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[ शास्त्रया० स्त० ७ श्लो०५४
प्रनिवर्तमान से कश्चित अभिन्न स्वभाव वाले अंश को ही निकत्ति होती है । एवं निवर्तमान अंश सेकश्चित भिन्न स्था यास पोहो अदास्यति होती है। यह बात प्रतीतिसिद्ध है क्योंकि यह स्पष्ट है कि 'तदेव मवतव्यं कुशूलात्मना निवसंते' इस प्रतीति में 'प्सदेव' से तत् से अभिन्न स्वभाव का ही परामर्श होता है जिसका तात्पर्य यह है कि जो मध्य कुशूल के रूप में था वही अपने कुशूल रूप का त्याग करता है । इसी प्रकार तदेव मवात्मनाऽवतिष्ठते' इस प्रतीति में 'तदेव' से, निवर्तमान से अभिन्न स्वभाव का हो परामर्श होता है जिसका अर्थ यह होता है कि कुशूलरूप के निवृत्त होने पर मी मृद्रूप में कुशूल हो अवस्थित रहता है ।। ५३ ।।
ननु निवर्तमाना--ऽनिवर्तमानयोरेफेनाऽग्रहणात् कथं निवृत्यानिवृत्त्यान्मकैकग्रहः । इत्यत आहमुलम्-इत्थमालोचनं चेदमन्वयव्यतिरेकवत ।
वस्तुनस्तत्स्वभावत्वात्तथाभावपसाधकम् ॥ ५४ ॥ इत्थं च-उक्तयुक्त्या च इदं निवृत्त्यनिवृत्त्यात्मकवस्तुग्राहि, आलोचनम्, अन्धयव्यतिरेकवत्-उपयोगात्मनाऽन्वयि, अवग्रहे-हा--ऽपाय-धारणात्मना च परस्परं व्यतिरेकि, वस्तुनस्तत्स्वभावत्वात् अन्वय-व्यतिरेकिस्वभावत्वाव, तथाभावप्रसाधकम् अन्वयव्यतिरेकस्वभावग्राहकम् । एकेनैव ह्य पयोगेन तदेव वस्तु सामान्यतोऽवगृह्यते, ततो निवृत्त्यनिवृत्तिभ्यामीयते, ततः 'इत्थं निवृत्तमित्थं चानिवृत्तम्' इति निश्चीयते, ततस्तथैव धार्यते, नचैवमुपयोगैकत्वव्याघातः, श्याम-रक्तघटवदेकत्वाऽविरोधात । 'अक्रमकरूपमेव ज्ञानं संवेद्यते न तु क्रमवाप' इति चेत् १ न, क्वचिद् दोषात क्रमाऽसंवेदनेऽपि क्वचित् क्रमाऽक्रमस्य स्फुटमेव संवेदनात् । उपयुञ्जते हि लोका:--"घटमेव जाननहं प्राक सामान्यतः 'किमिदम् ?' इत्यवगृहीतवान , ततः 'किमनेन घटेन भाव्यमघटेन वा ?' इतीहितवान् , ततः 'कम्बुग्रीवादिमत्त्वात् घट एवायम्' इति निश्चितवान, ततः 'अयमित्थमेव' इत्यवधृतवान्" इति । अत्र हि प्रतिनियत्तोल्लेखात क्रमः, 'जानन्' इत्यत्र शतप्रत्ययाचाऽक्रमः स्फुट एव ।
[ निवृत्ति-अनिवृत्ति उभयरूप वस्नु के ग्रहण की उपपत्ति ] निवर्तमान और अनिवर्तमान अंशों का किसी एक ज्ञान से ग्रहण न होने के कारण निवृत्तिअनिवत्ति उभायात्मक एक वस्तु का ज्ञान किस प्रकार सम्भव हो सकता है ? प्रस्तुत कारिका ५४ में इसी प्रश्न का समाधान किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-उक्त युक्ति से नित्ति और
उभयात्मक वस्तु का ग्रहण करने वाला ज्ञान, उपयोग हप में अन्धयी तथा अब ग्रह-ईहाअवाय और धारणारूप में व्यतिरेको होता है, क्योंकि अन्वयो और व्यतिरेको होना वस्तु का स्वभाव है इसलिए मालोचनात्मक ज्ञान वस्तु के अन्वय व्यतिरेक स्वभाव का ग्राहक होता है। एक ही अपयोग से जिस वस्तु का सर्वप्रथम सामान्यरूप में प्रवग्रह होता है बाद में उसी वस्तु को नियत्ति और अनिवृत्तिरूप में ईहा होती है । उसके अनन्तर एक रूप से उस वस्तु को निवृत्ति और अन्य रूप से