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[शास्त्रवास्तिक ७ श्लो. ४९-५०
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देशयतिमूलम्-किश्चिग्निवर्ततेऽवश्यं तस्याप्यन्यत्तथा न यत् ।
अतस्तद्भेद एवेह निवृत्त्याद्यन्यथा कथम् ! ।। तस्यापि अधिकृतस्यापि वस्तुनः किञ्चिदवश्यं निवर्तते, यदन्यत् किश्चित् तथा ननिवर्तत इत्यर्थः । अतः निवर्तमानात् तद्भद एव-तस्याऽनिवर्तमानस्यांशस्य भेद एव, अन्यथा निवृत्त्यादि-निवृत्तिवानिवृत्तिश्चेति कथम् ? ॥ ४६॥
४क्ष्यों कारिका में भेदाभेद पक्ष के विरुद्ध पुनः प्रश्न खड़ा किया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है -विचाराधीन वस्तु का कोई अंश अवश्य निवृत्त होता है प्रतः जो अंश नहीं निवृत्त होता उसे निवर्तमान अंश से मिन्न मानना होगा, क्योंकि दोनों में ऐक्य मानने पर एक ही समय विचाराधीन वस्तु की निवृत्ति और अनिवृत्ति दोनों की मान्यता कैसे हो सकती है ।। ४९ ।।
अत्रोचरम्मूलम्-तस्येति योगसामर्थ्याद् भेद एवेति बाधितम् ।
___अभिन्न देशस्तस्येति यत् तशास्या रथोम्यो।। ५ ॥ तस्येति योगसामर्थ्यात् 'तस्य किश्चिद् निवर्तते' इत्यत्र तस्येति षष्ठ्यर्थसंबन्धानुभवप्रामाण्यात् , मेद एवेति बाधितं परस्य वचनम् । ननु न बाधितमेतत् 'चैत्रस्य धनम्' इत्यादौ भेद एव पष्ध्यर्थसंबन्धदर्शनादित्याशङ्कायामाह-यत्-यस्मात , 'तस्य' इति तदुव्याप्त्यातत्स्वभावानुवेधेन अभिनदेशः, तथा निश्तत इति क्रियोपसंदानेन उच्यते। तथा च तस्य' इत्यत्र 'राहोः शिरः' इतिवदभेदे षष्ठी, समवाय निरासात इतरसंबन्धानुपपत्तेरिति भावः ॥ ५॥
[तस्य किंचित्-यहाँ अभेद अर्थ में पष्ठी ] ५०वीं कारिका में उक्त प्रश्न का उत्तर दिया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-'सस्य किश्चित् निवर्तते' इस वाक्य के 'तस्य' शम्द में तत् पद के उत्तर जो षष्ठी विभक्ति का योग है उससे यह कहना कि 'सत् के अंश के साथ तव का भेद हो है क्योंकि षष्ठी विभसि भेद में ही होती है, बाधित है। तथा-'चत्रस्य धनम्' इत्यादि स्थलों में भेव में हो षष्ठी देखी जाती है अतः 'तस्य किश्चित' में भी तत् पद के उत्तर षष्ठी को भेदाश्रित मानमा ही उचित होने से उक्त कथन बाधित नहीं है-यह कहना भी समोचीन नहीं है क्योंकि 'तस्य किश्चित्' में षष्ठी से किश्चित् में तत् को व्याप्ति अर्थात् तत् के स्वभाव के अनुवेध का बोध होने से तत् से अभिन्न अंश का ही 'निवर्तते' इस किया के साथ सम्बन्ध होता है। फलतः, समवाय सम्बन्ध मान्य न होने से 'राहोः शिरः' इस प्रयोग में जैसे अमेव में ही षष्ठी होती है, क्योंकि राह और शिर में अभेद से भिन्न सम्बन्ध प्रनुपपन्न है, उसी प्रकार 'तस्य किश्चित्' में भी किश्चित् के साथ तत् के अभेद में हो षष्ठी मान्य है ।। ५० ।।
निगमयमाह-- मूलम् अतस्तभेद एवेति प्रतीतिविमुखं वचः ।
तस्यैव च तथाभावात्तनिवृत्तीतरात्मकम् ।। ५१ ॥