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________________ स्था का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] २३५ अनिवृत्ति का निश्चय होता है और अन्त में निश्चितरूप में उसका अवधारण होता है। इस प्रकार उक्त चार प्रकार से वस्तु का ग्राहक होने पर उपयोग के एकत्व की हानि नहीं होती, उसके एकरव में ठीक उसी प्रकार कोई विरोध नहीं होता है जैसे पहले श्याम प्रौर बाद में रक्त घट के एकत्व में कोई विरोध नहीं होता है। [ क्रमाक्रमोभयात्मक एक ज्ञान की अनुभूति ] इस सन्दर्भ में यह कहना कि 'ज्ञान का प्रक्रमिक रूप में ही अनुभव होता है, क्रमिक रूप में नहीं होता। अतः उक्त रीति से चार प्रकार से एक उपयोग में अन्वयध्यतिरेकी वस्तु की प्राहकता का प्रतिपादन नहीं हो सकता, यह ठीक नहीं है, क्योंकि दोषवश किसी उपयोग में क्रम का अनुभव न होने पर मो अन्य उपयोग में क्रम प्रौर प्रक्रम दोनों को स्फुट अनुभूति होती है। यही कारण है कि लोगों को क्रम-अकम दो रूपों में वस्तु का एक शानोपयोग होता है। जैसे घट का ज्ञानोपयोग होने पर मनुष्य को इस प्रकार का अनुभव होता है कि ये घट को ही देखते हा पहले मामाता करने ही 'यह क्या है इस प्रकार अयग्रह ४आ, उसके बाद क्या यह घट है ? अथवा कोई अन्य यस्त है?' इस प्रकार उसको ईहा हुई; और उसके अनन्तर घट के कम्बुग्रीवा आदि चिह्न को देखने पर यह घट हो है ऐसा निश्चय हआ; और अन्त में यह वास्तव में ऐसा ही है- घट हो है इस प्रकार अषधारण हआ। इस रीति से सम्पन्न उपयोग में अवग्रह आदि में वस्तु के प्रतिनियत रूप का उल्लेख होने से कम और 'जानन्' के वर्तमानकृदन्त में शतृ प्रत्यय से कम का अभाव सबंथा स्फुट है। यस्ततक्रमिकांशमेकमेव ज्ञानमुपति, तस्य घटसामान्यालोचनानन्तरम् 'अनेन घटेन भाव्यम्' इतीहैव दुर्घटा, बह्वर्थपरामर्शरूपन्यात तस्याः । “घटत्वव्याप्यकम्बुग्रीवादिमानयम्--इत्याकारिकवेहा" इति तु 'कम्बुत्रीवादिकं घटत्कादिव्याप्यं, ताश्चापम्' इत्यादितोऽपि संशनिवृत्तेने सर्वत्र संभरदुक्तिकम् । न चोक्ताकाराऽपीहा सहचारदर्शनादिकं विना व्याप्त्यावहाव संभविनी। अव्यवहितनष्टं च तांचरनरनतुल्यम् । उबुद्धतत्संस्कार एव तत्कार्यकारीत्युपगमे चोयुद्ध संस्कार एव ज्ञानमन्त्रिति ज्ञानसपोरसीदेव , अनुभवविरोधश्चैवम् , इत्यादि विवेचितं ज्ञानार्णवे ॥ ५४॥ [क्रमरहितज्ञानवादी के मन में ईहा को दुर्धटना ] जिस मत में क्रमिक अंशों से मिमुक्त एक हो ज्ञान का अस्तित्व मान्य है उस मत में सामान्य रूप से घट का आलोचत होने के बाद उस विषय को ईहा नहीं हो सकती; क्योंकि 'इस वस्तु को घट होना चाहिए' ईहा का यह रूप नहीं हो सकता। ऐमो ईहा अनेक अर्थों का परामर्श करती है, जबकि 'इसे घट होना चाहिए यह ज्ञान केवल एक वस्त घट का हो परामशक है। यदि यह कहा जाय कि-"यह घटत्व के व्याप्य कम्नुग्रीवा का आशय है इस रूप में घट की ईहा होती है" तो इस प्रकार का कथन सर्वत्र सम्भव नहीं है। क्योंकि कम्युग्रीवा घटत्व का व्याप्य है और यह वस्तु कम्बप्रीवा का आश्रय है, इस ज्ञान से भी संशय को निवृत्ति होती है । इसके अतिरिक्त उक्त ईहा, सहचारवर्शन आदि के प्रभाव में व्याप्ति का ज्ञान न होने से, सम्भय भी नहीं हो सकती। क्योंकि प्रव्यवहित पूर्वकाल में नष्ट होने पर भी सहवारदर्शन प्रादि चिरपूर्व में नष्ट के समान हो जाता है। यदि यह
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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