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[ शास्त्रवार्ता स्त० ७ श्लो. ५५-५६
कहा जाय कि-'सहचार आदि का उपबद्ध संस्कार ही सहचार-वर्शन के कार्य का जनक होता है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर यह भी कहा जा सकता है कि "उयुद्ध संस्कार ही ज्ञान है' जिसके फलस्वरूप ज्ञान को सत्ता का ही लोप प्रसक्त होगा। और ऐसा मानने में उपयोग के उक्त अनुभव का विरोध भी है । इस प्रसङ्ग को ऐसो सभी बातों का स्वोपज्ञ 'ज्ञानार्णव' प्रत्य में विवेचन किया गया है ॥ ५४॥
इत्थं च 'द्रव्य-पर्याययोनिवृत्त्यनियत्तिभ्यां भेद एव' निरस्तम् । अथ 'भेदोऽपि इत्युक्तौ न बाध इत्याहमूलम्--न च 'भेदोऽपि पाधाय तस्थानकान्तवादिनः ।
जात्यन्तरात्मकं वस्तु नित्यानित्यं यतो मतम् ॥ ५५ ॥ न च मेदोऽप्यधिकृतांशस्येतरांशात् तस्य-वस्तुनः बाधायै अनेकान्तपशव्याघाताय अनेकान्तवादिनः । यतः यस्मात् जात्यन्तरात्मक-इतरेतरानुविद्धं सद् वस्तु नित्यानित्यं मतम् , यत एव भिन्नमत एवानित्यम् , यत एव चाभिन्नमत एवं नित्यमिति । न हि नित्यत्वमनित्यं वा किश्चिदेकरूपमस्ति, किन्तु यद् यदान्बीयते तत् तदा नित्यमिति व्यपदिश्यते, यदा च यद् व्यतिरिच्यते, तदा तदनित्यमिति । अत एव प्रागभावः प्राग नित्या, ध्वंसश्च पश्चाद् नित्यः, अत एव च नित्या मुक्तिरुपपद्यत इति ॥ ५५ ।।
[द्रव्य-पर्याय में भेदाभेद से नित्यानित्यत्व ] 'द्रव्य निवृत्त नहीं होता है, किन्तु पर्याय निवृत्त होता है, इसलिए द्रव्य और पर्याय में केवल भेव ही हैं। इस बात का निराकरण अब तक किया गया है और अब प्रस्तुत कारिका ५५ में यह बताना है कि-'न्य और पर्याय में मेद भी है। ऐसा मानने पर वस्तु की अनेकान्तरूपता को बाष नहीं होता। कारिका का अर्थ इस प्रकार है--"प्रस्तुत अंश 'पर्याय' का इतर अंश ब्रम्प' से भेद भी है" ऐसा मानने से वस्तु के सम्बन्ध में अनेकान्तवादो के पक्ष की हानि नहीं होती, क्योंकि वस्तु परस्परानुविद्ध जात्यन्तर रूप होने से नित्य अनित्य दोनों रूप में मान्य है। पर्यायात्मक वस्तु यतः द्रव्य से भिन्न है. अत एव अनित्य है। एवं यतः वह द्रव्य से अभिन्न है. अत एष नित्य है । वस्तु का निस्यत्व और अनित्यत्व कोई एक ही रूप नहीं अपितु वस्तु जब अन्वयी होती है तब वह नित्य होती है, और जिस वस्तु का जब व्यतिरेक होता है तब वह प्रनित्य होती है। इसीलिए प्रागभाव वस्तुजन्म के पूर्व नित्य होता है, और ध्वंस वस्तु सत्ता के बाद नित्य होता है। इसीलिए मुक्ति की निश्यता उपपन्न होती है। मुक्ति हो जाने पर उसका व्यतिरेक ठीक उसी प्रकार कभी नहीं होता जैसे ध्वंस का ।। ५५ ।।
एतदेव समर्थयन्नाह-- मूलम्--प्रत्यभिज्ञाबलाच्चैतदित्थं समवसीयते।
इयं च लोकसि व तदेवेदमिति क्षितौ ।। ५६ ॥