावस्त्येव, स्थानास्त्येव स्यावतम्यमेव-वस्तु कश्चित् तत् है हो, कथमित् मत्सत् है हो और कश्चित् अवाध्य होती ही है। इस सम्मीलित सात वाक्य खण्ड से वस्तु के एकस्वरूप की सात प्रकारों में सापेक्ष सिद्धि होती है। [ सप्तमंगी में प्रयकार और स्यात् पद की सार्थकता] इन मलों में प्ररपेक में एबकार का प्रयोग मममीष्ट अर्थ के निधेष के लिये किया जाता है। यदि उसका प्रयोग न किया जाय तो वस्तु के प्रनभीष्टापडपका निराप्त होने से बहतु का प्रतिनिपसास्वरूप से अभियान म होगा फलतः वस्तु अभिहित होने पर भी मतभिहसनुल्य होगी। अंसा कि मामला नगरा है कि मार्ग के नियमे लिये प्रत्येक वाक्य में अवधारण यानी एवफार प्रयोग समझना चाहिये-उसको न समझने पर वस्तु के प्रनिष्ट स्वरूप के सम्बन्ध में कुछ शान न होने से वस्तु अनुक्त तुल्य हो जाती है। प्रत्येक अङ्ग में जो 'यार' कार का प्रयोग किया जाता है वहस्तके प्रतिनियतस्वरूप की सापेक्षता बताने के लिये होता है। ना! कहाँ स्यातकार का प्रयोग उपलबब न हो वहाँ भी स्यातकार का अर्थतः संनिधान जसीप्रकार मानमा आवश्यक होता है जो एषकारप्रपोगशून्य वाक्यों में प्रानभीष्टार्थ को नियुक्ति के घोष के लिये एक्कार के निधान का अर्थसः अभ्युपगम किया जाता है। जमा कि एक कारिका में कहा गया है कि त्यातकार अनेक वाक्य में प्रयुक्त होने पर भी यहतुस्वरूप की सापेक्षता को जागनेवाले विद्वानों के द्वारा अप्स को प्रसोति-बोध अर्थत: ठीक उसीप्रकार कर लिया जाता है जैसे एक्कार से शूम्म परक्यों में अयोगाधि का व्य य बतानेवाले एपकार की अर्थतः प्रसोति की जाती है। इमप्रकार यह स्पष्ट है कि तमतभंगवाक्पों में स्यात् पद का प्रयोग समभिव्याहतपार्य की सापेक्षता सूचित करने के लिये और एपकार का प्रयोग अनिष्टार्थ अर्थात् 'सापेक्षस्वरूप के प्रभाव' का निषेध बताने के लिये किया जाता है। जैसे 'स्याबस्स्येव' इस वामय में स्यात् पा से वस्तु के किसी प्रपेक्षा से अस्तित्व का कोष होता है और एक्कार से वस्तु के सापेक्ष मस्सिावाभाष का निषेध मोषित होता है। मन्त्र स्वरूपेण घटादिनाऽस्तित्वविचक्षयाश्यत्रोपसर्जनसायप्रतिपादनपरः प्रथमो भगः । पररूपेण पटादिना नास्तित्वविवक्षया च सत्त्वोपसर्जना सम्वनिपादनपरो द्वितीयो भङ्गः । शम्दशक्तिस्वाभाव्यादेकोपसर्जनेतरप्रधानभावेनैव शाब्याः प्रतीनेः । यदा तु तद्वस्तु द्वाभ्यामपि धमाभ्यां युगपदमिवामिष्टम् । तदा तृतीयो भङ्गः । न विद्वयोधमयोयुगपन प्राधान्न गुणमायेन चा प्रतिपादने किश्चिवू यस्तु समर्थम् । तथाहि इतः भारभ्य पोडमा भंगत्रयसमर्थनापेक्षाभेदा: सम्मति का० १ गाथा ३६ (पृ. ४४३) विधरणादुताः इति शेयम् । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [HINवास्त.७ पलो. २५ न वावत् समासस्वथा, बग्रीहेरन्यपदार्थप्रधानत्वात् । अव्ययीभावस्य योमयपदप्रधानत्वेऽप्यत्रार्थे प्रातः । इन्द्रस्यापि दृष्यवृतेः प्रकृतार्थाऽप्रतिपादकत्वात , एकमनूध वदप्रातः, गुणवृत्तेरपि द्रव्याश्रितगुणप्रतिपादकत्वेन प्रधानभूतयोगुणयोरप्रतिपाद्यत्वात् । तत्पुरुषस्याप्युसरपदप्रभा: | गो संपाचे पदका पवारमा पुनःपा प्रत्याविषयत्वात् । एकशेषस्य चासंभषात् , अन्वतुल्यत्वाच्च । न च समासान्तरस-दावोऽस्ति, येन युगपद् गुणद्वयं समासपदवाच्यतामास्कन्देत् । अत एव न विग्रहवाक्यमपि तथा, तस्य त्यभिन्नार्थत्वात् । न च फेवलं पदं यास्य वामपनोकप्रसिद्ध तथा तस्यापि परस्परापेक्षद्रव्यादिविषयतया तथाभृतार्थप्रतिपादकत्वाऽयोगात् । न च सूर्याचन्द्रमसोः पुष्पदन्तपदवत् , शत-शानयोः सत्पदवत् चा समितिकमेकं पदं वथा वस्तुं समर्थम् , तस्यापि क्रमेणादयप्रत्यायकत्वात् "समदुमारित पदे सकदर्थ बोधयति" इति न्यायात् । [स्याद् अस्ति' प्रथमभंग का अभिप्राय ] ग्याख्याकार ने तसङ्गों के प्रतिपाद्य अर्थों के वर्णन में प्रथम भंग के अर्थका प्रतिपादन करते हमे कहा है कि घटादिस्वरूप से पदाधिवस्त के प्रतित्व को विवक्षा से प्रभमभङ्ग प्रवृत्त होता है और उस का तात्पर्य वस्तु के असश्वीपसम ऐसे सवप्रतिपावन में अर्थात् गौणरूप से प्रसव और प्रधानरूप से सस्य के प्रतिपावन में होता है। भता सरुवापय में स्थान पर सममिव्याहार से अस्तिपद की 'स्यात्' पर से विवक्षित पेशा से मित्र अपेक्षा द्वारा असत्वविविद सत्व में लक्षणा हो जाती है। से वतमायय में स्यात् पद से घट की स्वस्मारमकापेक्षा नियमित है अत: उस में पस्तिपत्र की परकपासिस्वविशिष्ट सस्व में लक्षणा हो जाने से और उसमें स्यात् पवार्य का सम्बय होने से घटः स्यास्ति' इस भंग से 'घट परकपसापेक्षमसर विशिष्ट स्वरूपेण सत्वयान' अर्थात 'पट पटायामक परम्प से प्रसत् होता हुमा घटाचारमस्वरूप से सत है इसप्रकार का बोध होता है। इसमें पररूप से असत्य स्मरूपेण सत्व का विशेषण हो जाने से गौण हो जाता है और स्वरूपेण सरव मुख्य विषय ५८ में साक्षात् अन्धित होने से प्रधान होता थे । एक्कार से स्यादहित' इस भाग से मोघ अघ के प्रयोगका निषंय बोषित होता है । इस प्रकार 'घटः स्यारत्येष' इस प्रथमभ से होनेवाले रोष का आकार यह होता है कि 'घट पररूप में प्रसव होते हय स्वरूप से अस्तित्व का प्राश्रय और उक्तविष अस्तित्व के प्रयोगाभाष का माश्य है। [पाद नास्ति' द्वितीय भंग का तात्पर्य विवरण ] पटाचास्मक पररूप से घर के मास्तित्व को विवक्षा से 'घट: स्यानास्त्येव' इस द्वितीयभङ्गो प्रकृति होती है । इसका तात्पर्य घर के स्पोपसर्थम-असत्व' के प्रतिपादन में अर्थात गौणरूप से सस्य और प्रपानरूप से अप्सरव के बोधन में होता है। इसके भी शाम्बबीम को विषि प्रपमभङ्गके कारोथ के विधि से समान है। शब्द का स्वभाव ही ऐसा कि शामबोधात्मक प्रतीति एक को उपसर्जन गौण और अन्य को प्रधानरूप से ही अवगाहन करती है। इसमबन से यह प्रतीत होता है कि तसत् धर्म विशिष्ट का वाचक पथ, विरोधीधर्मान्तर से विशिष्ट सहमविशिष्ट में समितिक Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या ठीका एक हिन्धी विवंचन] १५५ होता है । अल इतके अनुसार प्रथमदितीय भंगों से शवयोय की उपपत्ति के लिये अस्ति' आविषय को पूर्वोक्त अर्थ में सक्षणा की भावाश्यकता नहीं होती। ['स्या अवस्तध्य पृतीयभंग का गर्भितार्थ ] अब सरव भोर असरव आदि वो धमों से किसी वस्तु की युगपद एवकाल में विवक्षा होती है सब तृतीय भंग की प्रति होती है । उससे वस्तु की वो पो हारा युगपद कवि अवास्यता का बोध होता है क्योंकि कोई भी सामासिक अथवा सामासिक पच परस्पर में प्रधाम-विशेष्यभाव अथवा गौण-विशेषणभाव से धोनों भमोरे युगपक्ष प्रतिपावन में समय नहीं होता । जैसे सस्त और असस्थबोधक पदों के समास करने से निष्पन्न होने वाला 'सबसत' शश्व प्रधान अथवा गोण भाव से एक साथ उन बोनों का प्रसिपारक नहीं हो सकता क्योंकि यदि सबसव पधों का बहबोहि समास किया जामगा सो उससे तरवाइसव का प्रणाम अथवा गौणभाव से पुगप प्रतिपादन हो सकेगा क्योंकि महतीहि प्रन्य पदार्थ प्रधान होने से उस में समासघटक पदार्थ प्रधान नहीं होता। अतः सम्र और असत्सव तमासपटक पयार्य होने से बहवोहि से प्रधानभाष से घोध्य महीं हो सकता तपा गोणभाव से भी बोध्य नहीं हो सकता, क्योंकि उस बहसीहिजन्यबोध में अन्य पदार्थ का सबसस्सम्बन्धित्व प्रषा असारांशयासमय से ही हमोगः। श कावार्थ में गौण होता है किन्तु असा शबा सत् श दार्य में गोग नहीं होता और द्वितीय मोष में अलत शब्दार्थ सत् वाग्वा में गौण होता है किन्तु मत् शब्वार्थ असत् शवधाम में गौण नहीं होता। [अव्ययीभाषसमास की युगपत्प्रतिपादन में अशयित ] सध्ययीभाव समास से भी उक्त धर्मों का प्रधान अथवा गौण भाव से युगपत कोष महीं हो सकता क्योंकि प्रध्ययीभावसमास दो प्रकार का होता है. (१) अपय और भमन्यप पदों का-जैसे 'उपकुम्भव' 'अभिमुखस' सत्याधि । (२) सेवल अारम्पय पदों का असे पण्डाददि-शाकेशि । इन में सबसत पों में प्रथम मध्यमीभाष नहीं हो सकता क्योंकि उन दोनों में कोई प्रश्यपत्र नहीं है । दूसरा मध्ययीमाघ सत् असद पदों का "सत असत व विषयोकृत्य प्रवत्तमान सानं सबस' इस अर्थ में हो सकता है और उस समास के घटक सब और असत् पवाथों में परस्पर विशेषविशेष्यभयानापन्नत्व लक्षण प्रघामसा होने से उस अध्ययीभावाम.स ( सदसत ) में उभयपप्रधानता भी है. तथापि परस्पर प्रधान अथवा गौण भावापन्न स्वासस्थप अर्थ में उक्त समास की प्रवृति नहीं होती। [इन्द्र आदि ममास की युगपत्प्रतिपादन में अशनि] बन्द समास से भी प्रकृति अर्थ का अर्थात् प्रधामभाव अथवा गौणभाष से सत्वाऽसत्य का पुगपर प्रतिपावन नहीं हो सकता । क्योंकि म्यप्ति तन्न अर्थात हव्यार्थक पत्रों के द्वन्द्र को एक को अनुवाद करके अन्य के विविधया कोधन में प्रवृत्ति नहीं होती। जैसे द्रव्यापटों का धव-सवोत्यादि बस समास एक पदार्थ का अनुवाद कर अन्य पदार्थ का विधयतिथया बोधक नहीं होता । गुणवृत्तिवन्त अर्थात् गुणशेषकमवों का उन्द जैसे रक्तपीते' इत्मावि समास मी तम्यामित गुण का प्रतिपावक झोता है अतः उससे प्रधान भाव से गुणों का प्रतिपाषम नहीं हो सकता। तत्पुरष से मो धमंडय का प्रधाम अपवा गौणभाष से प्रतिपाबम नहीं हो सकता क्योंकि उस में असरफ्याय ही प्रधान होता है। द्विगुसमास में पूर्वपद के संख्यावाचिस्व का नियम है । सवसत् शानी में Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रमा तरलो. २३ कोई शक संक्यावाची नहीं है असः सवसत बन्यों का विगु समाल मान कर भी सवास रथ का युगपत् प्रतिपारन नहरें माना जा सकता । कर्मधारय समास पी भामा विना ( लस मामा से गुप्प का प्रतिपावन नहीं कर सकता। सत्-मत्सत् पद के एकशेष से भी उक्त धर्म के घोष का समर्थन सम्भव नहीं है क्योंकि उम शम्बों में एकशेष का विषायक कोई शास्त्र नहीं है। दूसरी बात यह है कि यह भी तन्त्र के समान ही बर्ष का प्रतिपायक होता है अतः उनके निरास से उसका भी निरास हो जाता है। उक्त समासों से भिन्न कोई समास नहीं है जिसके द्वारा सस्व-सप्तत्त्व रूप गुणदय में युगपा समस्तपद की पापाताको सम्भावना को जा सके । जब समास वाक्य से उक्त धर्मदय का युगपद् पोष सम्भव नहीं है तो वियह वाक्य से मोबह सम्भव नहीं हो सकता, क्योंकि विग्रहबापय वृत्ति समरस समाप्त का अभिवापंक होता है | समास और विग्रह से भिन्न ऐसा कोई अकेला पर या माश्य लोकप्रतिम नहीं है जो अकेले युगपद उत्तपतय का प्रतिपादक होक्योंकि मो मो ऐसा पर या पाश्य होता है वह एक दूसरे की अपेक्षा से हो इण्यादि मर्थ का बोधक होता है। असः वह तथाभूत अर्थ का अर्थाव सरपअसत्त्व उभय प्रमों से माश्लिष्ट एक अर्य का अकेले प्रतिपावक नहीं हो सकता। यदि यह शंका कि जाय कि-"जैसे 'पुष्पदन्त' पव युगपद सर्प और चन्द्रका पोषक होता है एवं 'तो सर्वस पाणिमित्र [ ३.२-१२७] में सव' संज्ञापन राष्ट्र और शामम् प्रत्यय युगल का युगपत् बोषक होता है उसीप्रकार कोई एक सांकेतिक पच सत्व और असरव का मी युगपद योधक हो सकता है।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि पुष्पदन्त पद से क्रमशः सूर्य चरको उपस्थिति होती है एक साथ नहीं। तथा 'सत्' यह राजा पर भी युगपत् उक्त अर्घद्रय का बोधक न होकर क्रम से हो बोधक होता हैम्पोंकि यह न्याय है कि एक बार उच्चरित पर एक ही अर्थ का बोधक होता है । "एक पदमेकदकधमांच्छिममेवा) बोधयति' इतन्न्यायाय, तेन नानार्थकशब्दस्थल एकपदानुभयोपस्थितावपि नोभयकोषः (किंत) पुष्पदन्तादिपदाद रवि-चन्द्रायुभयत्वेनोभय. योधस्तु सुघट एा, अन्यथा घटपदाद् घटत्त्वेनाखिलघटयोपोऽपि न स्यादिति चेत्र ? अस्वेसदापाततः, तथापि प्रातिश्विकरूपेणाध्यक्तध्यत्त्वमेव । एतेन 'सत्' इति पदादेव शक्त्या सत्यस्य, लक्षणया चासवस्योपस्थितिरस्तु, शक्प-लक्ष्ययोयुगपदन्ययस्तु 'गंगायो मत्स्य-घोषी' इत्यादाशिवोपपपते, इन्युालवावकोक्तावपि म क्षतिः, क्रमिकमजयजन्यप्रतीत्यपक्षया युगपदवक्तव्यत्वस्याऽवावात , श्रोतुस्तथा जिज्ञासयत्र तथोक्तेः, एकत्र जानवापेक्षान्वयस्य स्यात्पदस्येतस्त्र ध्यूपरताकाइयत्वेनोक्तवदन्ययाऽयोगान् । [ 'पुष्पदन्त' शब्द से एक साथ सूर्य-चन्द्र के पोध की आशंका का समाधान ] यदि यह कहा जाय कि-"उक्त म्याप का अर्थ यह है कि एक पब एककाल में एकथर्मविशिष्ट ही पर्थ का बोधक होता है, इसलिये मानायक शम्मस्थल में एकपर से प्राय की उपस्थिति होने पर भी अभय का शाम्बयोष नहीं होता क्योंकि अनेकार्थकपद से तुम का बोध भित्र भिम पो बार Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मालीका हिन्दी विवेचन + ही हो सकता है अतः उक्त म्याय के विरोध से अनेकार्थकपव से युगपद अपाय का बोष नही हो सकता । किनु पुष्पवतन्ध से सूर्य और चन्द्ररूप अय का बोध हो सकता है, पथपिबह सूर्यब-बबरमाप मिन्न भिन्न धौ वास नहीं होता किन्तु सूर्य-चन्द्र उभयस्वरूप पूर्यचन्द्रोमपानुमत धर्म द्वारा होता है। यदि उस भ्याय का यह अयं महीं किया जायगा तो एकचार च्वरित एक पर से एक ही अपंधोष जता भ्याय से अनुमस होने के कारण घटपन से घटस्वरूप से समस्त घटों का मोष भी नही हो सकेगा। और पान वक्त न्याय का प्रस्तुत अर्म स्वीकार किया जायगा तब किसी सांकेतिक पत्र के सकल उचारण से भी सत्यमोर तस्व उभय साधारण किती धारा सत्त्वाऽसत्योभपका युगपद बोथ होने में कोई बाधा हो नहीं सकती"-सो इस कपन को मापाततः स्वीकार कर के यह कहा जा सकता है कि सत्त्व-प्रसत्त्व उभयसापारमा किसी प से सत्वाऽसत्त्व का किसी एक पब से युगपद सम्भव होने पर मो प्रातिस्विरूप से पर्याद सत्त्वमाप्रति एवं प्रसवात्रतिरूप से सत्त्व असश्या युगपत् प्रवक्तव्यस्व तो अक्षुण्ण ही रहेगा । अतः बस्तु को स्थावक्तव्य मानने में कोई माया नहीं है । [उहाल मत वाच्यताशधक नहीं है ] इस संवर्म में किसी उमरकल बसा का यह कहना है कि जैसे 'गङ्गापा मरस्म-घोषा' इस वाक्य नस्वार्थ में पक्ष काम के समय का और वशद के प्रम में गडापर के तौररूप लक्ष्पार्थ का मुगप अम्बय होता है वप्तीप्रकार सत् ५६ से, शक्ति द्वारा सवको और लक्षणा द्वारा प्रसवको उपस्थिति मान कर उन बोनों का समभिन्याहस घटाविशाग्य के पर्ष में युगपद अन्य मानने में कोई सति नहीं है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि कम से प्रवृस प्रथम और द्वितीयमनसे होनेवालो प्रतीति की अपेक्षा सत्व-अप्सरस की पुगपशवरूभ्यता में कोई बाधा सापर्म यह है कि जैसे प्रथम और द्वितीयमलों से सापेक्ष सत्व असत्व का बोध होता है चसप्रकार एकपर्व से सापेक्ष सत्यासत्य का बोध युगपवनही हो सकता । पोंकि श्रोता को बस्तु के सापेक्षसत्वाऽसस्थ को मुगपद् मिनासा है अत एव उस बिजासा के अनुरोध से वस्तु के सापेकर सत्यासत्व की ही युगपत् प्रवक्तव्यता तृतीयम से बतायी आती है । यदि यह कहा जाप कि-'स्यात पक्ष के समझिम्याहार में एक सद पब से शक्तिश्रीरलक्षणाद्वारा सापेक्ष सरवाऽसस्व का युगपराध हो सकता है तो यह ठीक नहीं है। बोंकि सत पब के एक अर्थ में स्यात पत्र में अपेक्षा का प्रवाही जाने पर अन्य अर्थ में स्वास्थवार्य अपेक्षा के अश्वयकी कक्षा निवसतोजातीमत एवं से अम्बय महो हो सकता, अर्थात असे कमिकभनय से स्यास्पयाम्वित सत्यासत्व का बोध होता है उसी प्रकार शक्तिले सत्व और लक्षणा से असव परक सत पर और स्यावर के परस्पर समभिसमाहार से स्मासपधार्यान्वित सस्वासस्व का दोष नहीं हो सकता। ___ अत एवं न निजान्तिरफान्ताभ्युपगमे यर्थस्य तथा वाच्यता, तथाभूतस्प तस्याऽत्यन्तास वात् , सर्वधा सम्वेऽन्यतोऽध्यापसवान महासामान्ययन षटार्थत्यानुपपतेः, अर्थान्तरन्ये पररूपादिनन स्वरूपादपि व्यावृत्तः, खरविषाणयसत्तावान्यतैब अति यदन्ति । [एकान्त शक्यार्थ लक्ष्यार्थ का युगपत् शाब्दबोध अशक्य ] एवं सत् पाच के निमार्थ-पापयार्य सस्व के एकान्त का मम्युपगम एवं अन्तर-पयार्ष Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवास त० ७०२३ + rees के एकान्त का अभ्युपगम करने पर भी दो श्रयं उभयरूप से युगपत् शब्दबोध्य नहीं हो सकता क्योंकि उक्त उभयरूप से युक्त म अत्यन्तात् है कारण सत् पद के क्यार्थको सर्वा सद्मानने पर वह महासामान्य के समान धन्य व्यासूस नहीं होगा। अस वह घटान्वित भयं न हो गा, क्योंकि टसा नहीं है। एवं स पत्र के लवयार्थ को अर्थान्तर अर्थात् एकान्त अर्थान्तरसर्वथा सत् मानने पर जैसे पर रूप से अर्थ प्रसव होता है वैसे स्वरूप से भी असल होगा- अलः रविषाण के समान अलीक हो जाने से शब्दयोग्य नहीं होगा । १५८ + न च घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्ते विधिरूपे सिद्धेबद्ध एव तत्र पटाद्यर्थप्रतिपेध इति वाच्यम्, पढादेतत्राभावाभावे घटशब्दप्रवृत्तिनिमिश्वस्य घटत्वस्यैवाऽसिद्धेः । शब्दानां चार्थज्ञापक न कारकत्वम् इति तथाभूतार्थप्रकाशनं तथाभूतेनैव शब्देन विधेयम् इति नाऽसंबद्धस्तत्र पटार्थप्रतिषेधः । अथवा, 'सर्व सर्वात्मकम्' इति सांख्यमतय्यब छेदार्थे तत्प्रतिपेो विधीयते । न व तदभिमतार्थस्य सिद्धयसिद्धिभ्यां व्याइतो निषेध इति वाच्यम् । विकल्पतः सिद्धस्यापि तं प्रति व्यवहारव्युदासाय निषेधचित्यात् । विकल्पतः सिद्धिश्व खण्डशोऽखण्डशो वेत्यन्यदेतत् । " [ पटादि अर्थ का प्रतिषेध असंबद्ध नहीं है ] यदि यह कहा जाय कि "घट में पवन को प्रवृत्ति का पटस्वरूप भावात्मक निमित्त सिद्ध है, अतः उसी से घट में घटक के व्यवहार आदि का नियमन हो जायगा, इसलिये उस में पार्थ का प्रतिषेष सम्बद्ध है, अर्थात् उस में पटाचारमा असस्य का प्रभाव है इसलिये एक वस्तु में सत्त्व-प्रसव उमय का सम्बन्ध अयुक्त है ।" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि घट में पदादि के अभाव का पाद्यात्मना असत्य का अभाव मानने पर उस ने घट के प्रवृतिनिमित्त घटव की हो सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि पटाथात्मना अशस्य के भवाधिकरण पटादि में घटत्व नहीं होता । यदि यह कहा जाय कि घटपटादि में पदाधारमा अरु वा मात्र समान होने पर भी घटशब्द की महीमा से ही घट को घटात्मकता सिद्ध होगी और पटादि में नहीं होगी, क्योंकि उस में प्रामाणिकों द्वारा घटब्द का प्रयोग नहीं होता" तो यह उचित नहीं है क्योंकि शब्द अर्थ का ज्ञापक होता है। कारक नहीं होता, अतः जो अर्थ जिस रूप में प्रमाणान्तर से सिद्ध है उस रूप से उस अर्थ के वाक मध्य से ही उस रूप से उसका प्रकाशन मान्य है। अतः घट में पटाथात्मना असत्व को घट से असम्बद्ध नहीं माना जा सकता, क्योंकि पटायाममा प्रसस्य के बिना उस की घटता ही सिद्ध नहीं हो सकती । [ सख्यम के निषेधार्थ पदादिरूप से अमय का निरूपण | अथश यह भी कहा जा सकता है कि घट में पदाथात्मना असश्व इसलिये मानना चाहिये जिससे 'पुरुष से मिश्र समस्त प्रकृतिरूप एकोपादानक होने से सर्वात्मक है। इस सांख्यमत का निषेध हो सके। यदि यह कहा जाय कि "सिद्ध अर्थ की सिद्धि और प्रसिद्धि दोनों से सस्यमत का निषेध यह है असः उसका निषेध घट में पटाचारमा असत्य के अभ्युपगम का प्रयोजन नहीं हो सकता।" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि सब में सब का अभेद कल्पना से गृहीत है। उसी के कारण सब में सब को अभिनाश का व्यवहार भी प्रसत होता है, अत एव उस व्यवहार का निषेध भी Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATR० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] १५ ग्यायसङ्गत है । सब में सब के अमेव की काल्पनिक सिद्धि घटादिएकोपारामक होने से पटावि से अभिन्न है-इस रूप में सामान भी हो सकती है। तथा ए सोने से परास्तु से अभिन्न है-सप्रकार असा भी हो सकती है। इन दोनों ही प्रकार की सिद्धि से घटादि का पटाचास्मना व्यवहार प्रसक्त होता है प्रतः उसके निषेध के लिये पावि में पटाधारममा प्रसवका कम्युपाम प्रावश्यक है। यद्वा, नाम स्थापना-द्रव्य-भाय भिन्नेषु घटेषु विधिसिताऽविधित्सितप्रकारेण प्रथम द्वितीयों मङ्गो । तत्मकाराम्या युगपदयाभ्यः । यद्यविधिन्सितरूपेणापि षटः स्यावं तदा प्रतिनियतनामादिभेदव्यवहाराभारप्रसक्तिरिवि विधित्सितस्यापि मामलाम इति सर्वाभाव एव भवेत् । यदि य विधित्सितप्रकारेणाप्यघटः स्यानु तदा तमिवन्धनव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिरेष । एकान्ताम्युपगमे च तथाभूतार्थस्याऽप्रामाणिकत्वादवाल्यः । [२-निक्षेपापेषा सप्तभंगोगत भगत्रय का उपपादन ] अथवा प्रथम तीन भङ्गों की उपपत्ति इसप्रकार भी हो सकती है कि घटादि पवार्थ नामस्थापना-मम्म-मावरूप मिक्षप चतुष्टय के मेव से आविष होता है। उन में कमी नामात्मस्वरूप से कमी पापानात्मकस्वरूप से, कमी प्रख्यात्मकबरूप से, तो कभी मावात्मकस्बा ले घटादि की विवक्षा होती है। जिस रूप से घावि विवक्षित होता है बस रूप से उस की तसा होती है और अम्पकप से उस को असस्ता होती है। अतः विवक्षित रूप से बस्तु को सत्ता बताने के लिये प्रश्मभंग को और अविवक्षितस्प से असत्ता बताने के लिये हितोषभंग की और दोनों रूपों से अप को पुगप रूप से विवक्षा करने पर अबाध्यता बताने के लिये तृतीयभङ्ग की प्रवृत्ति होती है। यह शंका नहीं की जा सकती कि-घट से विवक्षित याने विधिस्सितरूप से मत होता है जैसे अविधिस्सितहप से भी मन होता है-योंकि पवि विधिस्सिसहप के समान प्रविधिसितरूपसे भी घट मविपत होगा तो नाम स्थापनावि भेव से घर में मो मेवव्यवहार होता है उसका प्रभाव हो जायगा । फलतः विधिस्सितरूप से भो वरतुका अभाव हो जाने से सर्वाभाव को प्रसक्ति होगी। अत: घटादि को अविधिस्सितरूप से प्रसन्मानना मावश्यक है। इसीप्रकार यह भोपाका महीं की जा सकती कि 'घट जसे अविधिस्सितम्प से असता है उसी प्रकार विधिस्सितरूप से भी समय है-क्योंकि विधिसिसाप से भी असर मानने पर जस रूप से सस्व के प्राचार पर जो घटादिम्यवहार होता है उसका उच्छेव हो लामणा । अतः एकान्तवस्तु के अग्युपगम पक्ष में एकान्तमूतवस्तु प्रामाणिक न होने से वस्तु सपा अवाच्या व्यवहारातीत हा जायगी। अथया, स्वीकृतप्रतिनियतप्रकारे तत्रैव नामादिके यः संस्थानादिस्तस्वरूपेण षटः, इतरण सापटः, इति प्रथम-द्वितीयो । ताभ्यां युगपदमिधातुमशक्तेरवान्या । विधक्षितसंस्थानादिनेष यदीवरेणापि फ्टः स्यात् एकस्य सर्वघटसात्मकत्वप्रसविता, अथ विवक्षितेनाप्यषटः पटादाचित्र षटार्थिनस्तत्राऽन्यप्रवृत्तिप्रयक्तिः । एकान्तपक्षेऽप्ययमेर दोप इत्यसवादवाच्यः । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्ववार्ता.लो. २३ [३-संस्थानादि से मंगवयापेक्षाभेदनिरूपणा । अथवा यह कहा जा सकता है कि नामस्मापनावि प्रत्येक घट का पृथक् पृपा भाकार नियत है मतः उन में एक एक घटका अपमें भाकार से सत्य है और सम्याकार से प्रसव है। इसी तत्त्वाऽसरव को मताने के लिये प्रथम और द्वितीय भङ्गप्रयस होते है । स्वसंस्थान से सरथ और परसंस्थान से असत्य इन दोनों का एकपप से पुगपत् बोध सम्भव नहीं होता है। इसी बात को बसाने के लिये तृतीयभङ्ग प्रत होता है। यह प्रावश्यक है कि विवक्षिससंस्थान से सत्य और अविवक्षित संस्थान से प्रसस्व माना जाय । क्योंकि प्रषिवक्षिप्तसंस्थान से भी सस्व मानने पर एक ही घर में सभी संस्थानों का सम्बाप हो मामे से एकयट में सर्वघटारमहर की प्रसक्ति होगी। इसी प्रकार पाह भी मामना आवश्यक है कि विवक्षित घट अविवक्षित संस्थामावि से ही असद है। किन्तु विवक्षित संस्थान से असत नहीं है क्योंकि विवक्षिप्त संस्थान से मी भसात माना जाममा सो घटपटाविल्म हो झापगा। अत एष जेसे पटादि में पटाों को प्रवृत्ति नहीं होती, उसो प्रकार विवक्षित घट में भी घायों की प्रवृत्ति न हो सकेगी। एकाम्त पक्ष में भी यही धोष होता है असएव उस पक्ष में सर्वथा घवापयस्वकी आपतिपतिया अथवा, म्बीकृतप्रतिनियतसंस्थानादों मध्यावस्था मरूपम् , शूलकपालादिलक्षणे पूर्वोसरावस्थे पररूपम् , नाम्पा मदसत्त्वात प्रथम-द्विसीयो, युगपत्ताभ्यामभिधातुमसामान सृतीयः । मध्यावस्थावदितरावस्था यामपि यदि घटः स्यात , तस्यानायनन्तत्वप्रचितस्तदा स्यात् । यदि च मयावस्थारूपेणाप्यघटस्तदा सर्वक्ष घटाभानापत्तिः। एकानपक्षेऽप्ययमेव प्रसङ्ग इत्यसन्धानवाच्यः। [4-अयस्थाभद से भंगत्रय का उपपादन] अथवा जिस का विषप्तसंस्मान अम्पुपगत है ऐसे घटादि की तोम अवस्थाएं होती है-मध्यावस्था, पूर्वावस्था और उत्तरावस्था। पन में मध्यावस्या स्वरूप और पूर्व्हसरावस्था पररूप है। मंसे, भाषघट की कम्युनोचाविमस्व मध्यावस्था है और उसके पूर्व की कुशूल-पिशाधि अवस्था पूर्वावस्था है और कपाल-भग्नघट का भाग पानि उत्सरावस्था है। मध्यावस्थाको स्वरूप इसलिये कहा कि उसी अवस्था में प्राधान्मेन घर शम्य का व्यपदेश होता है। पूर्वोत्तर अवस्था में इस शादव का म्पपदेश म होने से उन्हें घट का पूर्वरूप कहा जाता है। इसप्रकार 'घर' गाय से निवेशयोग्य भाव प्रपनो मध्यापस्यास्मक स्वरूप से साव होता है और पूर्वोत्तरायस्थात्मक पर रूप से असव होता है । इस सस्करऽसस्व को बताने के लिये प्रथम द्वितीयभंग की प्रवृत्ति होती है । इन विभिन्नावस्मात्मकरूपों से घट के सत्त्वासरव का युगमव अभियान शस्य न होने से उसको बसाने के लिए सृतीय भङ्गको प्रवृत्ति होती है। मध्यावस्था से जो घट होता है वह पनि पूर्वोत्तरायस्था से घट हो तो घट श्रमावि ममास हो कामंगा । अर्थात् पूदोसरावस्था में भी घटनास्वव्यदेवा की प्रप्तति होगी। पवि घद पूर्षोसरावस्था के समान मध्यावस्था में भी मघट होगा तो घट का सादिक अमाव हो जायगा अर्थात मध्यावस्था में मी घठपद का प्रयोग न हो सकेगा । एकान्तपक्ष में घर को सर्वधा सत् या इस मामले के पक्ष में मी यही आपत्ति है, अतः एकान्ततः घट के असत् होने से सर्वथा अबाध्यत्व को प्रप्तति होगी। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्माता एवं हिमी बि. अथवा, सस्मिन्नेव मध्यावस्यास्वरूपे पर्तमाना-ऽयर्वमानक्षणरूपतया सदसत्यात प्रथमप्रितीयों | ताभ्यां युगपदनभिधेपन्चात् पतीयः । यदि वर्तमानक्षणपन पुर्षों तरक्षणयोटः स्यात् । पर्वमानषणमात्रमेषासौ प्राप्ता, पूर्वोत्तरयोसमानताप्राप्तः । न च वर्तमानक्षणमात्रमपि पूर्वोत्तरापेक्षस्य, तदमावेऽभावात् । अथातीताऽनागसक्षणपद् वर्तमानपणरूपतयाप्पघटः, सर्वदा तस्याभावः स्याद । एकान्सपशेऽप्ययमेव दोष इत्यसम्पादनाच्यः । [५-अगभेद से मंगत्रय का उपपादन ] अपना यह कहा जा सकता है कि-मम्यावस्मापमान घर भी मानवजारममा सस पोर पूर्वोत्तरसारममा असत् होता है। इसी सत्वाऽसरक को बताने के लिये प्राम-द्वितीय भङ्गकी और इन दोनों की पुगपर प्रमभिधेयता बताने के लिये तृतीय भङ्ग की प्रवृत्ति होती है। मामाघ यह है कि मध्यावस्थापन वर्तमामघट भी वह वर्तमानक्षगरूप में ही सस होता है। पूर्वोत्तरक्षणरूप में सत नहीं होता । स्योंकि पवि पर्तमानक्षणात्मक घट को पूर्वोत्तरक्षणरूप में भी सत् माना जाय तो घट बसमानमणमात्रात्मक हो जायगा क्योंकि पूर्वोत्तरक्षणरूप में वर्तमानक्षणमात्रात्मक वस्तु का आधुपगम तभी हो सकता है पूर्वोत्तरक्षण भी वर्तमानक्षणात्मक हो; और सब बात तो यह है कि पसंमानभरपसे सब वस्तु को पूर्वोत्तरमणकप से सत् मानने परबह पसंमानक्षणरूप से भी सत् नहो सकेगी क्योंकि उस पक्ष में उक्त रीति से पत्तिरक्षण का प्रभाव होने से तस्मापेक्षहोने के कारणमामक्षण का भी मभाष हो जायगर । इसीप्रकार अतीत प्रनागतक्षण में जैसे घर वसंमानणरूप से यह मही किन्तु अघट होता है उसीप्रकार यदि मानक्षग में भी घर पर होगा तो पट का सर्वमा प्रभाव हो जायगा। प्रतः उसे वर्तमानमाण में सत् मामला साबश्यक है। इसप्रकार घटास्मयातु में सापेक्ष सत्वासारव की सिद्धि निविसाध है । को दोष पसमामाण में सत् बहतु को पूर्वोसरमणरूप में मी सत् और पूर्गेतर क्षण रूप से बसमान में असत् को पर्समानमणक्य से भी असत मानने पर प्रसत होता है वह वास्तु के सर्वान रमना मत्त्व और प्रसव के एकाम्स पक्ष में मी प्रसक्त होता है। प्रतः एकान्त मस्तु सक्षम होने से उस पल में बस्तु में सर्वपा समाव की प्रसति होती है। अथवा, क्षणपरिणतिरूपे घटे लोचनजप्रतिपचिबियपस्थाऽविपपत्ताभ्यां स्वरूप-पररूपाम्पामाध-द्वितीयो। ताम्या युगपदादिष्टस्तृतीयः । यदीन्द्रियान्तरजप्रतिपत्तिविषयत्वेनापि पटः स्यात् , इन्द्रियसंकरः स्यात् । यदि च चक्षुर्जप्रतिपत्तिविषयत्वेनापि न परः, ताई वस्यालपवप्रसविनः । एकान्तपझेऽप्ययमेव दोष इत्यसवादवाच्यः । [६-मित्र भिम इन्द्रिय की अपेक्षा भंगप्रयनिरूपण ] अथवा यह कहा जा सकता है कि क्षणपरिणतिस्प-बमास्यायो घर का मेश्रवन्यप्रतिपत्तिविषयस्यत्व रूप है और पपइग्नि मनाम प्रतिपतिविषय पर रूप है । मतः उस पद का सकप से सरण मौर पररूप से प्रसारण का प्रतिपावन करने के लिये प्रथम-हिसोपभङ्ग की प्रवृत्ति होती है। और वोनों रूपों से उसको युगमा विवक्षा होने पर उसकी गोनों रूपों से पुरापार प्रवाश्यता बताने के लिये तृतीय Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवाल० त०] ७ हलो २३ ● १६२ भङ्ग की प्रवृत्ति होती है। यदि नेत्रजन्यबोध के विषय क्षणिक घट को अन्य वियजन्यप्रतिपतिविषय से भी सद माना जायगा तो एकघट व्यक्ति में दो इन्द्रियों का संकर होगा जो प्रमाणaurस्थावानी बौद्धको अभिष्ट है। यदि क्षणिक घट को नेत्रजन्यप्रतिपत्तिविषयत्वरूप से भी असत् मामा जायगा तो वह मायु प्रावि के समान अरूप हो जाएगा। घट के सर्वथा सत्य या मसस्वरूप एकातपक्ष में भी यही दोष होता है, अतः एकान्त सत् अथवा एकान्तमसत् वस्तु असिद्ध होने से उस पक्ष में सर्व अवयव को प्रसक्ति होती है । अथ I दृश्यमान एव घटे घटशब्दवाच्यता एवं रूपम् कुटशब्दाभिधेयत्वं पररूपम्, ताभ्यां सदसस्वात प्रथम द्वितीयो । युगपत्ताभ्यामवितोऽवाच्यः । यदि हि घटशन्दवाच्यत्वेनेव छुटशब्दवाच्यत्वेनापि घटः स्यात्, तर्हि त्रिजगत एकशब्दवाच्यताप्रसक्तिः घटरूप वाऽशेषपटादिशब्दवाच्यत्वप्रसक्तिः, पटवाव्यताप्रतिपत्ती समस्तवाचक शब्दप्रतिपत्तिप्रसंगध । घटपदेनापि यद्यवाच्यः स्मात् सदा घटशब्दोचारणयप्रसक्तिः । एकान्ताभ्युपगमेऽपिघटस्यैवासनात् तद्वाचकशब्दसंकेताभाचादवाच्य एव । " [ ७- घटादिशब्दवाच्यतारूप से भंगत्रय ] अथवा यह भी कहा जा सकता है कि वश्यमानघट का घटनाका रथ रूप है और फुटवाला पर रूप है। अतः घटादवाच्यत्वात्मक स्वरूप से घट का सत्व बताने के लिये प्रथममङ्गः कुटशल्यकिश्वात्मक पर रूप से घट का असत्य बताने के लिये द्वितीय और उन दोनों रूपों से घट की पुगपद विवक्षा होने पर उक्त रूपों से घर की युगपद श्रसाध्यता बसाने के लिये तृतीयभङ्ग की प्रवृत्ति होती है। इस संदर्भ में यह ज्ञातव्य है कि समान घट घट शब्दवाच्यस्वरूप से ही पक्ष होता है क्योंकि यदि उसे कुटशब्द वाकयस्वरूप से भी माना जायगा तो लोक की समस्त वस्तुओं में प्रत्येकशन माता को आपत्ति होगी अथवा घट में पटविशेष शब्द को वाक्यता की प्रसक्ति होगी। जैसे घट को देखकर घटराग्यष्यता को प्रतिपति होती है से उक्त रीति से समस्त navi के घearee हो जाने से समस्त शब्दों की बाध्यता की प्रतिपत्ति का प्रसङ्ग होगा तथ यदि घट को प्रत्य शब्दों से अवास्य मानने के समान घट शब्द से भी अवास्य माना जायगा तो घट शब्द का उच्चारण व्यर्थ होगा । अतः घट को घटादवाध्यत्वेन रूस और कुटादि शब्दभाश्यश्वेम असद मानना आवश्यक है। एकान्तवादी के पक्ष में भी घट अध्य ही होगा क्योंकि उस पक्ष में घट ही असद होता है। अतएव उसके बाधक किसी शब्द का संकेत नहीं हो सकता । अथवा, घटशब्दाभिधेये तत्रैव घटे हेयोपादेयान्तरङ्गत्वरित्रोपयोगानुपयोगरूपतया सदसवात् प्रथम- - द्वितीय। ताभ्यां युगपदादिष्टोऽवाच्यः । यदि हि देयादिरूपेणाप्यर्थ क्रियाक्षमादिरूपेणेव पटः स्यान् पटादीनामपि पटस्वरसक्तिः । यदि चोपादेयादिरूपेणाध्यघटः स्यात् अन्तरकस्य वक्तु श्रोतृगतहेतु-फलभृत घढाकाराच बोध कविकल्पोपयोगस्याप्यभावे घटस्याभावः । एकान्ताभ्युपगमेऽयमेव शेष इत्यवाच्यः । + [ = - उपादेयादिरूप से मंगत्रय का प्रतिपादन ] प्रथवा यह भी कहा जा सकता है कि घटथ्याभिषेष घट में उपाश्यप जलाहरणावि रूप Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ स्पा० रु० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] अर्थक्रियोपायत्यात्मक स्वरूप है उस स्वरूप से सस्व एवं हेयरूप देहाच्छादनाविरूपअर्थ क्रियानुपायत्वात्मक पर रूप है उस पर रूप से असर होता है । एवं उपयोग स्मक प्रर्थात् वक्तृश्रोतृगजलाहरणादिसाधनताज्ञानात्मक जो विकल्प है वह घट का प्रन्तरङ्ग आकाररूप होने से स्वरूप है, उससे सत्त्व और अनुपयोगात्मक घट का बाह्याकार यह बहिरङ्ग पर रूप है, उससे असस्थ है । घट के उक्त for earseva के प्रतिपावनार्थ प्रथम द्वितीय भङ्ग की प्रवृत्ति होती है। उन दोनों धर्मद्वय से घट की युगपद् विवक्षा होने पर उक्त दोनों धर्मों से घट की अवक्तव्यता के प्रतिपादनार्थं तृतीयमङ्ग की प्रवृत्ति होती है। यहां भी यह ज्ञातव्य है कि जैसे घट उपादेयभूत प्रर्थक्रियोपायश्व रूप से घट होता है उसी प्रकार यति है सूतअर्थ क्रियानुपायत्वरूप से भी घट होगा, एवं घट जैसे उक्त उपयोगाश्मना घट होता है उसी प्रकार यदि अनुपयोगात्मना भी घट होगा तो पटादि में भी घटत्व की प्रसक्ति होगी। यदि घट हेयरूप के समान अर्थक्रियोपायत्वस्वरूपोपादेयरूप से भी अघट होगा और यबि अनुप्रयोगात्मक बहिरंग रूप के समान उक्त अन्तरंग उपयोगात्मना भी प्रघट होगा तो उपादेय पर उपयोगात्मक अन्तरंग घट का अभाव हो जाने से घट के सर्वथा प्रभाव को प्रसक्ति होगी क्योंकि घट प्रक्रियानुपायत्व और अर्थक्रियोपायत्व दोनों रूपों से नहीं है, तथा घट अनुपयोगात्मक और उपयोगात्मक इन दो रूपों से भी नहीं है, उन से अतिरिकको है नहीं रूप से उसका अस्तित्व सम्भव हो । उपयोग - अनुपयोगात्मना घट के सरवाइव के सम्बन्ध में कहने का प्राशय यह है कि घटशब्दाभिधेय घट रूप अर्थ से जलाहरणादि कार्य तब होता है जब कोई वक्ता जिसे जलाहरणसाधनसारूप से घट का ज्ञान है वह 'घट से पानी ले आओ' इन शब्दों का प्रयोग करता है और उससे श्रोताको अलाहरणसाधनतारूप से घट का ज्ञान होता है। अतः वक्ता और श्रोता के उक्त शानों में हेतुकल भाव होने से घटवाभिधेय घट हेतुफलभूत उक्त ज्ञान में आरूढ होने से उपयोगरूप होता है । यह उसका अन्तरङ्ग प्राकार अर्थात् स्वरूप होता है और उक्त उपयोगानात्मक जो घट का बाह्याकार है वह बहिरङ्गरूप अर्थात् पर रूप होता है । इन दोनों में उक्त उपयोगात्मकस्वरूप घट से घटशब्दाfar घट सत् होता है और उक्तोपयोगानात्मक पर रूप से असत् होता है। उक्त दोनों रूपों से केवल सत् श्रथवा केवल असत् मानने पर घट का सर्वथा अभाव हो जायगा । एकान्ताभ्युपगम पक्ष में भी यही दोष है इसलिये उस पक्ष में घट सर्वथा अवाच्य है । अथवा, तत्रैवोपयोगेऽभिमतार्थावबोधकत्वाऽनभिमतार्थानवबोधकत्वतः सदसत्त्वात् प्रथमद्वितीयौं । ताभ्यां युगपदादिष्टोऽवाच्यः । विवक्षितार्थप्रतिपादकत्वेनेवेतररूपेणापि यदि घटः स्यात्, तदा प्रतिनियतोपयोगानुपपत्तिः, एवं च विविक्तरूपोपयोगप्रतिपत्तिर्न भवेत् । तदुपयोगप्रतिनियतरूपेणापि यद्यघटः स्यात् तदा सर्वाभावोऽविशेषप्रसङ्गो वा न चैवम् तथाप्रतीतेः । एकान्तपक्षेऽप्ययमेव प्रसंग इत्यवाच्यः । , [ ६ - अभिमतार्थबोधकत्वादिरूप से मंगाय का प्रतिपादन ] प्रथवा यह कहा जा सकता है कि शब्दजन्य श्रोतृगत विकल्पात्मक उपयोग में अभिमत ग्रंथं यानी विवक्षित अर्थ की बोचकता होती है और अनमित- अविवक्षित अर्थ की बोधकता नहीं होती है । अतः उपयोग यानी शब्दजन्य ज्ञानात्मकघट में प्रभिमतार्थबोधकत्वरूप से सत्व है और अन Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता० स्त० ७ श्लो० २३ fortune से असस्थ है अर्थात् घट शब्द जन्यज्ञान घटविषयकमोषत्वरूप से उपयोगात्मक घट है और अमभिमत पटादिविषयक बोबरवरूप से उपयोगाश्मक घट नहीं है। इस सस्वासत्त्व को बताने के लिये प्रथम द्वितीय रंग की प्रवृत्ति होती है। और दोनों धर्मो से युगपद् विवक्षा होने पर युगपद् वाच्यता दर्शाने के लिये तृतीयभंग की प्रवृत्ति होती है । यहाँ भी यह ध्यान रखना आवश्यक है कि उपयोग जैसे विवक्षितार्थबोधकस्वरूप से घट होता है उसी प्रकार यदि इतररूप- प्रविवक्षितार्थ-बोधकra रूप से भी घट होगा तो विभिशयों से विमिश्रार्थ नियत उपयोग को अनुपपत्ति होगी। क्योंकि प्रत्येक शब्द जन्य उपयोग विवक्षित प्रथं के समान अविवक्षित सभी धर्मो का बोधक होगा तो प्रत्येक शब्द अन्योपयोग सर्वार्थविषयक हो जायगा । इस प्रकार इस पक्ष में विविक्तरूप से अर्थात् विभिन्नविषयकत्वरूप से उपयोग की प्रतिपति को भी अनुपपत्ति होगी । यदि उक्त उपयोग घटजन्यज्ञान प्रतिनियतरूप अर्थात् विवक्षितघटबोधकत्वरूप से भी अघट होगा तो सर्वाभाव की अथवा सर्वाविशेष की आपत्ति होगी। श्राशय यह है कि शब्दजन्यधटोपयोग घeatenedरूप और अविवक्षितपटादिबोधकत्व दोनों रूप से यदि असत् है तो उसमें सर्व विषयों के प्रभाव का प्रसङ्ग होगा क्योंकि पटादिबोधकत्वरूप से प्रसतु होने से वह पटाविविषयक नहीं होगा और afrature रूप से भी असत् होने से घटविषयक भी नहीं होगा, अथवा उक्त उपयोग में निविवयकपदार्थों का श्रविशेष- श्रवैलक्षण्य प्रसक्त होगा क्योंकि जैसे घटपटावि बाह्यार्थ निविषयक होते हैं उसी प्रकार इस पक्ष में उपयोग भी निविषयक होगा और यह स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि उक्त उपयोग की विषयपुरस्कारेण और निविषयक वैलक्षण्येत प्रतीति होती है। १६४ एकान्त पक्ष में भी यही दोष है अतः उस पक्ष में उपयोगघट भी सर्वथा अवाच्य होगा । अथवा, घटत्वं स्वं रूपं, सच्यम् असत्त्वं च पररूपे, ताभ्यां प्रथम द्वितीयौ । अभेदेन ताभ्यां निर्दिष्टो घटोsवक्तव्यः तथाहि यदि सच्चमनूद्य घटत्वं विधीयते, तदा सच्चस्य घटत्वेन व्याप्तेर्घटस्य सर्वगतत्वप्रसङ्गः तथाभ्युपगमे प्रतिभा सवाघा व्यवहारत्रिलोपश्च । तथाऽसत्त्वमनुद्य यदि घटत्वं विधीयते तदा प्रागभावादेवतुर्विधस्यापि घटत्वेन व्याप्तेर्घटत्वप्रसङ्गः । अथ घटस्वनू सदसच्चे विधीयेते, तदा घटत्वं यत् तदेव सदसच्चे इति घटमात्रं सदसच्चे प्रसज्येते, तथाच पटादीनां प्रागभावादीनां चाभावप्रसक्तिः । इति प्राक्सन न्यायेन विशेषणविशेष्यलोपात् 'सन् घट:' इत्येवमवक्तव्यः, 'असन घटः' इत्येवमध्यवक्तव्यः स्यात् । अनेकान्तपक्षे तु कथंचिदवाच्य इति न कश्चिद् दोषः । I I [ १० - वदत्यादिरूप से मंगत्रय का प्रतिपादन ] अथवा यह भी कहा जा सकता है। घटत्व असाधारण होने से घट का स्व रूप है । और सत्य तथा असत्त्व पररूप है अतः घटश्व रूप से घट का सत्त्व और 'सत्त्वासत्त्व' रूप से घट का असत्त्व बताने के लिये प्रथम द्वितीयभङ्ग की प्रवृत्ति होती है। किन्तु अभिन्नतया उन दोनों रूप से घट का निर्देश करने पर घट अवक्तव्य होगा । आ यह है कि घट के स्वरूप नहीं हो सकते ही घट का स्वरूप है । सश्व और प्रसत्त्व उसका पर रूप हैं, वे क्योंकि 'सस्व-असत्य' घट का स्व रूप होना दो प्रकार से सम्मय हो Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] १६५ सकता है । सत्त्व एवं असत्त्व का अनुवाद करके उसमें घटत्व का विधान किया जाय अयवा घटत्व का अनुवाद करके सत्त्वाऽसत्त्व का विधान किया जाय । किन्तु ये दोनों ही पक्ष समाधीन नहीं है। क्योंकि यदि 'यत्सत्त्वं तद् घटावं' इसप्रकार सत्त्व का अनुवाद कर घटश्व का विधान किया जायगा तो सत्व में तादात्म्य से घटस्व की व्याप्तिका लाम होगा और तब सस्व के सर्वगत होने से तदात्मक घटक में सर्वगतत्व की प्रसक्ति होगी। और इसका अभ्युपगम नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस अभ्युपगम में पटावि में घटमेव के प्रतिभास का बाप होगा तथा पटावि में घटभिनवव्यवहार का लोप होगा। इसीप्रकार 'यवसत्त्वं तत् घटस्वम्' इसप्रकार असत्त्व का अनुवाद कर घटत्व का विवान किया आयगा तो असत्त्व में तादात्म्य से घटत्व की व्याप्ति का लाम होने से प्रागभावादिरूप चतुर्विध प्रभावात्मक पदार्थों में घटत्य का प्रसङ्ग होगा तथा, जैसे 'सत्त्व-असत्त्व' का अनुवाद कर घटत्व का विषान नहीं हो सकता वसीप्रकार 'पद् घटत्वम् तत् सत्त्वं प्रसवंवा' इसप्रकार घटस्वका अनुवाद कर सत्त्वाऽसत्त्व का भी विधान नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा मानने पर सस्य एवं असत्त्व घटत्वात्मक ही होगा अस एव घटमात्र में हो सत्त्याऽसत्त्व का पर्यवसान होने से घट भिन्न सत् और असद का अस्तित्व सम्भव न हो सकने से पटा और प्रागमाविमा पोसत होगी। इस का फल यह होगा कि सत्त्व प्रसत्व का घटत्व से ऐक्य हो जाने से विभिन्नरूपों से उपस्थित पदार्थों में तो विशेषण-विशेष्यभाव होता है' इस न्याय से घटत्व के साथ सत्त्वासत्त्वका ऐक्य होने पर सद पवार्य और घटपदार्थ में विशे -विशेष्यभाय का लोप हो जाने से 'सन घट:' अथवा 'प्रसन घट: इस रूप से घट अवक्तव्य हो जायगा। किन्तु अनेकान्तपक्ष में घटत्व ही घट का स्वरूप और सस्व-असत्त्व ये दोनों पर रूप होने से घर में घटत्व रूप सत्त्व और सत्त्वाऽसत्त्वरूप से असरद रहता है, अतः इन सत्त्वाऽसत्वरूप दोनों धर्मों से घट को युगपद्विवक्षा को अपेक्षा से ही घट अवाच्य होगा। अतः अनेकान्त पक्ष में कोई दोष नहीं है।॥ १० ॥ ___ यद्वा घटोऽर्थपर्यायः, स्वान्यत्राऽवृत्तः स्वं रूपं, 'घटः' इति नाम व्यञ्जनपर्यायस्तदतद्विषयत्वात् पररूपम् , ताभ्यां प्रथम-द्वितीयौ। अभेदेन ताभ्यां निर्देशेऽवक्तव्यः । यतोऽत्रापि यदि व्यञ्जनमनूध घटार्थपर्यायविधिः, तदा तस्याऽशेषघटान्मकतामसक्तिः, इति भेदनिवन्धनतळ्यवहारविलोपः । अथार्थपर्यायमनूध व्यञ्जनपर्यायविधिः, तथापि(तत्रापि)सिद्धविशेषानुवादेन घटत्वसामान्यस्य विधानादकायस्वादिप्रसङ्ग इति घटस्याभावादवाच्पः। अनेकान्तपक्षे तु युगपदभिधातुमशक्यत्वात्, कश्चिदवाच्यः । [११-अर्थपर्यायादिरूप से भंगत्रय का प्रतिपादन] अथवा यह कहा जा सकता है कि अर्थपर्यायात्मक घट का अर्थपर्याय स्वरूप है क्योंकि स्व से भिन्न में यह नहीं रहता है। अर्थात् तत्तद्घटात्मक अर्थपर्याय तत्तघट में हो रहता है, तत्तघट से अन्य में न रहने के कारण तत्तघट का स्व रूप होता है। और 'घट'नाम (शम्ब) रूप क्यञ्जन पर्याय तत्तवर्थपर्यायामक तत्तद्धट का पररूप है क्योंकि यह अर्थपर्यायास्मक तद्घट में तया अन्यत्र अर्थात् अर्थपर्यायात्मक घटान्तर में प्रवृत्त होने से वह पर साधारण होने के कारण पर रूप है । इन दो रूपों में मर्थपर्यायात्मक स्व रूप से घट का सत्त्व बताने के लिये प्रथमभंग का और व्यञ्जन पर्यायात्मक पर रूप से असत्व बताने के लिये द्वितीयभंग का प्रयोग होता है। यदि अभिन्नतया अर्थपर्याय और परमन Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवास्ति०७श्लो० २३ पर्याय इन दोनों रूपों से घट का निर्देश होगा तो घट अबक्तव्य होगा क्योंकि अभिन्न तथा उन दोनों रूपों से घट का निर्देश करने के लिये उम दोनों को अभिन्नता आवश्यक है और वह दो रूप से सिद्ध हो सकती है जैसे, व्यञ्जन का अनुवाद कर घटार्थपर्याय का विधान किया जाय अथवा घटार्थपर्याय का अनुवाद कर व्यञ्जनपर्याय का विधान किया जाय-किन्तु ये दोनों ही पक्ष समीचीन नहीं है क्यों. कि यदि व्यञ्जनपर्याय का अनुयाव का मापय मानिधान किया जाए तो ज्यात घट में अन्य समस्त घटार्थपर्यायरूपता की प्रसक्ति होगी जिस के फलस्वरूप नामस्वरूप व्यम्जनपर्याय एवं घटास्मक अर्थपर्याय में भेव का अभाव हो जाने से घटनाम एवं घट में भेदष्यवहार का लोप हो जायगा। अर्यात घट नाम यह घट का है ऐसा व्यवहार न होकर घट नाम ही घट है इस व्यवहार को प्रापत्ति होगी। इसीप्रकार यदि अर्थपर्याय का अनुवाद कर व्यञ्जन पर्याय का 'घट यह घट नाम है' इस रूप में विधान किया जायगा तो उसका पर्यवसान सिद्ध घट विशेष का अनुवाद कर घटत्त्व सामान्य के विधाम में होगा। क्योंकि 'घट' नामरूप व्यञ्जनपर्याय घटत्वसमनियत होता है । क्योंकि तत्तनामतादात्म्यापन्न अयं तत्सनाम के प्रवृत्तिनिमित्त का आश्रय होता है। अतः व्यञ्जनपर्याय के विधान का पर्यवसान घटत्वसामान्य के विधान में न्यायप्राप्त है और इस विधान के फलस्वरूप समो घटों में अकार्यस्वावि का प्रसङ्ग होगा। क्योंकि जब स्थापनादि सभी घटों में एक सामान्यघटत्व होगा तो तववच्छिन्न के प्रति स्थापनादि किसी भी घट की सामग्री को ध्यतिरेक व्यभिचार के कारण उत्पादक नहीं माना जा सकेगा, फलतः घट का प्रभाव प्रसक्त हो जाने से तद्वाधक पक्ष का संकेत सम्भव न होने से घट अवाच्य हो जायगा । अथवा यह भी कहा जा सकता है कि घट नाम है इस विकल्प में घट अनेक व्यक्ति स्वरूप होने से उन सभी के साथ घट नाम का अभेद संभवित नहीं है, फलतः घटाचंपर्याय को घटस्व सामान्यरूप लेकर उसमें घट नाम के अभेद का विधान करना होगा । तात्पर्य घटस्वसामान्य यह घट नाम हुआ फलत. घट नाम नित्यघटस्वसामान्यरूप बन जाने से नित्य हो जाएगा यानी अकार्य-अजन्य हो जाएगा। अगर इष्टापत्ति की जाए तब घट नाम से वाच्य घटत्व सामान्य ही हुआ, घट नहीं हुआ इस प्रकार घट अवाच्य हआ। किन्तु अनेकान्तपक्ष में घट सर्वथा अवाच्य नहीं होगा क्योंकि वह अर्थपर्यायात्मक रूप से लव और ध्यानपर्यायात्मक पर रूप से असत होता है अतः एक एक रूप से वाध्य होगा किन्तु उभय रूपों से युगपत् विवक्षा की पपेक्षा से ही अवाच्य होगा ॥११॥ ___यदा, सत्यमर्थान्तररूपांपररूपं, तस्य विशेषवदेकत्वादनन्वयिरूपता, अत एच न तद् वाच्यम् , अन्त्यविशेपवत् । अन्त्यविशेषस्तु स्वं रूपं सोऽप्यवाच्यः, अनन्वयात् । प्रत्येकाऽवक्तव्याभ्यां ताभ्यामादिष्टो घटोऽवक्तव्यः । अनेकान्ते तु कथश्चित तथा । [१२-सन्वादिरूप से भंगत्रय ] अथवा वस्तु का स्वतोग्यावृत्त अन्त्य विशेष यह स्वरूप है, और सत्त्व यह पर रूप है-अर्थान्तर रूप है और वह वस्तु के अन्तिम व्यावर्तक वस्तु के प्रसाधारणधर्म के समान होने से अर्थात् एकव्यक्ति मात्रवृति होने से अनन्वयी है. अर्यात अनेकान्वयी अनेकानुगत नहीं है । और इसीलिये यह अन्त्यधिशेष के समान वाच्य नहीं होता, क्योंकि गोत्व-अश्वत्वादि अनेकान्षयी धर्म ही पद का वाच्यार्थ होता है । यदि अनन्ययी धर्म को पद का वाध्यार्थ माना जायगा तो व्यवहार द्वारा एक एक ध्यक्ति में ही पद की वाच्यता का पर्यवसान हो जाने से सत् सत् व्यक्ति का हो ग्रह होगा । प्रतः गृहीत. Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मा० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] शक्तिक पद से अन्या का बोध नहीं हो सकेगा। अस्प विशेष यानी वस्तु का अन्तिम च्यावत्तक धर्म स्वमात्रवृत्ति होने से वस्तु का स्व रूप है, यह भी मनत्वयो होने से प्रवाच्य होता है । अतः व्यक्त्यन्तररूपात्मक 'पर' रूप और अन्त्य विशेष यानी अन्तिमट्यावर्त्तवर्मात्मक 'स्व' रूप, ये दोना वाच्य एगे से मन को दो से पातु को एक पद से युगपद विवक्षा करने पर भी वस्तु अवाच्य हो होगी। किन्तु अनेकान्तवाव में स्वरूप और पररूप कथंचिद अन्वयी होने से उनसे परवाच्यता सम्भव होने के कारण उक्त रूपों से वस्तु कपंचिद् ही प्रवक्तव्य होगी। ___अथवा, 'सद्रुतरूपाः सत्त्वादयो घट' इत्यत्र दर्शने सत्त्वादयः पररूपं, संदूनरूपं स्वं, तान्यामादिष्टो पटोऽवक्तव्यः, यतः संद्रतरूपस्य सत्त्व-रज-तमस्सु सच्चे सत्त्व-रजा-तमसामभावप्रसक्तिः, तेषां परस्परवैलवण्येनैव सत्त्वादित्वात् , संद्रतरूपन्वे च वैलक्षण्याभावादभाव इति विशेष्याभावादवाच्यः। असत्त्वे चाऽसत्कार्योत्पादप्रसङ्गः। न चैतदभ्युपगम्यते । अभ्युपगमेऽपि विशेषणाभाषादवाच्यः । अनेकान्ते तु कथञ्चित्तथा । [१३-मंद्रुतरूपादि से भंगत्रय का प्रतिपादन ] 'संवृतरूप अर्याद गौण-प्रधानभाव से परस्पराऽविविक्त हो कर एकात्मना परिणत-सत्यादि ही घट है-यह सांख्यदर्शन का मत है। इस मत के अनुसार असंदूतसत्त्वादि अर्थात परस्परविविक्त सस्वादि घट का पर रूप है और संदूतरूप परस्पराऽविविक्त सत्त्वादि घट का स्वरूप है। इन रूपी से एक साथ विवक्षित होने पर घट अवक्तव्य-सवथा अवक्तव्य हो जाता है क्योंकि यदि सत्त्व-रजस्तमस् में सन्नुतरूप मानने पर अर्थात् सत्त्य-रजस्-तमस् को परस्पर अधिविक्तस्वरूप मानने पर सत्त्वरजस्-तमस् का अभाव हो जायगा-यो कि सत्त्वादि की सिद्धि परस्परविविक्तरूप में ही होती है। प्रतः उन्हें यवि सन्मृतरूप माना जायगा तो उन में वैलक्षण्य न हो सकेगा, फलतः परस्पर-विलक्षण सत्त्व-रजस्-तमस् का प्रभाव होने से 'सन्द्रत सत्त्व-रजस्-तमस हो घट है' यह नहीं कह सकते क्योंकि इस उक्ति में विशेष्य रूप में प्रतीत होने वाले सन्द्रत सत्त्व-रजस-तमस् का प्रभाव होने से सन्द्रतसस्थाघात्मक घर का मो अभाष हो जायगा। अतः घट अवाच्य होगा । और सद्भुत सस्वादि का अभाव होने पर घट उत्पत्ति अथवा अभिव्यक्ति के पूर्व असत होगा अतः उसकी उत्पत्ति मानने से असत्कार्यबाद को आपत्ति होगी। जो कि सांस्यमत में इष्ट नहीं है। यदि घटादिरूप असत्कायं का अम्युपगम किया जायगा तो 'सन्द्रुत अमुक वस्तु घट है' यह कहना सम्भव न होगा । फलतः सन्नुतत्वरूप. विशेषण का अभाव होने से सन्त घट का प्रभाव होगा। इस प्रभाव के कारण घट भी अवाच्य होगा। किन्तु अनेकान्तवाद में अर्थात् घटादि की उत्पत्ति के पूर्व सत्यादि असंद्रुतरूप है और घटादि काल में सन्नृतरूप है-इस प्रकार सत्वादि में कश्चित् सन्ताऽसन्दुतोभयरूपता होने से उक्त रोति से विशेष्याभाव या विशेषणाभाव न होने के कारण घट का अभाव नहीं होगा, अतः अनेकान्तवाव में घट असन्तसत्त्वाद्यात्मक पररूप से और सन्त सस्थाहात्मक स्वरूप से कश्चिद अवक्तव्य हो सकता है! यद्वा, रूपादयः पररूपम् , असंद्रुतरूपत्वं स्वरूपम् , ताभ्यामादिष्टोऽवक्तव्यः, यतोऽरूपादिव्यावृत्ता रूपादयः, एवं च रूपादीनां घटताऽवाच्यः, अरूपादित्वात् घटस्य । न हि परस्पर Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवातो. हत.७ श्लो. २३ विलक्षणबुद्धिग्रामा रूपादय एकानेकात्मकप्रत्ययग्रावारूपादिरूपघटता प्रतिपद्यन्त इति विशेष्यलोपावाच्यः । अथाप्यरूपादिरूपा रूपादयः, नन्वेवं रूपादय एव न भवन्ति, इति तेषामभावे केऽसंदुतरूपतया विशेष्या येनासंदूतरूप रूपादयो घटो भवेत् ? इत्येवमप्यवाच्यः । अनेकान्तवादे तु कथञ्चित्तथा । [१४-रूपादि से मंगत्रय का उपपादन ] अथवा तृतीय भंग के बारे में इसप्रकार अवधारणा की जा सकती है। गुणगुणी के प्रमेदवाव में घटादि यह रूपादि का समूह है। समूह रूप में गहामाण न होकर पृथक पृथक् गृह्यमाण रूपावि यह घट का पर रूप है, क्योंकि घट केवल एक एक रूपाधात्मक महों है। और असंदुतरूपत्व अर्थात समूहलाहमा मामा मास्टमा सम है। इन दोनों रूपों से घट की युगपद विवक्षा होने पर एकान्तवाव में घट सर्वथा प्रवक्तव्य हो जाता है। क्योंकि रूपादिसमूहमावानापन्न प्रत्येक रूपावि, यह घट नहीं है। घट स्वयं अरूपादि है क्योंकि घटशद से घट का भान होता है रूपादि का नहीं । अब गुण-गुणी का अभेद मानने से घट रूपादिसमूहमावापन्न होता है, तम रूपादि-समूहभावापन घटावि प्रर्थ एक एक रूपादि से भिन्न होने के कारण, अरूपाविशय से व्यवहृत होनेवाले घटादि अप से ध्यावृत्त है-भिन्न है और अरूपादि घट समूहभावापन्नरूपाचास्मक होने से एक एक रूपादि मात्र स्वरूप नहीं है। अतः रूपावि में घटात्मकता अवाच्य है। क्योंकि परस्परविलक्षणबुधि से ग्राह्य एक एक रूपावि 'एकानेकात्मक प्रत्यय' अर्थात एक समूहात्मना प्रतेक को प्रहण करनेवाले शान से ग्राह्य जो अरूपाविस्वरूप घट, उस घट को अभिन्नता नहीं प्राप्त कर सकते । इसलिये विशेष्य का लोप होने से अर्थात् समूहभावापन्न होने पर रूपाद्यास्मकता न रह जाने के कारण समूहमावा. पन्नरूपावि' इस उक्ति में विशेष्यभूत हो कर प्रतीत होने वाले रूपादि का अभाव होने से समूहभाषापन्न रूपाद्यात्मक घट का अभाव हो आयगा । फलतः अप्तत हो जाने से घट सर्वथा अवास्य हो जायगा। यदि यह कहा जाय कि रूपादि अरूपादिव्यावृत्त नहीं है किन्तु मरूपावि स्वरूप है तो यह कहना समीचीन नहीं है क्योंकि जब वह अरूपादि स्वरूप होगा तो रूपादियानी रूपादिस्वरूप कसे हो सकेगा अतः रूपादि का अभव हो जाने पर प्रसंदतरूपत्व विशेषण से उन्हें विशेषिस नहीं किया जा सकता। अत एव घट प्रसंदुतरूपादि स्वरूप नहीं हो सकता । अत: ऐसा कहने पर भी घट अवाच्य होगा। क्योंकि इस रूप से घटस्वरूप का प्रतिपादन करने पर भी घट का अभाव हो जाता है। किन्तु अनेकान्सवार में घट के कश्चिद रूपादि-प्ररूपावि उभपारमक होने से उभयरूप से युगपत् विषक्षा करने पर घटकोकश्चिद अवाच्यताहो सकता। यदि वा, रूपादयः पररूपं, मतुवर्थः स्वरूपम् , रूपाद्यात्मकैकाकारावभासप्रत्ययविषयव्यतिरेकेणापररूपसंबन्ध्यनवगतेविशेष्याभावाद् न रूपादिमान् घट इत्यवाच्यः । न चैकाकारप्रतिमासग्राहव्यतिरेकेण पररूपादिप्रतिभासः, इति विशेषणाभावादप्यवाच्यः । अनेकान्ते तु कथञ्चित् तथा। ___ अथवा, बाह्यः पररूपम् , उपयोगस्तु स्वं रूपम् , ताभ्यामादिष्टोऽवक्तव्यः, तथाहि-य उपयोगः स घट इत्युक्ती उपयोगमाप्रमेव घट इति सर्वोपयोगस्य घटत्वप्रसक्तिः , इति प्रति Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ स्या... रोका एवं हिम्मी विवेचन ] वाच्यः । यो घटः स उपयोग इत्युक्तावुपयोगस्यार्थत्वप्रसक्तरुपयोगाभावे घटस्याप्यभाव इति कथं नावाच्यः १ । तदिदमुक्तम्-[ सम्मति-३६ ] * "अत्यंतरभूएहि य णियएहि अ दोहि समयमाइट। अयणविसेसाईयं दव्यमवत्तव्ययं पडइ ॥१॥" इति । [१५-मतुयर्थादिरूप से भंगत्रय का प्रतिपादन] अथवा तृतीयभा की उपपत्ति इसप्रकार हो सकती है कि रूपाविमान् घटः' इस व्यवहार के अनुसार रूपादि घट का पर रूप है और मतुप प्रत्ययार्थ-रूपादि का सम्बन्धी घट का स्वरूप है। इसप्रकार घट रूपाचारमा पर रूप से प्रसव और रूपाविसम्बन्ध्यात्मक स्ल रूप से सब होता है। इन बोनों रूपों से युगपद् विवक्षा होने पर एकान्तवाद में घट सर्वथा प्रवाच्य हो जाता है। क्योंकि रूपादिस्वरूप एकाकारावमास का प्रत्यय अर्थात् निमिसमृप्त विषय जो 'रूपाद्यात्मक' है उस के अभाव में अन्य मनुषप्रत्यवार्य सियसम्बन्धी पियरुप में पति नहीं होती। इस प्रकार विशेषणभूत रूपादि के बिना विशेष्य का भी अभाव होने से 'स्पादिमान घट: यह व्यवहार सम्भव न होने के कारण रूपादि से भिन्न 'रूपादिसम्बन्धी घट का अभाव हो जाने से घट सर्वथा अवाच्य हो जाता है । एवं एकाकार प्रतिमास से मह्यमाण जो 'रूपसंबन्धी स्वरूप विषय उसके प्रभाव में विशेषणमूत 'रूपादि' का भी प्रतिभास नहीं होता । अतः विशेष्य रूपादि का विशेषणरूप में अभाव होने से भी विशिष्टात्मक घटादि का अभाव होने से घट सर्वथा अपाच्य हो जाता है। किन्तु अनेकान्तवाद में रूपादि और रूपाविसम्बन्धी में कश्चिद् भेदामेव होने से घटादि की कश्चिद् अवक्तव्यता होती है। [१६-बाह्यादिरूप से भंगत्रय का प्रतिपादन ] अथवा तृतीयभंग का निरूपण एक और अन्यप्रकार से किया जा सकता है। जैसे यह कहा जा सकता है कि बाह्यघट-घट का पररूप है और उपयोग-ज्ञानात्मक आन्तरघट घट का स्वरूप है। इन दोनों रूपों से घट की युगपत् विवक्षा करने पर एकान्तबाव में घट सर्वथा अवक्तव्य होता है। जसे 'जो उपयोग है वह घट है ऐसा कहने पर उपयोगमात्र ही घट है इस प्रकार का बोध होने से समी उपयोग में घटत्व को प्रसक्ति होती है अतः घट का कोई प्रतिनियत स्वरूप न होने से प्रतिनियतस्वरूपात्मक घट का अभाव होने से घट अपाच्य हो जाता है । तथा 'जो घट है वह उपयोग है' यह कहने पर उपयोग में अर्थश्व की अर्थात बाह्यार्थत्य को प्रसक्ति होने से उपयोग का अभाव हो जाने के कारण उपयोगात्मक घट का अभाव हो जाता है । इसलिये घट सर्वथा अवाश्य क्यों नहीं होगा? अनेकान्तवाद में घट के कश्चिद बाह्य और उपयोग उभयात्मक होने से घट में कश्चिद प्रवाच्यता होगी। उक्त रीति से प्रथम और द्वितीय भंगों के बाद तृतीयभत की उपपत्ति के सम्बन्ध में विचार करने पर जो निष्कर्ष फलित होता है वह सम्मतिसूत्र गाथा ३६ में इस प्रकार कहा गया है-"अर्ष और अर्थान्तर अर्थात् स्व रूप और पर रूप इन दो रूपों से युगपद प्रादिष्ट - विवक्षित होने पर द्रव्य शब्दातीत हो जाने से प्रवक्तव्य हो जाता है ।" अर्थान्तरभूतैः निजकैश्च द्वाम्यां समकमादिष्टम् । वचनविशेषातीतं द्रव्यमवक्तव्यता पतति ।।१।। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रबा० स्त०७ ग्लो० २३ यदा च देशोऽस्तित्वेऽवक्तव्यत्वानुविद्धस्वभाव आदिश्यते, अपरश्च देशोऽस्तित्वनास्तिस्वाभ्यामेकदैव विवक्षितोऽस्तित्वानुविद्ध एवावक्तव्यत्वस्वभावे, तदा पश्चमभङ्गप्रवृत्तिः, प्रथमतृतीयकेवलभङ्गव्युदासोऽत्र विवक्षाभेदकृतो द्रष्टव्यः, प्रथम-सृतीययोः परस्परानुपरक्तयोः प्रतिपायेनाधिगन्तुमिष्टत्वात् , प्रतिपादकेनापि तथैव विवक्षितत्वात् , अत्र तु तद्विपर्ययाद , अनन्तधर्मात्मकस्य धर्मिणः प्रतिपाद्यानुरोधेन तथा भृतधर्माकान्तत्वेन वक्तुमिष्टत्वात् । तदिदमाह * "सम्भावे आइद्रो देसो देसो अ उभयहा जस्स । तं 'अस्थि अवचव्वं च होह दवियं विअप्परसा ।।" [ सम्मति गाथा ३८ ] [स्यादस्ति अवक्तव्यश्च-पंचमभंग] ___ जब किसी वस्तु के किसी एक अंश को प्रवक्तव्य बताते हुए उसका अस्तित्व बताना होता है और दूसरे अंश के एक काल में अस्तित्व और नास्तित्व की विवक्षा होने पर उसका अस्तित्व बताते हए उसे अवक्तव्य बताना होता है सब सप्तमी वाक्य के प्रवयवमत पश्चमभडन्य है । जैसे:-वस्तु के दो अंश हैं, अस्तित्व और नास्तित्व । इनमें से जब अबक्तव्य के साथ अस्तित्व का तथा अस्तित्व के साथ अवक्तव्य का प्रतिपादन करना होता है सब 'स्याद् अस्ति च प्रवक्तव्यश्च' इस भङ्ग का प्रयोग होता है यह भङ्ग विवक्षाभेद के कारण केवल प्रथम और केवल तृतीय भङ्ग से भिन्न होता है । प्रतिपाद्यम्योषनीय पुरुष प्रथम और तृतीयभङ्ग के प्रतिपाद्य प्रर्थ को एक दूसरे से असम्बद्ध रूप में जानना चाहता है अतएव प्रतिपादक-बोधयिता पुरुष को भी बसो हो विवक्षा होती है। फलतः प्रथम भङ्ग से प्रधानरूप से अस्तित्व मात्र का ही बोध होता है, नास्तित्व उसके कुक्षिगत हो कर गौण रहता है, और तृतीय भङ्ग से अस्तित्व. नास्तित्व वोनों का सम प्रधानरूप से बोघ होता है, क्यों कि वे दोनों भङ्ग बसी जिज्ञासा से प्रयुक्त होते हैं। किन्तु पञ्चमभङ्ग में उन दोनों भङ्गों से अन्तर है उसका कारण यह है कि वस्तु अनन्तधर्मात्मक होती है, अतः प्रतिपायपुरुष को अनेकरूपों में उसकी जिज्ञासा हो सकती है, वक्ता को उसके अनुसार ही जिज्ञासित धर्म के रूप में ही वस्तु को प्रतिपादित करने की इच्छा होती है। पत्रमभङ्ग का प्रयोग यतः वस्तु को एक अंश के अवक्तव्यस्व से अनुविद्ध अस्तित्व की और दूसरे अंश के अस्तित्व से अनुविद्ध अवक्तव्यत्व की जिज्ञासा से होता है न कि प्रधानरूप से अस्तित्व मात्र की, कि वा प्रधानरूप से प्रस्तित्व नास्तित्व दोनों की जिज्ञासा से होता है अतः जिज्ञासानुसारी बोध का जनक होने से यह केवल प्रथम और तृतीय से मिन्न होता है। उक्त बात सम्मतिग्रन्थ के प्रथमकांड की अडतीसी गाथा में इस प्रकार कही गयी है "जिस तव्य का कोई एक अंश सतरूप में और दूसरा अंश एक साथ हो सत्-असद उभय रूप में दणित होता है यह द्रव्य जिज्ञासा और विवक्षा के कारण कश्चित् अस्ति और प्रवक्तव्य होता है।" यदा च वस्तुनो देश एकोऽसत्त्वेऽवक्तव्यत्वानुपिद्धे निश्चितः, अपरश्चासत्चानुविद्धो युगपदुभयथा विवक्षितस्तदा तथाव्यपदेश्यावयवक्शादवयविनि षष्ठभङ्गप्रवृत्तिः, केवलद्वितीयतृतीयभङ्गव्युदासः प्राग्वत् प्रतिपाद्यजिज्ञासावशात् । तदिदमाह-[सम्मति गाथा-३६] ॐ सद्भाव आदिष्टो देशः देशनोभयथा यस्य । तद् अस्ति-अबक्तव्य च भवति ध्यं विकल्पवाद ।। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या.क. टीका एवं हिन्दी विवेचन ] १७१ "आइट्ठोऽसब्भावे देसो देसो य उभयहा जस्स । तं गस्थि अवतव्वं च होइ दवि विअप्पवसा ॥" ['स्यामास्ति-अवक्तव्यश्च'-छट्ठा भंग ] जब वस्तु के एक अंश को अवक्तव्य बताते हुए प्रसव बताना होता है और दूसरे ग्रंश की एक ही काल में सव-असत् दोनों रूपों में विवक्षा होने पर उसे अस बताते हुए प्रवक्तव्य बताना होता है तब अंश का उक्त रूप में व्यपदेश होने से अंशो वस्तु में 'स्यानास्ति च अवक्तव्यश्च' इस छठे भङ्ग का प्रयोग होता है यह भङ्ग भी प्रतिपाद्यपुरूष को जिज्ञासा के कारण- ( केवल प्रथम भङ्ग और केवल सृतीय भङ्ग से भिन्न पश्चम भङ्ग के समान ) केवल द्वितीय और केवल तृतीय भङ्ग से भिन्न होता है। सम्मतिग्रन्थ के उनचालीसवीं गाथा में यह बात निम्नरूप में कही गयी है "जिस वस्तु के एक अंश का असत्त्व अवक्तव्यत्व के साथ वणित होता है और दूसरे अंश के असत्त्व और सत्त्व दोनों की सह विवक्षा होने पर प्रसत्त्व के साय प्रवक्तव्यश्व प्रतिपादित होता है तब यह द्रव्य नास्ति और प्रवक्तव्य होता है।" यदा च वस्तुनो देश एकः सत्त्वे नियतः, द्वितीयश्वाऽसत्त्वे, इतीयस्तूभयथाऽभिषित्सितस्तदा तथाभूतविशेपणाध्यासितस्यानेनैव प्रकारेण प्रतिपादनादीदृशेऽर्थेऽपरभङ्गाविषयाऽप्रसरात सप्तमभङ्गप्रवृत्तिः। तदिदमाह-[ सम्मति गाथा-४०] 9"सकभावासम्भावे देसो देसो अ उभयहा जस्स | तं अस्थि णस्थवत्तव्यं च दविअंविअप्पवसा ॥” इति । [ 'स्यादस्ति-नास्ति-अयक्तव्यश्च'-सप्तम भंग] जव वस्तु का एक अंश सदरूप में, दूसरा अंश असद् रूप में और तोसरा अंश सत्-असद् उभयरूप में विवक्षित होता है तब उक्त विशेषणों के आस्पदभूत वस्तु का सत्त्व-प्रसत्त्व और प्रवक्तव्यत्व रूप से हो प्रतिपादन होता है, इस प्रकार प्रतिपादित होने वाले अर्थ में अन्य किसी भङ्ग के विषय का प्रवेश न होने से उक्तरूप में वस्तु का प्रतिपादन करने के लिए सप्तम भङ्ग का प्रयोग होता है, जिसका आकार स्याद् अस्ति च नास्ति च प्रवक्तव्यश्च' इस रूप में मान्य है। यह बात सम्मतिप्रन्य की चालीसवीं गाया में निम्नरूप में की गयी है “जिस द्रव्य का एक अंश सद्रूप में, दूसरा अंश असदरूप में, और तीसरा अंश सद्-असमय रूप में सह विवक्षित होने से अवक्तव्य रूप में, प्रतिपादित होता है वह वष्य जिज्ञासा और विवक्षा के अनुसार स्याद् अस्ति स्यान्नास्ति और स्याव् अवक्तव्य' होता है।" अथानन्तधर्मात्मके वस्तुनि तत्प्रतिपादकवचनस्य सप्तधा परिकल्पनेऽष्टमोऽपि विकल्पः किं न स्वीक्रियते ? इति चेत् ! न, नत्परिकल्पनानिमित्ताऽभावात् , सावयवात्मकस्य निरवयवात्मकस्य चान्योन्यनिमित्तकस्य जिज्ञासायां चतुर्थादिप्रथमादिविकल्पानामेत्र प्रवृचः । किञ्च, क्रमेण धर्मद्वयं गुण-प्रधानमावन प्रतिपादयन् प्रथम-द्वितीयावेत्र भङ्गाबाददीत, युगपत्त द्वयमॐ आदिष्टोऽसद्भावे देशो देशनोभयथा यस्य । तद् 'नास्ति अवक्तव्यं च भवति द्रव्यं विकल्पवशाद् ।। 'सद्भावासद्भावे देशो देशश्वोभ यथा यस्य । तद् 'अस्ति-नास्तिक-अवक्तव्यं च द्रव्यं विकल्पबशाद ।। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ [ शास्त्रवान स्त०७लो. २३ भिधित्सुस्तृतीयमेव, क्रमेण प्राधान्येन द्वयमभिधिसुराद्य-द्वितीयसंयोगनिष्पन्नं चतुर्थमेव, एक विभज्यापरं चाविभज्याभिधित्सुः प्रथम-तृतीयसंयोगनिष्पन्न पञ्चमम् , द्वितीय-तृतीयसंयोगनिप्पन्नं षष्टं वा, द्वौ देशौ विभज्य तृतीयं चाऽविभज्याभिधित्सुराद्य-द्वितीय-तृतीयसंयोगनिष्पन्न सप्तममेव, इति चतुरादिदेशीपादानेऽपि द्विव्यादीनामेकविभाजकोपरागविश्रामाद् न सप्तमाघतिक्रमः, एककरदण्डसंयोगे करद्वयदण्डसंयोगे वा दण्डित्वाविशेषात् । 'अनेकान्त उद्धृतद्वित्वादिविवक्षया स्यादेव विशेष' इति चेत् ? स्यादेव तहि भङ्गावान्तरभेदोऽपि । अत एव मल्लवादिप्रभृतिभिरेते कोटीशो भवन्ती भेदा अभिहिताः । विभाजकोपाध्यनतिक्रमात न विभागव्याघात इति तत्त्वम् । [आठवें विकल्प की आशंका का निरसन ] सप्तमी के विषय में यह प्रश्न उठता है कि जब वस्तु अनन्तधर्मात्मक है तब उसके प्रतिपावक वचन की जैसे सात भङ्गों में कल्पना की जाती है उसी प्रकार प्राठवें मन की भी कल्पना का सम्भव होने से उसे क्यों नहीं स्वीकार किया जाता ? इसका उत्तर यह है कि आठवें भङ्ग की कल्पना का कोई निमित्त नहीं है, अतः उसे नहीं स्वीकार किया जाता। बात यह है कि वस्तु सावयव और निरवयव भेद से दो प्रकार की होती है। सावयवत्वमूलक वस्तु को जिज्ञासा के अनुसार चतुर्थ, पश्चम, षष्ठ और सप्तम इन चार भडों का प्रयोग होता है एवं निरजयवत्वमूलक वस्तु की जिज्ञासा के अनुसार प्रथम, द्वितीय और तृतीय भङ्गों का प्रयोग होता है। सावयव और निरवयवरूप में वस्तु को विभाजित करने पर इन दोनों रूपों का प्रतिद्वन्द्वी कोई तीसरा विभाजकरूप न होने से वस्तु की तन्मूलक जिज्ञासा न होने के कारण अष्टम भङ्ग को अवसर नहीं मिलता। [ मंगविभाजक उपाधि सात से अधिक नहीं ] अष्टम भंग न होने में उक्त कारण से अतिरिक्त यह भी एक कारण है-जैसे कोई व्यक्ति जब किसी वस्तु के दो थमों का मुख्य प्रऔर गौण रूप से प्रतिपादन करता है तो उसके लिए स्यादस्ति और स्यानास्ति ये प्रथम और द्वितीय भंग ही उपादेय होते हैं। प्रथम में अस्तित्व मुख्य रूप से और नास्तित्व गौण रूप से तथा द्वितीय में नास्तित्व मुख्य रूप से और अस्तित्व गौणरूप से विवक्षित होता है। वहो व्यक्ति जब मुख्य रूप से वस्तु के दोनों धर्मों का एक साय प्रतिपादन करना चाहता है तब उसके लिए 'स्याद अवक्तव्य' यह ततीय भंग ही उपादेय होता है। फिर वही व्यक्ति जब वस्तु के दो धर्मों को मुख्यरूप से क्रमशः प्रतिपारित करना चाहता है तब उसे स्याद् अस्ति च नास्ति च' यह चतुर्थ भंग हो उपादेय होता है । इस भंग को निष्पत्ति प्रथम और द्वितीय भंगों के सहयोग से होती है । जब दोनों भंगों के प्रतिपाद्य विषय का मुख्यरूप से एक साथ वर्णन अशक्य हो जाता है तब वस्तु को उस रूप में प्रवक्तव्य बताने के लिए ततीय भंग का अवलम्बन किया जाता है । जब वस्तु के प्रस्तुत दो धर्मों में एक को दूसरे से विभाजित कर और दूसरे को पहले से अविभाजित कर वस्तु का प्रतिपादन अभिमत होता है तब 'स्याद् अस्ति च अवक्तव्याच' इस पञ्चम भंग का, तया स्यान्नास्ति च अवक्तम्पश्च' इस षष्ठ भंग का प्रयोग किया जाता है, उनमें पञ्चम भंग की निष्पत्ति प्रथम और ततीय भा के सहयोग से होती है इसीलिए इसके द्वारा प्रथम भंग के प्रतिपाद्य अस्तित्व का और Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ स्था० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] तृतीय भंग के प्रतिपाद्य अस्तित्व और नास्तित्व का मुख्य रूप से क्रमश: प्रतिपादन की शक्यता के कारण वस्तु के अवतथ्यत्व का प्रतिपादन होता है, एवं षष्ठभंग से द्वितीय अंग से प्रतिपाद्य वस्तु के नास्तित्व का ओर तृतीय भंग से प्रतिपाद्य अस्तित्व और नास्तित्व का मुख्य रूप से एक साथ वर्णन शक्य न होने से वस्तु की प्रवक्तव्यता का प्रतिपादन होता है । वस्तु के प्रस्तुत अस्तित्व, नास्तित्व, अस्तित्व- नास्तित्व उभ्य इन तीन रूपों में प्रथम दो रूपों को विभाजित कर और तीसरे रूप को अविभाजित करके वस्तु का प्रतिपादन अभीष्ट होते पर 'स्थाद् अस्ति च नास्ति च अवक्तव्यश्च' इस सप्तम भंग का प्रयोग होता है - इस भंग की निष्पत्ति प्रथम, द्वितीय और तृतीय भंगों के सहयोग से होती है। वस्तु यतः यद्यपि अनन्त धर्मात्मक है अतः उसके उक्त तीन रूपों से अतिरिक्त भो चतुर्थ पवम आदिरूप हो सकते हैं, फलतः उनका उपादान कर अन्य अंगों की भी सम्भाव हो सकती है, किन्तु विचार करने पर उक्त सात भंगों से पृथक् भंग की सम्भावना क्षीण हो जाती है क्योंकि वस्तु के दो, तीन, चार, पांच श्रादि सभी रूपों का पर्यवसान एक विभाजक के साथ सम्बन्ध में होता है । श्रतः चतुर्थ आदि भंगों से भिन्न भंग की कल्पना निरयकाश हो जाती है । जैसे, एक हाथ का संयोग अथवा दोनों हाथों में दण्ड का संयोग होने से पुरुष बण्डी होने में कोई अन्तर नहीं होता उसी प्रकार एक अंश को विभाजित तथा दूसरे अंश को अविभाजित कर किंवा दो अंश को विभाजित कर तृतीय अंश को अविभाजित कर वस्तु की विवक्षा होने पर पश्चम, षष्ठ और सप्तम भंग की निष्पत्ति होती है, उसी प्रकार वस्तु के चौथे पांचवे रूप का उपादान करने पर भी एक को विभाजित कर एवं अन्य को अविभाजित कर वस्तु की विवक्षा होने पर पञ्चम और षष्ठ भंग, एवं चौथे अथवा पांचवें रूप और उसके प्रतिद्वन्द्वी रूप इन दोनों को विभाजित और तीसरे को अविभाजित कर वस्तु की विवक्षा होने पर सप्तम भंग की ही निष्पत्ति हो सकती है न की किसी अन्य भंग की । इस प्रकार वस्तु के वौये पांचवे रूप का उपादान करने पर भी निष्पन्न होने वाले भंग में चतुर्थ आदि भंगों से भिन्नता नहीं हो सकती । के J यदि यह कहा जाय कि वस्तु यतः अनेकान्त रूप है, अनेकविध धर्मों का अभिन आस्पव है अतः दो धर्मो के द्वित्व आदि स्पष्ट रूपों से प्रतिपादन करने की कामना होने पर निष्पन्न होने वाले भंगों में वस्तु के एक-एक रूप को लेकर निष्पन्न होने वाले भंगों को प्रपेक्षा वैलक्षण्य हो सकता है जसे स्थर्य और क्षणिक इन दोनों धर्मो की विवक्षा होने पर वस्तु 'स्याद् उभयं स्थिरं क्षणिकं ६' स्यान्न स्थिरं च क्षणिक च' इस प्रकार के अंग, अस्तित्व आदि अनेकरूप को लेकर निष्पन्न होने वाले स्वाद अस्ति स्यानास्ति आदि भंगों से स्पष्ट विलक्षण हैं अतः उक्त प्रकार के सात भंगों के ही होने का आग्रह निराधार है" इसका उत्तर यह है कि उक्त स्थिति में भंग के श्रवान्तर भेद भी मान्य ही है, इसीलिए मल्लवादी प्रादि विद्वानों ने सप्तभंगी के कोटिशः भेद माने हैं, किन्तु वास्तविकता यह है कि सप्तभंगी की विभाजक उपाधियाँ उन फोटि प्रकार के भंगों को भी आत्मसात करती हैं मतः अंगों के प्रातिविक रूप से कोटिशः भेद होने पर भी विभाजक उपाधियों की सात ही संख्या होने के कारण भङ्गों के सप्तविधविभाग का व्याघात सम्भव नहीं है । इयं च सप्तभङ्गी प्रतिभङ्ग' सकलादेशस्वभावा विकलादेशस्वभावा च । प्रमाणप्रतिपन्नानन्तधर्मात्मकवस्तुनः कालादिभिरभेदवृत्तिप्राधान्यात्, अभेदोपचाराद् वा यौगपद्येन प्रतिपादकं चचः सकलादेशः । तद्विपरीतो विकलादेशः । अभेद वृत्तिप्राधान्यम् = 'द्रव्यार्थिकनयगृहीत सत्ताद्य Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ७ श्लो० २३ भिनानन्तधर्मात्मक वस्तुशक्तिकस्य सदादिपदस्य कालाद्यभेदविशेषप्रतिसंधानेन पर्यायार्थिकनयपर्यालोचनप्रादुर्भवच्छकयार्थबाधप्रतिरोधः । अभेदोपचारश्च पर्यायार्थिकनय गृहीता न्यापोह पर्यवसितसत्तादिमात्रशक्तिकस्य तात्पर्यानुपपत्त्या सदादिपदस्योक्तार्थे लक्षणा ।' १७४ [ सप्तभङ्गी में सफलादेश - विकला देश ] उक्त सप्तमङ्गी अपने प्रत्येक भंग द्वारा सकलावेश और विकलादेश का स्वभाव धारण करती है । सफलादेश उस वचन को कहा जाता है जिससे वस्तु की समग्रता का प्रमाण द्वारा निर्णीत are धर्मात्मकता का काल आदि द्वारा उपपत्र श्रमेववृत्ति की प्रधानता से अथवा अभेद के उपचार से युगपत् प्रतिपादन होता है। कहने का प्राशय यह है कि प्रमाण द्वारा यह सिद्ध है कि वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता हो उसकी समग्रता है जो वस्तु में एक ही काल में विद्यमान रहती है । वस्तु की समग्रता का प्रतिपादन करने वाले वचन को हो सकलादेश कहा जाता है । यह प्रतिपादन कभी अमेधवृत्ति की प्रधानता से होता है और कभी अभेद में लक्षणा द्वारा होता है । जो वचन इससे विपरीत होता है अर्थात् वस्तु का समग्ररूप से प्रतिपादन कर आंशिक रूप से प्रतिपादन करता है उसे विकलये कहा जाता है। अवृत्ति की प्रधानता का अर्थ यह है कि द्रव्याचिकनयानुसार काल आदि के द्वारा प्रतिपाद्य वस्तु के अनन्त घर्मो में अभेद का ज्ञान होने से वस्तु में धर्मों में अभेद बुद्धि द्वारा पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से होने वाले सत् आदि पदों से घटित atter hara का विघटन होना । आशय यह है कि प्रत्याथिक नय द्वारा सत् प्रादि पदों का सत्ता आदि से अभित्र अनन्त धर्मात्मक वस्तु में शक्तिज्ञान होता है। अतः स श्रादि पदों से घटित वाक्य से अनन्त धर्मात्मक वस्तु का बोध होना चाहिए, किन्तु पर्यायाथिक नय द्वारा वस्तु के विभिन्न धर्म पर्यायों के उपस्थित होने पर एक वस्तु में विभिन्न धर्मो को अभिन्नता बाधित होने से सत् आदि पदों से घटित वाक्य का अर्थ-बोध दुर्घट हो जाता है। ऐसी स्थिति में जब काल आदि को दृष्टि से प्रतिपाद्य वस्तु के धर्मों में अभेद का ज्ञान होने से वस्तु में अभिरूप से गृहीत अनन्त धर्मों के अभेद का ज्ञान होता है तब उससे उक्त रीति से पर्यायार्थिकनयप्रयुक्त वाक्यार्थ बोध का अवरोध होने से सत् आदि पदों से घटित वाक्य से अनन्त धर्मात्मक वस्तु का बोध सम्पन्न होता है। इस प्रकार होने वाला वस्तु की समग्रता का बोध हो अभेदवृति के प्राधान्य से अनन्त धर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादनरूप सकला देश है । अभेदोपचार का अर्थ है प्रभेद से अनन्त धर्मात्मक वस्तु में सद श्रादि पद की लक्षणा । इसका आश्रय उस स्थिति में लिया जाता है जब पर्यायार्थिक नय द्वारा अन्यापोह- असद् व्यावृत्ति स्वरूप सत्ता आदि धर्ममात्र में सद् आदि पद का शक्तिग्रह होता है। स्पष्ट है कि इस शक्तिग्रह से सत्ता आदि से अभिन्न अनन्त धर्मात्मक वस्तु का बोध नहीं हो सकता, किन्तु सत् आदि का प्रयोग अनन्त धर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादन करने के तात्पर्य से ही होता है । सत्ता श्रादि धर्ममात्र में सत् आदि पद के शक्तिग्रह से इस तात्पर्य की उपपत्ति न होने से पर्यायार्थिक नय द्वारा गृहीत वस्तु-धर्मो और उनके प्राश्रयभूत वस्तु के प्रभेव में अर्थात् सत्ता प्रावि से अभिन्न अनन्त धर्मात्मक वस्तु में सत् आदि पद की लक्षणा होती है। इस लक्षणा से ही सत्ता आदि धर्ममात्र में सत् आदि पद का शक्तिग्रह होने की दशा में भी सत् आदि पद से घटित वषय से प्रमन्त धर्मात्मक वस्तु का बोध होता है। उक्त रीति से सत् आदि पद द्वारा अनन्त धर्मात्मक वस्तु प्रतिपादन ही अभेदोपचार मूलक सफलादेश कहा जाता है। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] १७५ जब सब आवि पद का द्रव्याथिक नय द्वारा सत्ता आधि से अभिन्न अनन्त धर्मात्मक वस्तु में शक्तिग्रह नहीं होता, अथवा काल आदि की दृष्टि से वस्तुधर्मों में अमेवबुद्धि होकर वस्तु में उन धमा की अभिन्नता का ग्रह नहीं होता, किंवा सत्ता आदि मात्र में सत आदि पद का शक्तिपह होने पर तात्पर्यानुपपत्ति से सत् प्रादि पद की अनन्त धर्मात्मक वस्तु में लक्षणा नहीं होतो उस स्थिति में सब यादि पद से घटित वाक्यों से समग्र रूप से वस्तु का वोध न होकर आंशिकरूप से वस्तु का बोध होने से विकलावेश होता है। कालादयश्चाष्टाविमे-१. कालः, २. आत्मरूपम', ३. अर्थः, ४. संबन्धः, ५. उपकारः, ६. गुणिदेशः, ७. संसर्गः, ८. शब्द इति च।१. तत्र यत्कालमस्तित्वं तत्कालाः शेषानन्तधमा वस्तुन्येकडेति तेषां कालेनाऽभेदबुतिः। २. यदेव चास्तित्वस्य तद्गुणत्वमात्मरूपं तदेवान्यगुणानामपीत्यात्मरूपेणाऽभेदयत्तिः। ३. य एव चाधारोऽर्थो द्रव्याख्योऽस्तित्वस्य स एवान्यपयोंयाणामित्यर्थेनाऽभेदयत्तिः। ४. य एव चाविधग्भावः संबन्धोऽस्तित्वस्य स एवान्येषामिति संबन्धेनाऽभेदवृत्तिः। ५. य एव चोपकारोऽस्तित्वेन वस्तुनः स्वप्रकारकप्रतीतिविषयत्वलक्षणः, स एवान्येषामित्युपकारेणाऽभेटवृत्तिः। ६. य एव च गुणिनः संवन्धी देशः क्षेत्रलक्षणोऽस्तित्वस्य, स एवान्येषाम् , इति गुणिदेशेनाऽभेदवृत्तिः। ७. य एव च वस्तुनः संसर्गोऽस्तित्वस्याधाराधेयभावलक्षणः, स एवान्येषाम् , इति संसर्गेणाऽमेदवृत्तिः। ८. य एव च 'अस्ति' इति शब्दोऽस्तित्वधर्मात्मकस्य वस्तुनो वाचका, स एवाशेपानन्तधर्मात्मकस्यापि, इति शब्देनाऽमेदवृत्तिः । [ कालादि आठ का परिचय ] काल मादि पदार्थ, जिनकी दृष्टि से वस्तु-धर्मों में अमेवज्ञान होता है, उनकी संख्या आठ है, जैसे-१. काल, २ आत्मरूप, ३. प्रर्य, ४. सम्बन्ध, ५. उपकार, ६ गुणीवेश, ७. संसर्ग और ८. शब्द । १. जिस काल में किसी वस्तु का अस्तित्व होता है उस काल में अस्तित्व से भिन्न भी उसके अनन्त धर्म होते हैं। ये सभी धर्म एक काल में होने से काल की दृष्टि से अभिन्न होते हैं। वस्तु के अनन्त धर्मों को यह अभिन्नता कालमूलक अभेदवृत्ति हैं। २. अस्तित्व जिस वस्तु का धर्म होता है वह उसका गुण विशेषण कहा जाता है इस प्रकार तद्गुणत्व अस्तित्व का आत्मरूप होता है। अस्तित्व के समान ही वस्तु के अन्य धर्म भी उसके गुण कहे जाते हैं इस लिए तद्गुणत्व उनका भी आत्मरूप होता है। वस्तु के सभी धर्मों में तद्गुणत्वस्वरूप से अमेदवृत्ति होती है। ३. अर्थ:-जो प्रध्यात्मक अर्थ अस्तित्व का प्राधार होता है वही द्रव्य अन्य पर्याय धर्मों का भी प्राश्रय होता है ! आधार के एक होने से उसमें आश्रित समो धर्मों में अभिन्नता होती है, यह अभिन्नता अर्थमूलक अभेदवृत्ति है। ४. वस्तु के साथ अस्तित्व का जो अपृथगभाव-सम्बन्ध होता है वही वस्तु के साथ उसके अन्य धर्मों का भी सम्बन्ध होता है। इस प्रकार सम्बन्ध की एकता से अन्य धर्मों में अभिन्नता होना उसकी सम्बन्धमूलक अमेदवृत्ति है। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवास० स्त० ७ हलो० २३ ५. अस्तित्व धर्म के द्वारा वस्तु का जो उपकार होता है वही उसके अन्य धर्मो द्वारा भी उसका उपकार है और वह उपकार है वस्तु को स्वप्रकारक प्रतीति का विषय बनाना स्पष्ट हो यह उपकार अस्तित्व तथा वस्तु के अन्य धर्मों में समान है। उपकार की एकता की दृष्टि से मिष्पन्न वस्तु धर्मों को यह एकता सनकी उपकार-मूलक असेबवृत्ति है । १७६ ६. गुणीदेशः- द्रव्य के सम्बन्धी देश को गुणिदेश कहा जाता है, उसे क्षेत्र शब्द से भी प्रभिहित किया जाता है। जिस क्षेत्र में स्थित द्रव्य में उसका अस्तित्व होता है उसी क्षेत्र में स्थित द्रष्य में अन्य धर्म भी रहते हैं। इस प्रकार द्रव्य के सभी धर्मो का एक गुणिवेश (क्षेत्र) होने से उनमें for होती है। यह अभिन्नता गुनिवेशमूलक अभेदवृति है । वस्तु ७. वस्तु और अस्तित्व के बीच जो माधाराधेयभाव सम्बन्ध होता है वही, वस्तु और उसके अन्य धर्मों के बीच भी होता है । संसगं दृष्टि से वस्तु-धर्मो को यह अभिनता उसकी संसर्गमूलक श्रमेववृति है । वही शब्द अस्तित्व से भिन्न एक शब्द से वस्तु के समग्र अभिन्नता है। यह प्रमि 5. जो अस्ति शब्द अस्तित्व धर्म से अभिन्न वस्तु का वाचक है समग्र धर्मो से नो अभिन्न वस्तु का भी वाचक है इस प्रकार अस्ति इस धर्मो के वाच्य होने के कारण एक शब्द वाच्यत्य की दृष्टि से उन सभी में नता उनको शब्द मूलक अभेदवृत्ति है । केचित्तु -- "अनन्तधर्मात्मकवस्तुप्रतिपादकत्वाऽविशेषेऽप्याद्यास्त्रय एव भङ्गा निरवयवप्रतिपत्तिद्वारा सफलादेशाः, अधिमास्तु चत्वारः सावयवप्रतिपत्तिद्वारा विकलादेशाः" इति प्रतिपन्न वन्तः । एते च सप्तापि भङ्गाः स्यात्पदाऽलाच्छिता अवधारणैकस्वभावा विषयाऽसत्त्वाद् दुर्नयाः, स्यात्पदलाच्छितस्त्वेतदन्य मोऽपीतशाऽप्रतिक्षेपादेकदेशव्यवहार निबन्धनत्वात् सुनय एव । “अस्ति' इत्यादिकस्तु स्यात्कार वकार विनिर्मुक्तो धर्मान्तरोपादानप्रतिषेधाऽकरणात् स्वार्थमात्रप्रतिपादनप्रवणः सुनयोऽपि न व्यवहाराङ्गमिति द्रष्टव्यम् । [ सकलादेश के विषय में अन्य मत ] कुछ विद्वानों ने यह माना है कि सप्तभङ्गी के सभी भंग अनन्त धर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादन करने में समान है तथापि प्रारम्भ के तीन ही भंग वस्तु का निरवयव बोध अखण्ड बोध के उत्पादक होने से सकलादेश हैं और अगले बार भंग वस्तु के सावयव बोध = आंशिक बोध का जनक होने से विकलादेश है । सप्तभंगी के सभी भंग जब 'स्यात्' पद से रहित होते हैं तब वे प्रस्तुत अंश विशेष का अवधारण करते हैं। चूँकि विषयभूत वस्तु प्रस्तुत अंशमात्र का ही आधार नहीं होता, अतः अवपारित विषयभूत वस्तु का अस्तित्व न होने से असत् का बोधक होने से दुर्नय हो जाते हैं। किन्तु जब उक्त भंग 'स्यात् ' पद से युक्त होते हैं तब एक भंग भी अपने मुख्यरूप से प्रतिपाद्य भ्रंश से भिन्न अंश का निषेध न करते हुए एक अंश से ही वस्तु के व्यवहार का जनक होने से सुनय हो होता है। और जब Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] अस्ति या नास्ति पर्व 'स्यात् पद किंवा एव पद से रहित होकर भङ्ग के घटक होते हैं तब उससे जिस अंश के प्रस्तित्व किंवा नास्तित्व का बोध होता है उससे भिन्न अंश की स्वीकृति प्रथवा निषेध कुछ भी न होने से उससे अपने अर्थ मात्र का ही प्रतिपादन होता है, उस स्थिति में अस्ति पद अथवा नास्ति पद से घटित भङ्ग सुनय होते हुए भी व्यवहार का भङ्ग नहीं होता अत एव स्यात् पद किंवा एव पद के प्रभाव में अस्ति अथवा नास्ति पद से घटित भङ्ग का अस्तित्व अमान्य है । अयं च सप्तविधोऽपि वचनमार्गोऽथेनयेऽविशिष्टः । तत्र प्रथमः संग्रहे सामान्य ग्राहिणि, द्वितीयो व्यवहारे विशेषग्राहिणि, तृतीय ऋजुसूत्रे पृथक्त्वमनिच्छति, चतुर्थः संग्रह व्यवहारयोः, पञ्चमः संग्रहजु सूत्रयोः, पट्टो व्यवहार ऋजुसूत्रयोः, सप्तमः संग्रह - व्यवहारजु सूत्रेषु । व्यञ्जननये विकल्पो निर्विकल्पश्च । प्रथमेऽथकत्वेऽपि पर्यायशब्दवाच्यताविकल्पसद्भावात् प्रथमः सवि कल्पः । द्वितीय तृतीययोर्द्रव्यार्थ निर्गतपर्यायाभिधायकत्वाद् निर्विकल्पो द्वितीयः शब्दादिपु तृतीयः । संयोगादन्यं | उक्ति के यह सातों प्रकार अर्थनय में निर्विशेष होते हैं अर्थात् व्यञ्जननयों में जैसे दो वर्ग हैं वैसा यहाँ नहीं है। जैसे- प्रथम प्रकार प्रथम भङ्ग वस्तु के सामान्यग्राही संग्रह नय में समावेश होगा क्योंकि वह सत्वग्राही है । द्वितीय प्रकार- द्वितीयभङ्ग वस्तु के विशेषग्राही व्यवहार में, क्योंकि यह सामान्यवादी नहीं है । तीसरा प्रकार - तृतीय भग वस्तु के सामान्य और विशेष अंश को पृथक् रूप में ग्रहण न करने वाले ऋजुसूत्रनय में, चौथा प्रकार चतुर्थभङ्ग संग्रह और व्यवहारनय में पांचवां प्रकारपञ्श्वमभंग संग्रह और ऋजुसूत्रमय में छठां प्रकार छठी-भंग व्यवहार और ऋजुसूत्रनय में, सातक प्रकार - सप्तम भंग संग्रह व्यवहार और ऋजुसूत्रत्य में निविष्ट है किन्तु व्यञ्जननय में उक्त सातों भंगों के दो वर्ग हो जाते हैं- सविकल्प और निविकल्प | प्रथम शब्दनय में प्रथम भंग का प्रतिपाद्य सामान्य अर्थ यद्यपि एक होता है किन्तु उसमें पर्याय शब्द की वाच्यतारूप विकल्प के होने से प्रथम भंग सविकल्प होता है । द्वितीय और तृतीय यानी समभिरूट और एवंभूत द्रव्यरूप अर्थ से निर्गत ( पृथग्भूत) पर्याय के अभिधायक होते हैं, इसलिए द्वितीय भंग निर्विकल्प है। तथा तृतीय भंग शब्द आदि पर्याय का मुख्य रूप से बोधक होने से शब्दादि तीनों नय में निर्विकल्प होता है। शेष भंग शब्दादि तोन के अन्योन्य संयोग से सविकल्प और निर्विकल्प होते हैं। अथवा, वक्तृस्थप्रत्ययरूपेऽर्थनये सप्ताप्येते संभविनः । श्रोतस्थप्रत्ययरूपे व्यञ्जननये तु शब्द- समभिरुद्वयोः संज्ञाक्रिया भेदेऽप्यभिन्नार्थप्रतिपादनात् सविकल्पः प्रथमभङ्गः । एवंभूतस्तु क्रियाभेदाद् भिन्नमेवार्थे प्रतिपादयतीति तत्र निर्विकल्पो द्वितीयभङ्ग एव । अवक्तव्यस्तु शब्दाSविषयत्वाद् नास्त्येवेति वदति, सद्भावाद्यर्पणया ऋजुसूत्राद् विशेषिततरार्थाभ्युपगमस्य शब्दनये भाष्यकृता पक्षान्तरमधिकृत्याभिहितत्वात् तदपेक्षया तत्र सप्नापि सविकल्पाः, यथा - श्रुते तु निर्विकल्पा इत्यप्यनुजानीमः || २३ || 7 १७७ * इस विषय को पूर्व मुद्रित सम्मति के पृष्ठ ४४८ - गाथा ४१ की व्याख्या में, तथा राजवार्तिक [ ४ ४२ ] पृष्ठ २६१ में भी देख सकते हैं । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ [ शास्त्रवास० स्त० ७ श्लो० २४ उक्त बात नय को शब्दाश्मक होने की दृष्टि से कही गयी है किन्तु नय के ज्ञानात्मक होने पर उक्त बात अन्य प्रकार से कही जा सकती है। अंसे अर्थनय वक्तृगत ज्ञानरूप है अतः उसमें सप्तभंगी के सभी अंग जान रूप है श्रतः शब्द और समभिरूढनय उनसे में सविकल्प प्रथम भंग समाविष्ट होता है क्योंकि संज्ञा और क्रिया का भेद होने पर अभिन्न अर्थ का प्रतिपादन होता है, एवंभूतनय क्रियाभेद से भिन्न अर्थ का ही प्रतिपादन करता है तए उसमें निर्विकल्प द्वितीयभग समाविष्ट होता है। अवक्तव्य शब्द का विषय नहीं होता, क्योंकि शब्द का विषय होने पर अवक्तव्य हो ही नहीं सकता, अतः एवम्भूत नय में अवक्तव्यादि भंग नहीं हैऐसा तज्ज्ञों का कहना है । फलतः श्रोतृगत ज्ञानरूप व्यञ्जननय में प्रथम और द्वितीय भंग से भिन्न अंगों का अस्तित्व समय नहीं होता। भाष्यकार ने सद्भाव की अर्पणा - सद्रूपता की प्रतीति का सम्पादन करने से शब्दमय में ऋजुसूत्र से विलक्षण अर्थ का अभ्युपगम होने की जो बात कही है वह अन्य पक्ष पर आधारित है । उस अपेक्षा से व्यञ्जननय में सातों भंग सविकल्प रूप में सम्भव है, किन्तु यथाभुत स्थिति में निधिकल्प हैं, यह मो हमें उचित लगता है। तदेवं सप्तभङ्ग्यात्मकप्रमाणेनानेकान्त एव निश्वयो युज्यते, नैकान्त इति निगमयश्नाहमूलम् — अनेकान्तत एवातः सम्यग्मानव्यवस्थितेः । स्याद्वादिनो नियोगेन युज्यते निश्चयः परम् ॥ २४ ॥ अतः उक्तयुक्तेः अनेकान्तत एव अनेकान्तमतमत्रलम्ब्यैव सम्यग्मानव्यवस्थितेः=अविसंवादिप्रमाणव्यवस्थानात् स्याद्वादिनो नियोगेन नियमेन निश्चयो युज्यते, परं=केवलम् | ‘परम्' इत्यनेनैकान्ते मानस्यैवानवतार इति सूचितम् । तथाहि न तावदध्यचादेकान्तसिद्धिः, अनेकान्तस्यैव सर्वैरध्यक्षमनुभवात् एकस्यैव वस्तुनो वस्त्वन्तरसंबन्धाविभूतानेकसंवन्धिरूपत्वात् पितु पुत्र-आत्-भागिनेयादिविशिष्यैकपुरुषवत् पूर्वा ऽपराऽन्तरिताऽनन्तरित दूरा -ऽऽसन- नव-पुराण-समर्थाऽसमर्थ देवदत्त चैत्रस्वामिकलब्ध-कृतहृतादिरूपघटवद् वा । . ↑ , [ सप्तभङ्गी प्रमाण से अनेकान्त गर्भित निश्चय ] २४ कारिका में यह विषय निर्धारित किया गया है कि सप्तभङ्गी प्रमाण से अनेकान्त मत के अवलम्बन से ही निश्चय युक्तियुक्त सिद्ध होता है न कि एकान्त के अवलम्बन से । कारिका का अर्थ इस प्रकार है - सप्तभंगी द्वारा उपस्थापित युक्ति से अनेकान्त मत के अवलम्बन से ही सम्यक मान को व्यवस्था होती है प्रर्थात् अविसंवादी प्रमाण की सिद्धि होती है। अतः केवल स्थादवाद के नियम से हो युक्तिपूर्ण निश्चय सम्पन्न होता है। केवल स्यादवाद के नियम से ही निश्चय युक्तिसंगत होता है इस कथन से यह सूचित होता है कि एकान्त के पक्ष में प्रमाण की प्रवृत्ति ही नहीं होती जैसे यह स्पष्ट है कि प्रत्यक्ष प्रमाण से एकान्त की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि सभी को अनेकान्त का ही प्रत्यक्ष अनुभव होता है। एक ही वातु ग्रन्य वस्तुओं के सम्बन्ध से अनेक सम्बन्धीरूप में प्रभासित होती है, जैसे- एक ही पुरुष पिता, पुत्र, भ्राता भगिनोपुत्र, आदि अनेक रूपों में प्रवगत होता है, एवं एक ही घट पूर्व, पश्चिम, व्यवहित, धव्यवहित निकटस्थ दूरस्थ, नवीन, 1 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या०० टीका एवं हिन्चो विवेचन ] १७६ प्राचीन, समर्थ, असमर्थ, देवदतस्वामिक, देववत्तलब्ध, चैत्रलब्ध, देवदत्तकृत, चैत्रहत आदि अनेक रूपों में अवगत होता है । इस प्रकार यह अत्यन्त सुस्पष्ट है कि प्रत्यक्ष द्वारा कोई वस्तु किसी एक ही रूप में दृष्ट न होकर अनेक रूप में दृष्टिगोचर होती है। यत्पुनरुज्यते मण्डनेन"पित्रादिविषयेऽपेक्षा जननादिप्रभाविता । एकक्रियाविशेषेण व्यपेक्षा हस्व-दीघयोः ॥१५॥ इति । तत्तु दृष्टान्न-दाष्टान्तिकयोरापेक्षिकपर्यायत्वपर्यवसानाद् नातिचतुरस्त्रम् । यदप्येतद् विवृण्वतोक्तम्-'शब्दार्थस्तत्र सापेक्षो न वस्तु' इति । तदप्यशब्दार्थस्य वस्तुनः सिद्धौ शब्दस्य च कल्पनामात्रपर्यवसितत्वे शोभते । येषामपि मतम्-'पितृत्वपुत्रत्वादयो धर्मा एव तत्तन्निरूपिता मिद्यन्ते, धर्मा त्वेकस्वभाव एव'-शेषामपि 'एतदपेक्षयाऽयं पिता, एतदपेशया च न पिता' इत्यादिप्रतीन्यननुरोध एव । धर्मिभेदप्रतीतेर्धर्माभावावगाहितायां 'घटः पटो न' इत्यादावपि तथात्वापत्त्या च भेदकथैवोत्सीदेदिति । येऽपि 'नगर-त्रैलोक्यादिवत् पित-पुत्रादिभावभाग ज्ञानाकार एवं' इति प्रतिपन्नवन्तः तेऽपि शवलार्थानुपपत्तिभीताः शबलज्ञानमाश्रयन्तो व्याघ्रात त्रस्यन्तः कूपान्तःपातिन इति दिग् । [पितृत्त्वादि धर्म केवल प्रातीतिक-मण्डनमिश्र ] इस सन्दर्भ में मण्डन मिथ ने यह कहा है कि "पिता-पुत्र आदि रूप में ज्ञात होने वाला पुरुष वास्तव में एकान्त रूप ही होता है उसमें अनेकरूपता की प्रतीति, उत्पत्ति उत्पादन आदि विभिन्न क्रियानों के कारण होतो है । अतः अनेकरूपता उसका वास्तविकरूप नहीं है किन्तु अनेकों के सम्बन्ध के कारण केवल व्यावहारिकरूप है। क्रियाविशेष रूप से एक में अनेकरूपता को बुद्धि ठोक उसी प्रकार ज्ञातव्य है जैसे ह्रस्थ, दोघंरूप में अन्य को प्रतीति के द्वारा किसी वस्तु में हस्व, वीर्घरूपता ज्ञात होती है। कहने का आशय यह है कि कोई वस्तु स्वयं अपने ही व्यक्तित्व के आधार पर ह्रस्व या वीर्घ नहीं होती किन्तु अपने से दीर्घ प्रतीत होने वाली वस्तु को अपेक्षा ह्रस्व और अपने से ह्रस्व प्रतीत होने वाली अन्य वस्तु को अपेक्षा दीर्घ प्रतीत होती हैं तो जैसे वस्तु का ह्रस्वत्व और वीर्घस्व उसका वास्तवरूप न होकर मात्र प्रातीतिक या व्यावहारिक हो होता है ठीक उसी प्रकार पितृत्व, पुत्रत्व आदि भी एक पुरुष का वास्तविक रूप न होकर केवल प्रातोतिक एवं व्यावहारिक ही रूप है। प्रतः वास्तव में वस्तु अनेकान्त रूप न होकर एकान्त रूप ही होती है।" [ मण्डन मिथ के कथन का निराकरण ] व्याख्याकार की दृष्टि में मिश्र का उक्त कथन समीचीन नहीं है क्योंकि जैसा विवेचन किया गया है उसके अनुसार दृष्टान्त -हस्व, दीर्घ रूप में प्रतीत होने वाली वस्तु और दार्टान्तिक-दृष्टान्त द्वारा समर्थनीय पिता-पुत्र आदि रूप में प्रतीत होने वाला एक पुरुष, तथा पूर्व पर आदिरूप में प्रतीत होने वाला एक घट, एवं पुरुष और उक्त दृष्टान्त तथा अन्य वस्तु के सम्बन्ध से अनेकरूपों में प्रतीत होने वाली वस्तु रूप दार्दान्तिक का पर्यवसान उनकी अपेक्षिक पर्यायरूपता में होता है। आशय यह Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० [ शास्त्रमा स्त०७ श्लो० २४ है कि वस्तु की अनेकान्तरूपता यस्तु का सापेक्ष पर्याय है। अतः उसे वस्तु का निरपेक्ष रूप बताना तो असंगत हो सकता है किन्तु उसे उसका अपना रूप बताना कथमपि असंगत नहीं हो सकता। वस्तु की आपेक्षिक पर्यायरूपता का विवरण करते हुए कुछ विद्वानों द्वारा जो यह कहा गया है कि-'शब्दार्थ सापेक्ष होता है वस्तु सापेक्ष नहीं होती वह कथन मी तमो समीचीन हो सकता है जब बस्तु अशब्दार्थ हो तथा शब्द कल्पनामात्र हो, किन्तु यह बात सिद्ध नहीं है। [ केवल धर्मभेद मानने पर पिता-पुत्र आदि प्रतीतियों की अनुपपत्ति ] जिन विद्वानों का यह मत है कि पितृत्व- पूत्रत्व आदि धर्म ही निरूपक भेद से भिन्न होते हैं किन्तु जिस धर्मों में ये धर्म प्रतीत होते हैं वह एकरूप ही होता है ।' उनकी दृष्टि में प्रमुक व्यक्ति अमुक की अपेक्षा पिता है और अमुक की अपेक्षा पिता नहीं है ऐसी प्रतीतियों का अनुरोध यानी समर्थन नहीं हो पाता, साथ ही ऐसा मानने वालों को यह भी विचार करना चाहिए कि धर्म-मेध की प्रतीति का उपपावन यदि धर्म और उसके अभाव के अवगाहन द्वारा किया जायगा तो 'घटः पटोन' ऐसी प्रतीतियों के सम्बन्ध में भी यह कहा जा सकेगा कि यह प्रतासि एफ पदार्थ में घटत्वरूप धर्म और पदत्यरूप धर्म के अभाव का अवगाहन करतो है न कि घटरूप धर्मों में घटत्व धर्म एवं पट रूप धर्मों के भेद को विषय करती है, फलतः भेद की चर्चा ही समाप्त हो जायगी। [चित्राकारज्ञानवाद में चित्राकार अर्थ की आपत्ति ] जिन विद्वानों ने यह माना है कि-'जैसे नगर, त्रैलोक्य आदि की अतिरिक्त सत्ता नहीं है किन्तु नगर एवं त्रैलोक्य नाम की वस्तु के बिना ही नगराकार और त्रलोक्याकार केवल ज्ञानमात्र होता है उसीप्रकार पिता-पुत्र आदि को भी अतिरिक्त सत्ता नहीं है किन्तु पिता-पुत्र प्रादि रूप में ज्ञानमात्र होता है। फलतः ज्ञानाकार रूप में ही उनको सत्ता है बाह्य सना नहीं है। ऐसे विद्वानों ने चित्र यानी अनेकात्मक अर्थ की अनुपपत्ति से त्रस्त हो उसे स्वीकार न कर चित्र अनेकात्मकज्ञान को स्वीकार किया है। अतः ऐसे विद्वान उन मनुष्यों को श्रेणि में आते है जो व्याघ्र के भय से भागकर कुए में गिर पड़ते हैं। फलतः चित्राकार ज्ञान मानने और चित्राकर अर्थ न मानने में कोई औचित्य नहीं प्रतीत होता। एवं चानुमानादिनापि नैकान्तसिद्धिः, अध्यक्षवाधितेऽर्थेऽनुमानादिप्रमाणप्रवृत्तेः । किञ्च, साधम्यतः परः साध्यं साधयेत् , वैधयंतो वा १ । उभयथापि तत्पुत्रत्वादेगमकत्व प्रसङ्गः, प्रकरणसम-कालात्ययापदिष्टयो हे स्वाभासत्वाऽभावेनाऽवाधकत्वात् , निश्चितस्वसाध्याविनाभूतहेतपलम्भस्यैव साध्यधर्मिणि साध्यप्रतिपतिरूपत्वेन तयोस्तदप्रतिपन्थित्वात् । न च यथा तयात्राऽगमकत्वं तथा ममापीति शडनीयम् , ममाक्षिप्तपरस्परस्वरूपाजहवृत्तिसाधधम्यस्वभावनिबन्धन.रूप्यनिश्चयाभावेन तस्याऽगमकत्वात् , परस्य च तथाऽनभ्युपगमात् । [अनुमानादि से भी एकान्तसिद्धि अशक्य ] । उक्त रीति से अनुमान आदि से भी एकान्त की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि जो अर्थ प्रत्यक्ष बाधित होता है उसमें अनुमान आदि प्रमाणों को प्रवृत्ति नहीं होती। अनुमान के विरुद्ध एक बात और है वह यह कि एकान्तवादी को वस्तु की एकान्तरूपता का साधन साधर्म्य अथवा वैधH से ही करना होगा किन्तु दोनों ही पक्षों में तत्पुरत्व आदि धमों में Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क० टीका एवं हिन्दी धियेचार ] अनेकान्तरूपता के अनुमापकत्व की प्रसक्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि-'वस्तु में एकान्तरूपता के साधक हेतु के होने से तत्पुत्रत्व प्रादि प्रकरणसम पानी सत-प्रतिपक्ष एवं अनेकान्तरूपता का बाघ होने से कालात्ययापदिष्ट होगा, अत एव तत्पुत्रस्व आदि में अनुमापकता का बाध हो जायगा -तो यह उचित नहीं है क्योंकि हेतुत्य के सम्पादक पक्षसत्त्व, सपक्षसत्व और विपक्षासत्त्व का विघटक हो हेत्वाभास होता है । प्रकरणसम और कालात्यापदिष्ट उक्त रूपों में से किसी के विघटक नहीं हैं अत एव हेत्वाभास न होने के कारण उनसे अनुमापकता का बाध नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि-'साध्य के धर्मों यानी पक्ष में साध्यबदि का उक्त दोनों में विघटन होता है अत एव वे भी हेरवाभास हैं, क्योंकि जैसे तत्व के सम्पादन उक्त रूपों का जिनके द्वारा विघटन होता है वे मी अन्ततः साध्यधर्मी में साध्यबद्धि के विरोध में ही पर्यवसायी होने से हत्याभास होते हैं । अतः साध्यधर्मों में साध्यबुद्धि के साक्षात् विरोधी प्रकरणसम और कालात्ययापोबष्ट का भी हेत्वाभास होना युक्तिसंगत है। इसलिए उनके द्वारा तत्पुत्रस्व आदि में अनेकान्तरूपता की अनुमापकता का बाप हो सकता है तो यह ठोक नहीं है क्योंकि साध्य के अविनामृत यानी व्याप्यरूप में निश्चित हेतु का पक्ष में जो उपलम्भ अर्थात बोध होता है वही साध्यधर्मों में साध्य की बुद्धि है और उक्त बोध में प्रकरणसम और कालात्ययापदिष्ट विरोधी नहीं हो सकते, क्योंकि प्रकरणसम पक्ष साध्याभावच्याप्यप्रकारक निश्वय द्वारा सथा कालात्ययापदिष्ट साध्याभाव प्रकारक निश्चय द्वारा पक्ष में साध्यप्रकारक बोध के ही विरोधी हो सकते हैं न कि साध्य व्याप्य हेतु प्रकारक बुद्धि के विरोधी हो "सकते हैं । अतः उक्त रीति से उन्हें हेत्वाभास बताना संगत नहीं हो सकता। [ अनेकान्तवादरूपता की अनुमापकता का समान रूप से अभाव नहीं है ] यदि यह शंका की जाय कि-'जसे अनेकान्तधादी के मत में तत्पुत्रस्व आदि एकान्तरूपता का अनुमापक नहीं हो सकता, उसी प्रकार एकान्तवाली के मत में वह अनेकान्तरूपता का भी अनुमापक नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अनेकान्तबादी के मत में तत्पुत्रत्व प्रादि को एकान्तरूपता का अनुमापक न होने का कारण है 'उसमें अनुमापकता के प्रयोजक त्रिरूपता के निश्चय का प्रभाव' जिसे एकान्तबादी के भत में अनेकान्त-अनुमापरता के अभाव के कारणरूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता, क्योंकि एकान्तबाद में अनुमापक को निरूपात्मकता मान्य नहीं हो सकती । अनेकान्तबादी के कथन का प्राशय यह है कि जो त पक्ष सत्व सपक्ष सत्त्व और विपक्षासत्त्व इन तीनों रूपों से अभिन्न होता है वही अनुमापक होता है और यह त्रिरूपता साघम्य, बंधयं के परस्पर स्वरूप का प्राक्षेप जिस धर्मों में होता है उस पक्षभूत धर्मी में अजहदवृत्ति तथा साधर्म्य और बंधयं के स्वभाव से होती है, तात्पर्य यह है कि पक्ष में सपक्ष के साधर्म्य से विपक्ष के वैधस्य का और विपक्ष के वैवयं से सपक्ष के साधम्यं का आक्षेप होता है, हेतु उसमें अजहदवृत्ति-वृत्ति का त्याग न करने से पक्षसत्त्वात्मक होता है एवं साधर्म्यस्वभाव होने से सपक्षसत्त्वात्मक तथा वैधर्म्यस्वभाव होने से विपक्षासत्वात्मक होता है । इस प्रकार त्रिरूपात्मक हेलु ही साध्य का अनुमापक होता है । तत्पुत्रत्व श्रादि में निश्चित एकालरूप सपक्ष को सामरूपता एव निश्चित अनेकान्तरूप विपक्ष को वैधम्यरूपता तथा उन दोनों के परस्पर स्वरूप जिसमें आक्षिप्त हों ऐसे वस्तु रूप पक्ष में अजहदवृत्तिता न होने से विरूपता का निश्चय न होने के कारण उसमें एकान्त की अनुमापकता का प्रभाव होता है । यही बात तत्पुत्रत्व प्रादि में अनेकान्तरूपता के अनुमापकत्व का अभाव बताने में नहीं कही जा सकती, Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ [शास्त्रवास्ति०७ श्लो० २४ क्योंकि एकान्तवादी प्रत्येक वस्तु को एकरूपात्मक ही मानता है. अत एव हेतु को त्रिरूपात्मक होने के आधार पर अनुमापक और त्रिरूपात्मकता का निश्चय न होने के आधार पर अननुमापक नहीं कहा जा सकता। किच, परस्य स्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावाऽनतियोगिसाध्यसामानाधिकरण्यसाध्याभाववदत्तित्व-साध्यसंबन्धितावच्छेदकरूपवत्यादिव्याप्तीनां नानात्वात साधने साध्यच्याप्यस्वमपि दुग्रहम् । न च सर्वासामपि वह्निनिरूपितव्यासीनां प्रत्येकं वह्वयनुमित्यङ्गत्वमेव, कार्यतावच्छेदके तत्तदव्यवहितोत्तरत्यादिदानाच्च न व्यभिचार इति वाच्यम् , अनुगत हेतु-हेतुमद्भाव विनाऽनुमतव्यवहारप्रवृत्त्याउनुपपत्तेः, अनुमितिजनकतावच्छेदकतया सिद्धाया एकस्या एव व्याप्तेः प्रतिस्त्र विभज्यानुभवाद् भेदमिश्रितत्वस्वीकारीचित्पात् । एवं रिशिष्य तत्तद्धर्मावच्छिन्नकारणताश्रयेऽपि तत्तद्धर्मसामानाधिकरण्येन सामान्यकारणताव्यपदेशसमर्थनमपि परेषां शब्दान्तरेण सामान्यविशेषभावमेव वस्तुनो द्रढयति, अपिताऽनपितसिद्धः, इति द्रष्टव्यम् , “यत्सामान्ये यत्सामान्य हेतुस्तद्विशेष तद्विशेषोऽपि" इति न्यायोपपत्तेः, आर्थन्यायेन भावेनाऽप्रधानगुणभावयोगाच्चेति । [ त्रिरूपवत्ता एकान्तवाद में मानने पर भी अनिस्तार ] उक्त के सन्दर्भ में यदि यह कहा जाय कि-एकान्तवाद में हेतु में निरूपात्मकता तो नहीं मानी जा सकती किन्तु उसे त्रिरूप से युक्त मानने में कोई बाधा नहीं है, अतः उस मत के आधार पर भी यह कहा जा सकता है कि तत्पुत्रत्व आदि में वस्तु को अनेकान्तता की अनुमापकता के प्रयोजक उक्त त्रिरूप से युक्तता का निश्चय न होने के कारण तत्पुरत्व आदि में अनेकान्त को अनुमापकता का प्रभाव हो सकता है तो इस कथन के सम्भव होने पर भी अन्य दोष का परिहार होना सम्भव नहीं है और वह दोष है हेतु में साध्य की व्याप्ति के ज्ञान का । आशय यह है कि एकान्तवादी के मत में व्याप्ति के अनेक भेद हैं। जैमे-(२) हेत के अधिकरण में विद्यमान अत्यन्ताभाव के अप्रतियोगी साध्य का हेतुनिष्ठ सामानाधिकरण्य एवं (२) हेतु में साध्याभावाधिकरण निरूपित वृत्तित्व का अभाव, तथा (३) साध्यसम्बन्धिता का अवच्छेदक हेतुता अवच्छेदक रूपबत्त्य ... प्रादि । इन सभी का एककाल में जान सम्भावित न होने से हेतु में साध्य की व्याप्ति का ज्ञान न हो सकने के कारण व्याप्तिज्ञान से अनुमिति के जन्म का उपपादन नहीं किया जा सकता। [व्यक्तिनिष्टकार्य-कारणभाव से अनुमितित्वनियामक शून्यता] यदि यह कहा जाय कि-'उक्त प्रकार कि वह्नि निरूपित जितनी ध्याप्तियां हैं उनमें प्रत्येक व्याप्ति स्वतन्त्ररूप से वह्नि की अनुमिति को प्रयोजक हैं अर्थात् उक्त व्याप्तियों में किसी भी एक व्याप्ति का ज्ञान होने से अनभिति का जन्म मानना निरापद है, क्योंकि यद्वि की अनुमिति में प्रत्येक व्याप्तिज्ञान को स्वतन्त्ररूप से कारण मानने पर प्रमिति और ध्याप्तिजान में कार्यकारणभाव के सम्भावित व्यतिरेक व्यभिचार का परिहार तत्तयाप्तिज्ञान को तत्तद्व्याप्तिज्ञानाव्यवहितोत्तर Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] ज्ञान के प्रति कारण मान कर किया जा सकता है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अनुमिति और व्याप्तिज्ञान में उक्त रूप से कार्यकारणभाव मानने पर उनके बीच प्रनुगत कार्यकारणभाव नहीं होगा ! फलतः तत्तद्व्याप्तिज्ञान से उत्पन्न होने वाले ज्ञान में अनुमिति पद का अनुगत व्यवहार नहीं हो सकेगा। क्योंकि उक्त रूप से अनुगत कार्यकारणभाव न होने पर अनुमितित्व का कोई नियामक न हो सकेगा । यतः उक्त व्याप्तियों में किसी एक व्याप्ति के ज्ञान से अन्य (ज्ञाननिष्ठ) ज्ञानस्व को अनुमितित्व का नियामक मानने पर अन्य व्याप्ति के ज्ञान से जन्यज्ञान अनुमितिरूप न हो सकेगा और यदि प्रत्येक व्याप्तिज्ञानजन्यज्ञानस्व को समुदित रूप से अनुमितित्व का नियामक माना जायमा तो किसी मी ज्ञान में सम्पूर्ण व्याप्तिज्ञानजन्यज्ञानत्व न होने से कोई भी ज्ञान अनुमितिरूप न हो सकेगा । अतः उक्त प्रनुपपत्ति को देखते हुए यही स्वीकार करना उचित है कि अनुमिति के प्रति व्याप्तिज्ञान कारण है और एक ही व्याप्ति उस कारणता की ग्रवच्छेदक है, उसी का व्याप्ति के उक्तरूपों में कभी किसी स्वरूप और कभी किसी अन्य रूप से अनुभव होता है। उक्त सभी व्याप्तियों में व्याप्तिस्वरूप एक सामान्य धर्म है उसी रूप से व्याप्ति का ज्ञान अनुमिति सामान्य के प्रति कारण है। इस कारण व्याप्ति एकान्तरूप से एक प्रथवा अनेक न होकर मेवमिश्रित अभिन्नत्व ( अभेद ) रूप अर्थात् अनेकान्त रूप है । १८३ [ एकान्तवादी की मान्यता से अनेकान्त को समर्थन | इस सन्दर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि एकान्तवाद में सामान्य कार्यकारणभाव का समर्थन इस रूप में किया जाता है कि 'सामान्य धर्म के आश्रयभूत कार्यविशेष की सामान्यधर्म के श्राश्रयभूत कारण विशेष में जो विशेष धर्माच्छित कार्यनिरूपित विशेष धर्मावच्छिन्न कारणता है वही सामान्य कार्यकारणता के रूप में व्यवहुत होती हैं इससे भी वस्तु को सामान्यविशेषात्मक रूप से अनेकान्तरूपा की ही पुष्टि होती है। यह भी ज्ञातव्य है कि वस्तु में सामान्यविशेष उपयरूपता के अभाव यद्यपि अतः यह प्राप्त होता है कि वस्तु में प्रधानगुणभाव नहीं हो सकता किन्तु सामान्यरूप से जिन वस्तुओं में कार्यकारणभाव होता है, विशेषरूप से भी उनमें कार्यकारणभाव होता आवश्यक है' यह न्याय अवश्य स्वीकार्य है क्योंकि इसे न मानने पर सामान्यकार्यकरण के आधार पर ही विशेषकारण से विशेष कार्य की उत्पत्ति माननी होगी और उस स्थिति में जिन वो कपालों से एक घट की उत्पत्ति होती है उन्हीं से अन्य घट की उस घट के साथ ही उत्पत्ति का प्रसंग होगा । प्रतः घट सामान्य के प्रति कपाल सामान्य कारण है इस कार्यकारणभाव के साथ ही तत्तद्घट के प्रति तत्तत्कपाल कारण है यह कार्यकारणभाव भी मानना आवश्यक है और यह तभी हो सकता है जब वस्तु सामान्य विशेष उभयात्मक हो । और जब वस्तु उस प्रकार की होगी तो उसमें प्रधानगुणभाव भी बिना किसी कठिनाई के उपपन्न हो सकेगा । I किञ्च, परः साध्यं साधयन् न तावत् सामान्यं साधयेत्, केवलस्य तस्यासंभवात् । नापि विशेषम् तस्याननुयायित्वेन साधयितुमशक्यत्वात् । न च सामान्योपरागेण विशेषस्याप्यनुयायित्वम्, समवायनिषेधेन तदुपरागाऽसिद्धेः 'पर्वतो जातिमद्वान्' इत्यादावतिप्रसङ्गाच । नाप्युभयम् उभचदोषाऽनतिवृत्तेः । नाप्यनुभयम्, तस्याऽसत्त्वात् इत्याद्ययम् । तदिदमुक्तम्[ सम्मति - १५३ ] Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवा० स्त०७ श्लो० २४ * "साहम्मओ ब्व अत्थं साहिज्ज परो बिहम्मो बाबि । अमोन्नं पडिकुठा दो नि अ एए असव्याया ॥ १ ॥ इति । अनेकान्ते तु न साध्यसिद्धिरनुपपन्ना, कथञ्चिद् वह्निमत्तायाः साध्यत्वेन 'पर्वतो द्रव्यवान् इत्यादावनतिप्रसङ्गात् , बहिमत्ताया द्रव्यवत्तासामान्यक्रोडीकृतत्वेऽपि कञ्चिदतिरेकात , विवादास्पदीभूतसामान्य-विशेषोभयात्मकसाध्यधर्माधारसाध्यवमिसिद्धेश्व; अन्यथा 'पर्वतसामान्य घहिमत्तयाऽनुमिनोमि' 'इमं पर्वतं वद्धिमत्तयाऽनुमिनोमि' इत्यादि विभज्याध्यवसायाकारानुपपत्तेः, इतरत्र संशयाऽनिवृत्तिप्रसङ्गाच्च । इत्यन्यत्र विस्तरः । तदिदमाह- सम्मति गाथा-१५४ ] x दवडिअवत्तव्यं सामण्णं पञ्जवस्स य विसेसो। एए समोवणीया विभजवायं विसेसंति ॥१॥ इति । तदेवं 'स्याद्वादिनो न क्वचिदपि निथयो युज्यते' इति पूर्वपक्षिणोक्तं निराकृतम् ॥२४॥ [एकान्तवाद में साध्यस्वरूप का निर्वचन अशक्य ] उक्त के अतिरिक्त एकान्तवाद में एक और भी संकट है, वह यह कि एकान्तवाद में साध्य के स्वरूप का निर्वचन प्रमादा कोंकि य के सा नहीं कहा जा सकता यतः विशेष के अभाव में केवल सामान्य का अस्तित्व नहीं होता। विशेष को भी साध्य नहीं कहा जा सकता क्योंकि साध्य को साध्यधर्मो-पक्ष और सिद्धधर्मी दृष्टान्त उभय में अनुगत होना चाहिए, किन्तु विशेष ऐसा नहीं होता। स्पष्ट है कि पर्वतीय वह्नि का सम्बन्ध महानस में और महानसीय वह्नि का सम्बन्ध पर्वत में नहीं होता। [ अनुगतरूपता की शंका का निराकरण ] विशेष की साध्यता के समर्थन में यदि यह कहा जाय कि-विशेष व्यक्तिगत रूप से पक्ष, दृष्टान्त उभय में भले अनुगत न हो किन्तु सामान्य रूप से उसके अनुगत होने में कोई बाधा नहीं है यत: पर्वतीय और महानसीय वह्नियों में बालित्व सामान्य का अस्तित्व होने से यह कहना दुष्कर है कि महानसीय पति के सामान्य रूप का पक्तीय वह्नि में और पर्वतीय वह्नि के सामान्य रूप का महानसीय वह्नि में प्रभाव है। अत: वह्निविशेष को वह्नित्व रूप सामान्य धर्म द्वारा पक्ष-दृष्टान्त दोनों में अनुगत कहा जा सकता है किन्तु यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि यतः समवाय सम्बन्ध प्रमाण द्वारा सिद्ध नहीं हो पाता अतः विशेष व्यक्तियों में सामान्य धर्म का उपराग (सम्बन्ध) सिद्ध नहीं हो सकता है। इसके साथ ही इस कथन में कि- 'सामान्य रूप से विशेष अनुगत होने से विशेष भी साध्य हो सकता है-यह आपत्ति है कि उक्त बात को स्वीकार करने पर जातित्व रूप में वह्नित्व को विषय करने वाली 'पर्वतः जातिमद्वान्' अनुमिति भी 'पर्वतो वह्निमान' इस रूप में ध्यवहुत होने लगेगी। जैसे उक्त कारणों से केवल सामान्य * साधम्यतो वाऽयं साधयेत् परो वैधय॑तो वाऽपि । अन्योन्यं प्रतिकुठा द्वावपि चैतेऽसद्वादाः ।। X द्रव्याथिका वक्तव्यं सामान्य पर्यवस्य च विशेषः । एती समोपनोती विभज्यवाद विशिष्टः।। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] १८५ अथवा केवल विशेष को साध्य नहीं माना जा सकता उसी प्रकार दोनों को मिलित रूप में भी साध्य नहीं माना जा सकता क्योंकि केवल सामान्य और केवल विशेष को साम्य मानने पर प्रसक्त होने वाले दोष मिलित साध्य के पक्ष में भी ज्यों के त्यों बने रहेंगे। सामान्य विशेष से भिन्न को भी साध्य नहीं माना जा सकता क्योंकि इस तरह की कोई वस्तु हो नहीं है जो सामान्य और विशेष की श्रेणी से बहिर्भूत हो । यह बात सम्मति ग्रन्की १३ ची गाशा में इस प्रकार हो गयी है "एकान्तवादी साध्य को साधर्म्य से सिद्ध करेगा या वैधम्यं से? दोनों ही अन्योन्य अपहत होने से असद्वाद ही हैं।" एकान्तवाद में साध्यसिद्धि के सम्बन्ध में जो अनुपपत्ति बतायो गयो है, अनेकान्तबाद में उसको अवसर नहीं है क्योंकि अनेकान्तवाद में कथञ्चित् वह्निमत्ता साध्य होने से 'पर्वतः द्रव्यमान इस अनुमिति में पर्वत: वह्निमान' इस अनुमिति को अभिन्नता का प्रसंग नहीं हो सकता, क्योंकि द्रक्ष्य सामान्य में वह्नि का समावेश होने पर भी यति में द्रव्य का कयश्चित भेद भी रहता है प्रतः जिस अपेक्षा से वह्नि में ट्रध्य का भेद है उस अपेक्षा से 'पर्वतो द्रव्यवान्' इस अनुमिति में 'पर्वतः वह्निमान्' इस प्रकार को अनुमितिरूपता को आपत्ति सम्भव नहीं हो सकती। [अनेकान्तवाद में साध्यसिद्धि निर्वाध ] अनेकान्तवाद में साध्यसिद्धि की अनुपपत्ति न होने का एक और कारण है वह यह कि अने. कान्तवाद के अनुसार साध्यधर्मो-पक्ष 'सामान्य-विशेष उभयरूप साध्यात्मक धर्म के आश्रयरूप में विवाद का विषय होता है । अतः अनुमान द्वारा उक्त साध्यरूप धर्म के आश्रय रूप में साध्यधर्मों को सिद्धि होती है । इस प्रकार की सिद्धि में उस तरह की कोई बाधा नहीं है जो एकान्तवाद में साध्यसिद्धि के विषद्ध खड़ी होती है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि यदि अनुमान द्वारा सामान्य विशेष उभयस्वरूप साध्यधर्म के आधाररूप में साध्य-धर्मी की सिद्धिन मानी जायगी तो वह्नि के आश्रयरूप पर्वत सामान्य की अनुमिति की एवं वह्नि के आश्रयरूप में पर्वत विशेष को अनुमिति को जो प्रतीति होती है उसकी उपपत्ति न हो सकेगी। उक्त उभय प्रतीतियों में किसी एक ही प्रतीति को मानकर यदि किसी एक ही प्रकार की अनुमिति मादी जायगी तो अन्य प्रकार को अनुमिति से निवर्तनीय संशय की निवृत्ति न हो सकेगी। फलतः वह्नि के प्राश्रयरूप में पर्वत सामान्य को अनुमिति होने पर पर्वत विशेष में ह्नि संशय की, तथा पर्वतविशेष में वाह्न की अनुमिति होने पर पर्वत सामान्य में वह्नि संशय की, निवृत्ति न होगी। इस विषय का विस्तार ग्रन्थान्तर में उपलब्ध हो सकता है। यही बात सम्मतिग्रन्थ की १५४ वीं माथा में इस प्रकार कही गयो है -व्यास्तिकनय का वास्य केवल सामान्य है और पर्यायास्तिक का केवल विशेष है। दोनों परस्पर मिलकर विभज्यवाद को विशेषित करते हैं। इस प्रकार 'स्यावावीयों के मत में कहीं भी निश्चय की उपपत्ति नहीं हो सकती' यह पूर्वपक्षी का कथन अपहस्तित हो जाता है ॥ २४॥ इत्थं च 'संसायपि न संसारी' इत्याद्यभ्यर्थतो निरस्तमेव, तथापि विशिष्य तद् निरसितुकामस्तत्र प्रयोजनमाहमूलम्--एतेन सर्वमेवेति यदुक्तं तन्निराकृतम् । शिष्यव्युत्पत्तपे किश्चित्तथाप्यपरमुच्यते ॥ २५ ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ [ शास्त्रवार्ता० स्त. ७ श्लो० २५.२६ एतेन अनन्तरोदितेन स्याद्वादसाधनेन सर्वमेव यदुक्तं पूर्वपक्षिणा तद् निराकृतम् , अधिकस्याप्युक्ततुल्ययोगक्षमत्वात् । तथापि शिष्यव्यत्पत्तये प्रपञ्चज्ञशिष्यमतिविस्फारणाय किचिवपरम्=अवशिष्टविषयम् उच्यते ॥ २५ ॥ तथाहि एकान्तबादी द्वार। उद्भावित सभी दोषों का निराकरण | उस रीति से अनेकान्तवाद का प्रतिपावन हो जाने पर उस बाद में एकान्तवावी द्वारा उद्भावित संसारस्थ भी अनेकान्तवाद के अनुसार असंसारी हो जायगा ऐसे सभी दोषों का यद्यपि अर्थतः निराकरण हो जाता है तो भी विशेषरूप से उन दोषों का निराकरण करने के तात्पर्य से उसका प्रयोजन बताने के लिए २५ बों कारिका की रचना की गयी है, जिसका अर्थ यह है कि स्याउवादअनेकान्तवाद का जो प्रतिपावन अभी तत्काल ही किया गया है उससे पूर्वपक्षी एकान्तवादी द्वारा कहे गये सम्पूर्ण दोष निवृत्त हो जाते हैं और जो दोष पूर्व पक्षो द्वारा प्रदर्दाशत नहीं किए गये हैं किन्तु उनका प्रदर्शन भी सम्भव है, उस ओधों धमारी इसका भी योगक्षेम होने से उक्त दोषों की निराकरण को रीति से ही उनका भी निराकरण हो जाता है। अतः इस सम्बन्ध में कुछ बात भी आवश्यक न होने पर भी विशेष जिज्ञासु शिष्यों की बुधि की वैशद्य और विस्तार के लिये कुछ अन्य बात जो अभी तक नहीं कही गयी है प्रस्तुत सन्दर्भ में कही जायगी ।। २५ ।। मूलम्-संसारी चेत्स एवेति कथं मुक्तस्य संभवः ।। __ मुसोऽपि चेत्स एवेति व्यपदेशोऽनिबन्धनः ॥ २६ ॥ संसारी चेत् स एव संसायेंव, एत्रकार एकान्ते, इति हेतो संसारिणः सर्वथा संसारि. त्वात् , कथं मुक्तस्य संभवः-संसारिण्ययं मुक्त इत्यादिव्यपदेशः? । क्षणभेदस्त्वत्र न परिहारः, सर्वथाऽसारूप्यात् । स्यान्मतमन्येपाम्-'स एव संसारी स एव च मुक्तः, न तु न संसारी न मुक्तश्च, संसारित्व-मुक्तत्वयोः संसारिमुक्तभेदविरोधित्वात् , प्रतियोगितावच्छेदकेन सहान्योन्याभावस्य विरोधे कालभेदाऽनिवेशादिति ।' असदेतात, 'इदानीमयं संसारी न मुक्तः इदानी स मुक्तो न संसारी' इत्यादिव्यवहारात् संसारि-मुक्तयोरसंसार्य-ऽमुक्तयोश्च कालभेदेन विभिन्नतया व्यवस्थितेः । 'विभेदे कथमेकत्रोभयथा व्यवहार' इति चेत् ? सोऽयमेकान्तवादिन एव शिरसि प्रहारः। [ संसारी और असंसारी में अनेकान्त की उपपत्ति ] कारिका २६ में पूर्वकारिका द्वारा किये गये संकेत को स्पष्टरूप से प्रतिपादित किया गया है जो इस प्रकार है । एकान्तवाद के अनुसार संसारी जीव यदि केवल संसारी ही होगा, असंसारी किसी भी दृष्टि से न होगा तो वह मुक्त कैसे हो सकेगा, कभी भी उसे मुक्त केसे व्यवहृत किया जा सकेगा? क्षणभेद से उसकी मिन्नता स्वीकार करके भी उक्त प्रश्न का परिहार नहीं किया जा सकता, क्योंकि संसारक्षण में स्थित व्यक्ति और मुक्तक्षण में स्थित व्यक्ति में पूर्णरूप से सारूप्य का अभाव होने से इस प्रकार का व्यवहार न हो सकेगा कि जो पहले संसारी था वह अब मुक्त हो गया। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] यदि यह कहा जाय कि इस प्रकार का व्यवहार मान्य नहीं है, मान्य केवल यह व्यवहार है कि संसारक्षण में स्थित व्यक्ति केवल संसारी होता है और मुक्तक्षण में स्थित व्यक्ति केवल मुक्त होता है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यह दोनों व्यवहार अन्योन्य सापेक्ष हैं. अतः दोनों व्यवहारों की उपपत्ति किसी एक या सदृश में हो करना उचित है। १८७ [ दो रूप के समावेश में विरोध की शंका ] अन्य विद्वानों का यह मत हो सकता है कि- संसारी और मुक्त एक हो व्यक्ति होता है, समय मेद से एक व्यक्ति में संसारित्व और मुक्तत्व का समावेश सर्वथा युक्तिसंगत है । संसारी और मुक्त के लिए यह कहना कथमपि सम्भव नहीं है कि यह संसारी भी होता है और संसारी नहीं मो होता है, यह मुक्त भी होता है और मुक्त नहीं भी होता है, क्योंकि संसारित्व संसारी मेद का और मुक्तत्व मुक्तभेव का विरोधी है, यह भेद इस सामान्य नियम पर आधारित हैं कि प्रतियोगितावच्छेदक के साथ अन्योन्याभाव का विरोध है । यह विरोध कालभेद की अपेक्षा नहीं करता अर्थात् उन दोनों का विरोध इस रूप में नहीं है कि जिसमें जिस अन्योन्याभाव का प्रतियोगिता श्रवच्छेदक धर्म जिस काल में रहता है उस काल में वह अन्योन्याभाव उसमें नहीं रहता है, किन्तु यह विरोध इस रूप में है कि अन्योन्याभाव और प्रतियोगिता अवच्छेदक दोनों का अस्तित्व एक व्यक्ति में नहीं होता" [ सर्वसम्मत व्यवहार के बल से शंका का निरसन ] किन्तु यह मत समीचीन नहीं है क्योंकि 'इस समय अमुक व्यक्ति संसारी है मुक्त नहीं है' और 'अमुक समय अमुक व्यक्ति मुक्त है संसारी नहीं हैं' इस प्रकार का व्यवहार सर्वसम्मत है और इस व्यवहार के अनुसार समय भेद से संसारी और मुक्त एवं असंसारी और अमुक्त दोनों परस्पर भिन होकर सिद्ध है। यदि यह अनुपपत्ति उद्भावित की जाय कि - 'संसारी और प्रसंसारी तथा मुक्त और अमुक्त परस्पर भिन्न है तो एक व्यक्ति में संसारी और असंसारी तथा मुक्त एवं अमुक्त का व्यवहार सम्भव नहीं हो सकता' तो यह अनुपपत्ति एकान्तवादी के ही सिर पर खोट पहुंचाने वाली है, क्योंकि वह संसारी को सर्वथा संसारी हो और मुक्त को सर्वथा अमुक्त ही मानने के लिए विवश है, क्योंकि यह एकान्तवादी है। अथ 'नित्यज्ञानादिमद्भिन्नः संसारी, तद्भेदश्व न तत्रेति संसार्येव स' इति चेत् १ कथं तर्हि मुक्ते 'असंसारी' इति व्यवहारः १ 'गौणः स' इति चेत् न, स्वेच्छामात्रानुरोधेऽपि लोकशास्त्र व्यवहाराननुरोधात् । अत एवाह मुक्तोऽपि चेत् स एव = वक्त एव न संसारी, इति हेतोः प्रागप्यस्य संसारिस्वभावत्वाभावात् अनिबन्धनः- निर्निमित्तः व्यपदेशः 'मुक्तः सः' इत्युल्लेखवान् ॥ २६ ॥ [ मुक्त दशा में असंसारी का व्यवहार गौण नहीं है ] यदि यह कहा आय कि- 'नित्यज्ञान आदि के माश्रय से भिन्न व्यक्ति संसारी है और संसारी का मेव उस व्यक्ति में नहीं है इसलिए वह व्यक्ति केवल संसारी ही हैं तो ऐसा मानने पर मुक्त में असंसारी होने का व्यवहार नहीं हो सकेगा । यदि इस व्यवहार को गौण बताकर इसकी उपपत्ति Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ [ शास्त्रवा०ि स्त०७ श्लो० २७ की जाय तो ठीक नहीं हो सकता । ऐसा मानने पर अपनी इच्छा का अनुरोध तो हो जाता है किन्तु लोक व्यवहार, शारा यह शोध नहीं माना यतः उक्त व्यवहार लोकशास्त्र उभय दृष्टि से मुख्य व्यवहार है। मुक्त में असंसारी व्यवहार लोक-शास्त्र दोनों दृष्टि से मुख्य होने के कारण कारिका के उत्तरार्ध में यह कहा गया है यदि मुक्त सदा मुक्त हो होता है संसारी कभी नहीं होता तो मुक्त में संसारित्वस्वभाव मुक्त होने के पूर्व भी न होने से 'स मुक्तः' वह मुक्त हुना, इस ध्यवहार का कोई निमित्त न हो सकेगा। फलत: जैसे संसारनिवृत्त दशा में 'स मुक्तः एव' व्यवहार होता है उसो प्रकार संसार दशा में भी उसमें मुक्त पद का व्यवहार होने लगेगा क्योंकि मुक्त सदा मुक्त ही होता है इस पक्ष में संसार के अभाव की दशा में मुक्त कहा जाने वाला व्यक्ति संसार दशा में भी मुक्त ही है ।।२६।। एतदेव स्पष्टयतिमूलम् -संसाराद् विप्रमुत्तो यन्मुक्त इत्यभिधीयते । नैतत्तस्यैव तद्भावमन्तरेणोपपद्यते ॥ २७ ।। यत्-यस्मान , संसाराद् विप्रमुक्तो मुक्त इत्यभिधीयते, मुचेरवधिसापेक्षयात् । एतन् इत्थंभूतं मुक्तत्वम् तस्येव-संसारिण एव तनावमन्तरेण-मुक्तभावाभ्युपगम चिना नोपपद्यते। 'इष्यत एव तस्यैव तद्भावः धर्मिण्येव धर्मोयगमात्, धर्मिणोऽपि कश्चित्परावृत्तिस्तु नेष्यत' इति चेत् ? न, संसारिस्वभावं परित्यज्य मुक्तस्वभावोपादानाद् धर्मिणोऽपि कश्चित्परावृत्तेः । 'विशिष्टधर्मिभेदेऽपि शुद्धधभ्यभेदाद न दोप' चेत् ? अयमेव द्रव्यतोऽभेदः, पर्यायतश्च भेद इत्यनेकान्तो यदि 'स्यात'-पदानुविद्धः, तादृशाभेदस्यापि तादृशभेदनान्तरीयकत्रात् । मुक्तेऽपि तदा संसारिभेदेऽपि प्राक् तदभेदात् । 'तत्कालापेक्षया तत्र तद्भेद एवेति चेत् १ नैतावतवापेक्षाविश्रामः, तत्कालेऽपि तदन्यकालाऽभेदादिकृतापेक्षाऽऽनन्त्यात् । 'तावदपेक्षानियतवस्तुप्रतीतिर्न कथमपि स्यादिति चेत् ? सत्यम् , स्यात्पदमहिम्ना प्रधानोपसर्जनभावेन तथाप्रतीत्युपपत्तेः, प्रत्यक्षेऽपि सम्यग्दर्शनगुण महिम्ना तथाभावात: मिथ्यादृशा तु सापेक्षयोधमयोरेकत्र निमित्तभेदं बिना भानस्य संशयवद् दोपजन्यत्यनियमात । अत एव 'सदसतोरविशेषणात सर्व ज्ञानं मिथ्याशा विषयस्तम, सम्यग्दृशां च संशयादिकमपि तादृशदोषाजन्यत्वादविपर्यस्तम्' इति परिभाषन्ते । इत्यन्यत्र विस्तरः ॥ २७ ।। [संसारी धर्मी का ही मुक्तधर्मी में परावर्तन ] कारिका २७ में पूर्व कारिका के वक्तव्य को ही स्पष्ट किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-संसार से विमुक्त को हो मुक्त कहा गया है, क्योंकि मुच-धातु का अर्थ मुक्ति भवधि-सापेक्ष होती ही है, जब कोई किसी से बन्धा हुमा होता है तभी बन्धन से उसकी मुक्ति होती है। संसार से विमुक्त व्यक्ति को मुक्त कहना संसारी को ही कालान्तर में मुक्त माने विना Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० क. टोका एवं हिन्दी विवेचन ] १८९ संगत नहीं हो सकता, अतः संसारी को मुक्त कहने से यह स्पष्ट है कि संसारो असंसारी भी होता है । यदि यह कहा जाय कि-"जो व्यक्ति संसारी है वहो संसार से मुक्त होता है यह बात एकान्तवादी को मान्य है, क्योंकि संसार और संसारनिवृत्ति इन दोनों धर्मों का सम्बन्ध एक ही धर्मों में होता है, किन्तु एतावता यह नहीं कहा जा सकता कि धर्म का परिवर्तन होने पर कश्चित् धर्मो मो परिवर्तित हो जाता है। धर्म का परिवर्तन होने पर भी धर्मों का परिवर्तन मान्य नहीं है"-तो यह कथन ठीक नहीं है. क्योंकि संसारित्व और मुक्तस्व यह दोनों धर्मों के स्वभाव हैं अतः एक स्वभाव को त्याग कर अन्य स्वभाव का ग्रहण करने पर धर्मों में भी कश्चित् भिन्नता आ ही जाती है क्योंकि मुक्तत्व-स्वभाव से सम्पन्न धर्मी को संसारित्व स्वभाव से मुक्त नहीं कहा जाता। [ शुद्ध धर्मी के भी कथंचिद् भेद की उपपत्ति ] यदि यह कहा जाय कि-'संसारित्व विशिष्ट धर्मी पौर मुक्तत्व विशिष्ट धर्मो इन दोनों में भेद होने पर भी शुद्ध धमी की प्रभिन्नता बनी ही रहती है, अत: धर्मों विभिन्न धर्मों का प्रास्पद होने पर भी स्वयं अभिन्न हो रहता है-इस एकान्तवादी मान्यता में कोई दोष नहीं है'-तो यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि वस्तु का द्रव्यदृष्टि से अभिन्न होना और पर्यायष्टि से भिन्न होना ही अनेकान्तवाव है, क्योंकि 'स्यात्' पद से.-जिसका अर्थ कथंचित है,-अनुविद्ध एकान्त हो अनेकान्त हो जाता है । यह जो कहा गया है कि,-विशिष्ट धर्मों में भेद होने पर भी शुद्ध धर्मों को अभिन्नता बनी रहती है, यह समीचीन नहीं है क्योंकि विशिष्ट धर्मी का मेव शुद्ध धमों के कश्चित् भेद का व्याप्य है। प्रतः व्यापक के अभाव में ध्याय का अभाव होता है इस नियम के अनुसार शुद्ध धर्मों में कश्चित् भेद न मानने पर विशिष्ट धर्मी में भेद नहीं हो सकता। 'मुक्त धर्मी में भी मुक्तकाल में संसारी का भेद होने पर भी मुक्ति के पूर्व संसारी का अभेद होता है, अतः संसारी और मुक्त में कश्चित भेव और अभेद होने से 'जो जिससे भिन्न है वह उससे सवा भिन्न ही रहता है और जो जिससे अभिन्न है वह उससे अभिन्न हो होता है। इस प्रकार का एकान्तवाद स्वीकार्य नहीं हो सकता। [ मुक्तिकाल में भी संसारी के अभेद का उपपादन ] यदि यह कहा जाय कि-"मुक्तिकाल को अपेक्षा मुक्त धर्मी में संसारी का मेव ही है अमेव नहीं है, इस प्रकार के एकान्तवाद में कोई बाधा नहीं है"-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि इतने मात्र से ही अपेक्षा की विश्रान्ति नहीं हो जाती, क्योंकि मुक्तिकाल में भी मुक्तिकाल से भिन्नकाल का कश्चित् अमेव है, इन दोनों कालों में भी सर्वथा भेव ही नहीं है, अतः जिस अपेक्षा से मुक्तिकाल में मुक्तिकाल से अन्यकाल का प्रभेद है उस अपेक्षा से मुक्त में संसारी का अभेव होने से मुक्तकाल की अपेक्षा भी मुक्त में संसारी का केवल भेद हो नहीं माना जा सकता । और इस प्रकार की अपेक्षानों का कोई अन्त नहीं है । यदि यह कहा जाय कि-'उक्त प्रकार की अनन्त अपेक्षाओं से नियतवस्तु की प्रसीति कथमपि नहीं सम्भव हो सकती'-तो यह कथन इस रूप में अवश्य सत्य है कि मुख्य रूप से सम्पूर्ण अपेक्षाओं के साथ वस्तु की प्रतीति नहीं हो सकतो, किन्तु जब किसी वस्तु के किसी सापेक्ष स्वरूप को स्यात् पब से अभिहित किया जाता है तब विवक्षित रूप की मुख्यरूप से और अन्य सापेक्ष सभी रूपों की गौण रूप से प्रतीति हो सकती है, क्योंकि स्यात् पद का यह वैशिष्ट्य है कि वह अपने सन्निहित पद के अर्थ में अन्य सभी अर्थों को समाविष्ट कर देता है । वस्तु की सभी सापेक्ष रूपों द्वारा प्रतीति शब्द द्वारा जैसे स्याव पद की महिमा से उपपन्न होती है, उसी प्रकार Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० [शास्त्रवार्ता० स्त०७ श्लो० २८-२९ प्रत्यक्षस्थल में सम्यग् द्रष्टा के सम्यग् दर्शन गुण को महिमा से वसी प्रतीति होती है, किन्तु मिथ्यादर्जी को सापेक्ष दो घनों का एक धर्मी में निमित्त भेद के विना जो बोध होता है वह संशय के समान दोषवश हो होता है । इसीलिए विद्वानों का यह कथन है कि सत् और असत् दोनों प्रकार के पर्यायों में क्या अन्तर है यह ज्ञान न होने के कारण मिथ्यावर्ची का सभी ज्ञान विपर्यासरूप होता है जब कि सम्यग्दृष्टि का संशय आदि ज्ञान भो तथाविध दोषजन्य न होने से यथार्थ होता है । इस विषय का विस्तार अन्यत्र तत्त्वार्थहाशास्त्र और विशेषाधयकभाष्यादि में प्राप्य है ।। २७ ॥ फलितमाहमूलम्-तस्यैव च तथाभावे तन्निवृत्तीसरात्मकम् । द्रव्य-पर्यायवद्वस्तु बलादेच प्रसिध्यति ।। २८ ।। तस्यैव घ-संसारिणः, तथाभावे-मुक्तभावेऽभ्युपगम्यमाने, तद्-अधिकृतं वस्तु, निवृत्तीनरात्मक निवृत्त्यानिवृत्तिस्वभावम् बलादेव-स्याद्वादसाम्राज्यादेव द्रव्य-पर्यायवत् प्रसिध्यति, तस्येव तथा भवनादिति ॥ २८ ॥ कारिका २८ में पूर्वकारिकाओं में उक्त बातों के निष्कर्ष का कथन है जो इस प्रकार है, संसारी जीव को ही मुक्त मानने में स्याद्वाद के प्रभाव से ही यह सिद्ध हो जाता है कि संसारी-मुक्त अधिकृत वस्तु कश्चित निवृत्ति और अनिवृत्ति उभयस्वरूप है। वस्तु द्रव्य पर्याय उभयात्मक होती है प्रतः प्रत्येक वस्तु की द्रव्य रूप से अनिवृत्ति और पर्यायरूप से निवृत्ति होती है । अतः संसारी जीव जब मुक्त होता है तब उसको संसारात्मकता को निवृत्ति और आत्मद्रध्यात्मकता की अनिवृत्ति होती है ।। २८ ॥ तदिदं लोकानुभवतोऽपि साधयन्नाहमूलम्-लज्जते बाल्यचरितैर्याल एव न चापि यत्।। युवा न लजते चान्यस्तैरायत्यैव चेष्टते ॥ २९ ॥ लज्जते बाल्यचरितः चौयाँ-संस्पृश्यस्पर्श-क्रीडादिभिः, अतो चाल एवं युवा, 'अहमेव पूर्व चौर्याद्यनुप्ठितवान्' इति लज्जानिबन्धनाऽभेदप्रत्यभिज्ञानाद् वाल-यूनोरभेदसिद्धः। न चाप्येकान्तो बाल एव यत्-यस्माद् युवा, एवं हि 'अयमिदानी युवा, न पाल' इति भेदप्रतिभासो नानुरुद्धः स्यात् । न च बालस्वभावाऽपरित्यागे युवस्वभावपरिग्रहोऽपि स्यात् , उत्तरस्वभावे पूर्वस्वभावपरित्यागस्य हेतुत्वात् । न च तत्काले यूनि बालसामान्यभेद एव, 'इदानीं युवा न बालः' इति प्रतीतेरिति वाच्यम् , यतो न चान्यः भिनसंतानान्तरघुवा, ता-बाल्यचरितः लज्जते, न अतस्तत्र तत्संतानीयबालभेद एव । तदेवमतीतवनमानयोभदाॐ द्रष्टव्य-सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तबद-इति तत्त्वार्थमहाशास्त्रं १-३३ । तथा, सदसदविसेसणामो० इति गाथा विशेषावश्यके उपदेशपदादौ च । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मा. टोका एवं हिन्दी विवेचन ] भेदो भावितः । एवमनागत-वर्तमानयोरपि, यत आयत्यैव वार्धक सुखहेतुधनाधर्थमेव चेष्टते । अतो युव-वृद्धयोरभेदः । न ह्यन्यो अन्यार्थं चेष्टत इति ॥ २६ ॥ [लोकानुभव से कथंचित् भेदाभेद का उपपादन] कारिका २६ में पूर्व कारिकोक्त निष्कर्ष का लोकानुभव द्वारा समर्थन किया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है-बाल्यकाल में जो चोरी. अस्पृश्य विष्टादि के स्पर्श, तथा क्रीडादि जिन कार्यों से लज्जित नहीं होता, वह ही युवान होने पर अपनी इस अवस्था में उन्हीं कार्यों से लज्जित होता है, वह अनुभव करता है कि पूर्वकाल में मने हो इन कार्यों को किया है जिसे प्रब करने में लज्जा होती है। इससे स्पष्ट है कि जो व्यक्ति पूर्वकाल में बालक था यहो कालान्तर में युवान होता है, क्योंकि यदि ऐसा न हो तो युवान को बाल्यकाल के कार्यों से, बालक पर्याय के साथ लज्जा के मुलभूत अभेव की प्रत्यभिज्ञा न होती । अतः प्रत्यभिज्ञा से बाल और युवान का अभेद निविषाद है । बालक एकान्तरूप से बालक ही नहीं होता क्योंकि युवान होने पर इस प्रकार को भेदबुद्धि होती है कि सम्प्रति यह युवान है, बालक नहीं है। [बाल और युवान में भी एकान्तभेद नहीं है ] इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि बालस्वभाव का परित्याग हुए विना युवान स्वभाव को प्राप्ति नहीं होती, क्योंकि उत्तर स्वभाव को प्राप्ति में पूर्व स्वभाव का परित्याग कारण है। यदि बाल और युवान में एकान्ततः भव हो तो पूर्व स्वभाव परित्याग पूर्वक उत्तरकालिक स्वभाव की प्राप्ति को उपपत्ति नहीं हो सकती। यदि यह कहा जाय कि 'यौवनकाल में युवावस्था में बालक से पूर्ण भिन्नता होती है क्योंकि उस समय यह प्रतीति होती है कि वर्तमान में यह युधा है बालक नहीं हैं तो यह कहना उचित नहीं है क्योंकि बालक सन्तान से भिन्न सन्तान के युवान को बाल्यकाल के कार्यों से लज्जा नहीं होती। प्रतः जिस युवा को बाल्यकाल के कार्यों से लज्जा होती है उसे बालक के सन्तान का ही व्यक्ति मानना होगा। अतः उसमें उस सन्सान के बालक का भेद मात्र ही सिद्ध नहीं होता । फलतः उक्त रीति से अतीत और वतमान में कथश्चित भेद-अभेद दोनों की सिद्धि होती है। इसी प्रकार अनागत और वर्तमान में भेव-अभेद दोनों का अभ्युपगम आवश्यक है, क्योंकि युवा पुरुष हो वृद्धावस्था में सुख देने वाले धन आदि का संग्रह करने की चेष्टा करता है । इस चेष्टा से यह स्पष्ट है कि वर्तमान युवा और भनागत वृद्ध में, अभेद है। यदि दोनों में भेद मात्र ही हो तो पुवान की उक्त चेष्टा की उपपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि कोई एक व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के लिए प्रयत्नशील नहीं होता ॥ २६॥ न चाप्यभेद एवेत्याहमूलम्-युवैव न च वृद्धोऽपि नान्यार्थं घेष्टनं च तत् । अन्वयादिमयं वस्तु तदभावोऽन्यथा भवेत् ॥ ३० ॥ न च युबैच चूद्धोऽपि सर्वथा बृद्धपर्यायापन्न एव, 'इदानीमयं युवा न वृद्धः' इति प्रतीतेः । न च तत्काले तत्र यूनि तत्संतानीयवृद्धभेद एव, यतोऽन्याथै संतानान्तरवृद्धवद न च चेष्टनं कायव्यापाररूपम् । तत्-तस्मात् , वस्तु अन्वयादिमयं, आदिना व्यतिरेकग्रहाद Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ [ शास्त्रयात्० स्त०७ श्लो. २८ न्वय-व्यतिरेकशवलम् , अन्यथा तदभावः अधिकृतवस्त्वभावो भवेत् , सर्वथाऽसत्सद्भाचविरोधात् । तदिदमुक्तं सम्मतिकृता [ प्रथमकाण्डे ] * पटिपुग्नजाचणगुणो जह लजइ बालभावचरिएण | कुणइ य गुणपणिहाणं अणागयसुहोवहाणथं ॥ ४३ ॥ ण य होइ जोधणत्यो बालो अन्नो वि लाइ न तेण । णवि अ अणागयतम्गुणपसाहणं जुअइ धिभत्ते ॥ ४४ ॥ इति । [बाल और युवान अवस्था में एकान्त अभेद भी नहीं ] कारिका ३० में युवा और वृद्ध में एकान्त अभेद का खण्डन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-'जो व्यक्ति युवा होता है वह युधा होने के साथ ही वृद्ध भी होता है, वह पौधन काल में भी वृद्ध पर्याय से युक्त होता है । इस प्रकार युवा और वृद्ध में अ यन्त अभेद है'- यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि व्यक्ति के यौवन काल में यह व्यक्ति वर्तमान में युवा है वृद्ध नहीं है' यह प्रतीति होती है। यदि व्यक्ति युवा काल में भी वृद्ध पर्याय का आश्रय हो तो यह प्रतीति नहीं हो सकती, अतः स्पष्ट है कि युवा और वृद्ध में एकान्त अभेद नहीं है । 'युवा काल में यु । व्यक्ति में यह जिस सन्तान का युवान है उस सन्तान के वृद्ध का एकान्त भेद हो है' यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि युवा व्यक्ति अपने सन्तानवौ वृद्ध के लिए आवश्यक साधनों से संग्रह के लिए चेष्टाशील होता है। यदि युवा अपने सन्तानवर्ती वृद्ध से पूर्णतया भिन्न हो हो तो तवर्थ उसकी चेष्टा नहीं हो सकती क्योंकि अन्य के लिए व्यक्ति चेष्टाशील नहीं होता। इस तरह युवा और वृद्ध में एकान्त अभेद और एकान्त भेद दोनों सम्भव नहीं है। __ वस्तु अन्वय और व्यतिरेक अर्थात् नेदाभेद दोनों से मिश्रित होती है। यदि वस्तु को ऐसा न माना जायगा तो उसका प्रभाव ही हो जायेगा, क्योंकि, एकान्त असद्भाव वाली वस्तु में सदभाय का होना विरोध है। इसी बात को सम्मतिकार ने ४३, ४४वौं गाथा में इस प्रकार कहा है"यौवन की प्राप्ति होने पर व्यक्ति बाल्यकालोन कार्यों से लज्जित होता है और वृद्धावस्था में सुख की उपलब्धि के लिए तवनुकल साधनों का संग्रह करता है।" "युवावस्था का व्यक्ति बाल्यावस्था के व्यक्ति से एकान्त भिन्न नहीं होता क्योंकि यदि वह भिन्न होता तो बाल्यावस्था के कार्यों से लज्जित न होता, क्योंकि अन्य व्यक्ति को अन्य के कार्यों से लज्जा नहीं होती। इसी प्रकार युवा व्यक्ति बद्धावस्था के व्यक्ति से भी एकान्ततः भिन्न नहीं होता, यदि वह भिन्न होता तो उसकी आने वाली अवस्था के लिए सुख-साधनों का संग्रह न करता क्योंकि अन्य व्यक्ति के लिए अन्य इस प्रकार का संग्रह नहीं करता।" यत्त-'वाल्याद्याः शरीरस्यैवावस्थाः, आत्मा तु बाल्यावस्थाभेदाद् न निवर्वते भिद्यते वा, नित्यकरूपत्वात्तस्य, शरीरं तु परिणामभेदात् भिद्यत एव' इति नैयायिकादीनां मतम्, तदसत्, 'अहं बाला' इत्यादि प्रतीत्या बालवाद्यवस्थानामहत्त्वसामानाधिकरण्यस्य * प्रतिपूर्णयौवनगुणो यथा लज्जते बालभावचरितेन । करोति च गुणप्रणिधानमनागतसुखोपधानार्थम् ।। न च भवति यौवनस्थो बालोऽऽन्योपि लज्जते न तेन 1 नापि चानागततद्गुणप्रसाधनं युज्यते विभक्ते ॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] 'प्राग् बाल आसम् इदानी युवास्मि' इत्यादिघिया चाहतास्पदस्य बाल्य-यौवनादिभेदेनोत्पादनाशस्थित्यात्मकस्य सिद्धेः । न चेदेवम् , बाल्यादिवद् मनुष्यत्वादेरपि 'शरीरमात्रनिष्ठत्वे मनुष्यत्यादिप्रयोज्यो गुणविशेष आत्मनि न घटेत । 'मनुष्यत्वादिकं संयोगादियदुभयाश्रितमिति चेत् १ वाल्यादिकमपि तथैव । न चैवं रोऽ" मालिकिनासायनोर भेदः सिध्यश्चार्वाकमतं न प्रतिक्षिपेदिति वाच्यम् । स्यात्कारस्यैव चार्वाक-नैयायिकयोरुभयोरपि वारणे समर्थत्वात् , मृगपतेरिव मृगवारणयोः । 'शरीरस्यापि बाल्यादिभेदेन भेद एव' इति वदताम भेदप्रत्यभिज्ञाक्षतिः । न च विभिन्न परिणामवरवलक्षणवैधयंत्रानकालोत्पत्तिकायास्तस्यास्तजातीयामेदविषपकत्वमेवेति वाच्यम्; घटे श्यामत्व-रक्तत्वयोरिव शरीरे विभिन्नपरिमाणयोर्विधर्मत्वेनाप्रतिसंधानात् , विशिष्टवैधर्म्यस्य शुद्धव्यक्त्यभेदाऽविशेधित्वं च समानम् । [बाल्यादि अवस्था शरीर की नहीं, आत्मा की है ] इस सन्दर्भ में नैयायिक प्रावि का यह कहना है कि-'बाल्य-यौवन प्रादि भाव शरीर की ही अवस्थाएं हैं, प्रात्मा तो बाल्य आदि अवस्था के भेद से न निवृत्त ही होता है और न भिन्न हो होता है, वह तो नित्य एकरूप ही रहता है, किन्तु शरीर अवस्था भेद से परिवर्तित होता रहता है"-किन्तु यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि 'मैं बालक हूं' इस प्रकार को प्रतीति में बाल्य-प्रहंत्व का सामानाधिकरण्य अर्थात् अहं अर्थ आत्मा बाल्य का आस्पद होना सिद्ध है । एवं 'मैं पहले बालक था अब युवा हूं इस प्रतीति से यह भी सिद्ध है कि अहंता का प्रास्पद-आत्मा बाल्य-यौवन आदि के भेद से एक साथ ही उत्पत्ति विनाश और स्थिति रूप है । यदि यह न माना जायगा तो बाल्य प्रादि के समान मनुष्यत्व आदि भी शरीर का हो धर्म होगा और उस स्थिति में मनुष्यत्व प्रादि मूलक विशेषगुण भी आत्मा का धर्म न हो सकेगा। यदि मनुष्यत्व आदि को संयोग आदि के समान शरीर-मात्मा उभय में पाश्रित माना जायगा तो बाल्य-यौवन प्रादि भी मनुष्यस्वादि के समान ही उभयाश्रित होगा। [चार्वाकवाद की आपत्ति का निवारण ] यदि यह कहा जाय कि-'उक्त प्रतीतियों के प्राधार पर बाल्यादि को यदि आत्मा का धर्म माना जायगा, तो 'मै गौर हूं' इस प्रतीति के प्राधार पर शारीर और प्रात्मा का अभेद सिद्ध होने से चार्वाक के शरीरात्मवाद का खण्डन न हो सकेगा? - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि स्यावाद सिद्धान्त में 'स्यात्' के सहयोग से चार्वाक और नैयायिक दोनों का उसी प्रकार वारण हो जाता है जैसे मगपति मगशम्द के साय पतिशब्द के जोड देने से सामान्य मग और हस्तो दोनों का वारण हो जाता है। बाल्य आदि के भेद से प्रात्मा के भेद की बात तो अलग रहे, शरीर का भो बाल्य प्रादि के भेद से एकान्त भेद नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर एक व्यक्ति के बाल-युवा प्रौर घृद्ध शरीर में जो अभेद को प्रत्यभिज्ञा होती है उसकी उपपत्ति न होगी। [चाल्यादि अभेद की प्रत्यभिज्ञा सजातीयाभेदग्राहक होने की शंका का उत्तर ] यदि यह कहा जाय कि-'बाल युवा और वृद्ध शरीर में विभिन्न परिणामरूप बंधH का ज्ञान होता है अतएव उस काल में होने वाली प्रभेद को प्रत्यभिज्ञा को व्यक्ति के प्रमेव को ग्राहक नहीं Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ [ शास्त्रवा० स्त०७ श्लो० ३० मानी जा सकती, किन्तु वह सजातीय के अमेद का ही ग्राहक हो सकती है। अतः बाल-युवा आदि शरीरों में होने वाली अभेव को प्रत्यभिज्ञा से उनमें ऐक्य नहीं सिद्ध हो सकता है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि एक घट में कालभेव से होने वाले श्याम और रक्त रूप से श्याम और रक्त घर का वैधर्म्य नहीं होता प्रतः श्याम और रक्त घट का अनेद बाधित नहीं होता, उसी प्रकार बाल युवा आदि शरीरों गा भितरिया भी बाल-गुदागरीके बंधम्य रूप में गृहोत नहीं होता। अतः उनके आधार पर बाल युवा शरीर का भी अभेद बाधित नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि-'घट और शरीर में समष्टि रखना उचित नहीं है, क्योंकि श्याम और रक्त घट में जो वधर्म्य है वह शुद्ध घट व्यक्ति के अमेव का विरोधी नहीं है किन्तु शरीर के सम्बन्ध में बसी हो बात नहीं है-यह कहना समीचीन नहीं है क्योंकि घट के समान ही शरीर के विषय में भी यह कहा जा सकता है कि-बाल्यावस्था और युवावस्था के शरीर में जो भिन्न परिमाणरूप वधर्म्य है वह शुद्ध शरीर व्यक्ति के प्रमेव का विरोधी नहीं है। येऽपि उक्तप्रत्यभिज्ञाभीता बाल्यादिभेदेऽपि शरीरमेकमेव' इत्येकान्तेऽभिनिविशन्ते, तदुक्तं पदार्थरत्नमालाकृता-परे तु तत्राश्रय एक एत्र, प्रत्यभिज्ञानात्' इति मन्यमानाः परिमाणान्तरोत्पादमाह; इति; तेऽपि मन्दाः, अबाधितभेदव्यवहारादिविलोपान् । अथ 'युवा न बालः' इत्यत्र यूनि बालबैधर्म्यमेव भासते । तत्र नो वृत्तिमान् मिन्नं चार्थः, वृत्तिमति बालत्वविशिष्ट विशेषणावच्छेदककालावच्छिन्नाधेयतया वृत्तिमान , भिन्ते तत्रैव च कालादिग्प्यन्वेतिः तथा च 'इदानीं न बालः' इत्यस्य 'बालत्वविशिष्ट्रवृत्तिमद्भिन्नैतत्कालीनधर्मवान्' इत्यर्थः । युक्तं चैतत् , 'न पृथग्' इति प्रतीतेस्तदवधिकपृथक्त्वाऽभाववद्रव्यत्वेन तदन्योन्याभावाभावसिद्धः । तदाहायाधार्या: 'श्यामाद् रक्तो विधर्मां न तु पृथग' इति चेत् ? न, 'प्राग न बाला' इत्यस्याप्यापत्तेः, बाल्यकालावच्छेदन बालवृत्निभिन्नस्य सत्रादेः प्राक्कालवृत्त' नि सच्चात् । ईदृशश्यामवैधय॑स्य श्यामनिष्टत्वात 'श्यामो न श्यामः' इत्यादेरपि प्रसङ्गात् । प्रत्यक्षसिद्धभेदप्रतीतेरपहवे प्रत्यभिज्ञायामध्यनाश्वासात् , अभेदसिद्धावपि भेदाऽविरोधात , भेदाभेद एक प्रत्यभिज्ञाया उपपादयिष्यमाणत्याच्चेति दिग् । नदेवमन्धयादिमयमेव बस्न्यिनि सिद्धम् । [ शरीगदि में एकान्त अभेदवादी पदार्थरत्नमालाकार कथित मत का निरसन ] कुछ लोग ऐसे हैं जो माल युवा आदि शरीरों में पानेद को प्रत्यभिज्ञा से त्रस्त होकर 'बाल्य यौवन आदि अवस्थाओं का भेव होने पर भी शरीर अभिन्न ही होता है इस एकान्त पक्ष में अभिनिविष्ट होते हैं । जसे की पदार्थरत्नमालाकार ने कहा है कि अन्य लोगों को यह मान्यता है कि बाल्य प्रादि विभिन्न अवस्थानों का आश्रय मूत शरीर एक ही होता है। क्योंकि उन अवस्थाओं के शरीर में अभेद की प्रत्यभिज्ञा होती है, अतः शरीर नहीं बदलता किन्तु उसमें पूर्व परिणाम को निवृत्ति होकर प्रन्य परिणाम की उत्पत्ति होती है। ऐसे सभी लोग "व्याख्याकार श्री यशोविजयजी" की दृष्टि में मन्द प्रज्ञ हैं क्योंकि विभिन्न अवस्थाभेद से शरीर में जो भेद का अबाधित व्यवहार होता है उसका लोप हो जाता है। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या०० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] १६५ [ 'युवा न बालः' प्रतीति में भेद के बदले वैधयं के भान की शंका ] यदि यह कहा जाय कि 'युवा न बालः' इस प्रतीति में युवा में बालक के वैधयं का हो भान होता है भेद का नहीं, क्योंकि उक्त प्रतोति के 'युवा म बालः' इस अभिलाप वाक्य में नज पद के दो अर्थ हैं वृत्तिमान और मिन्न । वृतिमत् में बाल शकदार्थ का बालत्यरूप विशेषण के अवच्छेदकीभूत काल से अवच्छिन्न आधेयता सम्बन्ध से अन्वय होता है । अथवा यह भी कहा जा सकता है कि वृत्तिमद के एक देश वृत्ति में बाल का शलत्यावश्छेवक कालावच्छिन्नत्व विशिष्ट निरूपितत्व सम्बन्ध से अन्वय होता है । और उक्त रोति से शल में अग्वित वृत्तिमत् का नज के द्वितीय अर्थ भिन्न के एक देश मेद में प्रतियोगिता सम्बन्ध से अन्वय होता है। इस प्रकार 'युवा न बाल:' का अर्थ होता है 'बालवावच्छेदक काल में बालवृत्ति धर्म से भिन्न धर्म का आश्रय युवा है।' इसी प्रकार 'इदानी अयं न बालः' का अर्थ होता है 'बालत्वावच्छेदक काल में बालवृत्ति धर्म से भिन्न एतत्कालवृत्ति धर्म का आश्रय अमुक व्यक्ति।' इस प्रकार पक्ष से युषा में पाया बोध होकर योवनकालीन धर्म में बाल्यकालीन धर्म के भेव का ही बोध होने से युवा में वाल्यवधर्म्य का हो भान होता है, न कि युवा में बालभेद का जान । उक्त प्रतीति से युवा में बालभेद का भान न होकर बालवैधयं का ही भान मानना पुक्तिसंगत है, क्योंकि-'युवा बालात् न पृथग्' इस प्रतीति में बालावधिक पृथक्त्व के अभाव का भान होने से बाल अन्योन्याभाव का प्रभाव सिद्ध होता है क्योंकि जिसमें जिसकी अपेक्षा पृथक्त्व नहीं होता उसमें उस वस्तु का अन्योन्याभाव नहीं होता। न्यायाचार्य ने भी 'श्याम घट से रक्तघट विलक्षण होता है, पृथक्-भिन्न नहीं होता' यह कहकर उक्त बात का ही समर्थन किया है। इस प्रकार युवा और बाल का भेव सिद्ध न होने से दोनों में एकान्त अमेव हो है [केवल बैंधयं का भान मानने पर आपत्ति-उत्तर ] किन्तु यह कथन ठीक नहीं है। क्योंकि युवा और बाल में वैधयं मात्र ही मानने पर युवा पहले भी बाल नहीं था इस प्रतीति की आपत्ति होगी, क्योंकि बाल्यकालवच्छेदेन बाल्यवृति धर्म से भिन्न प्राक्कालवृत्ति सत्त्व प्रादि बाल का धर्म्य युवा में विद्यमान है। उक्त प्रकार के वैधर्य का नत्र पद से बोध मानने पर श्याम घट में भी श्याम का उक्त प्रकार का बंधय सम्भव होने से 'श्यामोन श्यामः' इस प्रतीति की मी प्रापत्ति होगी, क्योंकि श्यामत्यकालावच्छेवेन श्याम वृत्ति से भिन्न मदरूपता श्याम में विद्यमान होते से श्याम में श्याम का उक्त प्रकार का धर्म्य सुलभ है। दूसरी बात यह है कि युवा में बाल का भेद प्रत्यक्ष सिद्ध है फिर भी यदि उक्त रीति से उसका अपलाप किया जायमा तो प्रत्यभिज्ञा से भी आस्था ऊठ जायगो, क्योंकि प्रत्यभिज्ञा के विषय में भी यह कहा जा सकता है कि यह प्रक्षेद को ग्रहण न कर साधर्म्य मात्र को ग्रहण करती है। किन्च, प्रत्यभिज्ञा द्वारा अभेद की सिद्धि होने पर भी प्रभेद के साथ भेद मानने में कोई विरोध न होने से यह बताया जायगा कि प्रत्यभिज्ञा से अभेव मात्र की सिद्धि न होकर भेद-अभेव उभय की सिद्धि होती है । उक्त रोति से वास्तविकता का विचार करने पर यह निर्विवाद सिद्ध है कि वस्तु अन्वय-व्यतिरेक अर्थात् भेदाभेव उमयात्मक होने से अनेकान्तरूप ही होती है। न चैवमनेकान्ते 'पडेव जीवनिकायाः' इति श्रद्धानवता सम्यक्वभङ्गः, विभागाक्याद् न्यूनताऽलाभेऽनेकान्नव्याघाताद् मिथ्यात्वापत्तरिति वाच्यम् ; भावतस्तेषामनेकान्तपरिज्ञान Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवास्तिक ७ श्लो०३० शून्यानामसम्यग्दृष्टित्वादेव, जीवराश्यपेक्षया तेषां कायानामपि पुदलतया जीव-पुद्गलप्रदेशानां च परस्पराऽविनिर्भागवृत्तितर्यकत्वस्याऽश्रद्धानात । द्रव्वत एव च 'भगवतेंवमुक्तम्' इति जिनवचनरुचिस्वभावत्वेन सम्यग्दृष्टित्वात् । तदुक्तम्- सम्मति० ३-२८ ] •णिअमेण सद्दहतो छक्काए भावओ ण सद्दाइ। हंदी अपज्जवसु वि सदहणा होइ अविभत्ता ॥१॥ इति । [ जीवनिकाय में षट्त्यनिर्धारण में मिथ्यात्म की शंका ] यदि यह शङ्का को जाय कि-"अनेकान्तवाद में 'जीवनिकाय छः ही होते हैं। इस प्रकार श्रद्धा रखने वालों के सम्यक्त्व को हानि होगी क्योंकि विभाग से न्यूनता का लाभ न होने से मिथ्यात्व को प्रसक्ति अनिवार्य है। कहने का प्राशय यह है कि जब किसी वस्तु का विभाग किया जाता है तब यह बोध होता है कि जितनी संख्या में विभाग किया गया, विभाज्य वस्तु की उससे न्यून या अधिक संख्या नहीं है। प्रत: जीवनिकाय का छ: संख्या में विचार कर होगर उनकी भी न्यूनअतिरिक्त संख्या का प्रभाव बुद्धिमत होगा, जब कि अनेकान्तवाद में एकान्ततः किसी संस्थाविशेष का निर्धारण मान्य नहीं है । अतः 'जीवनिकाय की छः संख्या है' इस प्रकार के श्रद्धान का असम्यक् होना अनिवार्य है।" [ भात्र सम्यक्त्व और द्रव्यसम्यक्त्व का विभाग । किन्तु यह शङ्का उचित नहीं है क्योंकि जीवनिकाय के सम्बन्ध में उक्त श्रद्धा के आस्पद व्यक्तियों को अनेकान्त का यथार्थ बोध न होने से वे सम्यग्दृष्टि से शून्य ही है, अतः उनमें असम्यक्त्व का प्रापावन इष्ट ही है। उक्त श्रद्धानधारियों के असम्यक्त्व का आधार यह भी है कि उन्हेंजीवराशि की अपेक्षा. उनके पुद्गलात्मक शरीर को अपेक्षा, और जोव-पुद्गल के प्रदेशों की अविभक्त स्थिति से-कायपुद्गल और जीव के प्रदेशों में विद्यमान एकत्व का श्रद्धान नहीं है, वे द्रव्य से हो सम्यक दृष्टि केवल इतने ही माने में हैं कि वे जो कुछ मानते हैं उसका 'भगवान ने ऐसा कहा है। यह कहकर समर्थन करते हैं क्योंकि इस प्रकार वे भगवान जिनके वचनों में स्वभावतः हचिसम्पन्न होते हैं। जैसा कि सम्मति ग्रन्थ को माया में कहा गया है कि-"नियम से षट्कायों में श्रद्धा रखने वाला भी व्यक्ति वास्तव में भावतः श्रद्धाशून्य होता है, किन्तु यह विशेष बात है कि अपर्यव में भी उसको श्रद्धा विभाजित नहीं होती।" । न चैव तत्र सम्यग्दृष्टित्वव्यवहारेऽपि सम्पदर्शनप्रत्ययिकनिर्जरानापत्तिः, नय-निःक्षेपादिपरिच्छेदाधीनसकलमत्राथरिज्ञानसाध्या शिष्टप्रवचनरुचिस्वभाव-भावसम्यक्त्वसानिर्जरानवासावपि भावसम्यक्त्वसाधकतया द्रव्यसम्यक्त्वस्वरूपव्यवस्थितेर्मार्गानुसार्यक्योघमात्रानुफक्तरुचिजन्यनिर्जराऽनपायात । इदं तु ध्येयम-ज्ञान-दर्शन-चारित्राणां शिविकावाहक पुरुषवद् मिलितानामेष मोक्षहेतुत्वामिधानादगीतार्थे तदभावेन मोक्षानापत्तेः, अनेकान्तपरिच्छेदरूपस्य ज्ञानस्य के नियमेन श्रद्दधानः षट्कायान् भावतो न श्रद्दधाति । हन्त ऽश्यवेष्वपि श्रद्धानं भवत्यविभक्तम् ।। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याका टीका एवं हिन्दी विवेचन ] १९७ गीतार्थे साचात् , अगीतार्थे च स्वाश्रयपारतव्येण हेतुत्वम् । निश्यतस्तद्गतफले तद्गताध्ययसायस्यैव हेतुत्वेऽपि गीतार्थापेक्ष एवागीनाथस्य प्रतिक्षणविलक्षणस्तथाभूतपरिणामा, नान्यथा । प्रकाशकमपेक्ष्यैव हि प्रकाश्यः प्रकाश्य(१श)स्वभावो न त्वन्धकारमाकाशादिकं वेति । एवं चापवादिक एकाकिविहारविधिरपि गीतार्थमपेक्ष्येव, न त्वगीतार्थम , तस्य गीतार्थपरतन्त्रस्यैव कर्ममात्रेऽधिकारित्वादिति विवेचितमेतदध्यात्ममतपरोक्षायाम् । [सम्यग्दर्शनमूलक निर्जरा के अभाव की शंका का उत्तर ] यदि यह शंका की जाय कि-'उक्त श्रद्धानधारियों में जिनवचन में हचिसम्पन्न होने के आधार पर सम्यक दृष्टि का व्यवहार सम्भव होने पर भी उन्हें सम्यफदर्शनमूलक निर्जरा का लाभ न होगा'तो यह ठोक नहीं है। क्योंकि, उक्त श्रद्धानधारियों को यद्यपि यह निर्जरा नहीं प्राप्त हो सकती जो नय-निक्षेप आदि निश्चय से निष्पन्न सम्पूर्ण सूत्रों के अर्थबोध, उससे साध्य प्रवचन में विशिष्ट रुचि, एतत्स्वभाववाले भाव सभ्यत्व से उपलब्ध होती है। तथापि, द्रव्यसम्यक्त्व भावसम्यक्त्व का साधक होता है और उक्त श्रद्धानधारियों में व्यसम्यक्त्व है इसलिए मार्गानुसारी प्रयबोध से संगस रुचि विद्यमान होने से सम्पन्न होने वाली निर्जरा का लाभ उनको होने में कोई बाधा नहीं है । यह ध्यान देने योग्य है कि ज्ञान दर्शन और चारित्र को मिलित रूप में ठीक उसी प्रकार मोक्ष का कारण बताया गया है जिस प्रकार पालकी होने वाले मनुष्यों में मिलित रूप से पालकी के बहन की कारणता होती है । अतः अगीतार्थ । -सूत्रार्थ के सम्याबोध से शून्य अपरिपक्व ) साधकों में जान-दर्शन-चारित्र का मिलित अस्तित्व न होने से उनका मोक्ष न हो सकेगा। तथापि यह कहना होगा कि अनेकान्त का निश्चयात्मक ज्ञान गीतार्थ ( यानी सूत्राथ के सम्यग्ज्ञाता) साधक के मोक्ष का साक्षात् हेतु होता है और अगीतार्थ साधक के मोक्ष का स्वाश्रय को परतन्त्रता द्वारा हेतु होता है। अर्थात् प्रगीतार्थ, गीतार्थ के सहयोग से मोक्ष की प्राप्ति करता है । [गीतार्थ के ज्ञान से अगीतार्थ को मुक्तिलाभ कैसे ?] निश्चयनयानुसार यपि फल और अध्यवसाय में सामानाधिकरण्य से ही कार्यकारणभाव है, इसलिए गीतार्थ के अनेकान्सज्ञान से प्रगीतार्थ को मोक्ष प्राप्त करने के विधान का भौचित्य आपाततः नहीं प्रतीत होता, तथापि यह व्यवस्था मान्य है कि गीतार्थ की अपेक्षा रख करके ही प्रगीतार्थ में प्रतिक्षा परिणमन के क्रम से अनेकान्त जानात्मक विलक्षण स्वभाव की सिद्धि होती है. अन्यथा नहीं। अतः अगीतार्थ के सन्दर्भ में मोक्षरूप फल और अनेकान्त निश्चयरूप हेतु की उक्तरीति से एकनिष्ठता (=सामानाधिकरण्य) उपपन्न हो जाती है। क्योंकि प्रकाशक की अपेक्षा से ही प्रकाश्य वस्तु का प्रकाश स्वभाव उपान्न होता है न कि अन्धकार और आकाश प्राधि को अपेक्षा से। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अपवादरूप में एकाकी विहार करने का आदेश गीतार्थ के लिए ही है प्रगीतार्थ के लिए नहीं, क्योंकि उसे गोतार्थ को अपेक्षा रख करके ही कर्ममात्र में अधिकार प्राप्त है। इस बात का विवेचन अध्यात्ममतपरीक्षा नामक ग्रन्थ में विशद रूप से किया गया है। एवं 'गच्छति-तिष्ठति' इत्यादौ, 'दहनाद् दहनः-पचनात पचनः' इत्यादौ, 'जीवद्रव्यमजीवद्रव्यं चेत्यादाप्यन्वयव्यतिरेकच्याप्तिर्भावनीया, गतिस्थित्यादिपरिणतस्याप्यूर्ध्वगतिभृतल Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवास० स्व० ७ श्लो० ३० स्थित्याद्यपेक्षयैव गति- स्थितिमत्त्वात्, अन्यथाऽभिप्रेतदेशप्राप्ति-स्थितिवदनभिप्रेतदेशप्राप्तिस्थित्योरपि प्रसङ्गात्, तथास्वभावसत्त्वे कारणाभावस्याप्रयोजकत्वात्, कारणसमाजेन तथास्वभावस्यैषाक्षेपात् अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । दहनादेरपि दाहादिपरिण (मयोग्यापेक्षयैव दहनादित्वात्, अन्यथा चातथायात्, अदहनस्याप्युदकादिद्रव्यस्य स्वयमदद्दनत्वेऽपि पृथिव्याद्यदद्दन व्यावृत्ततया कथञ्चिदतथात्वात् समयाविरोधेन भजनाप्रवृत्तेः, जीवाऽजीवयोरपि कुम्भाद्यपेक्षया जीवापेक्षचा चान्तथात्वात्, अन्यथा सर्वस्य सर्वात्मकतापतेः । तदिदमाह [ सम्मति. ३ / २६-३०-३१ ] १६८ > *परिणयं गई चैव के णिअमेण दत्रिअमिच्छेति । तंपि अ उड्ढग अंतहा गई अण्णहा अगई ॥ १ ॥ गुणणिव्यत्तिअण्णा एवं दहणादओ विदच्या जं तु जहा पडिसिद्धं दध्वमदव्यं तहा होड़ ॥ २ ॥ कुम्भो पण जीवदविअं जीवो वि ण होड़ कुंभदविअं ति । तुम्हा दो वि अदवि अण्णोष्ण विसेसिआ हुंति ॥ ३ ॥ इति । [ गति-स्थिति- दहन - वचन - जीव - अजीवादि में अनेकान्त दृष्टि ] इसी प्रकार 'गच्छति तिष्ठति' इत्यादि 'बहनाव् दहन: पचनात् पचनः' इत्यादि, एवं 'जीवद्रष्मजीवद्रव्यं' इत्यादि में भी उक्तरीति से अन्यय और व्यतिरेक व्याप्ति की भावना करनी चाहिए। अर्थात् गति और स्थिति के होने पर गतिमत्ता और स्थितिमत्ता का अन्वय छोर गति-स्थिति के अभाव में गतिमत्ता और स्थितिमत्ता का व्यतिरेक आदि की अवगति करनी चाहिए, क्योंकि गति और स्थिति आदि में परिणत द्रव्य में भी ऊदिगवच्छिन्नगति और भूतलावच्छिन स्थिति आदि की अपेक्षा से ही द्रव्य ऊर्ध्वगतिमान और भूतलस्थितिमान होता है। यदि ऐसा न माना जाय तो और सर्वदि अपेक्षा से गति आदि माना जाय तो गति स्थिति आदि में परिणत द्रव्य की जैसे इष्टदेश में प्राप्ति और स्थिति होती है उसी प्रकार अनिष्ट देश में, जहां उस द्रव्य को न प्राप्त होना है और न स्थित होना है वहां भी उसकी प्राप्ति और स्थिति की आपत्ति होगी। यह नहीं कहा जा सकता कि"गति स्थिति आदि में परिणत द्रव्य की तत्तद्विगपेक्षा से नहीं किन्तु स्वभाव से ही इष्ट देश में प्राप्ति और स्थिति होती है ।" क्योंकि स्वभाव का आश्रय लेने पर कारण का अभाव कार्यामाय का प्रयोजक न हो सकेगा। कारणसमुदाय से हो स्वभाव विशेष की उपपत्ति मानती होगी, अन्यथा कारणसमुदाय के अभाव में भी उक्त स्वभाव के सम्भव होने से कारसमुदाय के न रहने पर भी कार्य जन्म का अतिप्रसङ्ग होगा । * गतिपरिणतं गत्येव केचिदू नियमेन द्रव्यमिच्छन्ति । तदपि चोर्ध्वगतिकं तथागते रन्यथागतेः ॥ गुण निर्वतित संज्ञा एवं दहनादयोऽपि दृष्टव्याः । यत्तु यथा प्रतिषिद्धं द्रव्यमद्रव्यं तथा भवति । कुम्भो न जीवद्रव्यं जीवोऽपि न भवति कुम्भद्रव्यमिति । तस्माद् द्वावप्यद्रव्यमन्योन्यविशेषितो भवतः ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क टीका एवं हिन्दी विवेचन ] १९ दहन (अग्नि) आदि में भी दाह आदि परिणाम के पोग्य काष्ठादि द्रव्य को अपेक्षा से ही वाहकता होती है, उसके अभाव में दाहकता नहीं होती। उदक आदि द्रव्य जो दहन से भिन्न है वह यद्यपि स्वयं हो अदहनरूप है. तथापि पृथ्वी आदि बहनभिन्न द्रव्य से व्यावृत्त होने के कारण कथश्चित् अवहन रूप नहीं भी होता है । इस स्थिति में यह शङ्का उचित नहीं हो सकती कि- स्वयं अवहन को अन्य अदहन से भिन्न होने के कारण अदहन न होने की दशा में अवहन वर्ग में उद. आदि और पृथ्वी श्रादि का परिगणन उचित नहीं है क्योंकि स्वीकृत सिद्धान्त का विरोध न करके ही भजना-वर्गीकरण की उपपत्ति होती है। ओव और अजीव तव्य भी क्रमश: कुम्भ आदि और जीव को अपेक्षा जीवभिन्न और अजीवभिन्न होते हैं, क्योंकि जीव यदि कुम्भ आदि की अपेक्षा भी जीय होगा और अजीय द्रव्य जीव को अपेक्षा भी अजीव होगा तो यह तभी सम्भय हो सकता है जब जीव और कुम्भ आदि में तथा अजीव और जीध में अभिन्नता हो और ऐसा होने पर समी वस्तुओं में सर्वात्मकता की धापत्ति होगी। जैसा कि सम्मति सूत्र की गाथाओं में स्पष्ट कहा गया है कि-"कुछ लोग गति में परिणत द्रव्य को गति होने पर नियमेन गतिमान द्रव्य मानते हैं किन्तु वह भी गतिपरिणत द्रव्य ऊध्वंगतिक होने पर अई. गति अपेक्षा हो सम्भव होता है। क्योंकि ऊध्र्वगति अभिमुख क्रिया होने पर ही उर्य गतिमत्ता होती है अन्यथा यह नहीं होती। इस प्रकार दहन आदि द्रव्य भी वाहकता आदि गुण के द्वारा ही दहन आदि संज्ञा को प्राप्त करते हैं। जिस द्रव्य और अद्रव्य का जिस प्रपेक्षा से प्रतिषेध होता है उस अपेक्षा से क्रम से वह अबव्य और द्रव्यरूप होता है । स्पष्ट है कि कुम्भ जीवद्रव्य नहीं होता, जीव भी कुम्भद्रव्य नहीं होता, इसलिए दोनों ही परस्परापेक्षया अद्रव्य होते हैं।" नन्वेवमजीवो जीवापेक्षया नाऽजीव इति जीवोऽपि स्यात् । नैवम् , अभावपरिणतेः परापेक्षत्वेऽपि भावपरिणतेः स्वायेक्षत्वात् । नन्वेवं जीवदेशो नाजीवो नवा संपूर्णजीव इति नोजीयः स्यात् , 'स्यादेवेति चेत् , कथं त्रैराशिकनिरासः स्यान ? इति चेत् ! सत्यम् , एकान्तमाश्रयत एव त्रैराशिकस्य नयान्तरेण निरासा , सैद्धान्तिकैस्तु नयमतभेदेन नथाभ्युपगमात् । तथाहि-'जीवः, नोजीवः, अजीवः, नोऽजीवः' इत्याकारिते (A) नैगमदेश-संग्रह-व्यवहार-जे सूत्रसाम्प्रतसमभिष्टाः (१) जीवं प्रत्यौपशमिकादिमावग्राहिणः पश्चस्वपि गतिषु 'जीवः' इति जीवद्रव्यं प्रतियन्ति, (२) नोजीवः' इति च नोशब्दस्य ३ सनिषेधार्थपक्षऽजीवद्रव्यमेव, । देशनिषेधार्थपक्षे च देशस्याऽप्रतिषेधाजीवस्य देश-प्रदेशो, (३) 'अजीवः' इति चाऽकारस्य सर्वग्रनिषेधार्थत्वान् पयुदासाश्रयणाञ्च जीवादन्यं पुदलद्रव्यादिकमेव, (४) 'नो अजीवः' इति च । सर्वप्रतिषेधाश्रयणे जीवद्रव्यमेष, b देशप्रतिषेधाश्रयणे चाजीवस्यैव देश-प्रदेशौ । (B) एवंभूतस्तु (१ जीवं प्रत्यौदायिकमावग्राहको 'जीवः' इत्याकारिते भवस्थमेव जीवं गृह्णाति, न तु सिद्धं, तत्र जीवनार्थानुपपत्तेः, आत्म-सत्त्वादियदार्थोपपत्रात्म-सस्वादिरूपस्तु सोऽपि स्यादेश । (२) 'नोजीवः' इति चाजीवद्रव्यं, सिद्धं या; (३) 'अजीवः' इति चाजीवद्रव्यमेव (४) 'नोअ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रषार्त्ता० स्त० ७ इलो० ३० जीव:' इति च भवस्थमेव जीवम्, देशप्रदेशौ तु न स्वीकुरुते संपूर्ण वस्तुग्राहित्वादयम् । इत्यधिकं नयरहस्ये । २०० [ अजीव जीव वन जाने की आपत्ति का निवारण ] यदि यह शङ्का की आय कि अजीव को जीव की अपेक्षा अजीव न मानने पर, अजीव जब जीव को अपेक्षा प्रजीव न होगा तो वह जीव भी हो जायगा। क्योंकि जो प्रजोव नहीं है उसका जीवात्मक होना न्याय प्राप्त है' - किन्तु यह शङ्का उचित नहीं है क्योंकि अजीव न होना अभावात्मक परिणति है, और नियम यह है कि प्रभावात्मक परिणति तो पर की अपेक्षा होती है किन्तु भावात्मक परिणति तो स्वयं अपनी ही अपेक्षा से होती है। अतः अजीवद्रव्य जीव की अपेक्षा अजीव न होने पर भी अजीव जीव नहीं हो सकता, क्योंकि जीय होने के लिए सहज भाव से ही जीव होना आवश्यक है । [ त्रैराशिक मत की नोजीव की मान्यता के निवारण का आशय ] इस पर यदि यह शङ्का की जाय कि जीव का एक देश' अजीव नहीं होता और सम्पूर्ण जीव भी नहीं होता अतः वह नोजोब हो जायगा और इस आपत्ति को स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसे स्वीकार कर लेने पर त्रैराशिक का अर्थात् जीव प्रजीव-नोजीष तीन राशि मानने वाले रोहगुप्त निलय का निराकरण नहीं हो सकेगा तो इसके उत्तर में टीकाकार का कहना है कि जोख के एक देश का 'नोजीव' होना ठीक ही है, ऐसा मानने पर त्रैराशिक के निराकरण की अनुपपत्ति की चिन्ता करना उचित नहीं है क्योंकि एकान्तवाद का आश्रय लेने पर ही नयान्तर से त्रैराशिक का निराकरण होता है । किन्तु सिद्धान्तो नयमत के भेद से तीन राशि को स्वीकार करते ही हैं । [ जीवादि विषय में सात नय की मान्यता ] जैसे 'जीव: नोजीवः' 'अजीव : नोजोष:' इस प्रकार के शब्द प्रयोग में (A) नैगम, संग्रह व्यवहार, ऋजुसूत्र, साम्प्रत और समभिरूढ ये छ तय जीव के श्रीपशमिक श्रादि भावों का ग्राहक होने से पांचों गतियों में ( १ ) जोन: इस रूप में जीव द्रव्य को स्वीकार करते हैं और ( २ ) नोजोव: इस प्रयोग में नो शब्द को सर्वनिषेधात्मक मानने पर अजीव द्रव्य को ही ग्रहण करते हैं और b नोशब्द को देशनिषेधात्मक मानने पर, देशविशेष का प्रतिषेध न होने से जीव के देश और प्रदेश को ग्रहण करते हैं । और (३) अजीय: इस शब्द प्रयोग में प्रकार के सर्वप्रतिषेधात्मक होने से तथा पर्युदास का आश्रयण करने से जीव से भिन्न पुद्गल द्रव्य आदि को प्रहरण करते हैं (४) मोअजीवः इस प्रयोग में नो शब्द के सर्वप्रतिषेधरूप अर्थ का श्राश्रय करने पर जीव द्रश्य का ही ग्रहण करते हैं और b वेशप्रतिषेधरूप अर्थ का आश्रय करने पर अजीव के ही देश और प्रदेश को ग्रहण करते हैं ( 8 ) किन्तु एवंभूत नय जीव के औदयिक भाव का ग्राहक होने से ( १ ) जीवः इस प्रकार के प्रयोग में भवस्थ जीव का ही ग्राहक होता है, सिद्ध जीव का ग्राहक नहीं होता, क्योंकि सिद्ध में जीवन अर्थ की उपपत्ति नहीं होती। आध्मा, सत्य आदि पदार्थ की उपपत्ति होने से सिद्ध आश्मा और सत्य प्रावि स्वरूप होता ही है। (२) नोजीवः इस प्रयोग में अजीव द्रव्य अथवा सिद्ध का ग्राहक होता है । और (३) अजीवः इस प्रयोग में अजीव द्रव्य का ही ग्राहक होता है । ( ४ ) नोअजीवः इस प्रयोग में भवस्थ जीव का ही ग्राहक होता है। देश और प्रदेश उसे स्वीकार नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण वस्तु का a Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या.क. टीका एवं हिन्दी विवेचन ] २.१ ही ग्राहक होता है उसके एक वेश का नहीं अत: नोजीय और नोग्रीव में पर्यनिषेध का ही आश्रय करता है। इससे अधिक यवि जिज्ञासा हो तो उसके लिये पू० उपा० विरचित 'नयरहस्य' ग्रन्थ (पृ०१८५) का अवलोकन करना चाहिए। एतेन 'अन्वयादिमयत्वे वस्तुनो घटदेशो 'न घटो नाप्यघट' इत्यवक्तव्यः स्यात् इति प्रावादुकोक्तिनिरस्ता। घटपदस्य स्कन्धवृत्तिल्वे तत्र 'अघटः' इत्येवोक्तः, “यथा न खण्डं चक्र सकलं चक्रम् , तथा न धर्मास्तिकायस्य प्रदेशो धर्मास्तिकायः" इति प्ररचनवचनात् । देशकृत्तित्वे च 'नोघटः' इत्येवोक्तेः, लद्देशत्वे सति तद्देशाभावस्य नोपदार्थत्वादिति । एकान्ततिमिरविलुप्तदशां त्वत्राथै महानेयान्धकारः । तथाहि-प्रतीयते तावदयं तन्त्यादिने पटादेः पृथगिति सरविगानेन । तथा च तत्र पटावधिकपृथक्त्वाभाववद् द्रव्यत्वात् पटभेदाभावोऽप्यावश्यकः । न च तत्रान्यादृशमेवाऽपथक्वं प्रतीयते, न तु पृथक्त्वाभावरूपम् , भिन्नयोद्रेव्ययोरपृथक्त्वाऽयोगादिति वाच्यम् , तयो दसिद्धायुक्तप्रतीतौ मुख्यपृथक्त्वाभावानवगाहिखसिद्धिः, तसिौं च तयोर्भदसिद्भिः, अन्यथा भेदधियस्तद्धियैब वाधनादित्यन्योन्याश्रयात् ,न पृथग' इति प्रतीतेः सर्वत्रैकाकारत्वेन विषयलक्षण्याऽयोगाच्च । [घट के एक देश में अबक्तव्यत्र शंका का निवारण ] इस संवर्भ में कुछ वावक विद्वानों का यह कथन फि-वस्तुओं को प्रत्यय व्यतिरेक-भेदामेव उभयात्मक मानने पर घट का एक देश 'घट और अघद' दोनों में से एक भी न होने से अवक्तव्य हो जायेगा' स्वतः निरस्त हो जाता है । क्योंकि अब घट पर स्कन्ध में प्रयुक्त होता है तब उसे अघट ही कहा जाता है, क्योंकि प्रवचन को यह उक्ति है कि जैसे खण्ड मात्र (एक देश मात्र) चक्र सम्पूर्ण धक नहीं होता है, उसी प्रकार धर्मास्तिकाय का एकावि प्रवेश धर्मास्तिकाय नहीं होता । और जन्न घट पद देश मेंप्रयुक्त होता है तब 'नोघटः' यही कहा जाता है क्योंकि तदवस्तु के एकदेशरूप होना और एकदेशरूप न होना यही नो पद का अर्थ होता है । जिन लोगों की दृष्टि एकान्तवाद के तिमिर से प्राकान्त है उनके सामने इस विषय में महान अन्धकार हो होता है, क्योंकि समो लोग एकमत में स्वीकार करते हैं कि पट आदि स्थल में दिखायी पड़ने वाले तन्तुप्रादि पद प्रादि से पृयक नहीं है । तो फिर जब ऐसा है तो द्रव्यात्मक होने के कारण तन्तु में पटायधिक पृथक्त्व के अभाव का आश्रय होने से, उसे पट मेद के अभाव का आश्रय भी मानना आवश्यक है । यदि यह कहा जाय फ्रि-तन्तु में पट का जो अपृयवत्व प्रतीत होता है वह पृथक्त्याभाव रूप नहीं है किन्तु उससे भिन्न प्रकार का है, क्योंकि भिन्न दो द्रव्यों में अपथक्त्व नहीं हो सकता-तो यहाँ अन्योन्याश्रय दोष के कारण यह ठीक नहीं है क्योंकि तन्तु और पट मे भेद सिद्ध हो जाने पर 'पट में दीख पड़ने वाला तन्तु पट से पथक नहीं है' इस प्रतीति में मुख्य पृथक्त्वाभाव का अवगाहन न होना सिद्ध हो सकता है, और उक्त प्रतीति में मुख्यपृथक्त्वाभाव का अवगाहन नहीं होता' यह सिद्ध होने पर ही उन दोनों में भेद की सिद्धि हो सकती है, क्योंकि ऐसा न मानने पर उक प्रतीति से ही भेदबुद्धि का बाध हो जायगा । इस लिए उक्त प्रतीति में पृथक्त्वाभाव का भान न होकर अन्य प्रकार के अपृथक्त्व का Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ [शास्त्रमा स्त०७श्लो. ३. माल होता है यह मास में गोमाराम है दूसरी बात यह है कि 'न पृथक' इस प्रकार की प्रतीति सर्वत्र एकाकार होती है । अतः उसमें विषय बलमण्य नहीं माना जा सकेगा। नन्वेवं क्षीर-नीरयोरपृथक्त्वादभेदः स्यादिति चेत् ? किं न स्यात् ? 'स्वरूप सांकर्यादिति चेत् ? न, अनेकान्ते यथादर्शनं संकीर्णा-संकीर्णोभयरूपतोपपत्तेः, स्वभावभेदं विना संबन्धसंकरस्याप्यसंभवात् । यद्येवम् , अविभक्तयोः क्षीरनीरयोरपृथक्त्वमेव, तर्हि हंसचञ्चुविभक्तयोरपि तयोः पृथक्त्वं न स्यात् । इति चेत् ? न, विभागे पृथक्त्यस्येवोपपत्तेद्रव्याऽविच्छेदेऽपि पर्यायविच्छेदात् । यदि चैवमनुभवसिद्धमपि तन्तु-पटादीनामपृथक्त्वं प्रतिक्षिप्यते, तदा घटादावपि किं मानम् ! । यश्चैतदोषभीतोऽवयवा-ऽवयविनोः स्वतन्त्रावेव भेदाऽमेदौस्वीकरोति, तस्यापि पटैकदेशोऽपटः पटश्चेत्यवक्तव्यः स्यात् । तस्माद् 'न समुद्रोऽयं नाप्यसमुद्रः किन्तु समुद्रैकदेशः' इतिश्त , 'नायं पटो नाऽप्यपटः किन्तु पटेफदेशः' इति व्यवहारनिर्वाहाथ परस्पराऽविनिर्भागवृत्यन्वय-व्यतिरेकवदेव स्वीकर्तव्यमिति स्थितम् ॥३०॥ [ क्षीर-नीर के अभेद की आपत्ति का प्रत्युत्तर ] यदि यह कहा जाय कि-'उक्त रोति से पृथक्त्व से भेब और अपृथक्त्व से प्रभेद स्वीकार करने पर क्षीर-दूध और नोर=पानो में भी अपथक्त्व होने से उनमें अभेद की आपत्ति होगी। इस आपत्ति को स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि इसे स्वीकार करने पर दोनों के स्वरूप में सक्रिय हो जायगा, अर्थात् क्षीर नीररूप हो जायगा और नोर क्षीररूप हो जायगा।'-किन्तु यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि अनेकान्तवाद में बस्तु के सम्बन्ध में जो मान्यता है उसके अनुसार वस्तु में संकीर्ण असंकीर्ण उभयरूपता की उपपत्ति होती है। क्योंकि वस्तुओं में यदि केवल असंकीर्णता हो मानी जायगी तो उनके स्वभाव में भेद न होने से उनमें सम्बन्ध का भी सांकर्य अर्थात् एक के साथ दूसरे का सम्बन्ध भी सम्भव न होगा। यदि यह कहा जाय कि-'अविभक्त क्षीर और नीर में अपृथवत्व ही है तो इंस के चोंच से क्षीर और नीरका विभाग हो जाने पर भी उनमें अपयक्त्व क्यों न होगा'. तो ठीक नहीं है क्योंकि और और नीर के विभागकाल में उनमें पथवत्व की ही उत्पत्ति होती है। विभाग काल में यद्यपि उनके मूल द्रव्य में भेद नहीं होता किन्तु पर्याय में भेद होता है। उक्त प्रकार की मान्यता के सम्बन्ध में यदि यह कहा जाय कि-'तन्तु पट आदि में अपथरव को हम नहीं मानते हैं-तो यह ठीक नहीं क्योंकि अनुभव सिद्ध होने पर भी यदि उसका प्रतिबंध किया जायगा तो घट आदि के अस्तित्व में भी कोई प्रमाण न हो सकेगा। इस दोष के भय से जो अवयव और अवययो में स्वतन्त्रभेद और अभेद स्वीकार करते हैं उनके मत में भी पट का एक देश अपट अथवा पदरूप में अवक्तव्य हो जाता है। इसलिए यही कहना उचित होगा कि जैसे समुद्र के एक वेश में यह व्यवहार होता है कि-'न तो यह समुद्र है और न असमुद्र ही है किन्तु समुद्र का एक देशा है उसी प्रकार पट के एक देश में भी 'न तो यह पर है और न अपट ही है किन्तु पट का एक देश है' इस व्यवहार की उपपत्ति के लिए यह मानना होगा कि वस्तु परस्पर में अविभक्त होकर रहने वाले अन्वय व्यतिरेक मेवामेद से शबल ही होती है ।।३०॥ हना Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क. टोका एवं हिन्यो विवेचन । उक्तमेव स्पष्टयबाहमूलम्-अन्वया व्यतिरेकश्च द्रव्यपर्यायसंज्ञितौ । ___अन्योन्यव्याप्तितो भेदाभेदवत्यैव वस्तु तौ॥ ३१ ॥ अन्वयो व्यतिरेकश्चेत्येतावंशी द्रव्य-पर्यायसंज्ञितो-'द्रव्यं' 'पर्यायश्चेति द्रव्यपर्यायपदबाच्यौ । एतेन 'द्रव्यं, गुणाः, पर्यायाश्च' इति विभागः केपाश्चिदनभित्रस्वयूथ्याना परयूथ्यानां वा निरस्तः, विभिन्न नयग्राह्याभ्यां द्रव्यपर्यायत्याभ्यामेव विभागात । यदि च गुणोऽप्यतिरिक्तः स्यात् तदा तद्ग्रहार्थं द्रव्यार्थिक-पर्यायाथिकवद् गुणाथिकनयमपि भगवानुपादेक्ष्यत् , न चैवनस्ति, रूप-रस-गन्ध-स्पर्शानाम हता तेषु तेषु सूत्रेषु “वण्णपज्जवेहि." इत्यादिना पर्यायसंज्ञयैव नियमनात् । 'गुण एव तत्र पर्यायशब्देनोक्त' इति चेत् ? नन्वेवं गुणपर्यायशब्दयोरेकार्थत्वेऽपि पर्यायशब्देनैव भगवतो देशना, इति न गुणशब्देन पर्यायस्य तदतिरिक्तस्य या गुणस्य विभागो। चत्यम् । “एकगुणकाल:-दशगुणकालः' इत्यादौ गुणशब्देनापि भगवतो देशनाऽस्त्येव" इति चेत् ? अस्त्येव संख्यानशास्त्रधर्मवाचकगुणशब्देन, न तु गुणाथिकनयप्रतिपादनाभिप्रायेण । येन च रूपेण विभिन्नमूलव्याकरणि(णी)नयग्राह्यता तेनैव रूपेण विभागः, अन्यथाविभागस्व संप्रदायविरुद्धत्वात् । अत एव "गुणपर्यायवद् द्रव्यम्" इति सूत्रे गुण-पर्यायपदाभ्यां युगपद-ऽयुगपद्भाविपर्याय विशेषोपादानेऽपि न वैविध्येन सामान्यविभाग इति तत्त्वम् । [ द्रव्य-गुण-पर्याय के विभाग की समीक्षा ] कारिका ३१ में पूर्व कारिका में कथित् अर्थ को स्पष्ट किया है, कारिका का अर्थ इस प्रकार है-अन्वय प्रौर म्यसिरेक वस्तु के इन दोनों अंशों की क्रम से द्रव्य और पर्याय ये दो संज्ञायें हैं । अर्थात द्रव्य और पर्याय रूप वस्तु के अंश क्रमशः 'द्रव्य' और 'पर्याय' शब्द के वाध्य हैं । इस कथन से, अपने समुदाय के अनभिज्ञों (दिगम्बरों) द्वारा और अन्य समुदाय के सदस्यों द्वारा किया गया यह विभाग कि 'वस्तु के तीन भेद हैं, द्रव्य, गुरण और पर्याय,' खण्डित हो जाता है। क्योंकि विभिन्न नयों द्वारा द्रव्य और पर्याय का ही ग्रहण होता है, अतः द्रव्य और पर्याय इन दोनों श्रेणियों में ही वस्त का विभाग उचित है। यदि गुण भी अतिरिक्त पदार्थ होता तो भगवान ने उसके ग्रहण के लिए गुणार्थिक नय का भी टीक उसी तरह उपदेश किया होता जसे द्रव्य के ग्रहण के लिए व्याथिक नय का एवं पर्याय के ग्रहण के लिए पर्यायाथिक नय का उपवेश किया है, किन्तु भगवान ने गणाथिक नय का उपवेश नहीं किया है. विभिन्न सूत्रों में रूप, रस, गन्ध और स्पर्श को प्रर्हत् भगवान ने उन उन सूत्रों में ''वष्णपज्जेवेहि" इत्यादि शवों द्वारा पर्याय संज्ञा से ही प्रतिपादन किया है। उक्त प्रवधनों में पर्याय शब्द से गुरग का हो कयन किया गया है, यह शफा नहीं की जा सकती क्योंकि गुण और पर्याय शश्व के समानार्थक होने पर भी भगवान ने पर्याय शब्द से ही पर्याय की वेशना को है न कि गुण शब्द से देशना की है। प्रतः पर्याय से अतिरिक्त गुण का विभाग उचित नहीं Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवासिलो० ३१ है। कई स्थलों में 'एकगुणकाल:' 'दशगुणकालः' कहते हुए गुण शम्ब से भी भगवान की देशना प्राप्त है किन्तु वहां गुण शब्द का प्रयोग संख्याशास्त्र में उक्त एक गुना, दो गुना इत्यादि धर्म के अर्थ में है न कि गुणाथिक नय का प्रतिपादन करने की दृष्टि से गुण शब्द का प्रयोग किया गया है। विभिन्न मूल व्याकरणी अर्थात भिन्नधर्ममूलकप्रतिपादन करने वाले नय द्वारा जिस रूप से वस्तु का ग्रहण होता है उसी रूप से विभाग मान्य है, अन्य रूप से विभाग सम्प्रदाय से विरुद्ध है [द्र० सम्मति० गाथा-३] इसीलिए "गुण-पर्यायवत द्रव्यम्' इस सूत्र में 'गुण और पर्याय' पब से क्रम से एक काल में होने वाले तथा काल क्रम से होने वाले पर्याय विशेष का प्रतिपावन होने पर भी द्रव्य गुण पर्याय तीन श्रेणियों में वस्तु का सामान्य विभाग नहीं किया गया है। तदिदमाहुः--[ सम्मति० ३ काण्डे-गाथा -१५ ] * रूब-रस-गंध-फासा असमाणग्गहणलक्खणा जम्हा । तम्हा दव्यागुगया गुण ति ते केड़ इच्छति । ८॥ दूरे ता अण्णत्तं गुणसद्दे चेव ताव पारिच्छे । कि पज्जवाहिओ होज्ज पञ्जवे चेव गुणसण्णा ।। || दो पुण नया भगवया दव्य द्विअ-पज्जाद्वआ णिंअया । एत्तो अ गुणविसेसे गुणट्टिअणओ वि जुज्जतो ॥१०॥ जं च पुण अरहया तेसु तेसु सुत्तेसु गोअमाईणं । पज्जवसण्णा णिअमा वागरिआ तेण पज्जाया ॥ ११ ॥ परिंगमणं पज्जाओ अणेगकरण गुण त्ति तुल्लट्ठा । तहवि न गुण ति भण्णइ पज्जवणयदेसणा जम्हा ॥ १२ ॥ जंपति अस्थि समए एगगुणो दसगुणो अणंतगुणो। रूवाईपरिणामो भन्नइ तम्हा गुणबिसेसो ॥ १३ ॥ गुणमद्दमन्तरेण वि तं तु पन्जयविसेससंखाणं । सिज्झइ, वरं संखाणासस्थधम्मो 'तइगुणो' ति ॥ १४ ॥ *.प.२ स-गंध-स्पर्शा असमान ग्रहण लक्षणा यस्मात् । तस्माद् द्रध्यानुगत गुणा इति ते केचिदिच्छन्ति '१८ दूरे तावदन्यत्वं गुणशब्द एव तावत्पाराक्ष्यम् । कि पर्यवाधिको भवेतु पर्थय एव गुण संज्ञा ।।९। द्वो पुनर्नयो भगवता द्रव्या स्तिक-पर्याययास्तिको नियती । एताभ्यां च गुणविशेषे गुणास्तिकानयोऽपि अयोक्ष्य त् ।।१०।। यच्च पुनरर्हता तेषु तेषु सूत्रेधू गौतमादीनाम् । पर्यवसंज्ञा नियमाद् व्या कृता तेन पर्यायाः ॥११॥ परिगमनं पर्यायोऽनेककरणं गुण इति तुल्यायौं । तथापि न गुण इति भण्यते पर्यवनयदेशना यस्मात् ।।१२ अल्पनत्यस्ति समय एक गुणो दशगुणोऽनन्त गुणः । रूपादिपरिणामो भव्यते तस्माद् गुणविशेषः ।।१३।। गुणशब्दमन्तरेणापि तत्तु पर्यविशेषसंख्यानम् । सिध्यति. नवरं संख्यानशास्त्रधर्मो तति गुण इति ॥१४॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] २०५ जह दससु दसगुणम्मि य एगम्मि दत्तणं समं चेव । अहिअपि विगुणसद्दे तहेव एयं पिदट्ठव्वं ॥ १५ ॥ इति । [ सन्मतिप्रकरण में पर्याय भिन्न गुण का निरसन ] यही बात सम्मति प्रकरण की 'रूब रस गन्ध फासा' इत्यादि आठ गाथाओं में कही गयी है । जैसे- कुछ लोग ऐसा मानते है कि रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चारों द्रव्यग्राही प्रमाण से भिन्न प्रमाणग्राह्य और मिन लक्षणवाले हैं अतः द्रव्यानुगत गुण हैं (८) । किन्तु गुण की द्रव्य से भिन्नता दूर रहो गुण शब्द में हो परीक्षा करनी है कि पर्याय से अतिरिक्त में गुण शब्द का तात्पर्य है प्रथवा पर्याय में हो गुण पथ का प्रयोग है ? ( १ ) | भगवान ने द्रव्यास्तिक और पर्यायास्तिक दो हो नयों का उपदेश किया है । यदि पर्याय से भिन्न गुण का अस्तित्व मान्य होता तो गुणास्तिक नय का भी प्रयोग किया गया होता (१०) । तदुपरांत, भगवान ने गौतम आदि को विभिन्न सूत्रों में नियमतः पर्यय शब्द का उपदेश किया है अतः वे पर्यायरूप ही हैं (११) । पर्याय का अर्थ है परिगमन और गुण का अर्थ है प्रनेककरण । ये दोनों ही अर्थ वास्तव में समान हैं फिर भी गुण शब्द से इन अर्थों का कथन नहीं होता क्योंकि भगवान ने इन अर्थो की पर्याय शब्द से ही देशना की है। (१२) कुछ लोग कहते हैं कि शास्त्र में एक गुण, वशगुण, अनन्तगुण श्याम इत्यादि रूप में रूपादि का प्रतिपादन किया है इससे प्रतीत होता है कि गुण पर्याय से विलक्षण है (१३) । किन्तु गुण शब्द के बिना मी पर्यायविशेष के संख्यान का वह बोधक है । 'इतना गुना है' इसमें जो गुण शब्द का प्रयोग होता है वह संख्या-शास्त्रोक्त धर्म के लिए है न कि पर्याय से भिन्न गुण नामक वस्तु के लिए है (१४) । जैसे दश संख्या में और दशगुणित एक में दशत्व समान ही होता है, गुण शब्द का प्रयोग करने से कोई अतिरिक्त अर्थ नहीं निकलता । उसी प्रकार जहां अन्यत्र भी गुण शब्द का प्रयोग है वहां भी उससे कोई अतिरिक्त ( गुणात्मक) अर्थ नहीं ग्रहण किया जा सकता ॥ १५॥ सौ-द्रव्य पर्ययसंज्ञितावन्त्रय - व्यतिरेको, अन्योऽन्याप्तितो हेतोः भेदाभेदवृत्यैव= एकान्त भेदाभेदनियतसंघन्धन्यावृत्तया जात्यन्तरात्मिकया वृत्यैव, वस्तु यथास्थितधीव्यपदेशनिबन्धनम्, अन्यथाऽन्योन्यव्याप्त्यव्यवहारस्यैव तत्र दुर्घटत्वात् ||३१|| द्रव्य और पर्याय शब्द से वाच्य अन्वय और व्यतिरेक में परस्पर व्याप्ति है प्रर्थात् पर्याय surance नहीं होता और द्रश्य पर्यायानात्मक नहीं होता, इसीलिए मेदाभेव वृत्ति, जो एकान्त भेद और एकान्त प्रभेद में नियत सम्बन्ध से भिन्न प्रत्य जातीय है, उसीके द्वारा वस्तु अपनी यथार्थ स्थिति के अनुसार बुद्धि और व्यवहार का निमित्त होती है । यदि द्रव्य और पर्याय में भेदाभेद सम्बन्ध न माना जायगा तो उनमें परस्पर व्याप्तता के व्यवहार की उपपत्ति न होगी ।। ३१ ।। एतदेव विशदतरमाह - भूलम् - नान्योऽन्यव्याप्तिरेकान्तभेदेऽभेदे च युज्यते । अतिप्रसङ्गादैक्याच्च शब्दार्थानुपपत्तितः ।। ३२ ।। अन्योन्यव्याप्तिः=अन्योन्यव्या सत्यशब्दार्थः, एकान्तभेदे, अभेदे च एकान्ताभेदे यथा दशसु दशगुणे चेकस्मिन् दशत्वं सममेव । अधिकेऽपि गुणशब्दे तथैवैतदपि द्रष्टव्यम् । १५ ।। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ [ शास्त्रवात स्त०७ श्लो० ३३ चेत्यर्थः 'प्रतिपाधयोरभ्युपगम्यमाने' इति शेषः, न युज्यते न घटते । कुतः १ इत्याइ-अतिप्रसङ्गात एकान्तभेदेऽन्योन्यपदार्थोपपत्तावपि व्याप्तिपदार्थानुपपः, ऐक्याच-एकान्ताऽभेदे व्याप्तिपदार्थोपपत्तावप्यन्योन्यपदार्थानुपपत्तेश्च, शब्दार्थानुपपत्तिताम् गुण-गुणिनावन्योन्यव्याप्तौ' इत्यादि प्रकृतवाक्यार्थानुपपत्तेः ॥ ३२ ।। [भेदाभेद के विना अन्योन्यव्याप्ति का असंभव ] कारिका ३२ में उक्त धात को ही और स्पष्ट किया गया है, कारिका का अर्थ इस प्रकार हैप्रतिपाद्य विषयों में एकान्तभेद अथवा एकान्त अभेद मानने पर उनमें अन्योन्य व्याप्ति अर्थान परस्पर में एक दूसरे की व्याप्यता नहीं उपपन्न हो सकती, क्योंकि एकान्त भेद मानने पर अन्योन्य पदार्थ तो उपपन्न हो जाता है क्योंकि भेद पक्ष में दो का अस्तित्व है किन्तु व्याप्ति पदार्थ को उपपत्ति नहीं होती क्योंकि सह्यादि-हिमालय को तरह भिन्न वस्तुमों में एक दूसरे से व्याप्ति नहीं होती। एवं एकान्त अभेद मानने पर एक ही वस्तु होती है तो यद्यपि उसमें व्याप्ति पदार्थ उपपन्न हो सकता है, स्वयं का स्वयं से व्याप्त होना स्वाभाविक है, किन्तु तथापि अन्योन्य पदार्थ की उपपत्ति नहीं होतो क्योंकि अन्योन्यता एक में न होकर को वस्तुओं में ही होती हैं। अतः दोनों पक्षों में 'गुण-गुणिनी अन्योन्यव्याप्ती'-'गुण और गुणो एक दूसरे से व्याप्त होते हैं। इस वाक्यार्थ को उपपत्ति नहीं हो सकती । अतः उक्त वाक्यार्थ को उपपत्ति के अनुरोध से बस्तु में एकान्तभेद अथवा एकान्त अभद नहीं माना जा सकता ॥३२।। एतदेवान्वयमुखेनाहमूलम् अन्योन्यमिति यदुर्भदं व्यामिश्वाह विपर्ययम् । भेदाभेदे बयोस्तस्मादन्योन्यव्याप्तिसंभवः ॥ ३३ ॥ यत्-यस्मात , 'अन्योन्यम्' इति पदं भेदमाह, तहिनतवृत्तित्वे सति तद्भिपतवृत्तित्वस्यान्योन्यपदार्थत्वात् , 'घट-पटावन्योन्यसंयुक्तो' इत्यत्र ‘घट-पटौ घटमित्रपटवृत्तित्वे सति पटभिन्नघटवृत्तियः संयोगस्तद्वन्ती' इत्यन्वयबोधदर्शनात् । व्याप्तिध-व्याप्तिपदं च, विपर्ययम्-अभेदम् आह, 'घटो नीलव्याप्तः' इत्यत्र 'घटो नीलाभिन्नः' इति विवरणात् । तस्माद् द्वयोर्मेदाभेद एवाभ्युपगम्यमाने अन्योन्यव्याप्तिसंभवः अन्योन्यव्याप्तिशब्दार्थोपपत्तिः । एवं च गुण-गुण्यादिकमन्योन्यव्याप्तमिति शब्दादेव भेदाभेदसिद्धिः ॥ ३३ ॥ [ अन्योन्य और व्याप्ति का अर्थ ] कारिका ३३ में उक्त अर्थ को ही अन्यध द्वारा कहा गया है. कारिका का अर्थ इस प्रकार है - अन्योन्य पद भेव का बोधक है क्योंकि एक से भिन्न दूसरे में विद्यमान होते हुए दूसरे से भिन्न एक में विद्यमान होना-अन्योन्य पद का अर्थ है । जैसे, घटपटो अन्योन्यसंयुक्तो' घट और पट अन्योन्य में संयुक्त हैं-इस वाक्य से यह समझा जाता है कि घट और पट, घट भिन्न पट में वृत्ति और पट भिन्न घट में वृत्ति संयोग, के आश्रय हैं। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा.१०ीका एवं हिन्दी विवेचन ] २०७ व्याप्ति पद विपर्यय यानी अभेद का बोधक होता है, जैसे, 'घटो नील-व्याप्त:-घट नील से ध्याप्त है। इस वाक्य से 'घट नील से अभिन्न हैं। इस प्रकार का बोध होता है। इससे स्पष्ट है कि दो वस्तुओं में भेद और अभेद दोनों के मानने पर ही 'अन्योन्यष्याप्ति' शब्द के प्रर्थ की उपपत्ति होती है । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि 'गुण-गुणो आदि अन्योन्य व्याप्त होते हैं। इस प्रयोग से ही गुण-गुणी आदि में भेव और अमेव दोनों की सिद्धि होती है । __ न च 'वहयालोकावन्योन्यं व्याप्तौ' इतिबदन परस्परं व्याप्तिप्रत्यय एव, ममवायेन गुणादेस्तादात्म्येन गुण्यादिव्यानत्वात् , तादात्म्येन गुण्यादेच समवायेन गुणादिव्याप्तत्वादिति वाच्यम् , नील-घटयोरन्योन्यव्याप्तिप्रतीत्यनुपपत्तेः, क्षीरनीरादिसाधारणान्योन्यव्याप्स्यभिप्रायेणेव तथा प्रयोगाच्चेति भावः । अपि च, 'घटो न नीलरूपम्-नीलरूपं न घटात पृथक इति प्रत्यक्षतोऽपि गुणगुण्यादावनुभूयते एव भेदाऽभेदी । न च 'नील न घटात् पृथक्' इत्यत्र घटावधिकपृथक्स्वाभाव एवार्थः, घटाऽवृत्तिरूपे घटाऽपृथक्त्याप्रत्ययात् । न चात्र पृथक्पदस्यासमवेतत्वमर्थः, तथा च नीलं न घटासमवेतमित्यर्थे इति वाच्यम् ; 'घटो न नीलात् पृथक' इत्यस्यानुपपत्तः घटस्य नीलाऽसमवेतत्वादेव, 'घटो घटत्वाद् न पृथक्' इत्यत्र घटस्वाऽसमवेतस्वाऽप्रसिद्धेश्च। [भेदाभेद के विना अन्योन्यव्याप्ति सम्भावना का निरसन ] यदि यह कहा जाय कि-"जसे 'वलयालोको अन्योन्यव्याप्ती वह्नि और आलोक एक दूसरे से व्याप्त है' यहाँ वह्नि (अग्नि) और पालोक में प्रभेद होने पर उनमें एक दूसरे को ध्याप्ति होती है प्राव जहां वह्नि का पालोक होता है वहाँ वह्नि होता है और जहाँ वह्नि होता है यहां वह्निका आलोक होता है इस प्रकार इन दोनों में व्याप्ति होतो है । उसी प्रकार गुण और गुणी में अमेव न होने पर भी समवाय और तादात्म्य सम्बन्ध से दोनों में व्याप्ति हो सकती है जैसे, समवाय सम्बन्ध से रांगण है वहां तादात्म्य सम्बन्ध से गुणी है एवं तादात्म्य सम्बन्ध से जहां गुणी है वहां समवाय सम्बन्ध से गुण है। इस प्रकार गुणी और मुण में एकान्त भेद पक्ष में भी परस्पर व्याप्ति हो सकती है" तो यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि एकान्तभेद में ही प्रन्योन्यन्याप्ति मानने पर नील और घट में अन्योन्यव्याप्ति की प्रतीति नहीं हो सकती, क्योंकि नील और घर में एकान्त मेव नहीं है, अन्यथा नीलो घटः' इस प्रकार का प्रयोग नहीं हो सकता । और दूसरी बात यह है कि क्षीर और नीर आदि में जिस प्रकार की अन्योन्यव्याप्ति है उस प्रकार प्रन्योन्यव्याप्ति के अभिप्राय से हो गुण और गुणो में अन्योन्यध्याप्ति का व्यवहार होता है। दूसरी बात यह है कि 'घटो न नीलरूपंह नील रुप से भिन्न है। नीलरूप न घटातु पृथक भीलरूप घट से पृथक-भिन्न नहीं है। इस प्रत्यक्ष प्रतीति से भी गुण और गुणी में भेदाभेद का अनुभव होता है। यदि यह कहा जाय कि 'नोलन घटात पृथक' इस वाक्य से नीलरूप में घटावधिक पृथवश्व के अभाव को ही प्रतीति होती है तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि घट में अविद्यमान रूप में घटायधिक पृथक्त्व के प्रभाव को प्रतीति नहीं होती। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ [ शास्त्रवास्ति० ७ श्लो० ३३ [ पृथक् शब्द का समवेतन्व अर्थ नहीं ] गदि मह कहा ला कि पशक पद का अर्थ है असमवेतत्व । प्रतः 'नीलं न घटात पृथक से नीलरूप घट में असमवेत नहीं है यह बोध होता है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर 'घटो न नीलाव पृथक्-घट नील से पृथक नहीं है। इस प्रतीति की उपपत्ति नहीं होगी, क्योंकि पृथपरव का असमवेतत्व अर्थ मानने पर घट में नीलासमवेतस्वरूप नीलपृथक्त्व के रहने से घट में उसके भभाव को प्रतीति नहीं हो सकती और दूसरी बात यह है कि यदि पथक्त्व को प्रसमवेतस्थ रूप माना जायया तो 'घटो घटत्वात न पृथक-घट घटत्व से पृथक नहीं है इस वाक्यार्य को अनुपपत्ति हो जायगो । क्योंकि पृथक्त्व के असमवेतत्व रूप होने में 'घटरमात न पृथक' का अर्थ होगा घटस्यसमवेतस्वाभावाभाव का प्राश्रय, जो घटत्व में किसी वस्तु के समवेत न होने से घटत्वसमवेलस्य की प्रसिद्धि होने के कारण असम्भव है। किञ्च, 'घटो घटाद् न पृथक् इत्यत्राभेदरूपमपृथक्त्वं प्रतीयते, इत्यन्यत्रापि तदेव । न हि पृथक्त्वं भेदादतिरिच्यते, 'घटः पटात् पृथक्' इत्यस्य 'पटाद् भिन्नः' इतिविवरणात , पृथगादिपदयोगे पश्चम्या आनुशासनिकत्वादेव 'घटान्न' इत्यादेरसंभवात् । तदेव चाऽपृथक्त्वं तादात्म्यमिति गीयते यत् प्रत्यभिज्ञानादिनियामकम् । अत एव पाकरफ्ते घटे 'अयं न श्यामः' इति 'श्यामाद् न पृथक्' इति चोपपद्यते, अन्यत्वरूपभेदस्य पृथक्त्वरूपभेदाभावस्य चान्योन्यानुविद्धस्योपपत्तेः । न हि 'पृथक्त्वमन्यत्वमेव' इति नव्यनैयायिकानामिवास्माकमेकान्ताभ्युपगमः, येनानुपपत्तिः स्यात् । न च तेषामप्यत्र 'न पृथक' इत्यस्य 'तत्तद्वयक्तित्वावच्छिअभेदाभाववान्' इत्यर्थाद् नानुपपत्तिरिति वाच्यम , सामान्यसंशयाऽनिवृत्तः, श्यामपदस्य लक्षणां विनापि यथाश्रुतार्थप्रतिसंघानाच्च । [ पृथक्त्व से अतिरिक्त भेद अमिद्ध है ] दूसरी बात यह है कि 'घट घट से पृथक नहीं हैं। इस वाक्य से घट में घटामेद रूप घट के अपृथक्ष की प्रतीति होती है । अतः अन्यत्र भी 'पृथक नहीं है' इस शब्द से अमेदरूप अपृथस्य का ही सोश माममा अषित है क्योंकि पथश्व मेद से भिन्न नहीं हैं यह बात 'घट पट से पृथक है' इस वाक्य के 'घट पट से भिन्न है' इस विवरण से सिद्ध होती है। यदि पथक्ष मेद से भिन्न होता तो पृथक शम्व का भिन्न शब्द से विवरण न होता । ऐसा मानने पर यह शङ्का नहीं की जा सकती कि पृथक पर्व और ना को एकार्थक मानने पर जैसे पथक पद के योग में पश्वमो होने से 'घटात् पृथक' यह प्रयोग होता है उसी प्रकार नज पद के योग में भी पञ्चमी सम्भव होने से 'घटात् न' इस प्रयोग की आपत्ति होगी'-क्योंकि पृथक् आदि पद के योग में ही पञ्चमी का अनुशासन है, न कि उनके समानार्थक पद के भी योग में, अतः उक्त शङ्का उचित नहीं है। [अपृथक्त्व ही प्रत्यभिज्ञानादिनियामक तादात्म्य है ] न पृथक शब्द से जिस अपृथक्त्व का बोध होता है उसे तादात्म्य कहा जाता है और वही प्रत्यभिज्ञा आदि का नियामक है । इसीलिए पाक द्वारा रक्त घट में 'अयं न श्यामः' और 'मयं श्यामात Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] २०९ न पथक्' इन दोनों प्रतीतियों की उपपत्ति होती है। अन्यत्वरूप भेद और पृथक्त्वरूप भेदाभाव एक दूसरे से अनुविद्ध होकर ही उपपन्न होते हैं। तव्य गायिकों के समान हम जैनों की यह एकान्त मान्यता नहीं है कि पृथक्त्व अन्यत्व रूप हो है, अतएव जैन मत में उक्त दोनों प्रतीतियों की अनुपपत्ति की सम्भावना नहीं है। यदि यह कहा जाय कि नव्य नैयायिकों के मत में भी 'न पथक' शब्द का 'तत्तद्-व्यक्तित्वावच्छिन्न प्रतियोगिताक मेवाभाववान् तत्तद्व्यक्ति के भेवकटामाव का प्राश्रय' अर्थ होने से रक्तो घटः श्यामात् न पृथक्' इस प्रतीति की अनुपपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि श्यामरूप और रक्तरूप के आश्रयभूत घट व्यक्ति के एक होने से रक्त घट में श्यामघट व्यक्ति का मेव न होने के कारण श्यामघरव्यक्ति के भेद का अभाव है"-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि 'श्यामाव न पृथक' शब्द से 'श्यामघटव्यक्तेन पथक' इस बोध से 'रक्तघटः श्यामात पृथक् न वा' इस सामान्य संशय की निवृसि नहीं हो सकती। इसको निवृत्ति तो श्याम से पृथक्त्वामाव अर्थात् श्याममेवाभाव के बोध से ही हो सकती है, जो नष्यन्याय के मत में सम्भव नहीं है, और दूसरी बात यह है कि यदि 'श्यामात् न पृथक्' इस वाक्य से तद्व्यक्तित्व रूप से श्याम के भेद के अभाव का बोध माना जायगा तो यह तद्व्यक्ति में 'श्याम' पद की लक्षणा के विना नहीं हो सकेगा, जब कि उसके बिना भी 'श्यामात् न पृथक्' इस वाक्य से यथाश्रुत अर्थ का बोध होता है। एतेन 'भेदाऽभेदयोरेकदैकत्र विरोध एव | न च भेदोऽन्योन्याभाव एव, अभेदस्तु तादात्म्यमिति न विरोधः, तादात्म्यस्याऽभेदश्यवहारे हेतुत्वात्' इति गङ्गेशाकूतं निरस्तम्; तादात्म्येनापि प्रकृते 'न पृथक' इत्यभेदाभिलापरूपस्याभेदव्यवहारस्य जननादेवः 'प्रमेयमभिधेयम्' इत्यादावपि प्रमेयसामान्येऽभिधेयभेदस्तोमाभावविवक्षायां तदभेदव्यवहारोपपत्तेः, बने वनाभेदव्यवहारवत् । न चेदेवम् , प्रमेया-ऽभिधेययोस्तादात्म्यमपि दुर्घटं स्यात्, भेदाभेदविकल्पग्रासात् । 'अभिधेयनादात्म्यमभिधेयत्वमेव, अभिधेयवत् इत्यादिधियां विशेषश्च तत्र तादात्म्यस्यासंसर्गत्वात् , स्वरूपसंबन्धस्यैव संसर्गत्वादिति तु तुच्छम् , अभिधेयत्वा-ऽभिधेपस्वरूपाऽविशेषात् । [एक वस्तु में भेद-अभेद के विरोध का निरसन ] प्रस्तुत सम्बन्ध में गड़श का यह अभिप्राय है कि एक काल में एक वस्तु में भेद और अभेद का विरोध ही है, जो वस्तु जिस समय जिससे भिन्न है यह वस्तु उसी समय उससे अभिन्न नहीं हो सकती। "भेद अन्योन्याभाय रूप है और अभेद भेद का अभाव न होकर तादात्म्य रूप है. प्रतः अन्योन्याभावात्मक भेद और तादात्म्य रूप अभेद में कोई विरोध नहीं है" यह नहीं कहा जा सकता है, षयोंकि तादात्म्य अभेद ध्यवहार का हेतु नहीं होता, अतः भेव और तादात्म्य को लेकर वस्तु में भेदाभेदव्यवहार का समर्थन नहीं किया जा सकता'-किन्तु यह गंगेश का अभिप्राय उक्त रीति से वस्तु में भेदाभेव का उपपादन शक्य होने से निरस्त हो जाता है। और 'तादात्म्य प्रभेद व्यवहार का हेतु नहीं है' गङ्गश का यह कथन भी निराकृत हो जाता है क्योंकि जिस वस्तु में जिमका तादात्म्य होता है उस वस्तु में उस वस्तु के अमे का भी 'यह इससे पृथक नहीं है इस रूप में व्यवहार निविपाय है। यह भी स्पष्ट है कि प्रमेयमभिधेयम्' इस प्रकार प्रमेय में अभिधेय का अभेव व्यवहार होता Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ५ श्लो० ३३ है और यह अभेद प्रभिषेय व्यक्ति जितने हैं उन सभी व्यक्तियों के भेदसमुदाय के अभाव रूप है । यह प्रभेद अभिधेय के भेदसामान्याभाव रूप नहीं है, क्योंकि अभिधेयत्व केवलान्वयी होने से अभिधेय भेद अप्रसिद्ध होने के कारण श्रभिधेय भेदाभाव अप्रसिद्ध है। अतः तत्तत् अभिधेय व्यक्ति के मेवकूट के प्रभाव रूप तादात्म्य से ही प्रमेय में अभिधेय के अभेद व्यवहार की उपपत्ति मान्य है । २१० प्रमेय में अभिय का यह अभेश्व्यवहार ठीक उसी प्रकार है जैसे वन में वनाभेद का व्यवहार होता है । आशय यह है कि वन का अर्थ होता है 'वृक्षों का समूह' समूह का भेद एक-एक वृक्ष में रहने से वृक्ष समुदाय स्वरूप वन में वन का मेद रहने के कारण वन में वनभेद के अभाव रूप अभेद का अस्तित्व नहीं माना जा सकता । अत एव यही मानना होता है कि धनाभेद का अर्थ है एक-एक वृक्ष व्यक्ति के मेद समुदाय का प्रभाव। यह अभाव वन में रह सकता है, क्योंकि वृक्ष व्यक्तियों का भेदकूट किसी भी वृक्ष में न रहने से वृक्ष समुदायात्मक वन में भी नहीं रह सकता । अतः खन में वृक्ष offee के कूट का अभाव रूप वनाभेद का होना निष्कंटक है । [ भेदाभेद के विना प्रमेय-अभिधेय का तादात्म्य दुर्घट ] यदि ऐसा न माना जायगा तो प्रमेय और अभिधेय का तादात्म्य भी अनुपपन्न हो जायगा, क्योंकि प्रमेय में अभिधेय का अत्यन्त मेद और अत्यन्त अभेद, दोनों ही विकल्पों में प्रमेय में अभिषेय का तादाम्य नहीं बन सकता, क्योंकि जिसमें जिस वस्तु का अत्यन्त भेद होता है उसमें उस वस्तु का तादात्म्य नहीं होता है, जैसे घट और पट में एवं जिस वस्तु का जिसमें अत्यन्त अभेद होता है उसमें मो उस वस्तु का तावात्म्य नहीं होता, इसीलिए 'घटो घटः यह प्रयोग नहीं होता । "अभिधेयत्व हो अभिषेकासात्म्य है तथा 'प्रमेयमभिधेयम्' इस बुद्धि में प्रमेयमभिधेयवत् इस बुद्धि का वैलक्षण्य है क्योंकि 'प्रमेयमभिधेयम्' इस बुद्धि में तादात्म्य संसर्ग है और 'प्रमेयमभिधेयवत्' इस बुद्धि में ताबातम्य संसर्ग नहीं है, किन्तु स्वरूप सम्बन्ध हो संसर्ग है" यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अभिधेयत्व और अभिधेय के स्वरूप में कोई भेद नहीं है, अतः अभिधेयत्व को 'अभिधेय के तादात्म्यरूप मानने पर उक्त बुद्धियों में लक्षण्य नहीं हो सकता | एतेन तादात्म्यत्वादिना संसर्गतादिना विशेषः' इत्यपि निरस्तम् । अतिरिक्तमेव तादात्यत्वम्, इत्थमेव 'भूतलं संयोगि-भूतलं संयोगिमत्' इति ज्ञानयोर्वैलक्षण्यम्' आद्ये तादात्म्यत्वेन, अन्त्ये संयोगत्वादिना संयोगादेः प्रकारतावच्छेदकत्वस्वीकारात । " तादात्म्यमेव वाधिकम् तत्तत्तादात्म्यत्वस्य तद्वृत्तिनानागुणादौ कल्पने, तंत्र कारणतावच्छेदकत्वादिकल्पने च गौरवात् ।" इत्यपि न पेशलम्, अतिरिक्तादात्म्य संबन्धानुपपत्तेः शबलवस्तुविशेषं चिना विशेषानुपपत्तेः संयोग-संयोगिमतोरेव कथञ्चिद्विशेषानुभवाच्चेति दिग् [ भिन्न भिन्न संसर्ग की कल्पना अयुक्त ] मेद यह कहना कि "अभिधेयत्व और अभिधेय स्वरूप में स्वरूपतः भेद न होने पर भी यह माना जा सकता है कि 'प्रमेयमभिधेयम्' इस प्रतीति में अभिधेयत्व तादात्म्यत्व रूप से सम्बन्ध होता है और 'प्रमेयमभिधेयवत्' इस प्रतीति में श्रभिधेयत्व स्वरूपश्य रूप से संसगं होता है" - निरस्त हो जाता है। क्योंकि तादात्म्यत्व अतिरिक्त ही है। इसी प्रकार 'सूतलं संयोगि' और 'भूतलं संयोगि Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या.क. टोका एवं हिन्दी विवेचन ] मत्' इन दोनों में भी बलक्षण्य सिद्ध होता है। पहले शान में संयोग तादात्म्यश्व रूप से और दूसरे में संयोगत्व रूप से प्रकारतावच्छेदक होता है । "अथवा यह कहा जा सकता है कि तादात्म्य अतिरिक्त ही है, क्योंकि तत्सद वस्तु का तादात्म्यत्व यदि तत्तद्वस्तु में विद्यमान गुण आदि विभिन्न पदार्थों में माना जायगा तो जहाँ तादात्म्य सम्बन्ध कारणतावच्छेदक होता है वहाँ कारणवृत्ति गुण आदि भिन्न पदार्थों में कारणतावच्छेकत्व को कल्पना होने से गौरव होगा 1" यह कथन भी समीचीन नहीं है क्योंकि अतिरिक्त तादात्म्य सम्बन्ध को कल्पना अनुपपन्न है। शवल वस्तु विशेष को स्वीकार किए बिना उसकी बुद्धियों में विशेष की उपपत्ति नहीं हो सकती, तथा संयोगी और संयोगिवान में ही कश्चित् विशेष का अनुभव होता है। किश्च, अत्यन्तभिन्ना-ऽभिन्नाभ्यां व्यावृत्तं सामानाधिकरण्यमपि भेदाभेदे प्रमाणम्, भेदाभेदोमयत्वेन साध्यत्वे साध्या प्रसिद्धेरभावात् । साध्यतावच्छेदकावच्छिन्नस्य हि प्रसिद्धिरपेक्षिता, न टेकत्र तत्प्रसिद्धिरपि, गौरवान्, घटे घटत्वसत्तोभयानुमित्युच्छेदप्रसङ्गाच्च । एतेन 'एकान्तभेदाभेदान्यतराभावस्य भेदविशिष्टाभेदस्य वा साध्यतायां साध्या प्रसिद्धिः, प्रत्येकं साध्यतायां चासाधारण्यम्' इति निरस्तम् । न चोभयत्वमप्येकविशिष्टापरत्वमेवेत्युक्तदोषान तिवृत्तिरेवेति वाच्यम्, अविशिष्टियोरपि गोत्वा-ऽश्वत्त्रयोरुभयत्वप्रत्ययात् । न चैवं स्वतन्त्रभेदाभेदोभयसिद्धावपि मिलिततदुभयासिद्धयोदेश्यासिद्धरर्थान्तरन्थम् , अन्तर्मु खव्याप्त्या मिलितत्वसिद्धेः अन्यथा पर्वते वह्विसामान्यसिद्धाबपि पर्वतीयवह रसिद्धप्रसङ्गात् । इत्यन्यत्र विस्तरः । [समानविभक्तिवाले पदों के प्रयोग से भेदाभेद की सिद्धि सामानाधिकरण्य यानी समान विभक्ति वाले पदों का प्रयोग भी भेवामेव में प्रमाण है, क्योंकि यह अत्यन्त भिन्न और अत्यन्त अभिन्न में नहीं होता, जैसे 'घट: पटः' ऐसा प्रयोग एवं 'घटो घट:' ऐसा प्रयोग मान्य नहीं है। किन्तु नीलो घटः' इस प्रकार नील घट का सामानाधिकरण्य मान्य है । इससे सिद्ध होता है कि नील और घर में भेवाभेद है अन्यथा 'घटः पट:' और 'घटो घटः' के समान 'नोलो घटः' प्रयोग भी न होता। उक्त सामानाधिकरण्य भेदाभेद में अनुमान के रूप में प्रमाण है, जिसका प्रयोग इस प्रकार हो सकता है कि 'घट नील से भिन्नाभिन्न है क्योंकि नील पद के समानविभक्ति वाले पद से व्यवहस होता है। जो जिससे भिन्नाभिन्न नहीं होता वह उसके बोधक पद के समानविभक्तिवाले पद से व्यवहुत नहीं होता जैसे घट पद के समान विभक्तिवाले पद से व्यवहृत होने वाला पट और घट ।' यदि यह कहा जाप कि 'नील का भेदाभेद इस अनुमान प्रयोग के पूर्व सिद्ध नहीं है अतः नील के भेदाभेद का साध्य के रूप में प्रयोग करने पर साध्यासिजि होगी'-ठीक नहीं है, क्योंकि नोल. भेव और नीलाभेद उभयरूप से नोल के भेदाभेद को साध्य करने पर साध्याऽप्रसिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि नील का भेव और नील का अभेद दोनों अलग-अलग प्रसिद्ध है । अतः साध्याऽप्रसिद्धि योष नहीं हो सकता, क्योंकि साम्यतावच्छेदकामच्छिम्न की ही प्रसिद्धि अपेक्षित होती है न कि उसकी एक प्राधिकरण में प्रसिद्धि अपेक्षित होती है, क्योंकि वेसा मानने पर गौरव होता है। और दूसरी बात यह है कि यदि एक अधिकरण में साध्यतावच्छेदकावच्छिन्न की प्रसिद्धि अनुमान के लिए अपेक्षित Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ [ शास्त्रवार्ता० स्त०७ श्लो० ३३ जायगी तो घटस और ममा उभयकी अनभितिका उदो आयगा, क्योंकि घटत्व और सत्ता उभय को अनुमिति उसी धर्मों में होगी जिसमें दोनों का अस्तित्व हो, और ऐसा व्यक्ति उन दोनों की अनुमिति के पूर्व असिद्ध है। [साध्य अप्रसिद्धि दोष का निवारण ] भेवाभेख के अनुमान के सम्बन्ध में भेदाभेद को उक्त रूप से साध्य मान लेने पर यह कहना भी कि-"भेदाभेद यदि एकान्तभेव और एकान्त अभेद के अन्यतर के अभाव रूप में साध्य होगा अथवा भेव विशिष्ट अमेव के रूप में साध्य होगा तो दोनों ही दशा में साध्य को अप्रसिद्धि होगी, क्योंकि वस्तु में किसी न किसी का एकान्तभेद अथवा एकान्त प्रभेव होता ही है और भेदाभेद के एकनिष्ठ सिद्ध होने के पर्व भेद विशिष्ट अभेद सम्भव नहीं है। यदि भेद-प्रभेद प्रत्येक को साध्य माना जायगा तो उसका साधक हेतु असाधारण हो जायगा क्योंकि प्रत्येक को साध्य मानने का अर्थ होगा साध्य कहीं सिद्ध नहीं है। फलतः हेतु के पक्षमात्र वृत्ति होने से उसका असाधारण होना अनिवार्य है"-यह निरस्त हो जाता है। [ उमयत्व रूप से साध्य करने पर कोई दोष नहीं ] यदि यह शङ्का की जाय कि भेदाभेव को भेदाभेदोमयस्व रूप से साध्य मानने पर भी साध्याs. प्रसिद्धि दोष की निवृत्ति नहीं होगी क्योंकि उभयत्व एकविशिष्टापरत्व रूप होने से भेदाभेदोभयत्व भी भेदविशिष्ट अभेदत्व रूप होगा. और वह एकनिष्ठ भेदाभेद की सिद्धि के पूर्व प्रसिद्ध है।'-तो यह उचित नहीं है क्योंकि जिन वस्तुओं में परस्पर वैशिष्ट्य नहीं होता उन वस्तुओं में भी उभयत्व की प्रतीति होती है जैसे गोत्व और अश्वत्व में। अतः उभयत्व को एकविशिष्टापरत्व रूप न मान कर संख्या रूप कि वा बुद्धिविशेषविषयत्व रूप ही मानना होगा। [अर्थान्तर की आपत्ति का निवारण ] यदि यह कहा जाय कि- भेदाभेद को उभयत्वरूप से साध्य मानने पर स्वतन्त्र रूप से मेव और अभेद को सिद्धि होने पर भी भेवमिलितअभेद किंवा प्रभेद मिलितभेद की सिद्धि न होने से उद्देश्य को सिद्धि न होने के कारण अर्थान्तर होगा'-लो यत ठीक नहीं है। क्योंकि अन्तर्मुख व्याप्ति से भेव-अभेद में परस्पर मिलितत्व की सिद्धि हो जायगी । अन्यथा अन्तर्मुखव्याप्ति की उपेक्षा करते पर धूम हेतु से पर्वत में वह्निसामान्य की सिद्धि होने पर भो पवतीय वह्नि को सिद्धि न हो सकेगी। कहने का आशय यह है कि जैसे पाकशाला आदि में 'यत्र यत्र धूमः तत्र तत्र चन्ति' इस दृष्ट बहिमुखध्याप्ति से धूम सामान्य से चह्निसामान्य का अनुमान हाता है उसी प्रकार-यन पर्वतीयो धमः तत्र पर्वतीयो वह्निः' इस 'पक्ष में दर्शनयोग्य अन्तर्मुख व्याप्ति' से पर्वतीय धम से पर्वतीय बलि की सिद्धि मी होतो है । उसी प्रकार बहिर्मुखव्याप्ति से स्वतन्त्र रूप से भेद-अभेद उभय को सिद्धि के समान अन्तर्मुखध्याप्ति से भेवमिलित अभेद की भी सिद्धि हो सकती है। इस विषय का और विस्तार अन्यत्र द्रष्टव्य है। न च व्यतिरेकच्याप्तौ व्यायाऽप्रसिद्धिः, प्रतियोगिमति तदभावाऽयोगादिति वाच्यम् तेन रूपेण प्रतियोगिमति तेन रूपेण तदभावस्यवाऽयोमात् । एतेन 'तत्रैव तत्-तदभातौं भिन्ना Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] २१३ बच्छेदेन वर्तेते, ज्ञायते चः यथा वृक्षे मूलशाखाद्यवच्छेदेन संयोग-तदभावों, तदिह घटे घटत्वावच्छेदेन नीललावच्छिन्नभेदो वर्तता, ज्ञायतां वा, तदभावस्तु किमवच्छेदेन ? इति निरस्तम, अन्योन्यव्याप्तयोस्तयोर्देश भेदेनाऽवृसारपि द्रव्यार्थता-पर्यायार्थतारूपभेदेनोपपत्तेः, यथेदत्वद्वित्वाभ्यामेकल्य-द्वित्वव्योः । विचित्ररूपत्वाश्च वस्तुनी नयभेदेन विचित्रा प्रतीतिः, यथा शाखावच्छेदेन संयोगः, तदभावश्च मूलादिनानावच्छेदेन तथा घटे नीलभेदोऽपि घटत्वावच्छेदेन, तदभावस्तु तत्तद्वयक्तित्यादिनानावच्छेदेन । 'एकप्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नभेदतदभाक्योविरुद्धाधिकरणतावच्छेदकावच्छेदेन धृत्तित्वनियमस्त्वसिद्धः, विरुद्धत्वस्थले विभिन्नस्वस्यैव लाघवेन निवेशीचित्यात्' इत्यपि नयविशेषानुरुद्धं शुद्धमनुजानीमः । [व्यतिरेक व्याप्ति में व्याप्याप्रसिद्धि दोष का निवारण ] यदि यह कहा जाय कि व्यक्तिरेकव्याप्ति में व्याप्य की प्रसीजि नहीं होगी, क्योंकि प्रतियोगो के प्राश्रय में उसका अभाव नहीं होता। कहने का आशय यह है कि साधन में साध्य की व्याप्ति तभी ज्ञात होती है जब दोनों कहों एक दृष्ट हो, जैसे पाकशाला में वह्नि और धम एक साथ दृष्ट होने से हिच्याप्य धूम को प्रसिद्धि होती है, किन्तु जो साध्य और सावन कहीं एकत्र हष्ट नहीं होते उनमें व्याप्ति नहीं हो सकता । अतः नीलके भेट- उभय को साध्य करने पर उक्त उमथ कही एकत्र दृष्ट न होने से सामानाधिकरण्य में उसकी व्याप्ति की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि साध्यव्यतिरेक में साधनध्यतिरेक काव्याप्तिग्रह जिन अधिकरणों में होता है उनमें 'साध्य और साधन का अस्तित्व नहीं होता"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जिस रूप से जहां प्रतियोगी रहता है वहाँ उस रूप से ही उसका अभाव नहीं होता, रूपान्तर से उसका अभाव होने में कोई बाधा नहीं होतो, प्रतः नील भेद जिस रूप से जहाँ है उस रूप से वहां नील का प्रभेद न होने पर भी अन्य रूप से उसका अमेव रह सकता है। [ द्रव्य-पर्यायात्मना भेदाभेद का उपपादन ] इस सन्दर्भ में कुछ लोगों का यह कहना है कि एक ही अधिकरण में प्रतियोगी और अभाव भिन्न-भिन्न अवच्छेचक द्वारा रह सकते है और ज्ञात हो सकते हैं। जैसे एक ही वृक्ष में शाखा में संयोग और मूल में संयोगाभाव रहता है और ज्ञात होता है। अतः घट में घटत्वावच्छेवेन मोल का भेव रह सकता है और ज्ञात हो सकता है किन्तु अन्य अवच्छेद क न होने से उसमें नील भेदाभाव नहीं रह सकता है और न ज्ञात हो सकता है। किन्तु यह कहना अनायास खण्डित हो जाता है, क्योंकि नील भेद और नीलामेद परस्पर ध्याप्त होते हैं। अतः देशमेव से उनका अस्तित्व न होने पर भी प्रध्यार्थता और पर्यायार्थता रूप के भेद से उन दोनों को उपपत्ति हो सकती है. अर्थाद द्रव्यात्मना नील का अभेद और पर्यायात्मना नील का प्रभेद दोनों एक साथ रह सकते हैं। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे एकत्व और द्वित्व, इदन्त्व और द्विस्व रूप से एक ही में 'अयमेक:-इमो द्वौ' इस रूप में रहते हैं और प्रतीत होते हैं। सच तो यह है कि वस्तु का रूप विचित्र है, नय क्षेत्र से उसकी विचित्रता प्रतीत होती है जैसे, वृक्ष में शाखावच्छेदेन संयोग और मूल अन्तदेश आदि विभिन्न देशावच्छेदेन संयोग का अमाव रहता है उसी प्रकार घट में घटत्वावच्छेदेन नील भेद और घनिष्ठ तत्सद्व्यक्तित्व आदि Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ | शास्त्रवा०ि स्त०७ श्लो० ३३ । विभिन्न धर्मावच्छेदेन नील मेद का अभाव रह सकता है, क्योंकि सद्धर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताक भेद और उसका प्रभाव विरुद्ध अधिकरणतावच्छेदक द्वारा ही रहते हैं। यह नियम असिद्ध है । यहाँ विरुद्ध अधिकरणतावच्छेदक द्वारा ऐसा न कह कर विभिन्न अधिकरणतावच्छेदक द्वारा कहने मे लाधव है । यह बात भी नयविशेष के अनुरूप होने से शुद्ध है अतः हम उसे मान्यता प्रदान करते हैं । अपि च, 'नील-घटयोरभेदः' इत्यादिप्रयोग एवं भेदाभेदाभ्युपगम विना न सुघटः, चार्थे द्वन्द्वानुशासनान, भेदस्य च चार्थत्वात् । अथ द्वन्द्वे न भेदस्य संसगतया प्रकारतया वा भानम् , द्वन्द्वस्य परस्पगनन्वितपदार्थबोधकत्वात | "चैत्र-चैत्रपुत्री' इत्यादी द्वितीयस्यैव चैत्रपदस्य स्वार्थसंसगंधीजनकत्वात, नामार्थयोर्मेदनाऽनन्वयात, द्वयोः प्राधान्यानुभव विरोधाच्चेति चेत् ? न, द्वन्द्वे भेदाऽभानेश्मेदभ्रमाद्यनिवृत्तिप्रसङ्गात् , भिन्नतया भानादेव द्वयोः प्राधान्यानुभवाच्च । किश्च, भेदं विना द्विवचनानुपपत्तिः, द्वित्वस्य भेदनियतत्वात् । न च पडेव पदार्थाः' इत्यादी षट्त्वादिवत्र विभिन्नधर्मग्रकारकबुद्धिविषयत्वरूपं द्वित्वं, तच्च प्रकृते न भेदनियतमिति वाच्यम्, द्विवचनाद् निरुपचरितस्यैव द्वित्वस्य प्रतीरीः, 'एकोही इत्यतीत देशपावनि छ। द्वित्वाऽविवक्षयकोषपत्तेः । विचित्रनयविवक्षया तु तत्र द्वित्वतो द्वित्वादिकं प्रतीयत एवं | यह भी ज्ञातव्य है कि-'यदि भेदाभेद न माना जायगा तो 'नील घटयोः अभेदः' इस प्रयोग की उपपत्ति न होगी क्योंकि थार्थ में ( च शब्द के अर्थ में ) द्वन्द्व समास का विधान है और भेद ही वार्य है, अतः यदि नील और घट में केवल प्रभेद ही होगा तो नील और घर का द्वन्द्व समास नहीं हो सकता है। [द्वन्द्व समास में भेदभान के निरसन का प्रयास ] यदि यह कहा जाय कि-'द्वन्द्व में भेद का संस गैरूप अथवा प्रकार रूप में भान नहीं हो सकता क्योंकि द्वन्द्व समास परस्पर में अनन्वित पदार्थ का बोधक होता है और यदि भेद का संसर्ग रूप में या प्रकार रूप में भान माना जायगा तो एक पदार्थ दूसरे पदार्थ से अन्वित हो जायगा । 'चैत्र-चैत्रपुत्रों से प्रथम चैत्रपद के अर्थ का चैत्रपुत्र पदार्थ में अन्वय नहीं होता है किन्तु दूसरे पक्ष के अर्थ का पुत्रत्व में निरूपितस्य संसर्ग का बोध होता है। उस बोध में यह शङ्का नहीं हो सकती कि- 'पुत्रत्व में चैत्र का निरूपितत्त्व सम्बन्ध से प्रत्यय सम्भव नहीं है क्योंकि दो नामाथी का भेद सम्बन्ध से अर्थात् अभेदान्य सम्बन्ध से अन्क्य मान्य है। द्वन्द्व में भेव का भान मानने में यह भी बाधा है कि यदि द्वन्द्व में एक पदार्थ तसरे पदार्थ में भेद सम्बन्ध से अन्वय अथवा भदरा विशेषण होगा तो द्वन्द्व में दोनों पदाथों के सर्वमान्य प्रधान्यानुभव का विरोध होगा। प्रतः द्वन्द्व में भेद का भान सम्भव न होने से यह कहना कि भेदाभेद का अभ्युपगम किए विना 'नील-घटयोः प्रभवः' यह प्रयोग अनुसंपन्न है, ठीक नहीं है" [ द्वन्द्व समास में भेद का मान न मानने में आपत्ति ] किन्तु यह कथन उचित नहीं है क्योंकि द्वन्तु में भेद का भान न मानने पर अभेदभ्रम प्रादि की निवृत्ति न हो सकेगी। और जो द्वन्द्व में दोनों पदार्थों में प्राधान्य के अनुभव की बात कही गयी है वह भी तभी हो सकती है जब दोनों पदार्थों का भिन्नरूप में मान हो । अतः सिद्ध है कि घट में Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या०० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] नौल-अभेद के समान नील-भेद भी मानना ही होगा, अन्यथा उनमें द्वन्द्व न हो सकेगा। आशय यह है कि यदि नील और घट में केवल भेव होगा तो 'नील-घटयोः प्रभवः' इस प्रकार दोनों में अभेव की उक्ति प्रसंगस होगी और यदि बोनों में अभेव ही होगा तो 'नीलघटयोः' इस द्वन्तु की अनुपपत्ति होगी। इतना ही नहीं किन्तु यह भी ज्ञातव्य है कि नील और घट में भेद का बोध माने विना उक्त प्रयोग में 'नील-घट' शब्द से द्विवचन विभक्ति की भी उपपत्ति न हो सकेगी, क्योंकि द्विरव भेदण्याप्य होता है। [विलक्षण द्वित्व भेदव्याप्य न होने की शंका का निरसन ] यदि यह वहा जाय कि “जसे 'षडेव पदार्थाः' में घट शब्द से बदत्व संख्या का बोध नहीं होता है क्योंकि गुण आदि पदार्थों में संख्या नहीं रहती किन्तु द्रव्यत्व गुणत्व आदि विभिन्न धर्मप्रकारक 'द्रव्यं गुण:'....इत्यादि बद्धि को विषयतारूप बदत्व का ही बोध होता है. उसी प्रकार 'नोलघटयो:' में नील और घर में नीलत्व और घटत्वरूप भिन्नधमप्रकारक बद्धि को विषयता रूप द्वित्व का हो बोध होता है, और यह हिमलाल नहीं "जो मह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि द्विवचन विभक्ति से मुख्य वित्व का हो बोध होता है जो भेद का व्याप्य होता है । 'एकः द्वौं' इस प्रतीति का प्रभाव तो एकत्वावच्छिन्न में विश्व को विवक्षा न होने से ही उपपन्न होता है, अतः यह नहीं कहा जा सकता कि एक मैं भी मुख्य विश्व के रहने से 'एकः द्वौ' इस प्रतीति का अभाव नहीं होना चाहिये । वास्तव में विचित्रनय की विवक्षा से अर्थात एक में द्विस्व की प्राश्रयता मताने की इच्छा होने पर 'एकः द्वौ' इस प्रयोग में द्वित्व की प्रतीति होती ही है। केवल उसके अवच्छेवक रूप में एकत्व विवक्षित नहीं रहता, किन्तु एफ में भी द्वित्वाषच्छेवेन द्वित्व के रहने से उसको प्रतीति में कोई बाधा नहीं हो सकती। ___"यद्यद्धर्मप्रकारकयुद्धिविषयत्वं गोणीकृतद्वित्वादिव्यवहारनिमित्तं तत्तद्धविच्छेदेन पर्याप्तम् , तेन ‘एको द्रौ' इत्यादेव्यु दासः" इत्येकान्तम्तु न शोभते, 'रूप-रसवतोरभेदः' इतिवत् 'रूप-रसवान द्वो' इत्यस्य प्रसङ्गात , अप्रसङ्गाच 'घदों' इत्येकशेषस्य । तत्र घटत्वादेदिखावच्छेदकत्वेऽन्यत्राप्येकत्र घटत्वेन द्वित्वयोधस्य प्रमाणत्वापत्तः । किञ्च, पदार्थभेदनियतत्यादपि द्वन्द्वस्य नील बटयोरभेदसंबलितो भेदः। 'प्रतिपाद्यभेदनियतत्वमेव तस्य, क्वचित पदार्थभेदे, क्वचित् पदार्थतापच्छेदकभेदे तन्प्रवृोः' इति त्वेकवटाभिप्रायकवटपदद्वयेऽपि द्वन्द्वापत्तन शोभते । [एकान्तबादी को 'रूप-रसवान द्वो इस प्रयोग की आपत्ति ] एकान्तवादी का यह कहना है कि-"एकः द्वौ' इस प्रयोग के न होने का अन्य कारण है, वह यह कि यद्-यत्-धर्मप्रकारक बुद्धि को विषयता द्वित्व आदि के गौण व्यवहार का निमित्त होती है तत-तत्धर्मावच्छेदेनेव द्वित्व की पर्याप्ति होती है । यतः एकत्वप्रकारकबुद्धिविषयत्व द्वित्व ध्यवहार का निमित्त नहीं है अतः एकत्वावच्छिन्न में द्वित्व की पर्याप्ति न होने से 'एकः द्वौ' यह प्रतीति अथवा प्रयोग नहीं होता"-किन्तु यह कथन शोभास्पद नहीं है क्योंकि उक्त राति से द्वित्व की पर्याप्ति मानने पर जैसे 'रूप-रसयतोरभेदः' प्रयोग होता है उसी प्रकार 'रूप-रसवान् द्वौ' इस प्रयोग की मो आपत्ति Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ [ शास्त्रवा० स्त० ७ श्लो० ३३ होगी क्योंकि रूपत्व और रसवत्व प्रकारक रूपं रसाश्च' इस बुद्धि को विषयता विश्व के गौण व्यवहार का निमित्त है । अतः जैसे 'रूपरसवतोः' में द्विवचन से द्वित्व का बोष होता है उसी प्रकार रूप-रसवान् द्वौ' में द्विशब्द से रूपत्व और रसत्यावच्छिन्न में द्वित्व की प्रतीति होने में कोई बाधा नहीं है । इस आपत्ति के साथ ही दूसरी प्रापत्ति यह है कि 'घटो' यह एकशेष उपपन्न न हो सकेगा क्योंकि घटत्वमात्रप्रकारकबुद्धि विषयता द्वित्व के गौण व्यवहार का निमित्त नहीं होती। प्रतः घटस्वावसछेवेन द्वित्व की पर्याप्ति न होने से घटत्वमात्रावच्छिन्न में हित्व के बोधक घटौ' इस एकशेष को उपपत्ति सम्भव नहीं है और यदि घटत्व को द्वित्व का प्रयच्छेवक माना जयगा तो जैसे दो घट में 'घटी' एकशेष से द्वित्व का बोध होता है उसो प्रकार 'घटः द्वौं' इस वाक्य से भी घटत्वावच्छेदेन द्वित्व का मोष सम्भव होने से यह वाक्य भी प्रमाण हो जायगा। [ द्वन्द्वसमास पदार्थभेदनियत मानना होगा ] उक्त के अतिरिक्त यह ज्ञातव्य है कि इन्च समास पदार्थभेव में नियत है, अतः नौल और घट में अभेद मिश्रित भेव मानना आवश्यक है क्योंकि मेद माने विना 'नील-घटयोः' इस प्रकार नील और घद में द्वन्ध नहीं हो सकता। इस सम्बन्ध में यह कहना कि- 'द्वन्द्व समास पदार्थभेद में नियत नहीं है किन्तु प्रतिपाद्य भेव में नियत है और प्रतिपाद्य पदार्थ भी होता है तथा पदार्थतावच्छेरक भी होता है इसके अनुसार हो कहीं पदार्थभेद में इन्द्व होता है और कहीं पदार्थतावच्छेदक भेद में द्वन्न होता है। 'नीलघटयोरमेवः' में पदार्थतावच्छेवक भेद में द्वन्द्व समास होता है"-यह ठोक नहीं है, क्योंकि एक एट के अभिप्राय से दो घट पदों का प्रयोग करने पर मो तुन्द्व की आपत्ति होगी, फलतः एक घट की विवक्षा से 'घटौ' इस प्रयोग का भी औचित्य होने लगेगा क्योंकि यहाँ पर मी घट पद के प्रतिपाद्य घट और घटस्व में भेद है। अथैकपदप्रतिपाद्यत्वसामानाधिकरण्येनायरप्रतिपाद्ययावच्छिनभेदे एकपदजन्यप्रतिपत्तिविषयितात्यसामानाधिकरण्येनापरपदजन्यप्रतिपत्तिविषयितालावच्छिन्नभेदे वा द्वन्द्वः, इत्थमेव मेयवदभिधेयवद्बोधकतदादिपदद्वन्द्वानपवाद इति चेत् ! न, विषयिताया ज्ञानस्वरूपन्वे तदभेदे तदभेदात , तद्-इदम्-पदाभ्यो द्वन्द्वातुपपत्तेश्च, ताभ्यां तद्वयक्तेरेवोपस्थापनात् , तत्तेदंतयोः परेण व्यक्त्यतिरिक्तयोरनभ्युपगमात् , संस्कारज-प्रत्यक्षज्ञानाभ्यामेव तदिदंपदोल्लेखसमर्थनात् । यदि च विषयाऽभेदेऽपि ज्ञानविषयताभेदः, तदा साकारवादापत्तिरित्यादि सूक्ष्ममीक्षणीयम् , भेदस्याऽस्वाभाविकल्वे संख्यादीनां निरालम्पनत्वप्रसङ्गात् , प्रमीयमाणन्वेनाऽवास्तवत्वाऽयोगाच्च । प्राधान्यमद्राधान्यं पुनराभिमानिकमेव । इति विचामन्यत्र ॥ ३३ ॥ [द्वन्द्वसमास में विलक्षणरीति से नियामक की शंका ] यदि यह कहा जाय कि-एक पद से प्रतिपाझ यत्किश्चिद् व्यक्ति में अपर पद से प्रतिपाय सामान्य का भेव, तथा एक पद से होने वाले ज्ञान को यस्किश्विद् विषयिता में अन्य पद से होने वाले . शान की विषयितासामान्य का भेद, द्वन्द्व समास का नियामक है। ऐसा मानने पर गोल घटयोरमे।' Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या टीका एवं हिन्दी विवेचन ] २१७ में नील और घट में द्वन्द्व समास होने में कोई बाधा नहीं हो सकती, क्योंकि नील पब से प्रतिपाद्य यत्किश्चित् नील पट आदि में घट प्रतिपाद्य सामान्य का भेद है, एवं घट पद से प्रतिपाद्य परिकश्चित पीत घट आदि में नील पट के प्रतिपाद्य सामान्य का भेद है, अतः 'नौल घटयोरभेदः' में नील और घट में द्वन्द्व की उपपत्ति के लिए उनमें अभव मिश्रित भेद मानना नियुक्तिक है। द्वन्द्र का उक्त नियामक मानने पर एक घट के अभिप्राय से प्रयुक्त दो घट पदों में इन्द्र की भी प्रापत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि एक घट पद से प्रतिपात्र में अन्य घट पद के प्रतिपाद्य सामान्य का भेद नहीं है । और न एक घट पद से होने वाले ज्ञान को विषयिता में अन्य घट पद से होने वाले ज्ञान की विषयितासामान्य का भेद हो है । द्वन्द्व के उक्त नियामकों में दूसरे नियामक के कारण हो मेयवत और अभिधेयक्त के बोधक तद् पद में स च स च, तो इस प्रकार के द्वन्द्व में कोई बाधा नहीं होती, किन्तु पदार्थ भेन या पदाथना सोकाको सन्दका शिसापक मानने पर यह द्वन्द्व बाधित हो जाता है क्योंकि मेयवत के बोधक तव पद और अभिधेययत के बोधक तत् पद के पदार्थ और पदार्थतावच्छेवक किसी में भेद नहीं है" [ पूर्व पक्षी कल्पित द्वन्द्वनियामक में दोषोद्भावन ] किन्तु यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि विषयिता को ज्ञानस्वरूप मानने पर ज्ञान का प्रमेय होने पर विषविता का भी प्रभेद होने से एक घट पद के अभिप्राय से प्रयुक्त दो घट पदों में इन्द्र की मापत्ति का परिहार नहीं हो सकता। क्योंकि मिन घट पदों से होने वाले ज्ञानों में व्यक्तिगत रूप से भेद होने से इनकी विषयिताओं में भी व्यक्तिगत भेद होने के कारण एक घट पर जन्य ज्ञाम को विषयिता में मपर घट पद अन्य ज्ञान को विषयिता का भेद निर्विवाद है । इसके अतिरिक्त तत् पर और इवम् पद में द्वन्द्व समास की अनुपपत्ति होगी क्योंकि तत् पद और इदम् पद से तद् व्यक्ति की हो उपस्थिति होती है। क्योंकि बादी को व्यक्ति से अतिरिक्त रूप में तत्ता और इदन्ता स्वीकार नहीं है। तस् पवार्य और इवम् पदार्थ में मेव न होने पर भी तव पद का प्रयोग संस्कार जन्य ज्ञान और इवम पद का प्रयोग प्रत्यक्षज्ञान के आधार पर होता है। और यदि विषय का भेद न होने पर भी मानविषपिता में भेद माना जायगा और उसके बल से व्यक्ति के बोधक तत् पर और इदम् पद में द्वन्द्व की उपपत्ति की जायगी तो ज्ञान के साकारवाद की आपत्ति होगी जिसके फलस्वरूप विषय के प्रभाव में विभिन्नाकार नान सम्भव होने से विषय का उच्छेद हो जायगा। यह सब दोष उक्त द्वन्द्व नियामकों के सन्दर्भ में सूक्ष्मता से विधारणीय है। [द्रव्यपर्याय में वास्तव भेद न होने की शंका का निवारण ] कुछ लोगों का यह मत है कि-'द्रव्य और पर्याय में वास्तव में अभेद हो है, किन्तु उनके संख्या और संज्ञा प्रादि कार्यों में भेद होने से उनमें भेद अस्वाभाविक है-किन्तु यह मत समीचीन नहीं है, मयोंकि मेद को अस्वाभाविक मान लेने पर संख्या आदि की मान्यता निराधार हो जायगी। यतः द्वित्व त्रित्व आदि संख्याएँ वस्तुतः भिन्न पदार्थों में ही आश्रित होती हैं । दूसरी बात यह है कि वृध्य और पर्याय में मेद की प्रमात्मक बुद्धि होती है, अतः उसे अवास्तव कहना मसंगत है। द्वन्द्व में दोनों पदार्थों के प्राधान्यानुभव के विरोध को आपत्ति दी गयी थी यह उचित नहीं है क्योंकि प्राधान्य और अप्राधान्य पदार्प न होकर आभिमानिक है। इस विषय का विस्तार से विवेचन अन्यत्र किया गया है ॥ ३२ ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ [ शास्त्रवार्ताः स्त.. श्लो. ३४-३५ तदिदमखिलमभिल्योपसंहरबाहमूलम्-एवंन्यायाऽविरुद्धऽस्मिन् विरोधोद्रायन नृणाम् । __ व्यसनं वा जडत्वं वा प्रकाशयति केवलम् ॥ ३४ ॥ एवम्-उक्तदिशा न्यायाविरुद्ध प्रमाणाऽप्रतिषिद्धे अस्मिन्-भेदाभेदे, तृणां तार्किकपुरुषाणां, विरोधोद्भाधनम् "विरुद्धौ भेदा-उमेदो नैकत्र संभवतः' इत्यभिधानम् , व्यसनं जानतामप्यभिनिवेशेन स्याद्वादमात्सर्यधीः. जडत्वं वा-सूक्ष्मार्थानुलोक्षित्वलक्षणं घुद्धिमान्धं वा केवलं प्रकाशयति, तत्कार्यत्वादस्य वस्तुतो विरोधाऽसिद्धेः ।। ३४ ॥ [ भेदाभेद में विरोध उठाना जड़ता का प्रदर्शन ] उक्त सभी बातों को दृष्टि में रखते हुए कारिका ३४ में उक्त विचार का उपसंहार किया गया है. कारिका का अर्थ इस प्रकार है-वस्तु का भेदाभेद ऐसा तथ्य है जिसमें न्याय का कोई विरोध नहीं है । इस तथ्य के विरुद्ध कोई प्रमाण नहीं है फिर भी ताफिक पुरुष इस तथ्य के सम्बन्ध में विरोध का उभावन करते हैं, उनका कहना है कि भेव और अमेव में परस्पर विरोष है अत एव उन दोनों का किसी एक वस्तु में समावेश सम्भव नहीं है। प्रस्थकार का कहना है कि ताकिक पुरुषों के इस फथन से केवल उनके व्यसन अथवा जड़ता को अभिव्यक्ति होती है, उनके कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि वे तथ्य को जानते हुए भी अभिनिवेशयश स्यादवाद को मान्यता के प्रति द्वेष रखते हैं, मथवा उनके कयन से ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी बुद्धि मन्द है-वे सूक्ष्म वस्तु नहीं समझ सकते हैं, क्योंकि इस प्रकार का कयन ध्यसन और जड़ता का ही सूचक हो सकता है। सच बात यह है कि मेव और अभेद में परस्पर विरोध नितान्त अप्रसिद्ध है ।। ३४॥ एतदेव स्पष्टयतिमूलम्--न्यायात्खलु विरोधो यः स विरोध इहोच्यते । ____यवेकान्तभेदावी तयोरेवाऽप्रसिद्धितः ॥ ३५ ॥ न्यायात प्रमाणात् यः खलु विरोधः अनुभवबाधलक्षणः, स इह-प्रकृतविचारे विरोध उच्यते लोकेन, नाऽन्यः । किंवत् ? इत्याह-यवत-यथा 'एकान्तभेदादावभ्युपगम्यमाने' इति शेषः, तयोरेष-द्रव्य-पर्याययोरेव, अप्रसिद्धितः स्वरसोदयदनुभवाऽनुपपत्तेः॥३५॥ { एकान्त मेद और अभेद में विरोध संगत ] कारिका ३५ में पूर्व कारिका के ही वक्तव्य को स्पष्ट किया गया है, कारिका का अर्थ यह है-जो विरोध यानी अनुमवबाप न्यायानुमत न्यायसम्मत होता है, वस्तुतत्त्व के विचार में उसी का उद्धापन किया जाता है जैसा कि एकान्त मेद किंवा एकान्त अभेद मानने पर द्रव्य और पर्याय की प्रसिद्धि-अर्यात सहज अनुभूति का उपपावन न होने से सम्भव होता है ॥ ३५ ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याक टोका एवं हिन्दी विवेचन ] २१९ कथम् ? इत्याहमूलम्-मृद्रव्यं यन पिण्डादिधर्मान्तरविवर्जितम् । ___तमा तेन चिनिर्मुक्तं केवलं गम्यते कचित् ॥ ३६ ।। मृद्रव्यं यदु-यस्माद् न पिण्डादिधर्मान्तविजितं केवलं क्वचिद् गम्यते। तेन द्रव्यात्मकाभेदमात्राऽभ्युपगम पिण्डादिभेदाऽप्रसिद्धिः । तद् वा=पिण्डादिधर्मान्तरं तेन मृद्रव्येण विनिमुक्तं केरलमाकारमात्रमेव, न क्वचिद् गम्यते । तेन पर्यायाऽऽत्मकभेदमात्राभ्युपगमे मृद्रव्यादिभेदाऽप्रसिद्धि ।। ३६ ।। [ द्रव्य और उसके धर्म एक दूसरे को छोड़कर नहीं होते ] पूर्व कारिका में एकान्तभेद आदि मानने पर द्रव्य-पर्याय के अनुभव की जो अनुपपत्ति बतायो गयो, प्रस्तुत ३६वीं कारिका में उसी का उपपादन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार हैमत्तिका-रूप तस्य कहीं भी पिण्ड प्रावि अन्य धर्मों से मुक्त रह कर केवल मत्तिका के रूप में नहीं उपलब्ध होता है, इसलिए पधि केवल प्रध्य रूप अभेद का ही अस्तित्व माना जाएगा तो पिण्ड प्रावि मेवात्मक पर्यायों की अनुपपत्ति होगी, इसलिए द्रव्यात्मक एकान्त प्रभेद को मान्यता नहीं दी जा सकती। इसीप्रकार पिण्ड आदि पर्याय मत्तिका से मुक्त होकर केवल प्राकार मात्र में कहीं भी उपलब्ध नहीं होते, अतः पिण्ड आदि पर्याय रूप भेदों का ही केवल अस्तित्व यदि माना जायगा तो मृतिका रूप द्रव्य के अनुभव का अपलाप होगा अतः एकान्त अभेव को मी मान्यता नहीं दी जा सकती ।। ३६ ॥ ततः किम् ? इत्याह - मूलम-ततोऽसत्तत्तथा न्यायादेकं चोभयसिद्धितः। __ अन्यत्रातो विरोधस्तवभावापत्तिलक्षणः ।। ३७॥ ततः तस्मात तत्-मृद्रव्यापिण्डादि तथा परस्परनिरपेक्षम् न्यायात अननुभवलक्षणात् असत् असिद्धम् एकं च एकमेव मृद्रव्यापिण्डादि 'असत्' इति योगः, उभयसिद्धितः-तथोभयोपलब्धः। यत एवम्, अन्यत्र केवलभेदपक्षऽभदेपो वा, अतो विरोधः, तदभावापत्तिलक्षण द्रव्य-पर्यायाभावप्रसङ्गलक्षणः, स्वानभिमतार्थोपलम्भे परस्य स्वेनैव स्वाभिमतार्थोपलम्भेऽपि परेणाऽसद्विषयत्वस्य वक्तुमशक्यत्वात् , स्वतन्त्रधर्मधर्मिस्वीकारेऽपि वैशेषिकादीनां तत्र भेदाभेदधियोरेकतरभ्रान्तत्वे तदितरभ्रान्तत्त्वस्य तुल्यत्वात् । ततः सामानाधिकरण्यानुभवाधरूपो विरोधो न भेदाभेदयोरिति सिद्धम् । [ परस्पर निरपेक्ष द्रव्य और धर्म असिद्ध ] कारिका ३७ में पूर्व कारिका के कथन का फलितार्थ बताया गया है, कारिका का अर्थ इस प्रकार है-पिण्ड आदि धर्मों से रहित मृद्रव्य की उपलब्धि न होने से एवं मृव्य से मुक्त केवल Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० [ शास्त्रमा स्त.७ श्लो० ३७ गि मादि कार की उपलमिल न होने से मदव्य और पिण्ड आदि की परस्पर निरपेक्षता-परस्पर भिन्नता असिद्ध है, क्योंकि दोनों में परस्पर निरपेक्षता का अनुमब नहीं होता। मृद्रव्य और पिण्ड आदि एक ही हैं, उनमें कुछ भी भेद नहीं हैं यह बात मी प्रसिद्ध है क्योंकि उन दोनों में भेद और अभेद दोनों की उपलब्धि होती है । 'मृत qिug:' इस प्रकार मत् द्रव्य और पिण्ड आकार दोनों में सामानाधिकरण्य का प्रनुभव निर्विवाद है इसीलिए मेदामेव पक्ष से भिन्न केवल भेव पक्ष तथा केवल प्रमेव पक्ष में द्रव्यपर्याय के प्रभाव को आपत्ति रूप विरोध का होना अनिवार्य है । [भेद-अभेद के सामानाधिकरण्य में विरोध का अभाव ] स्पष्ट है कि एक वादी के अनभिमप्त अर्थ का उपलम्भ अन्य यात्री को जो होता है उसे अनभिमतवादी असविषयक नहीं कह सकता। और इसी प्रकार एकवादी के अभिमत अर्थ का उपलम्भ जो उसे होता है अन्य वादी उसको असद्विषयक नहीं कह सकता है। फलतः अमेवोपलम्भ और मेवोपलम्भ किसी को असद्विषयफ नहीं कहा जा सकता। अतः द्रव्यपर्यायाभाव की आपत्ति केवल भेद पक्ष और केवल अमेव पक्ष में ही होती है। वैशेषिक आदि जो धर्म और धर्मी में स्वातन्त्र्यभेद मानते हैं घे भेव और अभेद को विषय करने वाली बुद्धि को यदि प्रभेद अंश में भ्रम कहेंगे तो तुल्यरीति से उसे भेद अंश में भी भ्रम कहा जा सकेगा। फलतः भेव-अमेव किसी को भी सिद्धि न हो सकेगी। अतः निर्विवादरूप से यह सिद्ध होता है कि भेव और प्रभेद में जो सामानाधिकरण्य का अनुभव होता है उसमें अनुभवयाधरूप विरोध नहीं हो सकता है। ___ 'सहानवस्थाननियमादनयो धितमेव सामानाधिकरण्यमिति चेत् १ न, तन्नियमाऽसिद्धेः, बसथादौ रूपस्य गन्धाऽसामानाधिकरण्यदर्शनेऽपि पृथिव्यां तत्सामानाधिकरण्यवत , पर्वतमहानसयोः पर्वतीय-महानसीयवल्यभावयोः परस्पराऽसामानाधिकरण्यदर्शनेऽपि हदे तदुभयसामानाधिकरण्यवद् भेदाभेदयोः प्रतियोगिविशेषितयोरन्यत्राऽसमाविष्टयोदर्शनेऽपि प्रकृते समावेशसंभवात् । नन्वेवं गन्ध-रूपयोरिव' मेदाऽभेदयोरप्यनवच्छिन्नत्वं स्यादिति चेत् ? अनवच्छिन्नयोरनवच्छिन्नत्वमेव, अवच्छिन्नयोश्वाच्छिमत्वमेवेति किं नावयुध्यसे । वस्तुतो न क्वचिदेकान्तः, रूप-गन्धयोरपि भिन्नस्वभावावच्छेदेन पृथिवीवृत्तित्वोपगमात्, अन्यथकत्वा पातात् । 'रूपस्वभावेन गन्धो न पृथिवीवृत्तिः' इति व्यवहाराच्चेति । एतेन परस्परग्रहप्रतिबन्धकाहविषयत्वरूपो विरोधोऽपि निरस्तः, भेदा-ऽभेदग्रहयोविलक्षणसामग्रीकत्वेनैकाहेऽपराऽग्रहात् , तेन रूपेण च रूपवत्ताग्रहेऽपि गन्धवत्ताऽग्रहादिति द्रष्टव्यम् ।। ३७ ॥ । भेदाभेद में सहानवस्थान का नियम असिद्ध ] यदि यह कहा जाय कि-'मेद और अभेद में सहानवस्थान का-एकत्र न रहने का नियम है, अत एव उनका सामानाधिकरण्य बाधित है । अतः बाधित सामानाधिकरण्य की प्रतीति से उनमें अविरोध नहीं माना जा सकता'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि भेदाभेव के सहानवस्थान का नियम असिद्ध है। सच तो यह है कि जैसे अग्नि आदि में रूप और गन्ध के सहानवस्थान का दर्शन होने पर भी पृथ्वी में दोनों का सहानवस्थान होता है, एवं पर्वत और पाकशाला किसी एक में पर्वतीय वह्नयभाव और Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] २२१ पाकशालागत वसयमाव के सहानवस्थान का दर्शन होने पर भी जलहृद में दोनों का सहावस्थान होता है, ठीक उसी प्रकार प्रतियोगी से विशेषित भेद और अभेद का किसी अन्य एक स्थान में सहानवस्थान का दर्शन होने पर प्रकृत द्रव्य में वोनों का समावेश हो सकता है। । रूप-गन्धवत भेदाभेद में भी अनवच्छिन्नल्य ] प्राशय यह है कि एकमद्रव्य के कई आकार होते हैं जैसे पिण्ड, घट आदि । उनमें पिण्ड का अथवा घट का सेव-प्रमेव दोनों पिण्ड-घट दोनों में से किसी भी एक में नहीं रहता, किन्तु मदद्रव्य घटात्मना पिण्ड से भिन्न होता है और मदात्मना किया पिण्डारमना पिण्ड से अभिन्न होता है, एवं, मवतव्य पिण्डात्मना घट से भिन्न होता है किन्तु मदात्मना कि वा घटात्मना घट से अमिन होता है। यदि यह कहा जाय कि-'गन्ध और रूप पथ्वी में जैसे अवच्छेवक भेद के बिना भी समाविष्ट होते हैं उसोप्रकार भेव और अभेव को भी अवच्छेदक मेव के विना एकत्र समाविष्ट होना चाहिए-तो इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि जो अवच्छेदक निरपेक्ष होता है वह अनयच्छिन्न ही होता है और जो अयच्छेदक सापेक्ष होता है वह अवच्छिन्न ही होता है। गन्ध और रूप कहीं भी अवच्छेदक की अपेक्षा नहीं रखते, अत एव ये पृथ्वी में अनावच्छिन्न होते हैं। किन्तु, भेद और अमेव प्रयच्छेदक की अपेक्षा रखते हैं, जैसेः पिण्ड का भेव घटत्यावच्छिन्न में होता है एवं पिण्ड का प्रभेद पिण्डत्वावच्छिन्न में होता है । प्रतएव मद्रव्य में पिण्ड के भेदाभेद को भी अवच्छिन्न होना युक्तिसङ्गत है। [ रूप और गन्ध का अवच्छदक स्वभाव भेद ] किन्तु यह ज्ञातव्य है कि वास्तव में एकान्त पक्ष कहीं भी मान्य नहीं है । रूप और गन्ध मी भिन्न स्वभावरूप अवस्छेचक द्वारा ही पृथ्वी में अवस्थित होते हैं। यदि ऐसा न होकर ये दोनों अभिन्न स्वभाव से पथ्वी में अवस्थित हो तो स्वभाव अभेद होने से उनमें ऐक्य की आपत्ति हो जायगी। एक वस्तु का अन्य वस्तु के स्वभाव से न रहना उचित मी है, क्योंकि गन्ध रूप के स्वभाव से पृथ्वी में नहीं है यह सर्वमान्य व्यवहार है। यदि यह कहा जाय कि-मेद और अभेद में सामानाधिकरण्य के अनुभव का बाथरूप विरोध एवं सहानवस्थान के नियमरूप विरोध के न होने पर भी तोसरे प्रकार का विरोध हो सकता है और वह यह कि भेदज्ञान का अभेदज्ञान से एवं अमेदज्ञान का मेवज्ञान से प्रतिबन्ध होने से दोनों में परस्पर ज्ञान के प्रतिबन्धकज्ञान की विषयता है और यही उनमें विरोध है। किन्तु यह विरोध भी इस आधार पर निराकृत हो जाता है कि मेवग्रह और अभेदग्रह की जनक सामग्रियों में भेव है, उन दोनों सामग्रियों का एक काल में सन्निधान नहीं होता, अतः दोनों का ज्ञान एक साथ नहीं होता, अतः उनके एक साथ न होने के कारण उनमें परस्पर प्रतिबध्य प्रतिबन्धक भाव का होना सम्भव नहीं है किन्तु कोनों की जनक सामग्री का एक काल में उपस्थित न होना ही युक्त है। इसोप्रकार रूप और गन्ध में पथ्यो द्रव्यात्मना अभेद होने पर भी रूपत्व प्रौर-गन्धस्य रूप से प्रभेद होने के कारण तथा रूपत्वेन रूपग्रहण और गन्धन सन्ध्र ग्रहण की जनक सामग्री विलक्षण होने से रूपस्वरूप से रूपवत्ता का ज्ञान होने पर भी गन्धत्वरूप से गन्धवत्ता का ज्ञान नहीं होता ।।३७॥ दोषान्तरनिराकरणायाह---- मूलम्---जात्यन्तरात्मके चास्मिानवस्थाविदूषणम् । नियतत्वाद् विक्तस्य भेदादेश्चाप्यसंभवात् ॥ ३८ ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता स्त० ७ श्लो० ३८ जाम्यन्तरात्मके च-अन्योन्यानुविद्धे च अस्मिन् = भेदाभेदेऽभ्युपगम्यमाने अनरस्थादिदुषणं न भवति - A 'येनस्वभावेन भेदस्तेनाभेदः' इत्युक्तौ विरोधः, इति भिन्नाभ्यां Farari तदङ्गीकारे तयोरपि तत्र वृत्तौ स्वभावभेदगदेषणायामनवस्था, आदिना Barयां स्वभावाभ्यां भेदाभेदस्वभावयोः भेदाभेदस्वभावाभ्यां च तयोः स्वभावयो त्तित्वे C स्वापेक्षितापेक्षितापेक्षायां चक्रक्रम्, D स्त्रापेक्षायामेव वात्माश्रयः, E येन परस्पराश्रयः, स्वभावेन भेदस्याधिकरणं वस्तु तेनाभेदस्य येन च सभावेनाभेदस्याधिकरणं तेन भेदस्य वेति संकर इत्यादि द्रष्टव्यम् । कथमेतद् दूषणं न भवति १ इत्याह-- नियतत्वात् स्वभावनियतत्वाद् भेदाभेदवस्तुनः तथा चोत्पत्तिज्ञप्त्यप्रतिबन्धाद् नानवस्थादिकम् । तदुक्तम्- - ' न चानवस्था, अन्यनिरपेक्ष स्वस्वरूप एव तथात्वोपपत्तेः' इति । अन्यैरप्युक्तम्- - " मूलक्षयकरी प्राहुरनवस्थ हिं दुषणम्" [ न्यायमंजरी ] इति । तथा, विविक्तस्य = अनुभवानुपातिस्वभाववहिर्भू तस्य भेदादेश्व एकान्तवादिपरिकल्पितस्य असंभवात, तेन न संकर इति भावः ॥ ३८ ॥ [ अनवस्थादि पाँच दोष का आपादन ] २२२ ३ कारिका में भेदाभेद पक्ष में सम्भावित अन्य दोषों का निराकरण किया गया है वे दोष हैं - १. अनवस्था, २. परस्पराश्रय, ३. चक्रक, ४. आत्माश्रय और ५. संकर । आशय यह है कि(१) जिस स्वभाव से जहाँ मेव का अस्तित्व होगा उसी स्वभाव से वहाँ अमेव का भी अस्तित्व माना जायेगा तो दोनों में अमेद होगा क्योंकि एक स्वभाव से भेद अमेव का एकत्र अस्तित्व विरुद्ध है । इसलिए भिन्न स्वभावों द्वारा भेद प्रभेद का अभ्युपगम करना होगा। फिर जिन भिन्न स्वभावों को स्वीकार किया जायगा उनका भी एक स्वभाव से प्रस्तिश्व मानने पर विरोध की आपत्ति होगी अतएव उन भिन्न स्वभावों का भी एकत्र अस्तित्व उपपन्न करने के लिए श्रभ्य free] स्वभावों की कल्पना करनी होगी और यही स्थिति अन्य भित्र स्वभावों के सम्बन्ध में भी उपस्थित होगी । फलतः अनन्त स्वभाव भेद की कल्पना होने से अनवस्था होगी। ( २ ) तथा, यदि Hate के एकत्र अस्तित्व को उपपति के लिए स्वीकृत भिन्न स्वभावों से भेदाभेद स्वमात्र को और मेदाभेद स्वभावों से जन स्वभायों को वृत्ति माना जायगा तो परस्पराश्रय दोष होगा । ( ३ ) तथा, यदि मेदाभेद स्वभाव, उन दोनों के एकत्र अस्तित्व नियामक स्वभावभेद और उन स्वभाव मेवों के एकत्र अस्तित्व नियामक स्वभाव मेदों में परस्परापेक्षा द्वारा एक स्थान में भेदाभेद के अस्तित्व का उपपादन किया जायगा तो 'स्व' को 'स्व' के अपेक्षित के अपेक्षित की अपेक्षा होने से चक्र होगा । (४) एवं 'स्व' में 'स्व' की ही अपेक्षा हो जाने से अर्थात् भेदाभेद को भेदाभेद के नियामक स्वभाव की ही अपेक्षा हो जाने से आत्माश्रय होगा । ( ५ ) और यदि वस्तु जिस स्वभाव से भेद का अधिकरण है उसी स्वभाव से प्रभेव का एवं जिस स्वभाव से अभेव का अधिकरण है उसी स्वभाव से भेव का अधिकरण मानी जायगी तो भेव अभेद में संकर हो जायगा अर्थात् भेदाभेद का वैलक्षण्य ही समाप्त हो जायगा, फलतः इन दोषों से ग्रस्त होने के कारण एक वस्तु में भेदाभेव दोनों को मान्यता नहीं प्रदान की जा सकती । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क. टोका एवं हिन्दी विवेचन ] २२३ [ अनेकान्तवाद में अनवस्थादि दोष का निराकरण ] किन्तु ये सारे दोष परस्परानुविद्ध भेदाभेव पक्ष को स्वीकार करने पर उपस्थित नहीं होते । क्योंकि भेदाभेदात्मक वस्तु की एकत्र स्थिति स्वभाव से ही नियत है तथा भेवाभेव में उत्पत्ति और शप्ति का नियम न मानने से अनवस्था आदि दोष सम्भव नहीं है। जैसा कि कहा गया है किभेदाभेव का एकत्र अस्तित्व मानने में अनवस्था वोष नहीं है, क्योंकि भेद और अभेद दोनों अन्य निरपेक्ष अपने स्वरूप से हो एकत्र अवस्थित होते हैं।' अन्य विद्वानों ने भी कहा है कि 'वहो अनवस्था दोष है जिससे मूल हानि को आपत्ति हो । संकर दोष को भी आपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि एकान्तयादी द्वारा स्वीकृत भेद और प्रभेद अनुभवप्राप्त स्वभाव से भिन्न होने के कारण सम्भव नहीं है। अभिप्राय यह है कि अनवस्था प्रावि कोष उत्पत्ति और ज्ञप्ति के प्रसंग में ही नियत है जैसे किसी वस्तु की उत्पत्ति के लिए यदि किसी कारण को अपेक्षा है और उस कारण की उत्पत्ति के लिए अन्य कारण की तथा अन्य कारण की उत्पत्ति के कारणान्तर धादि को अपेक्षा हो तो अनवस्था आदि वोष की प्रसक्ति होती है, एवं किसी वस्तु के ज्ञान के लिए यदि किसी वापफ की अपेक्षा है और वह ज्ञापक मो यदि शात होकर के ही ज्ञापक होता है तो उसके ज्ञान के लिए ज्ञापकान्तर की अपेक्षा होने पर अनवस्था दोष सम्भव है। किन्तु यह बात स्थिति के सम्बन्ध में नहीं लागू होतो क्योंकि बस्तु अपने स्वतन्त्र स्वभाव से ही अवस्थित हो सकती है। इसी प्रकार वस्तु में किसी एक ही रूप . से भेद अभेद मान्य न होने से भेदाभेद में सफर को भी प्रसक्ति नहीं होती।। ३८ ।। किश्च, परेण प्रसङ्ग एवं कर्तुं न शक्यते, भेदादिपदाना केवलभेदादेरदर्शनात्तत्र शक्तिमहासंभवेन प्रयोगस्यैवानुषपत्तः इत्यभिप्रेत्याह---- मूलम्---नाभेदो भेदरहितो भेदो वाऽभेदवर्जितः। केवलोऽस्ति यतस्तेन कुतस्तत्र विकल्पनम् ॥ ३९ ॥ नाभेदो भेदरहितः, भेदो वाऽभेदवर्जितः केवलोऽस्ति, 'ज्ञायते वा' इति शेषः, यतस्तेन कुतस्तत्र केत्रले भेदेऽभेदे वा विकल्पनं-प्रसङ्गापादनं परस्य युज्यते, आश्रयस्यैबासिद्धेः। सिद्धौ वा शवलस्वभावस्य तस्य व्याघातेन परविकल्पानवतारान् , आमाससिद्धरणेन च वस्त्वदूपणादिति भावः ॥ ३६॥ [ केवल भेद में शक्तिग्रह का असम्भव ] ३९वों कारिका में यह बताया गया है कि एकान्तवावो द्वारा अनेकान्त मत में विरोध-प्रनवस्था आदि वोषों का मापादन शक्य ही नहीं है क्योंकि भेद आदि पद से केवल भेद आवि बोध न होने से केवल भेव आदि में भेद आदि पद का शक्तिमह सम्भव नहीं है प्रतः केवल भेद आदि को लेकर कोई भी प्रयोग उपपन्न नहीं हो सकता । कारिका का अर्थ अत्यन्त सुस्पष्ट है, जैसे-भेदरहित अभेद और प्रभेवरहित भेद, पर्यात केवल भेद अथवा प्रभेद ज्ञात नहीं है । अत: केवल भेद अथवा अभेद कोई भी विकरुप को लेकर किसी भी प्रसङ्ग का आपादन एकान्तवादी के लिए सम्भव नहीं है क्योंकि केवल भेद अथवा अभेद को आश्रय बनाकर जो भी प्रयोग होगा उसमें आश्रमासिद्धि होगी और पवि केवल Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ [ शास्त्रवाहित०७ श्लोक ४०-४१ मेव या प्रभेद को सिद्ध माना जायगा तो अभेदसह मेव किंवा भेवसह अभेद का केवल मेद और अमेव की सिद्धि से हो ध्याधाप्त हो जाने के कारण एकान्तवादी के विकल्प की उपपत्ति नहीं हो सकती । दूसरी बात यह कि वास्तव में केवल मेद और प्रभेद की सिद्धि न होगी किन्तु सिद्धि का साभास मात्र होगा अतः आभास सिद्धि दोष से वस्तु का दूषित होना सम्भव नहीं हो सकता ।।३९।। इदमेवाहमूलम्-येनाकारेण भेदः किं तेनासावेव किं वयम् ।। असत्वात्केवलस्येह सतश्च कथितत्वतः ॥ ४०॥ येनाकारेण येन स्वभावेन भेदः, किं तेनासावेव-भेद एव उत अयम् भेदश्चाभेदश्येति !, आद्य एकान्तः द्वितीये व्यतिकर इति भावः, एतद् विकल्पनं 'कुतः' इति प्राक्तनेन योगः १ इत्याह--इह प्रक्रमे, केवलस्य भेदस्याऽसत्त्वात-असिद्धत्वात् सतश्च-सिद्धस्य च कथितत्वतः उक्तशवलस्वभावत्वात् । ततो निर्विषयाः सर्वे विकन्पा इति भावः ॥ ४० ॥ [एकान्तवादीकृत विकल्पों में अर्थशून्यता] उक्त बात को ही ४० धीं कारिका में और स्पष्ट शब्दों में कहा गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-प्रश्न यह होता है कि जिस स्वभाव से भेद रहता है क्या उस स्वभाव से केवल भेव हो रहता है अमवा मेद-अमेव दोनों रहते हैं ? । यदि पहला पक्ष मामा जायगा तो एकान्तवाद की आवृप्ति होगी और पवि दूसरा पक्ष माना जायगा तो ध्यतिकर होगा अर्थात भेद और अभेद में कोई कोई अन्तर न रह जायगा। किंतु यह विकल्प कैसे हो सकता है ? क्योंकि केवल मेद असिद्ध है और जो मेद सिद्ध है वह पूर्वोक्त रीति से शबल-प्रभेद मिधित है इसलिए एकान्तवादी के उक्त सभी विकल्प निविषयक हैं ।। ४० ॥ उपचयमाइमूलम्-यतश्च तत्प्रमाणेन गम्यते शुभयात्मकम् । अतोऽपि जातिमात्रं तदनवस्थादिकल्पनम् ॥ ४१ ॥ यतश्च तत्-अधिकृतयस्तु प्रमाणेन प्रत्यक्षेण हि-निश्चितम् , उभयात्मकं जात्यन्तरापनभेदाभेदभाजनम् गम्यते, अतोऽपि तत्-परोक्तम् इहानवस्थादिकल्पन जातिमात्रम् नियुक्तिकविकल्पमात्रम् , प्रत्यक्षबाधात् । अन्यथा घटादेरपि विकल्पविशीणतया शून्यतापातादिति ॥४१॥ [एकान्तबादी के विकल्प युक्तिशून्य ] ४१ वौं कारिका में पूर्वोक्त का निष्कर्ष बताया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार हैबिचार्यमाण वस्तु प्रमाण द्वारा उभयात्मक अर्थात विलक्षण भेदाभेद के आत्रय रूप में सिद्ध है, इसलिए एकान्तवादी द्वारा उद्भावित अमवस्था आदि दोषों का विकल्प जातिमात्र है अर्थात जुठे उत्तर के समान है। क्योंकि उसके पक्ष में उपयुक्त युक्ति नहीं है, उलटा, विलक्षण-भेदाभेव के प्राश्रमभूत Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क.टोका एवं हिन्वी विवेचन ] २२५ वस्तु प्रत्यक्ष द्वारा बाषित है, अतः स्पष्ट है कि ऐसे युक्तिहीन विकल्पों से सस्यपक्ष का अपलाप नहीं किया जा सकता । यति युक्तिहोन विकल्पों से सत्यपक्ष का श्याग होगा तो घर मादि समस्त भाव पदार्थ विकल्पग्रस्त होने से त्याज्य हो जायेंगे और अन्त में सर्वशून्यता की आपत्ति हो जाएगी। अंसे, घट आदि के सम्बन्ध में भी इस प्रकार का विकल्प हो सकता है कि घर जिस स्वमाय से रहता है उसी स्वभाव से उसका स्वभाव भी रहता है या अन्य स्वभाव से रहता है। प्रथम पक्ष में घट और उसके स्वमाय में व्यतिकर होगा और दूसरे पक्ष में अन्य स्वभाव के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार का प्रश्न और उत्तर का प्राश्रय लेने से पनवस्था होगी। फलतः घट का अस्तित्व सिद्ध न होने से शुन्यता को आपत्ति अनिवार्य है ।।४।। दोषान्तरनिराकरणमप्यतिदिशनाहमूलम् ---एवं घुभयदोषादिदोषा अपि न दूषणम् । सम्यग्जात्यन्तरत्वेन भेदाभेदप्रसिद्धितः ।। ४२ ।। एवं हि-भेदाभेदात्मकवस्तुनः प्रत्यक्षसिद्धत्वे हि, उभयदोषादिदोषा अपि उभयदोषाभ्यां साधारणाकारेण निश्चेतुमशक्यत्वात् संशयः, ततोऽप्रतिपत्तिः, ततो विषयव्यवस्थाहानिरित्यादयोऽपि न दूषणम् । कुतः १ इत्याह-सम्यगनय-प्रमाणोपयोगेन, जात्यन्तरत्वेन= अन्योन्यच्याप्तत्वेन, भेदाभेवप्रसिद्धितः भेदाभेदनिश्चयात् । अयं भावः-प्रत्येकं नयापैणया प्रत्येकरूपेण, युगपत्तदर्पणया चोभयरूपेण सप्तभंग्यात्मकप्रमाणाच्च प्रतिनियतसकलरूपैनिश्चयाद् नोभयदोषादितः संशयादिकम् । दुर्नयवासनाजनितं संशयादिकं चेदृशविशेषदर्शननिरस्यमिति न मिथ्याखदोषात् तथाऽनिश्चीयमानमपि न तथा पस्त्यिति स्मर्तव्यम् । न ह्ययं स्थाणोरपराधो यदेनमन्धो न पश्यतीति ॥ ४२ ॥ [संशय और अप्रतिपत्ति दोषयुगल का प्रतिकार ] ४२वीं कारिका में यह बताया गया है कि भेदाभेदात्मक पक्ष में एकान्तवादी द्वारा उद्भावित अनवस्था आदि दोष जैसे नहीं होते उसी प्रकार अन्य आपादित बोष भी नहीं हो सकते। कारिका का अर्थ इस प्रकार है भेदामेवात्मक वस्तु प्रत्यक्ष सिद्ध होने के कारण भेवाभेव पक्ष में संशय और अप्रतिपत्ति ये दोनों दोष तथा तन्मूलक अन्य दोष भी नहीं हो सकते क्योंकि नय और प्रमाण द्वारा परस्पर व्याप्त भेदाभेद सिद्ध है। प्राशय यह है कि भेदाभेद पक्ष में एकान्तवादी द्वारा अन्य प्रकार से भी दोषों का उद्भावन किया जाता है। जै उदावन किया आता है। जैसे-एकान्तवादो का कहना है कि वस्त को यदि भेदअभेद उभयात्मक माना जायगा तो भिन्न और अभिन्न का कोई साधारणरूप नहीं होने से किसी एक रूप से वस्तका निश्चयन हो सकने से इस प्रकार का सशय होगा कि अमुक वस्त भिन्न है अथवा अभिन्न? और इस प्रकार का संशय हाने से वस्तु की प्रतिपत्ति अर्थात किसी निश्चित रूप से सिद्धि न होगी । इन दोनों दोषों का परिणाम यह होगा कि कोई विषय किसी रूप में व्यवस्थित न हो सकेगा। किन्तु प्रन्थकार का कहना है कि एकान्तबानो द्वारा उद्भावित होने वाला यह दोष Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ [स्वार्ता स्त.. श्लो.४३-४४ निराधार है क्योंकि अनेकान्त पक्ष में नय और प्रमाण के उपयोग से मेव व्याप्त अभेद और अमेव व्याप्त मेव की सिद्धि निर्वाध रूप से सम्पन्न होती है । [नय और प्रमाण से संशयादि का निरसन ] तात्पर्य यह है कि प्रत्येक नय के उपयोग से प्रत्येकरूप से और एक साथ वो नय के उपयोग से उभयरूप से तथा सप्तभङ्गी प्रमाण से सुनिश्चित सभी रूपों से वस्तु का निश्चय हो जाता है। अतः उभयत्रादि दोष की सम्भावना समाप्त हो जाती है। संशय मावि जो दुर्नय को वासना के कारण प्रतीत होता है उनका, नप और प्रमाण से होने वाले वस्तु के भेवा-भेवात्मक विशेष स्वरूप के निर्णय से, निरसन हो जाता है। अतः यह स्मरणीय है कि मिथ्यात्य दोष से यदि भिन्नाभिन्न रूप में किसी वस्तु का निश्चय नहीं हो पाता तो इतने मात्र से यह नहीं कहा RT 4 कि वस्तु मिन्नाभिन्नात्मक न होकर एक मात्र मेव अथवा अमेव का ही प्राधार होती है । यदि वस्तु के भेषामेवात्मक सहज स्वभाव का अवलोष मिथ्यात्वदोषवश एकान्तवादी को नहीं हो पाता तो इसमें वस्तु का कोई अपराध नहीं है, क्योंकि यह सर्वमान्य उक्ति है कि यदि अन्धा व्यक्ति स्थाणु (बड़े वृक्ष) को नहीं देख पाता, तो इसमें स्थाणु का कोई अपराध नहीं होता है ॥ ४२ ॥ यदनेनापाकृतं तदुपन्यस्यतिमूलम्--एतेनैतत्प्रतिक्षिप्तं यदुक्तं पूर्ववादिभिः । विहायानुभवं मोहाजातियुक्त्यनुसारिभिः॥४३॥ एतेन अनन्तरोदितेन एतत्वक्ष्यमाणम, प्रतिक्षिप्त-निराकृतम् , यत अनुभवम्= अविगानेन प्रवृत्तं शबलाध्यक्षम् मोहात्-कुतर्कवासनाजनितादज्ञानात् विहाय अप्रामाण्यसंशयादिविषयीकृत्य जातियुक्त्यनुसारिभिः असद्विकल्पमात्रकदाग्रहहिलैः, पूर्ववादिभिः देवयन्धुप्रमुखैः उक्तम् ॥ ४३ ॥ ४३वीं कारिका में उस वक्तव्य को संकेतित किया गया है जो उक्त कथन से निरस्त हो जाता है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-जात्यात्मक युक्ति का अनुसरण करने वाले असद्विकल्प मात्र के दुराग्रह से ग्रस्त देवबन्धु प्रादि पूर्ववावियों ने कुतकंमूलक संस्कार से जनित प्रज्ञानवश मेदामेवात्मक वस्तु के प्रत्यक्ष अनुभव को अप्रामाण्य संशय आवि से आक्रान्त बताकर जो कुछ कहा है उस सबका पूर्व कारिका में कथित बाप्त से निराकरण हो जाता है ।। ४३ ॥ तद्वचनमेवाह-- मूलम् - 'द्रव्य पर्याययोमैदे नैकस्योभयरूपता। अभेदेऽन्यतरस्थाननिवृसी चिन्त्यतां कथम् ॥ ४४ ॥ द्रव्य-पर्याययो देऽभ्युपगम्यमाने नैकस्य वस्तुन उभयरूपता, तयोर्भेदाभिधानात् , एवं चैकमुभयमित्यसिद्धम् । अभेदे पुनरभ्युपगम्यमाने कथमन्यतरस्थान-निवृत्ती-द्रव्यान्वयपर्यायविच्छेदौ १ इति चिन्त्यताम् , एकस्य निवृत्ति--स्थित्यनुपपत्तेः ॥ ४४ ॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क. टोका एवं हिन्धी विषेचन । २२७ ४४वीं कारिका में पूर्व वादियों का वक्तव्य अंकित किया गया है। कारिका का प्रपं इस प्रकार है-द्रव्य और पर्याय में यदि भेद माना जायगा तो एक वस्तु में द्रष्य-पर्याय उमयरूपता को सिद्धि नहीं हो सकती है और यदि अमेद माना जायगा तो यह एक की स्थिति और अन्य की निवृत्ति की अर्थात् व्यरूप अन्वय और पर्यायरूप विच्छेव को उपपत्ति न हो सकेगी क्योंकि उसी वस्तु को स्थिति और निवृत्ति एक साथ में प्रसंगत है ।। ४४ ।।। अत्रेय हेतुमाहमूलम् -'यन्निवसौ न यस्येह निवत्तिस्तत्ततो यतः । भिन्न नियमतो दृष्टं यथा कर्कः क्रमेलकात्॥ ४५ ॥ इह-जगति यन्निवृत्तौ यस्य न निवृत्तिस्तदनिवर्तमानं तप्ता निवर्तमानात् यतायस्मात् नियमतः समान्यव्यासिवला भिन्नं दृष्टं भिन्नमनुमितम् । निदर्शनमाह-यथा कर्क: अश्वविशेषः, क्रमेलकात-उष्ट्राद् निवर्तमानाद् अनिवर्तमानो मिन्नो दृष्ट इति भावः ॥ ४५ ॥ ४५वीं कारिका में पूर्व कारिका को उक्ति का समर्थक हेतु बताया गया है कारिका का अर्थ इस प्रकार है-मिस वस्तु की निक्ति होने पर जो वस्सु निवृत्त नहीं होती है वह पनिवृत्त होने वाली वस्तु से मिन्न होती है, यह सामान्य नियम है-जो निवर्तमान उष्ट्र से निवृत्त न होने वाले कर्क-विशेष प्रकार के अश्व में दृष्ट है । इस नियम के बल से यह अनुमान निर्वाधरूप से हो सकता है कि पर्याय के निवृत्त होने पर भी निवृत्त न होने वाला द्रव्य पर्याय से मिन्न है अतः पर्मायात्मक वस्तु का अस्तित्व नहीं हो सकता ।। ४५॥ निदर्शितार्थमेव प्रकृते योजयन्नाहमूलम्--निवर्तते च पर्यायो न तु द्रव्यं ततो न सः। ___ अभिन्नो द्रव्यतोऽभेदे-निवृतिस्तत्स्वरूपवत् ॥ ४६॥ निवर्तते च पर्यायः पिण्डादिः, न तु द्रव्यं मृदादि । ततः सा पर्यायः द्रव्यतोऽभिलो न किन्तु भिन्न एव, यतोऽभेदे तत्स्वरूपवत्-मृद्रव्यस्वरूपवत अनिवृत्तिः स्यात् पर्यायस्य । अथवा, नमोऽप्रश्लेषे निवृत्तिः स्याद् मृद्रव्यस्य, तत्स्वरूपवत्-पर्यायस्वरूपचदिति व्याख्ययम् ॥ १६ ॥ ___४६वीं कारिका में पूर्व कारिका में निशित अर्थ का प्रस्तुत में उपनय किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-द्रव्य और पर्याय के मध्य पर्याय की यानी पिण्डाद को निवृत्ति होती है किन्तु द्रभ्य की अर्थात मृत्तिका आदि की निवृत्ति नहीं होती। प्रतः पर्याय द्रध्य से अभिन्न नहीं हो सकता और यदि अभिन्न माना जायगा तो पर्याय को निवृत्ति होने पर पर्याय के समान ही द्रव्य की मी निवृत्ति होगी। अथवा जैसे द्रव्य नहीं निवृत्त होता उसी प्रकार पर्याय को भी निवृत्ति न होगी ॥ ४६॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ (शास्त्रवात स्त. लो०४७-४८ यथैतत् प्रतिक्षिप्तं तथा योजयन्नाहमूलम-प्रतिक्षिप्तं च यझेदाभेदपक्षोऽन्य एव हि। भेदाभेदविकल्पाभ्यां हन्त ! जात्यन्तरात्मकः ॥ ४७ ॥ प्रतिक्षिप्तं चेदम् यद्-यस्मात , अन्य एच हिनिश्चितं विलक्षण एव भेदाभेदविकल्पाभ्यां प्रत्येकमेदागदाच्याम् , हाल तरागकोइतरेतरगर्भस्वात्मा भेदाभेदपक्षः । 'हन्त' इति परानवबोधनिबन्धनखेदव्यञ्जकम् ॥ ४७॥ ४७वीं कारिका में उक्त कथन कैसे निराकृत है उसकी योजना की गयी है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है, केवल मेव किंवा अमेव के विकल्प द्वारा जिस पक्ष का निराकरण किया गया है, मेवामेव पक्ष उससे विजातीय-विलक्षण है। खेव की बात है कि विकल्प के उपस्थापकों ने इस स्पष्ट तथ्य को नहीं समझा ।। ४७ ।। यदि नामवं ततः किम् ? इत्याहमूलम्-जात्यन्तरात्मकं चैनं दोषास्ते समियुः कथम् ।। भेदेऽभेदे च येऽत्यन्तजातिभिन्ने व्यवस्थिताः ॥१८॥ जात्यन्तरात्मकं चैनं भेदाभेदविकल्पम् ते दोषाः कथं समियुः आगच्छेयुः येऽत्यन्तजातिभिन्ने मेदेऽभेदे च व्यवस्थिता लन्धनसराः । एकान्त भेद एव ह्ये कस्योभयरूपतानुपपत्तिदोषः, एकान्ताभेद एव चान्यतरस्थिति-निवृत्यनुपपत्तिः । भेदाभेदे तु न कोऽपि दोषावकाश इति । [भेदाभेद पक्ष में वैजात्य का निदर्शन ] ४८वीं कारिका में पूर्वोक्त का निष्कर्ष बताया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार हैवस्तु का भेदाभेदात्मक पक्ष, केवल भेद पक्ष और केवल अभेव पक्ष से विजातीय है। अत: केवल भेद अथवा केवल अभेव पक्ष में जो दोष सम्भावित है वे भेदाभेद पक्ष में नहीं हो सकते । अतः वष्य और पर्याय में भेदाभेव पक्ष में अभिमत भेव को स्वीकार करने पर एक वस्तु की उमयात्मकता की अतुपपसि नहीं हो सकती । इसी प्रकार भेदाभेद पक्ष में अभिमत प्रभेव स्वीकार करने पर द्रव्य-पर्याय में एक की निवृत्ति के साथ अन्य की स्थिति को भी अनुपपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि एक वस्तु को उमयात्मकता फी अनुपपत्ति एकान्तमेव पक्ष में ही सम्भव है और द्रव्य पर्याय में एक की निवृत्ति और अन्य की स्थिति की युगपत् अनुपपत्ति भी एकान्त पक्ष में ही सम्भव है । भेदाभेदात्मक अनेकान्त पक्ष में उक्त दोषों का कोई अवसर नहीं है। __ अत्रायं संप्रदाय:- प्रत्येकमुपढौकमानो दोषो न ढोकते जात्यन्तस्तापत्तौ । दृष्टा हि कैवल्यपरिहारेण तत्प्रयुक्तायाः परस्परानुवेधेन जात्यन्तरभावमापन्नस्य गुड-शुण्ठीद्रव्यस्य कफपित्तदोषकारिताया निवृत्तिः तदाहुः-[ वीतरागस्तोत्र ८/६] Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या.क. टोका एवं हिन्दी विवेचन ] २२१ "गुडो हि कफहेतुः स्याद् नागरं पित्तकारणम् । द्वयात्मनि न दोषोऽस्ति गुडनागरमेषजे ॥१॥" इति । अथोक्तदोषनिवृत्तिर्न जात्यन्तरनिमित्ता, किन्तु मिथोमाधुर्य-कटुकल्बोत्कर्पहानिप्रयुक्तेति चेत् ? न, द्वयोरेकतरबलवच्च एवान्यापकर्षसंभवात , तन्मन्दतायामपि मन्दपित्तादिदोषापत्तेश्च । एतेनेतरेतरप्रवेशादेकनरगुणपरित्यागोऽपि निरस्तः, अन्यतरदोषापत्तेः, अनुभवबाधाच्च । अथ मिलिगुड-शुण्टीक्षोदेन नैकं द्रव्यमारभ्यते, विजातीयानां द्रव्यानारम्भकत्यात , गुडत्व-शुष्टीस्पसंकरप्रस#lt: फिन्तु कारगविशेषोपनीतरसविशेषवद् गुड-शुण्ठीक्षोदसमाजादेव धातुसाम्याद् गुण-दोषनिवृत्ती इति चेत् ? न, सामुदितगुड-शुण्ठीद्रव्यस्याप्येकत्वपरिणतिमत एवोपलम्भात् , धातुसाम्ये रसविशेषवद् द्रव्यविशेषस्यापि प्रयोजकत्वात् , द्रव्यादिवचिच्यादाहारपर्याप्तिवैचित्र्योपपत्तः, अनेकान्ते सांकर्याऽसंभवात , नृसिंहत्ववदुपपत्तः । अथ समुदितगुडशुण्ठीद्रव्यं प्रत्येकगुड-शुण्ठीभ्यां विभिभमेकस्वभावमेव द्रव्यान्तरम् , न तु मिथोऽभिव्याण्यावस्थितोमयस्वभावं जात्यन्तमिति चेत् ? न, तस्य द्रव्यान्तरत्वे विलक्षणमाधुर्यकटुकस्वाननुभवप्रसङ्गात् , एकस्वभावल्वे दोषद्वयोपशमाऽहेतुत्वप्रसङ्गाद , उभयजननकस्वभावस्य चानेकत्वगर्भत्वेन सर्व थैकत्वाऽयोगात् , एकया शक्त्योभयकार्यजननेऽतिप्रसङ्गात् , विभिन्नस्वभावानुभवाच । तस्माद् माधुर्य-कदुकस्वयोः परस्परानुवेधनिमिचमेवोभयदोषनिवर्तकत्वमित्यादरणीयम् । [विजातीय वस्तु में प्रत्येक दोष का निराकरण ] इस विषय में यह साम्प्रदायिक मान्यता है कि प्रत्येक में जो वोष होता है वह उन दोनों के विजातीय रूप में निष्पन्न हो जाने पर नहीं होता। यह देखा गया है कि केवल गुड़ से कफ को दि होती है और केवल सोंठ से पित्त की वृद्धि होती है किन्तु वोनों के योग से जब एक विजातीय औषषि बन जाती है तब उस औषधि के रूप में गुड़ और सोंठ का सेवन होने पर भी कफ और पित्त की वृद्धि नहीं होती, जैसा कि-चिकित्सा शास्त्र में कहा गया है कि-'गुड़ कफ का कारण होता है और सोंठ पित्त का । किन्तु दोनों के मेल से जब 'गुरुनागर' औषधि बन जाती है सब प्रत्येक से होने वाला बोष उमयात्मक औषधि से नहीं होता। [ दोप के उत्कर्ष की हानि की बात अयुक्त ] यदि यह कहा जाय फि-गुड़ और सोंठ के योग से उक्त दोष की निवृत्ति विजातीय उत्पत्ति होने के कारण नहीं होती किन्तु सोंठ की कटुता से गुड़ के माधुर्य की अधिकता और ग्रह के माघ से सोठ को बदता की अधिकता को हानि होने से होतो है-त। यह ठीक नहीं है, क्योंकि गुड़ और सोंठ दोनों में एक के बलवान् होने पर ही अन्य का अपकर्ष हो सकता है, दोनों के समान बल होने पर किसी से किसी का अपकर्ष नहीं हो सकता। और दूसरी बात यह है कि दोनों तव्यों का योग होने पर एक दूसरे से दोनों के गुणों में न्यूनता हो जाने पर भी मन्द होकर दोनों के अपने गुण समान रहेंगे। अतः दोनों का योग होने पर कफ और पित्त को अषिक वृद्धि न होने पर भी मन्द Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता स्त०७ श्लो. ४ वृद्धि की आपत्ति अनिवार्य होगी। इस युक्ति से यह भो कथन निरस्त हो जाता है कि-दो तव्यों का परस्पर सम्पर्क होने पर एक के द्वारा अन्य के गुण की निवृत्ति हो जाती है क्योंकि ऐसा मानने पर कफ और पित्त में से किसी एक की वृद्धि का दोष अवश्य होगा और उसके साथ ही उक्त बात अनुभव विरुद्ध भी है क्योंकि दोनों द्रव्य का योग होने पर दोनों के रस को अनुमति निर्विवाद है। [ अनेकानावाद में साकार्य का आपादन] यदि यह कहा जाय कि-'गुड़ और सोंठ के योग से किसी एक अन्य द्रव्य की उत्पत्ति नहीं। हो सकती, क्योंकि विजातीय दो दृष्य किसी अन्य विलक्षण द्रव्य के उत्पादक नहीं होते और नवे अपनी जातियों के प्राश्रयभूत ही किसी द्रव्य को उत्पन्न करते हैं। अतः यह नहीं माना जा सकता कि-'गुड़ और सोंठ के योग से गुड़-सोंठ उभयात्मक द्रव्य की उत्पत्ति होती है क्योंकि ऐसा मानने पर उस द्रव्य में गुड़त्व और शुण्ठीश्व का सांकर्य हो जायगा किन्तु होता यह है कि जैसे कारण विशेष से गुट और सोंठ का योग होने पर उनमें विशेष रस की उत्पत्ति हो जाती है उसी प्रकार गुड़ और सोंठ, उभय के योग से धातुओं में साम्य हो जाने से गुण और दोष को निवृत्ति हो जाती हैतो यह ठीक नहीं है पयोंकि गुड और सोंठ का योग होने पर एकात्मना परिणत रूप में हो उनकी उपलब्धि होती है। और साथ ही साथ यह मी ज्ञातव्य है कि पातु साम्य में जैसे रसविशेष प्रयोजक होता है उसी प्रकार तव्यविशेष भी प्रयोजक होता है। अत: यह स्वीकार करना समीचीन नहीं है कि-'गुड़ और सोंठ का योग होने पर विशेष रस से युक्त एक विशेष द्रव्य की उस्पत्ति होती है। क्योंकि द्रव्य आदि के वैचित्र्य से हो आहार को परिणति में वैचित्र्य होता है। [अनेकान्तबाद में संकीणवस्तु का स्वीकार ] गुड़ और सोंठ के योग से गुड़-सोंठ उभयात्मक द्रव्य की उत्पत्ति मानने पर ओ सायं बताया गया वह अनेकान्त पक्ष में सम्भव नहीं है क्योंकि इस पक्ष में वस्तु का सङ्कीर्ण स्वभाव मान्य होने से साडूर्य को दोषरूपता अमान्य है। साथ ही साथ यह ज्ञातव्य है कि जैसे नरसिंह उभयात्मक शरीर में नसिहत्व की उपपत्ति होती है उसी प्रकार गुञ्ज-सोंठ उभयात्मक द्रव्य में गुड़ शुष्ठीत्व को उपपत्ति हो सकती है। यदि यह कहा जाय कि- मिलित गुड़ और सोंठ अमिलित गुड़ और सोंठ से मिन्न एक अतिरिक्त द्रव्य है जिसका एक अतिरिक्त स्वभाव है न कि परस्पर व्याप्त हो कर स्थित उभयस्वभावात्मक अन्यजातीय बस्तु है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि मिलित गुड़ और सोंठ को यदि द्रव्यान्तर माना जायगा तो उसमें गुड़ और सोंठ के विलक्षण माधुर्य और कटुता के अनुभव की आपत्ति होगी, और यदि उसे एक स्वभाव माना जायगा तो वह कफ और पित्त को वृद्धिरूप दोषद्वय की निवृत्ति का हेतु न हो सकेगा। और यदि दोषद्वय की निवृत्तिद्वय के जनम में समय एक स्वभाव से युक्त होगा तो इस स्वभाव के अनेकत्व घटित होने से उसकी सर्वथा एकरूपता न हो सकेगी। एक शक्ति से दो कार्य को उपपत्ति मानने में प्रतिप्रसक्ति भी होगी। साथ ही एक स्वभाव मान्य भी नहीं हो सकता क्योंकि विभिन्न स्वभाव का अनुभव सर्वसम्मत है। इसलिए यही मानना उचित होगा कि गुड़ और सोंठ का योग होने पर दोनों की मधुरता और कटता का परस्परानुवेध होने से हो उभय दोष की निवृत्ति होती है। ननु जात्यन्तरत्वेऽपि प्रत्येकदोपनिवृत्तिरिति न नियमः, पृथक् स्निग्धोष्णयोः कफपित्तकारित्ववत् समुदितस्निग्धोष्णस्यापि माषस्य तथात्वादिति चेत् ? न, माषे स्निग्धोष्णत्व Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ errono टीका एवं हिन्दी विवेश्वन ] , I योर्जात्यन्तरात्मकत्वाभावात्, अन्योन्यानुवेधेन स्वभावान्तरभावनिबन्धनस्यैव तत्त्वात् अत्र स्निग्धोष्णत्व आले रक्तत्व - कृष्णत्वयोरिव खण्डशो व्याप्त्यावस्थानात् जात्यन्तरात्मकस्निग्धोष्णत्वशालिनि च दाडिमे श्लेष्म वित्तोभयदोषाऽकारित्वमिष्टमेव, "" स्निग्धोष्णं दाडिमं हृद्यं श्लेष्म- पित्तावरोधि च' इति वैद्यकवचनादिति । इदसिंह तच्त्रम्-तद्भेदस्य तदेकत्वाभावादिनियतत्वेऽपि जात्यन्तरानात्मकस्यैव विलक्षणस्य तस्य तथात्वात् विलक्षण गुडत्वस्य कफका - रितानियतत्ववद् न दोषः । एतेन 'मया भेदसामान्यं तन्नियमः कल्पनीयः, त्वया तु जात्यन्तरानात्मके तत्र, इति गौरवम्' इति निरस्तम्, प्रतिस्विकरूपेणैव तन्नियमोपपत्तेरिति दिग् ॥ ४८ ॥ २३१ [ उरद में स्निग्धता और उष्णता की खंडशः व्याप्ति ] यदि यह कहा जाय कि 'जात्यन्तर होने पर भी उससे प्रत्येक दोष को निवृत्ति होने का नियम नहीं है क्योंकि उदाहरणार्थ. स्निग्ध प्रकृति और उष्ण प्रकृति के द्रव्यों से जैसे कफ और पित्त की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार स्निग्ध और उष्ण उभय प्रकृति से युक्त तथा केवल स्निग्ध पौर केवल उष्णद्रव्य से अन्य जातीय, माष उयं से कफ और पित्त दोनों की उत्पत्ति होती है, निवृत्ति उन दोनों में से किसी की भी नहीं होती है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि साथ में जो स्निग्धता और उष्णता है वह जात्यन्तररूप नहीं है क्योंकि परस्पर अनुवेध से स्वभावान्तर होने पर ही जात्यन्तरता की उपपत्ति होती है। माष में स्निग्धता और उष्णता ठीक उसी प्रकार खण्डशः व्याप्त होकर एवस्थित होती है जैसे गुञ्जाफल में रक्तिमा और कालिमा अनार, जिसमें जात्यन्तर रूप स्निग्धताउष्णता है उसमें कफ और पित्त दोष की उत्पादकता का न होना इष्ट ही है । जैसा कि वैद्यक में कहा गया है कि अनार को प्रकृति स्निग्ध और उष्ण दोनों होती है अतः उससे कफ और पित्त का अवरोध होता है ।' [ जात्यन्तरानात्मक भेद और एक स्वभाव की व्याप्ति ] प्रस्तुत विषय में वास्तविकता यह है कि तद्वस्तु के भेद में तद्वस्तु के एकस्वभाव की जो व्याप्ति है वह जात्यन्तरानात्मक भेद और स्वभाव में ही है। यह ठीक उसी प्रकार से विलक्षण गुड़त्व में ही कफकारिता की व्याप्ति का नियम है। इस पर यह कहना कि एकान्तवादी के मत में सामान्य में उक्त नियम माननीय होता है और अनेकान्तवादी के मत में जात्यन्तरानात्मक भेव में उक्त नियम के कल्पनीय होने से गौरव होगा' अनायास हो निरस्त हो जाता है, क्योंकि प्रातिस्पिकरूप से ही उक्त नियम की उत्पत्ति होती है । अतः सामान्यरूप से नियम की कल्पनीयता के आधार पर उक्त दोष का उद्भावन नहीं किया जा सकता । श्राशय यह है कि सेव का प्रतियोगी ● से मुक्त कोई सामान्य स्वरूप नहीं होता अतः प्रतियोगी भेद से मेद भी भिन्न-भिन्न होता है, फलतः अमुकामुक मेद में अमुकामुक के एकत्वाभाव की व्याप्ति बन सकती है । अतः व्याप्य मेद में अभेदसहभावी मेद का समावेश न होने से सामञ्जस्य हो जाने के कारण कोई आपति नहीं हो सकती ॥ ४८ ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ [शास्त्रवास्तिक ७ श्लो. ४९-५० - - . . - - . -. R देशयतिमूलम्-किश्चिग्निवर्ततेऽवश्यं तस्याप्यन्यत्तथा न यत् । अतस्तद्भेद एवेह निवृत्त्याद्यन्यथा कथम् ! ।। तस्यापि अधिकृतस्यापि वस्तुनः किञ्चिदवश्यं निवर्तते, यदन्यत् किश्चित् तथा ननिवर्तत इत्यर्थः । अतः निवर्तमानात् तद्भद एव-तस्याऽनिवर्तमानस्यांशस्य भेद एव, अन्यथा निवृत्त्यादि-निवृत्तिवानिवृत्तिश्चेति कथम् ? ॥ ४६॥ ४क्ष्यों कारिका में भेदाभेद पक्ष के विरुद्ध पुनः प्रश्न खड़ा किया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है -विचाराधीन वस्तु का कोई अंश अवश्य निवृत्त होता है प्रतः जो अंश नहीं निवृत्त होता उसे निवर्तमान अंश से मिन्न मानना होगा, क्योंकि दोनों में ऐक्य मानने पर एक ही समय विचाराधीन वस्तु की निवृत्ति और अनिवृत्ति दोनों की मान्यता कैसे हो सकती है ।। ४९ ।। अत्रोचरम्मूलम्-तस्येति योगसामर्थ्याद् भेद एवेति बाधितम् । ___अभिन्न देशस्तस्येति यत् तशास्या रथोम्यो।। ५ ॥ तस्येति योगसामर्थ्यात् 'तस्य किश्चिद् निवर्तते' इत्यत्र तस्येति षष्ठ्यर्थसंबन्धानुभवप्रामाण्यात् , मेद एवेति बाधितं परस्य वचनम् । ननु न बाधितमेतत् 'चैत्रस्य धनम्' इत्यादौ भेद एव पष्ध्यर्थसंबन्धदर्शनादित्याशङ्कायामाह-यत्-यस्मात , 'तस्य' इति तदुव्याप्त्यातत्स्वभावानुवेधेन अभिनदेशः, तथा निश्तत इति क्रियोपसंदानेन उच्यते। तथा च तस्य' इत्यत्र 'राहोः शिरः' इतिवदभेदे षष्ठी, समवाय निरासात इतरसंबन्धानुपपत्तेरिति भावः ॥ ५॥ [तस्य किंचित्-यहाँ अभेद अर्थ में पष्ठी ] ५०वीं कारिका में उक्त प्रश्न का उत्तर दिया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-'सस्य किश्चित् निवर्तते' इस वाक्य के 'तस्य' शम्द में तत् पद के उत्तर जो षष्ठी विभक्ति का योग है उससे यह कहना कि 'सत् के अंश के साथ तव का भेद हो है क्योंकि षष्ठी विभसि भेद में ही होती है, बाधित है। तथा-'चत्रस्य धनम्' इत्यादि स्थलों में भेव में हो षष्ठी देखी जाती है अतः 'तस्य किश्चित' में भी तत् पद के उत्तर षष्ठी को भेदाश्रित मानमा ही उचित होने से उक्त कथन बाधित नहीं है-यह कहना भी समोचीन नहीं है क्योंकि 'तस्य किश्चित्' में षष्ठी से किश्चित् में तत् को व्याप्ति अर्थात् तत् के स्वभाव के अनुवेध का बोध होने से तत् से अभिन्न अंश का ही 'निवर्तते' इस किया के साथ सम्बन्ध होता है। फलतः, समवाय सम्बन्ध मान्य न होने से 'राहोः शिरः' इस प्रयोग में जैसे अमेव में ही षष्ठी होती है, क्योंकि राह और शिर में अभेद से भिन्न सम्बन्ध प्रनुपपन्न है, उसी प्रकार 'तस्य किश्चित्' में भी किश्चित् के साथ तत् के अभेद में हो षष्ठी मान्य है ।। ५० ।। निगमयमाह-- मूलम् अतस्तभेद एवेति प्रतीतिविमुखं वचः । तस्यैव च तथाभावात्तनिवृत्तीतरात्मकम् ।। ५१ ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था4. टोका एवं हिन्दी विधेचन ] २३३ अतः='तस्य' इत्यस्यामेदं विनाऽनुपपत्तेः 'तद्भद एव' इति वचः प्रतीतिविमुखप्रत्यक्षादिविरुद्धम् । कुतः ? इत्याह-तस्यैव च-वस्तुनः, तथाभावात्-तथापरिणमनात् , तद्-वस्तु भिवतीतात्मकम्=निवृत्यऽनिवृत्त्यात्मकं यत् इति ।। ५१ ॥ ५१वीं कारिका में पूर्व कारिका द्वारा कथित अर्थ को निगमित किया गया है। कारिका का अर्य इस प्रकार है । तस्य किश्चित' में तत् और किश्चित् में भेद माने पिता त पद के उत्तर षष्ठी अनुपपन्न है । इसलिए 'किश्चित् में तत का भेद ही है। यह एकान्तबादी का कथन प्रत्यक्षावि प्रतीतियों से विरुद्ध है क्योंकि मूलभूत वस्तु को ही आंशिक निवृत्ति में परिणति होती है अतः अंशतः वस्तु निवृत्त होकर भी पूर्णतः अनिवृत्त हो रहती है ॥ ५१॥ इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह-- मूलम्--नानुवृत्तिनिवृत्तिभ्यां विना यदुपपद्यते । तस्यैव हि तथाभावः सूक्ष्मबुद्धया विचिन्त्यताम् ।। ५२ ॥ नानुवृत्ति-निवृत्तिभ्यां प्रत्यक्षसिद्धाभ्यां स्वभावाभ्यां विना यद् वस्तु उपपद्यते, तस्यैव-वस्तुनः तथाभाया तथापरिणमनम् , इति सूक्ष्मबुद्धया विचिन्त्यतामेतत् ॥ ५२ ॥ ५२वीं कारिका में, पूर्वोक्त तथ्य को अवश्य स्वीकार्यता बतायी गयो है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-क्योंकि अनुवृत्ति और निवृत्ति इन प्रत्यक्षसिद्ध स्वभावों के विना वस्तु नहीं उपपक्ष होती, इसलिये वस्तु का ही मूलरूप में स्थिर रहते हुए अंशरूप में निवृत्त्यात्मक परिणाम होता है, यह मात सूक्ष्मवृद्धि से ज्ञातव्य है ।। ५२ ।। उपसंहरन्नाहमूलम्--तस्यैव तु तथाभावे तदेव हि यतस्तथा । भवत्यतो न दोषो नः कश्चिवप्युपपद्यते ॥५३ ।। तस्यैव तु तथाभावे सिद्धे सति तदेव हि यतस्तथा भवति-कारणमेव कार्यतया परिणमत इत्युक्तं भवति । अतो न दोषो ना=अस्माकं कश्चिदपि । एतदुक्तं भवति-कथञ्चिदनिवर्तमानाभिन्नस्वभावं सद् निवनंते, तथा निवर्तमानाभिन्न स्वभावं च कथञ्चिदवतिष्ठत इति प्रतीतिसिद्धमेतत् , 'तदेव मृदद्रव्यं कुशूलात्मना निवर्तते' इत्यत्र च तदाऽनिवर्तमानाभिन्नस्वभावपरामर्शात, 'तदेव मृदात्मनाऽवतिष्ठते' इत्यत्र च तदा निवतेमानाऽभिन्नस्वभाव परामर्शत ॥५३॥ [ मूल वस्तु का ही निवृत्तिरूप परिणाम ] ५३वों कारिका में पूर्व कारिका द्वारा उक्त अर्थ का उपसंहार किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है मुल वस्तु का ही तथाभाव=आंशिक निवृत्ति रूप में परिणमम होता है इस बात की सिद्धि से यह फलित होता है कि कारण काही कार्यरूप में परिणमन होता है। प्रतः अनेकान्तवादी के मत में किसी दोष को अवसर नहीं प्राप्त होता। कहने का माशय यह है कि Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ [ शास्त्रया० स्त० ७ श्लो०५४ प्रनिवर्तमान से कश्चित अभिन्न स्वभाव वाले अंश को ही निकत्ति होती है । एवं निवर्तमान अंश सेकश्चित भिन्न स्था यास पोहो अदास्यति होती है। यह बात प्रतीतिसिद्ध है क्योंकि यह स्पष्ट है कि 'तदेव मवतव्यं कुशूलात्मना निवसंते' इस प्रतीति में 'प्सदेव' से तत् से अभिन्न स्वभाव का ही परामर्श होता है जिसका तात्पर्य यह है कि जो मध्य कुशूल के रूप में था वही अपने कुशूल रूप का त्याग करता है । इसी प्रकार तदेव मवात्मनाऽवतिष्ठते' इस प्रतीति में 'तदेव' से, निवर्तमान से अभिन्न स्वभाव का हो परामर्श होता है जिसका अर्थ यह होता है कि कुशूलरूप के निवृत्त होने पर मी मृद्रूप में कुशूल हो अवस्थित रहता है ।। ५३ ।। ननु निवर्तमाना--ऽनिवर्तमानयोरेफेनाऽग्रहणात् कथं निवृत्यानिवृत्त्यान्मकैकग्रहः । इत्यत आहमुलम्-इत्थमालोचनं चेदमन्वयव्यतिरेकवत । वस्तुनस्तत्स्वभावत्वात्तथाभावपसाधकम् ॥ ५४ ॥ इत्थं च-उक्तयुक्त्या च इदं निवृत्त्यनिवृत्त्यात्मकवस्तुग्राहि, आलोचनम्, अन्धयव्यतिरेकवत्-उपयोगात्मनाऽन्वयि, अवग्रहे-हा--ऽपाय-धारणात्मना च परस्परं व्यतिरेकि, वस्तुनस्तत्स्वभावत्वात् अन्वय-व्यतिरेकिस्वभावत्वाव, तथाभावप्रसाधकम् अन्वयव्यतिरेकस्वभावग्राहकम् । एकेनैव ह्य पयोगेन तदेव वस्तु सामान्यतोऽवगृह्यते, ततो निवृत्त्यनिवृत्तिभ्यामीयते, ततः 'इत्थं निवृत्तमित्थं चानिवृत्तम्' इति निश्चीयते, ततस्तथैव धार्यते, नचैवमुपयोगैकत्वव्याघातः, श्याम-रक्तघटवदेकत्वाऽविरोधात । 'अक्रमकरूपमेव ज्ञानं संवेद्यते न तु क्रमवाप' इति चेत् १ न, क्वचिद् दोषात क्रमाऽसंवेदनेऽपि क्वचित् क्रमाऽक्रमस्य स्फुटमेव संवेदनात् । उपयुञ्जते हि लोका:--"घटमेव जाननहं प्राक सामान्यतः 'किमिदम् ?' इत्यवगृहीतवान , ततः 'किमनेन घटेन भाव्यमघटेन वा ?' इतीहितवान् , ततः 'कम्बुग्रीवादिमत्त्वात् घट एवायम्' इति निश्चितवान, ततः 'अयमित्थमेव' इत्यवधृतवान्" इति । अत्र हि प्रतिनियत्तोल्लेखात क्रमः, 'जानन्' इत्यत्र शतप्रत्ययाचाऽक्रमः स्फुट एव । [ निवृत्ति-अनिवृत्ति उभयरूप वस्नु के ग्रहण की उपपत्ति ] निवर्तमान और अनिवर्तमान अंशों का किसी एक ज्ञान से ग्रहण न होने के कारण निवृत्तिअनिवत्ति उभायात्मक एक वस्तु का ज्ञान किस प्रकार सम्भव हो सकता है ? प्रस्तुत कारिका ५४ में इसी प्रश्न का समाधान किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-उक्त युक्ति से नित्ति और उभयात्मक वस्तु का ग्रहण करने वाला ज्ञान, उपयोग हप में अन्धयी तथा अब ग्रह-ईहाअवाय और धारणारूप में व्यतिरेको होता है, क्योंकि अन्वयो और व्यतिरेको होना वस्तु का स्वभाव है इसलिए मालोचनात्मक ज्ञान वस्तु के अन्वय व्यतिरेक स्वभाव का ग्राहक होता है। एक ही अपयोग से जिस वस्तु का सर्वप्रथम सामान्यरूप में प्रवग्रह होता है बाद में उसी वस्तु को नियत्ति और अनिवृत्तिरूप में ईहा होती है । उसके अनन्तर एक रूप से उस वस्तु को निवृत्ति और अन्य रूप से Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] २३५ अनिवृत्ति का निश्चय होता है और अन्त में निश्चितरूप में उसका अवधारण होता है। इस प्रकार उक्त चार प्रकार से वस्तु का ग्राहक होने पर उपयोग के एकत्व की हानि नहीं होती, उसके एकरव में ठीक उसी प्रकार कोई विरोध नहीं होता है जैसे पहले श्याम प्रौर बाद में रक्त घट के एकत्व में कोई विरोध नहीं होता है। [ क्रमाक्रमोभयात्मक एक ज्ञान की अनुभूति ] इस सन्दर्भ में यह कहना कि 'ज्ञान का प्रक्रमिक रूप में ही अनुभव होता है, क्रमिक रूप में नहीं होता। अतः उक्त रीति से चार प्रकार से एक उपयोग में अन्वयध्यतिरेकी वस्तु की प्राहकता का प्रतिपादन नहीं हो सकता, यह ठीक नहीं है, क्योंकि दोषवश किसी उपयोग में क्रम का अनुभव न होने पर मो अन्य उपयोग में क्रम प्रौर प्रक्रम दोनों को स्फुट अनुभूति होती है। यही कारण है कि लोगों को क्रम-अकम दो रूपों में वस्तु का एक शानोपयोग होता है। जैसे घट का ज्ञानोपयोग होने पर मनुष्य को इस प्रकार का अनुभव होता है कि ये घट को ही देखते हा पहले मामाता करने ही 'यह क्या है इस प्रकार अयग्रह ४आ, उसके बाद क्या यह घट है ? अथवा कोई अन्य यस्त है?' इस प्रकार उसको ईहा हुई; और उसके अनन्तर घट के कम्बुग्रीवा आदि चिह्न को देखने पर यह घट हो है ऐसा निश्चय हआ; और अन्त में यह वास्तव में ऐसा ही है- घट हो है इस प्रकार अषधारण हआ। इस रीति से सम्पन्न उपयोग में अवग्रह आदि में वस्तु के प्रतिनियत रूप का उल्लेख होने से कम और 'जानन्' के वर्तमानकृदन्त में शतृ प्रत्यय से कम का अभाव सबंथा स्फुट है। यस्ततक्रमिकांशमेकमेव ज्ञानमुपति, तस्य घटसामान्यालोचनानन्तरम् 'अनेन घटेन भाव्यम्' इतीहैव दुर्घटा, बह्वर्थपरामर्शरूपन्यात तस्याः । “घटत्वव्याप्यकम्बुग्रीवादिमानयम्--इत्याकारिकवेहा" इति तु 'कम्बुत्रीवादिकं घटत्कादिव्याप्यं, ताश्चापम्' इत्यादितोऽपि संशनिवृत्तेने सर्वत्र संभरदुक्तिकम् । न चोक्ताकाराऽपीहा सहचारदर्शनादिकं विना व्याप्त्यावहाव संभविनी। अव्यवहितनष्टं च तांचरनरनतुल्यम् । उबुद्धतत्संस्कार एव तत्कार्यकारीत्युपगमे चोयुद्ध संस्कार एव ज्ञानमन्त्रिति ज्ञानसपोरसीदेव , अनुभवविरोधश्चैवम् , इत्यादि विवेचितं ज्ञानार्णवे ॥ ५४॥ [क्रमरहितज्ञानवादी के मन में ईहा को दुर्धटना ] जिस मत में क्रमिक अंशों से मिमुक्त एक हो ज्ञान का अस्तित्व मान्य है उस मत में सामान्य रूप से घट का आलोचत होने के बाद उस विषय को ईहा नहीं हो सकती; क्योंकि 'इस वस्तु को घट होना चाहिए' ईहा का यह रूप नहीं हो सकता। ऐमो ईहा अनेक अर्थों का परामर्श करती है, जबकि 'इसे घट होना चाहिए यह ज्ञान केवल एक वस्त घट का हो परामशक है। यदि यह कहा जाय कि-"यह घटत्व के व्याप्य कम्नुग्रीवा का आशय है इस रूप में घट की ईहा होती है" तो इस प्रकार का कथन सर्वत्र सम्भव नहीं है। क्योंकि कम्युग्रीवा घटत्व का व्याप्य है और यह वस्तु कम्बप्रीवा का आश्रय है, इस ज्ञान से भी संशय को निवृत्ति होती है । इसके अतिरिक्त उक्त ईहा, सहचारवर्शन आदि के प्रभाव में व्याप्ति का ज्ञान न होने से, सम्भय भी नहीं हो सकती। क्योंकि प्रव्यवहित पूर्वकाल में नष्ट होने पर भी सहवारदर्शन प्रादि चिरपूर्व में नष्ट के समान हो जाता है। यदि यह Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ [ शास्त्रवार्ता स्त० ७ श्लो. ५५-५६ कहा जाय कि-'सहचार आदि का उपबद्ध संस्कार ही सहचार-वर्शन के कार्य का जनक होता है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर यह भी कहा जा सकता है कि "उयुद्ध संस्कार ही ज्ञान है' जिसके फलस्वरूप ज्ञान को सत्ता का ही लोप प्रसक्त होगा। और ऐसा मानने में उपयोग के उक्त अनुभव का विरोध भी है । इस प्रसङ्ग को ऐसो सभी बातों का स्वोपज्ञ 'ज्ञानार्णव' प्रत्य में विवेचन किया गया है ॥ ५४॥ इत्थं च 'द्रव्य-पर्याययोनिवृत्त्यनियत्तिभ्यां भेद एव' निरस्तम् । अथ 'भेदोऽपि इत्युक्तौ न बाध इत्याहमूलम्--न च 'भेदोऽपि पाधाय तस्थानकान्तवादिनः । जात्यन्तरात्मकं वस्तु नित्यानित्यं यतो मतम् ॥ ५५ ॥ न च मेदोऽप्यधिकृतांशस्येतरांशात् तस्य-वस्तुनः बाधायै अनेकान्तपशव्याघाताय अनेकान्तवादिनः । यतः यस्मात् जात्यन्तरात्मक-इतरेतरानुविद्धं सद् वस्तु नित्यानित्यं मतम् , यत एव भिन्नमत एवानित्यम् , यत एव चाभिन्नमत एवं नित्यमिति । न हि नित्यत्वमनित्यं वा किश्चिदेकरूपमस्ति, किन्तु यद् यदान्बीयते तत् तदा नित्यमिति व्यपदिश्यते, यदा च यद् व्यतिरिच्यते, तदा तदनित्यमिति । अत एव प्रागभावः प्राग नित्या, ध्वंसश्च पश्चाद् नित्यः, अत एव च नित्या मुक्तिरुपपद्यत इति ॥ ५५ ।। [द्रव्य-पर्याय में भेदाभेद से नित्यानित्यत्व ] 'द्रव्य निवृत्त नहीं होता है, किन्तु पर्याय निवृत्त होता है, इसलिए द्रव्य और पर्याय में केवल भेव ही हैं। इस बात का निराकरण अब तक किया गया है और अब प्रस्तुत कारिका ५५ में यह बताना है कि-'न्य और पर्याय में मेद भी है। ऐसा मानने पर वस्तु की अनेकान्तरूपता को बाष नहीं होता। कारिका का अर्थ इस प्रकार है--"प्रस्तुत अंश 'पर्याय' का इतर अंश ब्रम्प' से भेद भी है" ऐसा मानने से वस्तु के सम्बन्ध में अनेकान्तवादो के पक्ष की हानि नहीं होती, क्योंकि वस्तु परस्परानुविद्ध जात्यन्तर रूप होने से नित्य अनित्य दोनों रूप में मान्य है। पर्यायात्मक वस्तु यतः द्रव्य से भिन्न है. अत एव अनित्य है। एवं यतः वह द्रव्य से अभिन्न है. अत एष नित्य है । वस्तु का निस्यत्व और अनित्यत्व कोई एक ही रूप नहीं अपितु वस्तु जब अन्वयी होती है तब वह नित्य होती है, और जिस वस्तु का जब व्यतिरेक होता है तब वह प्रनित्य होती है। इसीलिए प्रागभाव वस्तुजन्म के पूर्व नित्य होता है, और ध्वंस वस्तु सत्ता के बाद नित्य होता है। इसीलिए मुक्ति की निश्यता उपपन्न होती है। मुक्ति हो जाने पर उसका व्यतिरेक ठीक उसी प्रकार कभी नहीं होता जैसे ध्वंस का ।। ५५ ।। एतदेव समर्थयन्नाह-- मूलम्--प्रत्यभिज्ञाबलाच्चैतदित्थं समवसीयते। इयं च लोकसि व तदेवेदमिति क्षितौ ।। ५६ ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याक• टीका एवं हिन्दी विवेचन ] २३७ प्रत्यभिज्ञापलाच्च-अत्यभिज्ञान्यथानुपपच्या च एतत्-वस्तु इत्थं नित्यानित्यं समवसीयते। इयं च प्रत्यभिज्ञा क्षिती-पृथिव्याम् तदेवेदम्' इति तदेवेदम्' इत्युल्लेखवती लोकसिद्धव-आगोपालाङ्गनं प्रसिद्धंच ।। ५६ ॥ ५६वीं कारिका में वस्तु को नित्य-अनित्य रूपता का समर्थन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है---वस्त की नित्यता और निताका निश्चय, प्रत्यभिज्ञा को अन्यथा उपपत्ति न होने से, सम्पन्न होता है; और प्रत्यभिज्ञा वस्तु का विभिन्न रूपों में परिवर्तन होने पर भी 'तदेव इदम् - यह वही है इस रूप में सारे लोक में गोपाल की अङ्गना तक को शात है। स्पष्ट ही 'इवम्' शब्द से उल्लिख्यमान विभिन्न परिवर्तित रूपों में और 'तव' शब्द से उल्लिख्यमान स्थिर वस्तु में उक्त प्रत्यभिज्ञा द्वारा अभेद का बोध होता है, जिससे परिवर्तमान पर्याय और अपरिवर्तमान द्रव्य में एकता होने से द्रव्यात्मना पर्याय को नित्यता और पर्यायात्मना द्रव्य की अनित्यता सिद्ध होती है ।। ५६ ॥ एतद्रलमेवाहमूलम्-न युज्यते च सन्यायाढते तत्परिणामिताम् । कालादिभेदतो वस्त्वभेदतश्च तथागतेः ॥ ५७ ॥ न युज्यते च 'इयं प्रत्यभिज्ञा' इति शेषः सन्यायात्-सत्ताद् विचार्यमाणाव ते विना तत्परिणामितांतस्य वस्तुनोऽन्विरूविच्छिन्नरूपताम् । कथम् ? इत्याहकालादिभेदतः-तत्कालधर्म भेदतः यस्त्वभेदतश्च तथागते:='तदेवेदम्' इति परिच्छित्तः,अन्वयप्राधान्येन तदेतत्कालकृततदेतत्कालीनधर्मकृतभेदायभासात , अन्ययप्रधानत्वाच्च प्रत्यभिज्ञोपयोगस्य न प्राधान्येन भेदावमासः, प्रधानोपसजनभावस्य ज्ञाने प्रतिविषयं स्वहेतुक्षयोपशमभेदेनोपपत्तः। एतेन 'स्वरूपविरोधाऽभावादकतरनिर्भक्तभागवद् नैकस्य नानात्वम् , बुद्धेः रूपभेदाद् नानात्वम् , अंशे रूपाभेदाच्चैकत्वम् , इत्युपगमे च नानारूपबुद्धय पाद्यत्वाद् नानात्वमेव, न त्वेकन्वम्' इत्यादि निरस्तम्, नानेकरूपप्रत्यभिज्ञया नानकरूपस्यैव वस्तुनोग्रहात् ।। ५७ ॥ [वस्तु के नित्यानित्यत्व के बिना प्रत्यभिज्ञा की अनुपपत्ति ] ५७वीं कारिका में वस्तु को नित्यानित्य न मानने पर 'तदेव इदम्' इस प्रत्यभिजा की अनु. पपत्ति स्वरूप प्रत्यभिज्ञा बल का प्रतिपादन किया गया है। कारिफा का अर्थ इस प्रकार है-तदेव इदम्' यह प्रत्यभिज्ञा तर्फ पूर्ण विचार करने पर उस स्थिति में उपपन्न नहीं हो सकती जब तक वस्त को प्रन्वित=निस्य और विच्छिन्न - अनित्य उमय रूप न माना जायगा क्योंकि 'तदेव इदम्' या प्रत्यभिज्ञा कालआदिमूलक भेद और वस्तु के प्रमेद से हो सम्पन्न होती हैं। इस प्रत्यभिज्ञा में प्रन्वयस्थिर वस्तु को प्रधानरूप से प्रहण करते हुए तत्कालमूलक और एतत्कालमूलक भेव एवं तत्कालीन और एतत्कालीन धर्ममूलक मेव का मान होता है। अन्वय की प्रधानता होने से प्रत्यभिजात्मक उपयोग Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ [शास्त्रवाहित०७श्लो.५८ में प्रधानरूप से मेद का भान नहीं होता। ज्ञान में प्रधान और अप्रधानभाष की उपपत्ति तत्तद्विषयक शान के हेतुभूत क्षयोपशम के भेद से होती है । इस सन्दर्भ में कुछ लोगों का यह कहना है कि- "जैसे वस्तु का पृथम् भूत एक भाग में स्वरूप विरोध न होने के कारण नानात्व नहीं होता, उसी प्रकार किसी भी एक बस्तु में नानात्व नहीं हो सकता, एवं बुद्धि रूपभेद से अनेक होती है, और अंशतः रूप से अभिन्न होने से एक होती है। ऐसा मानने पर नाना रूप धुद्धि से प्राह्य होने के कारण 'वस्तु में नामात्य ही होता है, एकरव नहीं होता है यह सिद्ध होता है"-किन्तु यह सच बात अनायास निरस्त हो जाती है क्योंकि उक्त रीति से एकभनेक रूप प्रत्यभिज्ञा से एक-अनेक रूप हो वस्तु का प्रहण होना युक्तिसिद्ध है ।। ५७ ।। एतदेव भावयतिमूलम् --एकान्तैक्ये न नाना यनानात्वे कमप्यः। अतः कथं नु तावस्तदेतदुभयात्मकम् ॥ ५८ ।। एकान्तैक्ये पूर्वा-उपरयोः न नाना यत्-यस्मात् कथंचिदपि, नानात्वे च सर्वथा एकमप्यदो 'न' इति वतेच, अतः अस्माद्धतीः, कथं नु इति थिये सभासदेवेदम्' इति प्रत्यभिज्ञोपपत्तिः १ ततस्तत्-प्रत्यभिज्ञेयं वस्तु, उभयात्मकम् नाना ऽनानास्वभावम् । प्रस्तुत ५५वीं कारिका में एक अनेक रूप प्रत्यभिज्ञा से एक-अनेक रूप वस्तु के ग्रहण होने का उपपावन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-पूर्ववर्ती और परवर्ती वस्तु में सर्वथा ऐक्य होने पर उनमें किसी भी प्रकार अनेकत्व नहीं हो सकता और उन्हें सर्वथा भिन्न मानने पर उनमें एकत्व भी नहीं हो सकता; फिर ऐसी स्थिति में किसी वस्तु की 'तदेव इदम्' इस रूप में प्रत्यभिज्ञा कैसे हो सकेगी? किन्तु इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा होती हैं अतः यह सिद्ध है कि उसकी विषयभूत वस्तु एक-अनेक उभयात्मक है। इदमिह हार्दम्-यैः पूर्वा-ऽपरकालीनघटादेरेकत्यमेव स्वीक्रियते तेषां स्वरूपतो विशिष्टभेदे, कालविशेषारच्छिन्नभेदे, श्याम-रक्तादिरूपावच्छिन्नभेदे वा कथं प्रत्यभिज्ञा ? । 'तव्यक्तिस्वावच्छिन्नभेदाभावरूपस्यैकत्वस्य प्रत्यभिज्ञायमानस्याऽयाधान नानुपपत्तिरिति चेत् ? न, परमाणु-द्वयणुकादिदेशविगमेन खण्ड घटादिगंभावनया तदनिश्चयात , खण्डघटादिनिश्चयेऽपि तथा प्रत्यभिज्ञानाच्च । 'खण्डवटादी तद्वृत्तिवटत्वावच्छिन्न भेदाभाव एक प्रत्यभिज्ञायत' इति चेत् ? न. तद्वृत्तिघटत्यस्य घटत्वापेक्षया गुरुत्वेन भेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्वात् , घटत्यावच्छिन्नभेदाभावसंबन्धेन तस्यान्वये च व्यक्त्यन्तरेऽपि तथाप्रत्यभिज्ञाप्रसङ्गात् । 'शुद्धब्यक्त्यभेदेनेव तत्यदार्थस्येदंपदार्थे भावाद् व्यक्त्यन्तरे 'सोऽयम्' इति प्रत्यभिज्ञा भ्रान्तैवेति चेत् १ 'व्यक्तिभेद एवं देशभने न तु रूपमङ्ग' इत्यत्र किं मानम् ? श्याम-रक्तादिदशयोरिव खण्डाऽखण्डदेशयोरपि विशिष्ट भेदस्य सुवचत्वात् , विशिष्टनाशोत्पादरूपधर्म्यस्यापि तद्वदेवात्र शुद्धव्यत्यभेदाऽविरोधित्वात् ? इति । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पाक टीका एवं हिन्दी विवेचन ] २३१ प्रस्तुत विषय का मर्म यह है कि जो लोग पूर्ववर्ती पौर परवर्ती घट प्रादि में सर्वथा ऐक्य मानते हैं, उनके मत में भी शुद्ध और विशिष्ट का मेव एवं एककालावच्छिन्न में अन्यकालावच्छिन्न का मेव तथा रक्तरूपावच्छिन्न में श्यामरूपावच्छिन्न का भेद होता ही है, तो फिर उनके मत में पूर्ववर्ती और परवी घट अादि में अभेदात्मक एकत्व की प्रत्यभिज्ञा फंसे हो सकती है ? यदि यह कहा जाय कि-'पूर्ववर्ती घटव्यक्ति और परवर्ती घटव्यक्ति में तब-व्यक्तित्व एक है अतः तव-व्यक्तित्वाच्छिन्नप्रतियोगितानिरूपक भेद उनमें न होने से उस भेद के अभावरूप एकत्व की प्रत्यभिज्ञा होने में कोई बाश नहीं है' ने जो नहीं है क्योंकि काल और परकाल के बीच घटव्यक्ति के परमाणु घणुक प्राधि का निर्गम होने से परकालवर्ती घट खण्डघट हो सकता है जो पूर्वकालवी अखण्ड घर से भिन्न होने के कारण पूर्वकालोन घटव्यक्ति निष्ठ तव्यक्तित्व का आश्रय न होने से व्यक्तित्यावच्छिन्न प्रतियोगिताकभेद का आश्रय है। अतः उसमें उस भेद के अभाव रूप एकत्व को प्रत्यभिज्ञा नहीं हो सकती। इसके साथ यह भी ज्ञातव्य है कि परवर्ती घटव्यक्ति वास्तव है यह निश्चय रखने पर भी उसमें पूर्ववर्ती घट के अमेवात्मक एकत्वको विषय करने वाली प्रत्यभिज्ञा होती है जो तदष्यक्तित्वावच्छिन्नप्रतियोगिताक भेदाभाव रूप एकत्व को ले कर नहीं हो सकती। यह भी नहीं कहा जा सकता कि-'पूर्वापर घटव्यक्ति के ऐक्य को विषय करने वाली प्रत्यभिज्ञा पूर्वकालीनव्यक्तिवृत्तिघटत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताक भेव के अभाव को विषय करती हैक्योंकि घटत्व को अपेक्षा पूर्वकालीनघटव्यक्तिवृत्ति घटत्य गुरु होने से तदवच्छिन्नप्रतियोगिताकद अप्रसिद्ध होने के कारण उसका अभाव भी प्रसिद्ध होने से प्रत्यभिजा को उक्त मेवाभाव विषयक कहना सम्भव नहीं है। ___ यह भी नहीं कहा जा सकता कि-"सोऽयं इस प्रत्यभिज्ञा में 'तत्' पदार्प पूर्वकालीन घटव्यक्ति' का 'इदम् पदार्थ परकालपर्ती घडव्यक्ति' में घटत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताक भेदाभाव सम्बन्ध से भान मानने में उस प्रत्यभिज्ञा को अनुपपत्ति नहीं हो सकती है ।"-क्योंकि ऐसा मानने पर पूर्वकालीन एक घटव्यक्ति को परकालोन अन्य घटध्यक्ति में भी 'सोऽयं इस प्रत्यभिज्ञा की आपत्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि-'सोऽयं इन प्रत्यभिज्ञा में इदम् पदार्थ में तत पदार्थ का शुद्ध व्यक्त्यभेद से ही भान होता है और व्यक्ति का शुद्धव्यक्त्यभेद अन्य व्यक्ति में नहीं होता अत एव एक घटव्यक्ति को श्रद्धव्यक्त्यभेद सम्बन्ध से अन्य व्यक्ति में विषम करने वालो प्रत्यभिज्ञा भ्रमात्मक ही होगी । अतः पूर्वापरवर्ती एक घटव्यक्ति में ही उक्त प्रत्यभिज्ञा प्रमात्मक होगी"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि-'देश भङ्ग-किसी एक भाग का भङ्ग होने पर व्यक्तिभेद होता ही है व्यक्त्यमेद नहीं होता, और रूप का भङ्ग होने पर व्यक्तिभेद नहीं होता' इसमें कोई प्रमाण नहीं है। [विशिष्टभेद होने पर भी शुद्ध व्यक्ति का अभेद ] अतः जैसे एक घट में पाक से श्यामरूप का नाश हो कर रक्तरूप की उत्पत्ति होने पर रक्तवशापन्न घट में श्यामदशापन उसी घट का विशिष्ट भेद होता है उसी प्रकार जब कोई व्यक्ति अपने परमाण दयणक-आदि भाग का निर्गम होने से स्खण्ड घट हो जाता है तो खण्डदशापन उस व्यक्ति में प्रखण्डदशापन्न उस व्यक्ति का विशिष्ट भेद हो सकता है और जैसे रक्त दशा में श्याम रूप विशिष्ट घट का नाश और रक्तरूप विशिष्ट घट की उत्पत्ति रूप वैधयं के होने पर भी उनमें शल अपत्यभेद होने में कोई विरोध नहीं होता, उसी प्रकार पूर्वकालीन अखण्ड घटव्यक्ति का नाश और Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० [ शास्त्रबार्ता स्त० ७ श्लो०५८ खण्घटव्यक्ति की उत्पत्तिरूप बंधय के होने पर भी खण्डघट और अखण्डघट में शुद्ध व्यक्त्यभेद होने में कोई विरोध नहीं हो सकता है। अतः पूर्वापरकालोन घटव्यक्ति में उक्तरीति से विशिष्ट मेव और शुद्ध व्यक्त्यमेव दोनों सम्भव होने से ही उक्त प्रत्यभिज्ञा की उपपत्ति होती है, न कि पूर्वापर घट में एकमात्र अभेद को हो मान्य करने पर हो सकती है । किच, एकान्तैक्ये 'सोऽयम्' इति विशेषणविशेष्यभारस्यैवानुपपत्ति, अन्यथा 'घटो घटः' इत्यपि स्यात् , 'घटो घटस्वभाववान्' इतिवत् । 'क्वचिदेव किश्चित स्वस्मिन् प्रकारीभूय भासते' इति चेत् १ तर्हि घटे घटत्वं स्वात्मकमेव भासताम् । 'व्यक्तेजातिविलक्षणैचानुभूयत' इति चेत् ? तत्तदंतयोरपि किं न वैलक्षण्यमनुभवसि ? । 'एवं'-रजतमिदम्-इत्यत्रेदमर्थ-रजतयोरपि भेदः स्यादिति चेत् ? स्यादेवेदन्त्व-रजतत्वाभ्याम् , स्वद्रव्यान्वयेन तु न स्यादिति न किञ्चिदेतत् । यस्त्वेकान्ततो नानात्वमेवाङ्गीक्रियते तेपामुक्तप्रत्यभिज्ञाया गन्धोऽपि नास्ति, पूर्वापरयोरेकस्वाऽयोगात् । उक्तं चैतत् प्राक्, वक्ष्यते चानुपदमपि ॥ ५८ ।। [एकान्ताभेद पक्ष में विशेषण-विशेष्यभाव असंगत ] पूर्वापरकालीन घट में सर्वथा ऐक्य मानने पर उक्त प्रत्यभिज्ञा की उक्त अनुपपत्ति के समान प्रत्य प्रकार की भी अनुपपत्ति होगी, जैसे उक्त पक्ष में 'सोऽयं इस वाक्य में तत पदार्थ और दर्द पा के प्रयन्त अभिन्न होने पर उनमें विशेषण-विशेष्य भाव को अनुपपत्ति होगी। और यदि तत पदा तथा इदं पदार्थ के सर्वथा ऐक्य होने पर भी उनमें विशेषण-विशेष्य भाव माना जायगा तो 'घटो घटः' इस वाक्य में भी दो घट पदों के अर्थ में विशेषण-विशेष्य भाव को उसीप्रकार मान्य करना होगा जैसे 'घटः घटस्वभाववान' इस वाक्य के दोनों पदों के अर्थों में विशेषण विशेष्यभाय मान्य होता है। यदि यह कहा जाय कि-"स्थलविशेष में ही कोई पदार्थ अपने में ही प्रकारविधया भासित होता है, सर्वत्र नहीं । अतः सोऽयं इस वाक्य में इदं पदाथ में तव पद के उसी अर्थ का विशेषणरूप में मान मानने पर और 'घट: घटस्वभाववान्' इस वाक्य में घट में 'घटस्व मावधान' इस शब्द के उसी अर्थ का विशेषगरूप में भान मानने पर भी 'घटो घटः' में घटपदार्थ में विशेषणरूप से घट पदार्थ के भान को आपत्ति देना उचित नहीं है"-तो यह भी कहा जा सकता है कि घट में घटात्मकही घटरव का मान होता है, फलतः घट और घटत्व में प्रतिवादी द्वारा मान्य एकान्तभेद की सिद्धि न होगी। यदि यह कहा जाय कि-"घटत्व जाति है और 'घट' उसका आश्रय मृत व्यक्ति है प्रत एव घर में भासमान घटत्व को घटात्मक नहीं माना जा सकता, क्योंकि जाति व्यक्ति से भिन्न रूप में ही अनुमत होतो है"-तो फिर यह भी कहा जा सकता है कि जाति और व्यक्ति के समान ही तत्ता और इदन्ता में भी तो भेद ही है फिर उसे भी भिन्नरूप में क्यों नहीं अनुभव करते ? फलतः तत् पदार्य और इदं पदार्थ के सर्वथा ऐक्य मानने पर उनमें विशेषण-विशेष्यमाव की अनुपपसि अपरीहार्य है। यदि यह शङ्का की जाय कि “जैसे सोऽयं में तत् पदार्थ और इवं पदार्थ में भेद है उसीप्रकार 'रजतमिवं' इसवाक्य में इदंपचार्थ और रजतपदार्थ में भी भेव होगा" तो यह शडा नगण्य Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क. टोका एवं हिन्दी विवेचन 1 २४१ है क्योंकि उनमें केवल द्रष्य रूप से ही अभेद होता है, इदन्त्व और रजतत्त्व रूप से तो उनमें भेद होता ही है। और जो लोग पूर्वापर घट में एकान्तरूप से मेव हो मानते हैं उनके मत में तो 'सोऽयं इस प्रत्यभिज्ञा की कोई सम्भावना ही नहीं हो सकती, क्योंकि उक्त मत में पूर्वापर घट में एकस्व का कोई योग नहीं है यह बात पहले कही जा चुकी है, और प्रागे भी कही जायगी ।। ५८ ।। स्वपक्षे तदुपपत्तिमाह-- मूलम् तस्यैव तु तथाभावे कथविभेदयोगतः । प्रमातुरपि तदुभावायुज्यते मुख्यवृत्तितः ॥ ५९ ॥ तस्यैव तु-पूर्वस्यैव तु वस्तुनः, तथाभावे-नन्वयस्वभावाऽपरित्यागेनापरस्त्रभावोपादाने, कश्चिद् भेदयोगतः तद्र्व्यतोऽभेदेऽपि तत्पर्यायतो भेदात् प्रमातुरपि तत्परिच्छेदकप्रमाणपरिणतस्यात्मनोऽपि, तथाभावात् ग्राह्यवद् ग्राहकस्य पूर्वा-ऽपरभावेनैकाऽनेकरूपत्वात् , युज्यते मुख्यवृत्तितस्तद्व्यवहाराबाधेन यथोक्तप्रत्यभिज्ञा । न ह्यन्य एवानुभवति अन्य एव च प्रतिजानीते, नवा तदनुभव-प्रत्यभिज्ञयोभिन्नैकाश्रयत्वमपि, संबन्धानुपपत्तेः, पूर्वाऽपरार्थवदनुभवित्-प्रत्यभिज्ञातस्वभावानुभवाच्चेति ।। ५६ ॥ [पूर्वापरवर्ती ग्राहक में भी भेदाभेद ] ५९वीं कारिका में अनेकान्तवाद की दृष्टि से पूर्वापर घट में उक्त प्रत्यभिज्ञा की उपपत्ति बतायी गयी है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है-अनेकान्त पक्ष में पूर्वकालिक वस्तु ही अपने मूलभूत स्वभाव का पारत्याग न करते हए अन्य स्वभाव को ग्रहण करती है प्रतः पूर्वापर वस्तु में मूलद्रव्यास्मना अमेव होने पर भी पर्यायात्मना मेव होता है। प्रमाता व्यक्ति भी पूर्वापर वस्तु के ऐक्य-ग्रहीता रूप में परिणत हो जाता है, प्रर्याद वह भी पूर्व वस्तु के स्वभाव को ग्रहण करने के मूलभूत स्वभाव के साथ ही उसके अन्य स्वमाव के ग्राहकरूप में परिवर्तित हो जाता है, फलतः प्राह्य वस्तु जैसे पूर्वापरवर्ती होने से एक-अनेकरूप होती है। उसी प्रकार महोता पुरुष भी पूर्वापरवर्ती होकर एक. अनेकरूप हो जाता है । अतः अनेकान्त पक्ष में मुख्यवृत्ति से अर्थात पूर्वापरवा में अमेव्यवहार का बाष न होने से प्राह्य वस्तु में 'सोऽयं' इस प्रत्यभिज्ञा के समान ग्रहोता में भी सोऽहं इस प्रकार को प्रत्यभिज्ञा उपपन्न होता है। निश्चय ही यह नहीं माना जा सकता कि-'पूर्वकाल में वस्तु का अनुमक दूसरा करता है पौर परकाल में उसकी प्रत्यभिज्ञा कोई अन्य करता है।' तथा अनुभव और प्रत्यभिशा में भिनाश्रयता भी नहीं हो सकती, क्योंकि भिन्नाश्रयता मानने पर दोनों में सम्बन्धको उपपत्ति नहीं हो सकती है। और यह भी यथार्थ है कि पूर्वापर वस्तु में जैसे एकस्वभावता का अनुभव होता है उसी प्रकार अनुमविता चौर प्रत्यभिज्ञाता में भी एकस्वभावता का अनुभव होता है । इस प्रकार अनेकान्त पक्ष में पूर्वापरकालीन ग्राह्य वस्तु में और पूर्वापरकालोन ग्रहीता पक्ति में मूलरूप से अभेद और पर्यायरूप से मेव होने से ग्राह्य भार ग्रहीता मैं स एवाऽहं तदेवेदं प्रत्यभिबाने इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा का अनुभव होता है ।। ५९ ॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ [ शास्त्रवार्ता० स्त०७ श्लो०६०-६१ परमतं दृषयतिमूलम्-नित्यैकयोगतो व्यक्तिभेदेऽप्येषा न संगता। तनिधि प्रसनगन सदेवेदमयोगतः ॥६० ॥ व्यक्तिभेदेऽपि वाल-वादिशरीरभेदेऽपि नित्यैकयोगता निन्यैकशरीरत्वसामान्यसंबन्धात् एषा उक्तप्रत्यभिज्ञा न सङ्गता । कुतः ! इत्याव-भिन्नयोगाद् भूतले 'इह घटः' इतिवत् 'तदिह' इति प्रसङ्गेन, नित्यैकम्य तत्पदार्थत्वात् , 'तदेवेदमित्यस्य' इति शेपः, अयोगता अनुपपनेः, नित्या-ऽनित्ययोस्तादात्म्याभावान् । 'तजातीयस्य तादात्म्याद् नायोग' इति चेत् १ तथा सति 'तजातीयोऽयम्' इति स्यात् , न तु 'सोऽयम्' इति । कथं च क्वचिद् नित्यस्य संबन्धः, क्वचिच तद्वतस्तादात्म्य भासते ? । 'अदृष्टभेदादिति चेत् ? तत एव तर्हि शबलवस्तु तदा तदा तथा तथा भासताम् , एकस्य चिच्यकल्पनाया न्याय्यत्वात 'धर्मी०' इति न्यायात् ।। ६० ।। [एक अनुगत नित्य सामान्य के द्वारा प्रत्यभिज्ञा की उपपत्ति असंगत ] ६०वों कारिका में एकान्तवावी के मत को सदोष दिखाया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-एकान्तवादी का यह कहना ठीक नहीं है-'बाल' पुया और वृद्ध शरीर में मेव होने पर भी उनमें एक सामान्य सम्बन्ध है और वह है एक नित्य शरीरत्व सामान्य का होना। इस सम्बन्ध से ही उक्त भिन्न शरीरों में तदेव इवं' इस प्रकार एकश्व की प्रत्यभिज्ञा होती है क्योंकि इस मान्यता में शरीर और शरीरत्व इन दो मिन्न वस्तुओं का सम्बन्ध होने से जैसे भूतल और घट में 'इह घटः' इस प्रकार सम्बन्ध की बुद्धि होती है उसी प्रकार 'तदेव-इदं के स्थान में 'तदिह इस प्रतीति को प्रापत्ति होगी क्योंकि उक्त मान्यता में 'तत्' पद का अर्थ है नित्य एक । फलतः 'तवेध इदं यह प्रत्यभिज्ञा न हो सकेगी क्योंकि तत् पदार्थ नित्य और इदं पदार्थ अनित्य में तादात्म्य का प्रभाव है । यदि यह कहा जाय कि 'इवं पदार्थ में तत् पचाय का तादात्म्य न होने पर भी तज्जातीय का तादात्म्य होने से उक्त प्रत्यभिज्ञा की अनुपपत्ति नहीं हो सकती' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि तज्जातीय के तादात्म्य से प्रत्यमिज्ञा की उपपत्ति करने पर उसमें 'सोऽयं' इम आकार के बदले 'तज्जातीयोऽयं इस आकार की आपत्ति होगी। इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि क्यों कहीं पर नित्य के सम्बन्ध का भान होगा और कहीं पर नित्य सम्बन्धयान के तादात्म्य काभान होगा? और यदि इसको उपपत्ति को जायगी तो उसकी अपेक्षा यह मानना ही उचित होगा कि-'प्रहश्य मेध से भिन्नभिन्न काल में भिन्न भिन्नरूप से शबल वस्तु थानो नित्य-अनित्य एक-अनेक रूप वस्तु का ही भान होता है, क्योंकि विभिन्न धर्मों को कल्पना को अपेक्षा एक धर्मी में विभिन्न धर्मों की कल्पना म्याय. सङ्गत होने से एक वस्तु में वैचित्र्य की कल्पना ही न्यायसङ्गत है ।। ६० ॥ न चेयं भ्रान्तिकारणादप्युत्पत्तुमर्हति परमत इत्याहमुलम्-साहश्याऽज्ञानतो न्याय्या न च विभ्रमबलादपि । एतछयाग्रहे युक्तं न घ सादृश्यकल्पनम् ॥६१॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या.क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] २४३ सादृश्याज्ञानता-सादृश्यज्ञानाभावात , विनमवलादपि भ्रमहेतुसामादपि नैषा क्षणिकेषु विभिन्नेष्येकस्त्रप्रत्यभिज्ञा न्याय्या । हेर्ने समर्थयति-एतदद्वयाग्रहे-सदृशद्वयस्य क्षणिकज्ञानेन ग्रहीतुमशक्यत्वे न च मादृश्यकल्यनं युक्तम्, संयुक्तद्वयाऽग्रहे संयोगकल्पनरत् । न चाऽसंयुक्तभागद्वयग्रहे पि संयोगाऽकल्पनात् संयुक्तभागद्वयग्रहसामग्र्या संयोगकल्पनवत् सदृशद्वयग्रहसामग्रीत एव सादृश्यकल्पनोपपत्तिः, क्रमिकसदृशद्वयग्रहसामान्या एकस्या अनु. पपः, अनन्वयिनिरंशज्ञानोपगमे संयुक्तभागद्वयाहमामय्या अध्यनुपपरेः । निरस्तश्च सौगताभिमतः सामग्रीपक्षः प्रागति ॥ ६१ ॥ [क्षणिकपक्ष में सादृश्यज्ञान की असंगति ] ६१वीं कारिका में यह बताया गया है कि एकान्तवाद में 'सोऽयं' यह प्रत्यभिज्ञा भ्रम के कारण द्वारा भी नहीं उत्पन्न हो सकती।कारिका का अर्थ इस प्रकार है-क्षणिक भिन्न पदार्थों में एकत्व की प्रत्यभिज्ञा भ्रमजनक कारणसानग्री से भी नहीं उत्पन्न हो सकती क्योंकि एकत्व भ्रम का सादृश्यज्ञानरूप कारण दो क्षणिक पदार्थों में नहीं हो सकता, क्योंकि क्षणिकज्ञान के द्वारा क्रम से उत्पन्न होने वाले दो सदृश पदार्थों का ग्रहण नहीं हो सकता। क्षणिक दो पदार्थों में काल्पनिक सादृश्य भी उसी प्रकार नहीं हो सकता जिस प्रकार वो संगत रगों का गहण न होने पर उनमें काल्पनिक संयोग नहीं होता। __ यदि यह कहा जाय फि-"संयुक्त भागद्वय के अज्ञान काल में उनमें काल्पनिक संयोग न होने पर भी संयुक्त भागद्वय के ज्ञान की सामग्री से उनमें संयोग को कल्पना होती है, उसी प्रकार सदृशद्वय का ज्ञान न होने पर भी उस ज्ञान की सामग्री से सादृश्य की कल्पना हो सकती है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि कम से उत्पन्न होने वाले सदृशद्वय के ज्ञान की एक सामग्री भी दुर्घट है। साथ ही, ज्ञान अनन्वयी और निरंश होता है इस मान्यता में संयुक्त भागद्वय के ज्ञान को सामग्री भी अनुपपन्न है। अत. उक्त दृष्टान्त से सादृश्यकल्पना का उपपावन नहीं किया जा सकता । और मुख्य बात यह है कि सौगत को मान्य सामग्रीपक्ष का पहले हो । चौथे स्तबक में ) निराकरण किया जा चका है, अतः उस निराकृत पक्ष को लेकर सादृश्यकल्पना की उपपत्ति नहीं की जा सकती।। ६१ ॥ उत्पधतां वा यथा कथञ्चिदेषा, तथापि वावाभावाद् न भ्रान्तेत्याहमूलम्-न व भ्रान्तापि सहाघामावादेव कदाचन । योगिप्रत्ययतभावे प्रमाणं नास्ति किञ्चन ॥ ६२॥ न च प्रान्ताप्युक्तप्रत्यभिज्ञा कदाचन कदाचिदपि, सदाधाभावादेव-सम्यग्बाधकप्रत्ययानवतारादेव । यद्धि भ्रान्तं ज्ञानं तत्र नियमतो बाधकावतारः, यथा शुक्तौ रजतज्ञाने । 'चेतनेञ्चेतनभ्रमे नायं नियम' इति चेत् ? न, तत्रापि विशेषदर्शिनां बाधावतारात् । अत्रापि योगिनां बाधावतारोऽस्त्येवेत्याशङ्कयाह-योगिनां ज्ञानस्योक्तप्रत्यभिज्ञावाधकरवे नास्ति प्रमाणं किञ्चन, श्रद्धामात्रशरणत्वात् ॥ ६२ ॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ शास्त्रवा० स्त० ४ श्लो. ६३ [ 'यह वही हैं ऐसी प्रत्यभिज्ञा अभ्रान्त हैं ] ६२वीं कारिका में यह बताया गया है कि यदि उक्त प्रत्यभिज्ञा किसी प्रकार उत्पन्न मी हो जाय तो बाधक न होने से वह भ्रमात्मक नहीं हो सकती। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-पूर्वापरकालोन घट आदि में होने वाली 'सोऽयं घटः' यह प्रत्यभिज्ञा भ्रमात्मक नहीं हो सकती पयोंकि उसके साधक सम्यक ज्ञान की उत्पत्ति कभी नहीं होती और वस्तुस्थिति यह है कि भ्रमात्मकशान के बाद बाधक शान का उदय अवश्य होता है जैसा कि शुक्ति-मीप में रजतभ्रम के स्थल में देखा जाता है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि-'भ्रम के अनन्तर बाधक प्रत्यय की उत्पत्ति का नियम अचेतन में अचेतन के भ्रम के सम्बन्ध में ही है किन्तु वेतन में अचेतन के भ्रम के सम्बन्ध में नहीं है क्योंकि 'अहं कृशः, अहं स्थलः' आदि भ्रम जिसे होता है उसे 'नाऽहं कृशः, नाऽहं स्थूलः' इस प्रकार बाधक प्रत्यय नहीं होता"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि चेतन और अचेतन के भेव का ज्ञान जिसे होता है उसे वेतन में अचेतन भ्रम के बाधक प्रत्यय की उत्पत्ति होती ही है। ___ यदि यह कहा जाय कि-"पूर्वापरवर्ती घट आदि पदार्यों में 'सोऽयं' इस प्रकार को भ्रमात्मक प्रत्यभिज्ञा के बाद योगियों को उसके बाधक प्रत्यय की उत्पत्ति होती है" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्त प्रत्यभिज्ञा के बाधक योगी के प्रत्यक्ष के उत्पत्ति में श्रद्धा के अतिरिक्त कोई प्रमाण नहीं है और श्रद्धा स्वयं प्रप्रमाण है ॥ ६२ ॥ एतदेव प्रकटयति-- मूलम्- माना योगी विजानात्यनाना नेत्यन्त्र का प्रमा । देशनाया। विने यानुगुण्येनापि प्रवृत्तितः ॥ ६३ ।। नाना प्रतिक्षणभिन्नम् योगी विजानाति साक्षात्करोति जगत् , न त्वनानाअचणिकस्वभावम् , इत्यत्र का प्रमा-कि निश्चायकम् १। "क्षणिकाः सर्व संस्काराः" इति देशनैवात्रार्थे प्रमाणम् , यथादृष्टार्थस्य योगिना देशनादित्याशङ्कयाइ-देशनाया उक्तलपणायाः पिनेयानुगुपयेनापि-बिनाप्यर्थं श्रोत्रनुग्रहार्थमपि प्रवृत्तितासंभवात बाणभार्यामृतत्वदेशनावद ॥ ६३॥ [ योगिज्ञान से क्षणिकत्व की सिद्धि दुष्कर ] ६३वों कारिका में पूर्व कारिका के उक्त अंश की हो पुष्टि की गयी है। कारिका का अर्थ : इस प्रकार है-'योगी को जगत् का प्रतिक्षण भिन्नवस्तुसमष्टि रूप में हो प्रत्यक्ष होता है और स्थिर वस्तु को समष्टिरूप में प्रत्यक्ष नहीं होता' इसमें कोई नियामक नहीं है। यदि यह कहा जाय कि"सभी वस्तुएँ क्षणिक हैं-बुद्ध का यह कथन हो इस बात में प्रमाण है कि योगी को क्षणिक रूप में ही जगत् का साक्षात्कार होता है, क्योंकि वह वस्तु को जिस प में देखता है उसो रूप में उसका उपदेश करता है"- तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उपदेशयोग्य व्यक्ति की मानसिक स्थिति के अनुसार उसके अनुग्रहार्थ वस्तु का अतद्रूप में भी उपदेश हो सकता है, यह ठीक उसी प्रकार है कि जैसे अपनी जीवित भार्या में आसक्त ब्राह्मण को संन्यास आश्रम में प्रवेश की इच्छा की पूर्ति के लिए, कोई उसे उसकी जीवित भार्या को मृत बताता है ।। ६३] Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाका टीका एवं हिन्दी विवेचन ] प्रत्यभिज्ञाभासव्यावृत्ततयाऽस्याः प्रामाण्यमुपपादयतिमूलम्-~-या च लुनपुनर्जातनख-केश-तृणादिषु । इयं संलक्ष्यते सापि तवाभासा न सैव हि ॥ ६४ ॥ __ या च जूनपुनर्जातनख-केश-तृणादिषु इयं-प्रत्यभिज्ञा संलक्ष्यते स एवायं नखः' 'स एवायं केशः' 'तदेवेदं तृणम्' इत्याल्लिख्यते, सापि तदामासा-प्रत्यभिज्ञाभासा, न सैव हिन्न प्रत्यभिज्ञानमेव हि, लूनपुनर्जातत्वप्रतिसंधाने तत्र याधावतारात , इयं च बैलक्षण्यात् प्रमेवेति भावः ।। ६४ ॥ [ सभी प्रत्यभिज्ञा भ्रमात्मक नहीं होती ] ६४वीं कारिका में पूर्वापर पदार्थ में 'सोऽयं' इस प्रत्यभिज्ञा को 'भ्रमात्मक प्रत्यभिज्ञा' से विलक्षण बताते हुए उसके प्रामाण्य का उपपादन किया गया है। कारिका का प्रथं इस प्रकार हैकटने के बाद पुनः उत्पन्न नख, केश और तृण आदि में जो स एव प्रयं नखः - यह वही नख है' 'स एव अयं केश:--यह वही केश है' 'तदेव इदं तृणम्-यह वही तृण हैं। इस प्रकार को प्रत्यभिज्ञा होतो है केवल वही भ्रमात्मक प्रत्यभिज्ञा है, क्योंकि नख आदि में कटने के अनन्तर पुनः उत्पन्न होने का ज्ञान होने पर यह पहला नख नहीं है किन्तु दूसरा नया नख है. यह पहला केश नहीं है किन्तु दूसरा नया केश है, तथा यह पहला तृरण नहीं है किन्तु दूसरा नया तृण है' इस प्रकार के बाधक प्रत्यय का उदय होता रहता है। उसके दृष्टान्त से सभी प्रत्यभिज्ञा को भ्रमात्मक नहीं माना जा सकता । इस लिए पूर्वापर पदार्थ में होने वालो 'सोऽयं यह प्रतिज्ञा, कटने के बाद पुनः उत्पन्न होने वाले नख आदि में होने वाले प्रत्यभिज्ञा से, विलक्षण होने के नाते प्रमा है ।। ६४ ।। नन्धेवमपि लूनपुनर्जातनख-केशादिषु प्रत्यभिज्ञायत् प्रकृतप्रत्यभिज्ञाप्यप्रमाणं भविष्यतीति संशयाच कथमर्थनिश्चयः ? इत्यत आहमूलम्-प्रत्यक्षाभासभावेऽपि नाऽप्रमाणं यथैव हि । प्रत्यक्षं, तबदेवेयं प्रमाणमवगम्यताम् ।। ६५ ॥ प्रत्यक्षाभासभावेऽपि='शुक्तौ रजतम्' इति मिथ्याप्रत्यक्षसद्भावेऽपि यथैव हि नाऽभमा प्रत्यक्षं-इदं रजतम्' इत्यादि समीचीनं प्रत्यक्षम् , तद्रदेधेयं-प्रत्यभिज्ञाभामसद्भावेऽपि प्रमाणमवगम्यताम्-प्रमात्वेन निधीयताम् , भ्रमप्रमासाधारणप्रत्यक्षत्वदर्शनजनितस्य प्रत्यक्ष इव तादृशग्रत्यभिज्ञात्यदर्शन जनितस्य प्रकृतप्रत्यभिज्ञायामपि प्रामाण्यसंशयस्याऽबाध्यत्वविशेपदर्शनेन निवर्तमादिति भावः ॥ ६५ ॥ [ प्रत्यभिज्ञा में प्रामाण्यसंशय का निराकरण] ६५वौं कारिका में इस क्ति का निराकरण किया गया है कि-'करने के बाद पुन: उत्पन्न मल आदि में होने वाली प्रत्यभिज्ञा जसे अप्रमाण होती है उसी प्रकार-पूर्वापर पदार्थ में होने वाली Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ शास्त्रया ० त०७ श्लो०६६ प्रत्यभिज्ञा भी अप्रमाण हो सकती है इस प्रकार मा संशय होने से विवादास्पद प्रत्यभिशा के विषयमूत मर्थ का निश्चय नहीं हो सकता' । कारिका का अर्थ इस प्रकार है--शुक्तिसीप में रजत का प्रत्यक्षाभास होने पर भी जैसे वास्तव में रजत का यथार्थ प्रत्यक्ष. प्रत्यक्षरव रूप से प्रत्य का समानधर्मी होने पर भी प्रत्यक्षाभास नहीं होता किन्तु यथार्थ ही होता है, ठीक उसी प्रकार कटने के बाद पुनः उत्पन्न नख आदि का प्रत्यभिज्ञाभास होने पर भी पूर्वापर पदार्थ में होने वाली 'सोऽयं यह प्रत्यभिज्ञा, प्रत्यभिज्ञात्य रूप से प्रत्यभिज्ञाभास का समानधर्मी होने पर भी प्रत्यभिज्ञामास नहीं हो सकतो, अतः उसमें प्रामाण्य का अभ्युपगम ही न्यायसङ्गत है। आशय यह है कि जैसे भ्रम और प्रमा दोनों में रहने वाले प्रत्यक्षत्व रूप साधारण धर्म के दर्शन से प्रमात्मक प्रत्यक्ष में प्रामाण्य का संशय उसमें उत्तरवर्ती प्रत्यय से अबाध्यत्वरूप विशेष धर्म के निश्चय से प्रतिबद्ध हो जाता है, ठीक उसी प्रकार श्रम और प्रमा में रहने वाले प्रत्यभिज्ञात्वरूप साधारण धर्म के दर्शन से यथार्थ प्रत्यभिज्ञा में सम्भावित प्रामाण्य संशय भी 'उत्तरकालीन प्रत्यय से अबाध्यत्व' रूप विशेष धर्म के निश्चय से प्रतिबद्ध हो जाता है ।। ६५ ।। न चेयमतन्त्रसिद्धत्याहमूलम्-मतिज्ञानविकल्पत्वान्न धानिष्टिरियं यतः। एनबलात्ततः सिद्ध नित्यानित्यादि वस्तु नः॥ ६६ ॥ यतो मतिज्ञानविकल्पत्वाद् न चेयमनिष्टिः प्रत्यभिज्ञाङ्गीकारो नापसिद्धान्त इत्यर्थः, वासनाधारणाफलत्वेन तदुपगमात , तत एतदलात्-प्रत्यभिज्ञान्यथानुपपत्तेः नः-अस्माकं नित्यानित्यादि वस्तु सिद्धम् , आदिना सदसदादिग्रहः । तदेवं सिद्धो वस्तुयाथात्म्यपरिच्छेदप्रवणः स्याद्वादः । एतदेकदेशालम्बना एव परस्परनिरपेक्षाः प्रवर्तन्तेऽपरिमिताः परसमयाः । तदुक्तम्- सम्मति० ३/१४४ ] * जावइआ वयणपहा तारइआ चेव हुँति पयवाया । जावइआ पयवाया तावइआ चेव परसमया ॥१॥ इति । अस्यार्थः-यावन्तो वचनपथाः बक्तृविकल्पहेतवोऽध्यबसायविशेषाः, तावन्तो नय. पादाः तज्जनितवक्तृविकल्पाः शब्दात्मकाः, सामान्यतो नगमादिसप्तभेदोपग्रहेऽपि प्रतिव्यक्ति तदानन्त्यात् । यावन्तश्च नयवादास्तारन्त एव परसमयाः, निरपेक्षवक्त विकल्पमात्रकल्पितत्वात् तेपाम् । ६६वीं कारिका में यह बताया गया है कि पर्वापर पदार्थ में होने वाली 'सोऽयं' प्रत्यभिज्ञा जनतन्त्र को दृष्टि में असिद्ध नहीं है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है-यतः उक्त प्रत्यभिज्ञा मतिज्ञान का विकल्प होने से अनिष्ट नहीं है अर्थात प्रत्यभिज्ञा का अभ्युपगम जनसत्र की दृष्टि में अपसिद्धान्त नहीं है, क्योंकि वासना और धारणा के फलस्वरूप में प्रत्यभिज्ञा स्वीकृत है, इस लिये प्रत्यभिज्ञा की यावन्तो वचनपथास्तावन्त एव भवमि मत एक भवान्त नयवादा: । यावन्ता नयबादास्तावन्त एव परसमयाः ।। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० कटीका एव हिन्दी विधेचन ) अन्यथानुपपत्ति रूप बल से वस्तु को नित्यानित्यरूपता और सद् असत आदि रूपता जो जैन विद्वानों को मान्य है उसकी सिद्धि होती है। फलतः उक्त विचारों के निष्कर्ष रूप में वस्तु के यथार्थ स्वरूप का निर्णय करने में समर्थ स्याद्वाव सिद्ध होता है। इसके एक अंश को लेकर ही परस्पर निरपेक्ष अन्य प्रगणित सिद्धान्तों को प्रवृत्ति होती है। यही बात सम्मसि प्रकरण की 'जाब इआ वयणपहा' प्रादि १४४वीं गाया में कही गयी है। गाथा का अथ इस प्रकार है वचन के जितने पथ होते है अर्थात जितने निश्रय वक्ता के विकल्प-- वैमत्व के हेतु होते हैं उत्तने ही नयवाद होते हैं. अर्थात् उतने ही वक्ता के तन्मूलक शब्दात्मक विकल्प होते हैं, क्योंकि नम के सामान्य रूप से नैगम-संग्रह आदि सात ही भेद का प्रतिपादन होने पर भी प्रतिष्यक्ति उनको संख्या अनन्त होती है। और जितने नयघाव होते हैं उतने ही अन्य मत वादियों के सिद्धान्त होते हैं क्योंकि वे वक्ता के निरपेक्ष विकल्पमात्र से कल्पित होते हैं। तथाहि-कापिलं दर्शनं निरपेक्षद्रव्यार्थिकनय विकल्पप्रमतम् , यौडदर्शनं च निरपेक्षशुद्धपर्यायास्तिकनयविकल्पजनितम् , द्वाभ्यामपि च परस्परनिरपेक्षाभ्यां द्रव्यार्थिक-पर्यायाबिकाभ्यां प्रणीतमौलूक्यदर्शनम् । तदाह-[ सम्मति० ३१४५-४६ ] *ज काविलं दरिसणं एवं दवष्टिअस्स बत्तव्वं । सुद्धोअणतणयस्स उ परिसुद्धो पज्जवविअप्यो ॥१॥ दोहिं वि णएहिणीशं सत्थमुलूगण, तहवि मिच्छतं । जं सविसयपहाणत्तरगेण अन्नुन्नणिरवेक्खं ॥२॥ एवमौपनिषददर्शनादीनामपि संग्रहनयादेः प्रादुर्भू तिर्भास्नीया। कपिल का साहयदर्शन निरपेक्षमूख्याथिकनय के विकल्प से उदगत है। बौद्ध दर्शन निरपेक्ष शुद्ध पर्यायास्तिक नय के विकल्प से उत्पन्न है। और उलक का वैशेषिक दर्शन परस्पर निरपेक्ष द्रध्याथिक और पर्यायायिक नयों से प्रादुर्भूत है। यही बात सम्मतिप्रकरण की 'जं कापिल' तथा 'दोहि वि' इत्यादि :४५, १४६वीं दो गाथाओं में कही गयो है जिनका अर्थ इस प्रकार है--कपिल का सल्यवर्शन अव्याथिकनय का प्रतिपाद्य है और शुद्धोदन के पुत्र बुद्ध का दर्शन शुद्ध पर्यायास्तिक मय का विषय है। उलक द्वारा रचित वैशेषिक दर्शन उक्त दोनों नयों से यद्यपि प्रादूर्भूत है तथापि यह भी मिथ्या है क्योंकि उसके मूलभूत दोनों नय अपने विषय का ही मुख्यरूप से प्रतिपादक होने से परस्पर निरपेक्ष है। इसी प्रकार संग्रह नय प्रादि से वेदान्त दर्शन आदि की उत्पत्ति ज्ञातव्य है । अत एव परदर्शनामिमतेऽर्थ स्यात्कारमात्रेण स्वावधारणसंभवाद् भवति साम्यसंपत्तिः स्याद्वादिनः कर्मदोषादज्ञाननिमम्नं परं पश्यतः । परेपा तु स्त्रपक्षसिद्भावन्योन्यं कलहाय* यत्कापिलं दर्शतमेतद् द्रव्याथिकस्य वक्तव्यम् । शुद्धोदनतनयस्य तु परिशुद्धः पर्यविकल्पः ।। द्वाभ्यामपि नयाभ्यां नीतं शास्त्रमुलूकेन तथापि मिथ्यात्वम्। यत् स्वविषयप्रधानत्वेनान्योन्यनिरपेक्षम् ।। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ [ शास्त्रवा० ० ७ सो०६६ । मानानां यावजीवमपि वक्तृविकल्पानुपरमेन द्वेषानुच्छेदाद् नास्त्येव साम्यवार्तापि, इति संसारहेतुत्वात तेषां ज्ञानमयज्ञानमिति परिभाषन्ते परमप्रावनिकाः । ततो मिथ्यादर्शनगरलव्यथानिवृत्तये स्याद्वादामृतपानमेव विधेयं विवेकिना ॥६६॥ [स्याद्वाद से समभाव की सिद्धि ] उक्त रीति से अन्य दर्शनों के परस्पर निरपेक्ष नयों से प्रवृत्त होने के कारण ही उनके अभिमत अर्थ में 'यह तो अपना है ऐसा केवल स्यात्' शब्द को जार देने से उसका प्रवधारण सम्भव हो जाता है और इससे सर्य दर्शनों में स्यादवादी की समदृष्टिता सिद्ध होती है, क्योंकि वह अन्य मतावलम्बी को कर्म-वोष से अज्ञान में निमग्न समानता है। किन्तु अन्य मतावलम्बी पंडित लोग तो अपने-अपने पक्ष की सिद्धि के लिए परस्पर में कलह करते रहते हैं अतः जीवनभर वक्ताओं के बैषम्य का उपरम न होने से उनके परस्पर द्वेष की निवृति नहीं होती, अत: उनमें समभाव की कल्पना भी नहीं हो सकती । इसीलिए परम प्रवक्ता श्री जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण ने अपने विशेषावश्यक भाष्य में अन्य मतावलम्बियों के ज्ञान को संसार का हेतु होने से अज्ञान कहा है। सारे विचारों का निष्कर्ष यह है कि मिथ्या दर्शन के विष को व्यथा को दूर करने के लिए विवेकीजन को स्याद्वाद के अमस का ही पान करना चाहिए। च्यालाश्चेद् गरुड प्रसर्पिगरलज्याला जयेयुजवाद् गृहीयुद्धिरदाश्च यद्यतिहठात कण्ठेन कण्ठीरवम् । घरं चेत् तिमिरोस्कराः स्थयितु व्यापारयेयुर्वलं चनीयुबेत दुर्नया: प्रसृमराः स्याद्वादविद्यां तदा ॥१॥ नयाः परेषां पृथगेकदेशाः क्लेशाय नैवाऽऽहेतशासनस्य । सप्तार्चिषः किं प्रसृताः स्फुलिङ्गा भवन्ति तस्यैव पराभवाय ॥२॥ एकरछेकधिया न गम्यत इह न्यायेषु याह्य पु यो। देशप्रक्षिपु यश्च कश्चन रसः स्याद्वादविद्याश्रयः। या प्रोन्मीलितमालतीपरिमलोद्वारः समुज्जृम्भते । स स्वैरं पिचुमन्दकन्दनिकरक्षोदाद् न मोदावहः ॥३॥ अभ्यास एकः प्रसरद्विवेकः स्याद्वादतत्त्वस्य परिच्छिदाप्यः । कपोपलाद् नैव परः परस्य निवेदयत्यत्र सुवर्णशुद्धिम् ॥४॥ माध्यस्थ्यमास्थाय परीक्षमाणाः चणं परे लक्षणमस्य किश्चिन् । जानन्ति तानन्तिमदुनयोत्था कुवासना द्राक् कुटिलीकरोति । ५॥ अतो गुरूणां चरणानेन कुवासनाविघ्नमपास्य शश्वत् । स्याद्वादचिन्तामणिलब्धिलुब्धः प्राज्ञः प्रवर्तेत यथोपदेशम् ॥६॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टोका एवं हिन्धी विवेचन ] २४९ यस्यासन गुरवोऽत्र जीतविजयप्राज्ञाः प्रकृष्टाशयाः भ्राजन्ते सनया नयादिविजयग्राज्ञाश्च विद्याप्रदाः । प्रेम्णा यस्य च सन्म पद्मविजयो जातः सुधीः सोदर स्तेन न्याय विशारदेन रचितस्तोऽयमभ्यस्यताम् ।।७।। इति पण्डितश्रीपद्मविजयसोदरन्यायविशारदपण्डितयशोविजयविरचितायां स्याद्वादकल्पलताभिधानायां शास्त्रवार्तासमुच्चयटीकायां सप्तमः स्तबकः । [स्थाद्वादमत का उपसंहार ] शास्त्रवार्ता के व्याख्याकार विद्वद्वर्य यशोविजयजी ने प्रस्तुत स्तबक का उपसंहार करते हुए 'व्यालाश्चेद.' से लेकर 'यथोपदेशं पर्यन्त के छः पद्यों से निम्न बातें कही है । (१) पहले पक्ष में उनका कथन यह है कि विष की ज्याला का प्रसार करने वाला सर्प शीघ्रता से गरुड़ के ऊपर विजय प्राप्त कर ले, और यदि हार हठह को मारे गले में कर रहे एवं अन्धकारसमूह सूर्य को छिपा लेने के लिए अपने बल का प्रयोग करने लगे तो कदाचित् इतस्ततः फैले हुए दुर्नय स्पाद्वादविद्या के विरोधी हो सकते हैं-जो एक असम्भव सी बात है। (२) दूसरे पध में उनका बक्तव्य यह है कि अन्य मतालम्बियों के नय स्याद्वाद के एक-एक अंश है अतः वे जैन शासम के लिए क्लेशकारक नहीं हो सकते, क्योंकि क्या यह सम्भव है कि सातज्वालाओं से जटिल अग्नि से हो इधर-उधर फैले अग्नि के छोटे-छोटे कण, उसी अग्नि का पराभव कर सकते हैं ? (३) तीसरे पद्म में उनका कथन यह है कि स्याद्वाब विद्या में जो एक कोई विलक्षण (अद्भत) रस है वह एकदेशदर्शी बाह्म मतों में सामान्य घरेलू बुद्धि वाले को प्राप्य नहीं है । स्पष्ट है कि पूर्ण विकसित मालती लता के सुगन्ध का जो हर्षाधायक उदगार अप्रतिहत रूप से प्रकट होता है वह पित्रुमन्द-नीमवृक्ष के कन्द समूह के चूर्ण से नहीं होता । (४) चौथे पत्र में उनका कहना है कि स्याद्वाद तत्त्व को समझने के इच्छुक व्यक्ति को विवेकबहुल एकमात्र अभ्यास का ही प्राश्रय लेना चाहिए यदि वह स्वयं ऐसा नहीं करता तो उसे स्पादबाद तत्त्व को उपलब्धि नहीं हो सकती, क्योंकि यह स्पष्ट है कि एक व्यक्ति सोना परखने वाले पस्थर पर सोना को कसकर दूसरे को उसकी शुद्धता नहीं बताता किन्तु सोने की शुद्धता जानने के लिए मनुष्य को स्वयं निकष पर सोने को कसना पड़ता है। (५) पांचवें पद्य में व्याख्याकार का कहता है-पलभर मध्यस्थता का अवलम्बन कर परीक्षा करने वाले अन्य मतावलम्बी स्याद्वाद का यत्किश्चित लक्षण जानते तो हैं किंतु अन्तिम दुनय से उत्पन्न मलिन वासना उन्हें कुटिल बना देती है। (६) छ? पद्य में उन्होंने यह सम्मति दी है कि मलिन वासना के विघ्न का नाश गुरुजनों के धरणार्चन से हो होता है, अत: जिस प्राज्ञ पुरुष को स्वावाद चिन्तामणि के लाभ की चाह है उसे सदेव गुरु उपदेश के अनुसार स्थावाद सत्त्व को समझने के लिए प्रवृत्त होना चाहिए। यस्यासन् ० इस श्लोक का अनुवाद पहले हो चुका है। पंडित श्रीपाविजय के सहोवर न्यायविशारद पंडितयशोषिजय विरचित स्यावादकल्पलतानामक शास्त्रवार्तासमुच्यय को यास्या में सातवाँ स्तषक संपूर्ण Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ - सप्तमस्तबक मूलश्लोक - अकारादिक्रमः पृष्ठांक लोकश ५७ न चोत्पादव्ययों न स्तो न नास्ति श्रोष्यमप्येव ५८ ११७ न मानं मानमेवेति १४१ न स्वसत्त्वं पराऽसत्त्वं २३७ न युज्यते च सन्न्यायात् ३२३ नाऽभेदो भेदरहितो २३३ नानुवृत्ति-निवृत्तिभ्यां २०५ नान्योन्यव्याप्तिरेकान्त २२७ निवत्तंते च पर्यायो पृष्ठांक लोकांषा: २३२ अतस्तद्भ ेद एवेति अत्राप्यभिदधत्यन्ये ५४ १७८ अनेकान्तत एवातः २ अन्ये खाहुरनाद्येव २०६ अन्योन्यमिति यद्भ ेदं २०३ अन्वयो व्यतिरेकश्च २३४ इत्थं चालोचनं चेद ९६ इष्यते च परमहात् ५४-६६ उत्पादोऽभूतभवनं ६६ एक वैक देवे २३८ एकान्तैक्ये न नाना यद् १४५ एतेन सर्वमेवेति २२६ एतेनैतत्प्रतिक्षिप्तं २१८ एवं न्यायाऽविरुद्धेऽस्मिन २१५ एवं ह्य भयदोषादि ५६ किंच स्याद्वादिनो नंब २३२ किचिन्निवर्त्ततेऽवश्यं २२ घटमोलिसुवर्णार्थी २२८ जात्यन्तरात्मकं चैनं २२१ २१९ ततोऽसत्तत्तथा न्याया६७ तथैतदुभयाचार के चाहिम TJ ९८ ५७ तदित्थंभूतमेकेति साहु कुटोत्पादो २३२ तस्येति योगसामर्थ्याद् १९० तस्यैव च तथाभावे २३३ 13 तु २२६ द्रव्य - पर्याययोर्भदे २३६ न च भेदोऽपि बाधाएं " २१८ न्यायात् खलु विरोधो यः पयोव्रतो न दयत्ति १४७ परिकल्पितमेत २७ २२८ प्रतिक्षिप्तं च यद्भेदा२३६ प्रत्यभिज्ञाबलाच्चेत९७ भावमात्रं तदिष्टं चेत् १२३ मानं चेन्मानमेवेति २१९ मृद्रव्यं यत्र पिण्डादि २२४ यतश्च तत्प्रमाणेन २२७ यत्रिवृत्ती न यस्येह १९१ युवैव न च वृद्धोऽपि २२४ येनाकारेण भेद: कि १६० लज्जते बाल्य चरित ११३ वासनाहेतुकं यच्च ५५. शोक-प्रमोद माध्यस्थ्य ११३ सदाभावेतरापत्ति १८८ संसाराद् विमुक्तो १८६ संसारी चेत् स एवेति संसार्यपि न संसारी ५६ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक: परिशिष्ट २-सप्तमस्तबके उद्धृतसाक्षिपागंशानामकारादिक्रमः पाठांशः पृष्ठांक: पाठांशः १६९ अस्थतरभूएहि य सम्मति-३६) २०४ दो पुण नया , ३.१०] ८६ अनादिनिधन ब्रह्म [वाक्यपदीय] ९१ न च स्यात् प्रत्ययो लोके [समन्तभद्र] ६३ अनुविकरूपत्वाद् [ , ] ४० न शाबलेयाद् गोवृद्धि [लो.वा.वन.४५] ११४ अन्य च्चवविध चेति [अने. ज. प.] ८७ न सोऽस्ति प्रत्ययो [वाक्य.-१२४] ८९ अविभागा तु पश्यन्ती [वाक्यपदीय] १९१ नाम ठवणा दविए सम्मति-५) १७१ आइट्ठोऽसम्भावे [सम्मति० ३६] ९९ नाम-स्थापना० [त. सू १-५] १०७ उज्जुसुअस्स एगे [अनु. द्वार सू. १४] । ३५ नापयाति न च तत्रासा-[प्र. वा. ३-१५२] ६५ उप्पज्जन्ति चयंति अ [सम्मति १६] । ४० नंकरूपा मतिर्गोत्वे । श्वे.बा.न. ४८] ३ उपाओ दुवियप्पो सम्मति. ३-१२६] २५ नैकान्तः सर्वभावानां [ ] १९८ कुम्भो ण जीवदविरं [सम्मति. ३/३१] | १६२ पडिपुत्रजीव्वणगुणो | सम्मति १-४३] ८८ केवल बुद्ध्युपादाना-[वाक्यपदीय] २०. परिगमणं पज्जाओ [ , ३.१३] १९८ गइपरिणयं गई चेव (सम्मति. ३-२९] ४० पिण्डभेदेषु गोबुद्धि [श्लो. वा. वन. ४४] २२६ गुडो हि कफहेतुः [वी. स्तो. ८-६] १७६ पित्रादिविषयेऽपेक्षा [मंडनमिश्र] १९८ गुण णिवत्तिअसन्ना [सम्मति. ३-३०] ४० प्रत्येकसमवेताऽपि [श्लो. वा. वन. ४७] २०४ गुणसद्द मन्तरेण वि , ३-१४] ४० ,, थं [, , , ४६] १०५ जत्थ य ज जाणिज्जा ( अनु. द्वार।। ८४ बहुआण एगसद्दे [सम्मति ३-१३७] १०१ , विय ण याणिज्जा वि.आ.भा २६१८] ९१ बोषात्मता चेच्छब्दस्य [समन्तभद्र] २०४ जं च पुण अरया [सम्मति-३/११] २५ भयणा वि हु भइयम्दा [सम्मति ३-१२४] २०४ जपंति अस्थि समये [ , ३/१३) १०३-१११ भावं चिय सद्दणया [वि.मा.भा. २८४७] २०४ जह दससु दसगुणम्मि [, ३/१५] १४१ भिन्ननिमित्तत्तणो [भाषा रह. २९] १०९ जीवो गुणपडियन्नो [आ• नि०] १४४ मालादी च महत्त्वादि [प्र. वा. २/१५७] १९२ णय होइ जोवणत्थो [सम्मति १-४४] । ३५ यत्रासौ वर्तते भाव: [प्र. वा. ३-१५२] णामं आवकहियं होज्जा [अनु. द्वार] १०१ यद्यत्रकस्मिन् न० [तत्वार्थ टोका] ११० णामाइतियं दध्वढिअस्स [वि आ.भा ७५] | ११४ यतः स्वभावतो जातं [अने. ज. प. ] १९६ णिअमेण सहिंतो [सम्मति ३-२८] २५ रयणप्पहा सिय सासया [आगम] ६३ णियय वयणिज्जसचा [ ॥ १-२८] २०४ रूव-रस-गंध-फासा [सम्मति ३-८] ५६ तम्हा सव्वे वि णया [ "५-२१, १७१ सब्भावाऽसब्भावे [ , १-४०] २८ दब्ब पज्जवविउशं 1 ।१-१२] १७० सम्भावे साइट्ठो । १-३८] २५ दवद्विआए सिय सासया [.. ] ९ साभाविओ वि समुदयकउ [स. ३-१३०] ६३ दवविउत्ति तम्हा [ ॥ १-६] १५२ सोऽप्रयुक्तोऽपि वा तज्ज्ञ: [ ६५ दवटिअवत्तब्ध [ १.१०] १५२ वाक्येऽवधारणं तावद् [ १८४ , [ . १५४ ] ८७ वापता चेद् व्युत्क्रामेद् [वाक्य. १२५] २०४ दुरे ता अपणतं । , ३-१ ] १५ विगमस्स वि एस विही [स. ३-१३१] Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शुद्धिपत्रक 17 पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पंक्ति अशुद्ध 17 चञ्चत्कता चञ्चरका 123 12 पानध्यवसाय अनध्यवसाय 3 जाता कि जाता है कि / 127 11 यहा 10 7 निरवयत्व मिरवयवत्व 130 31 मदिभिन्न मदभिन्न 14 9 ऊर्वता अश्वता 131 15 घाम्। यूहाम् / 14 15 द्रव्यभावा द्रस्याभाव 131 का बो के दो 15 20 नाश का नाश के अवथा अथवा 18 32 शिरा शिरो 136 21 अन्यत्य अन्यत्व 19 22 परिणाम परिणाम 137 11 उतः अतः 20 33 ततो तको 140 14 नलं नील आकार की उत्पाद और 143 21 सापेक्षा सापेक्ष उत्पाद और 155 एककाल विनाश 4 एषकाल विनाश प्राकार की 1 इतके इस के 27 30 पयः न पयः 167 33 वास्यः, वाच्या, 36 18 यथा-प्राप्त -पथाप्राप्त / 171 17 अयक्तव्यच अवक्तव्यश्च 40 12 नापि ३नापि 172 33 सतोय भग तृतीय भंग 41 3 कर यदि कर 174 2 अभेदोपचारश्च अभेदोपचारश्च 42 22 गोत्व / अश्वत्य गोत्व-प्रश्वत्व 174 12 कर न कर 43 18 गत्वाभाव गोस्वाभाव 174 30 पर्यापार्थिक पर्यायाथिक 44 14 भिब भिन्न 187 23 प्रमुक्त मुक्त 48 33 द्विथपक्रव द्विपथक्त्य 192 15 साधनों से साधनों के. 17 मामित्त नानिमित्त 21 विरोध 5 प्रामाण्यवाद प्रामाण्यवह 163 16 प्रास्पद आस्पद 15 विना विना उसका 13 बसन पचन 26 एकत्वाध्या एकत्याध्यव 34 क्योंकि क्योंकि वह 11 णात्मामना णामात्मना 27 पर्माययास्तिको पर्यायास्तिको 25 वारिछन्नत्व यावच्छिन्नास्व 211 16 रसिद्ध रसिद्धि 78 30 अवच्छेद प्रवच्छेदक 215 25 होने न होने पर पर पर 213 4 द्वित्वव्योः द्विस्वयोः 15 परिणाम परमाणु 216 4 विर्धाजतं विजितं 17 घटकपरणाम घटकपरमाणु 7 प्रसिद्धि 216 प्रसिद्धिः 7 प्राज प्राण 219 12 शब-"ब्रह्म 21 अननुभव अनुभव प्रियस्प विविक्तस्य प्रियस्य न 221 34 विक्तस्य 6 12 गततव गतत्व 223 27 बोध न का बोधन 107 8 पर्यायाथि पर्यायाथिक / 224 4 सिद्धि 1151 व्यो-पादा ध्ययोरपादा / 224 10 योगः? योगः / 115 23 जा कहा जा ___ 224 16 में कोई ""Mr 162 विरुद्ध gro M M N ---"शब्दब्रह्म सिद्ध