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________________ स्था4. टोका एवं हिन्दी विधेचन ] २३३ अतः='तस्य' इत्यस्यामेदं विनाऽनुपपत्तेः 'तद्भद एव' इति वचः प्रतीतिविमुखप्रत्यक्षादिविरुद्धम् । कुतः ? इत्याह-तस्यैव च-वस्तुनः, तथाभावात्-तथापरिणमनात् , तद्-वस्तु भिवतीतात्मकम्=निवृत्यऽनिवृत्त्यात्मकं यत् इति ।। ५१ ॥ ५१वीं कारिका में पूर्व कारिका द्वारा कथित अर्थ को निगमित किया गया है। कारिका का अर्य इस प्रकार है । तस्य किश्चित' में तत् और किश्चित् में भेद माने पिता त पद के उत्तर षष्ठी अनुपपन्न है । इसलिए 'किश्चित् में तत का भेद ही है। यह एकान्तबादी का कथन प्रत्यक्षावि प्रतीतियों से विरुद्ध है क्योंकि मूलभूत वस्तु को ही आंशिक निवृत्ति में परिणति होती है अतः अंशतः वस्तु निवृत्त होकर भी पूर्णतः अनिवृत्त हो रहती है ॥ ५१॥ इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह-- मूलम्--नानुवृत्तिनिवृत्तिभ्यां विना यदुपपद्यते । तस्यैव हि तथाभावः सूक्ष्मबुद्धया विचिन्त्यताम् ।। ५२ ॥ नानुवृत्ति-निवृत्तिभ्यां प्रत्यक्षसिद्धाभ्यां स्वभावाभ्यां विना यद् वस्तु उपपद्यते, तस्यैव-वस्तुनः तथाभाया तथापरिणमनम् , इति सूक्ष्मबुद्धया विचिन्त्यतामेतत् ॥ ५२ ॥ ५२वीं कारिका में, पूर्वोक्त तथ्य को अवश्य स्वीकार्यता बतायी गयो है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-क्योंकि अनुवृत्ति और निवृत्ति इन प्रत्यक्षसिद्ध स्वभावों के विना वस्तु नहीं उपपक्ष होती, इसलिये वस्तु का ही मूलरूप में स्थिर रहते हुए अंशरूप में निवृत्त्यात्मक परिणाम होता है, यह मात सूक्ष्मवृद्धि से ज्ञातव्य है ।। ५२ ।। उपसंहरन्नाहमूलम्--तस्यैव तु तथाभावे तदेव हि यतस्तथा । भवत्यतो न दोषो नः कश्चिवप्युपपद्यते ॥५३ ।। तस्यैव तु तथाभावे सिद्धे सति तदेव हि यतस्तथा भवति-कारणमेव कार्यतया परिणमत इत्युक्तं भवति । अतो न दोषो ना=अस्माकं कश्चिदपि । एतदुक्तं भवति-कथञ्चिदनिवर्तमानाभिन्नस्वभावं सद् निवनंते, तथा निवर्तमानाभिन्न स्वभावं च कथञ्चिदवतिष्ठत इति प्रतीतिसिद्धमेतत् , 'तदेव मृदद्रव्यं कुशूलात्मना निवर्तते' इत्यत्र च तदाऽनिवर्तमानाभिन्नस्वभावपरामर्शात, 'तदेव मृदात्मनाऽवतिष्ठते' इत्यत्र च तदा निवतेमानाऽभिन्नस्वभाव परामर्शत ॥५३॥ [ मूल वस्तु का ही निवृत्तिरूप परिणाम ] ५३वों कारिका में पूर्व कारिका द्वारा उक्त अर्थ का उपसंहार किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है मुल वस्तु का ही तथाभाव=आंशिक निवृत्ति रूप में परिणमम होता है इस बात की सिद्धि से यह फलित होता है कि कारण काही कार्यरूप में परिणमन होता है। प्रतः अनेकान्तवादी के मत में किसी दोष को अवसर नहीं प्राप्त होता। कहने का माशय यह है कि
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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