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________________ १०० [ शास्त्रवा० ० ७ बलो०१७ ------ [ उत्पत्तिकाल में 'नष्टः ' प्रयोगापति अज्ञानमूलक है ] अन्य विद्वानों का यह कहना है फिट की उत्पत्तिकाल में घट का नारा मानने पर उसी काल में घटी नष्ट:' इस प्रयोग की आपत्ति होगी । यदि तत्काल में उत्पन्न घटका तत्काल में नाशन मान कर अन्य का नाश माना जायगा तो घट एकान्ततः उत्पन्न होने से विनाशादिरूप न हो सकेगा ।'किन्तु यह कथन उनके अनेकान्तवाद के तात्पर्य के प्रज्ञान का सूचक है। क्योंकि 'स्यात्' पत्र के योग सेक (म) ष्टि से घटोत्पावकपल में मृत्पिणात्मक का नाश होने से उक्त प्रयोग प्रष्ट है, क्योंकि घट में किसी अंश से मारा का प्रतियोगिता और किसी अंश से नाश का प्राधारस्व मे दोनों समय है, क्योंकि एक वस्तु में उत्पाद और नाश का एक काल में विशेष भो 'अपेक्षाभेव से' इस तृतीयागमित अर्थ के वोधक 'स्थात्' पद के योग से मिल जाता है। इसप्रकार निक्षेपल के वेतन विद्वानों को कहीं किसी भी प्रयोग या व्यवहारावि की व्यवस्था में क्षति नहीं हो सकती। [ नामादिनिक्षेप चतुष्टय से सुव्यवस्था ] जैसा कि वाचक मुख्य भाषामे उमास्वाति के तत्त्वार्थ सूत्र प्रथम चध्याय के सूत्र में कहा गया है कि वस्तु का पण नामस्थापना तथ्य और भाव हम चार निक्षेपों से होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि नाम निक्षेप दृष्टि से 'घट' यह शब्द भी घट हो है। क्योंकि कहा गया है कि अर्थ-श्रमि बान और प्रत्यय (बुद्धि) ये तीनों समान होते हैं। यह कथन निपष्टि पर ही आधारित है। इसके अतिरिक्त यह भी शातय है कि राय को अपमान कर शव और अर्थ में भव मनने पर प्रतिनियक्ति यानी शब्दविशेष में अविशेष को बोषक की भी उपपत्ति नहीं हो सकती । जिस प्रकार घटादि नाम घटादि अर्थस्वरूप होता है उसी प्रकार स्थापना निक्षेप की रटि से घटादि अर्थ का आकार चित्र भी घटस्वरूप ही होता है क्योंकि अर्थ और आकार बोलों मध्यपरि म हैं। यदि स्थापना और अर्थ में अमेब न माना जायगा तो दोनों में सहपरिणामरूपता नहीं हो सकी। इस पर यदि यह शंका की जाय कि -"अर्थ और स्थापना में ऐक्य है तो स्थापना को हो कहना उचित हो सकता है उसको उसको प्रतिकृति कहना उचित नहीं हो सकतातो यह ठीक नहीं है क्योंकि अर्थ अर्थादानमात्र सापेदा होने से केवल मुख्यार्थमात्र ही होता है। और स्थापना सुखार्थमात्र न होकर कुछ अधिक भी होती है, अर्थात् अर्थपादान निरपेक्ष होने से अथवा अतिरिक्त उपादान सावेक्ष होने से अर्थ से भिन्न भी होती है । मत एम उसे केवल प्रथम कह कर अर्थ को प्रतिकृति कहा जाता है। इसी प्रकार प्रथमनिष्टि से मृत्पिादित्य यानो मान की पूर्वावस्था भी पह हो है, क्योंकि यदि उन दोनों में कश्विद् प्रमेव न होगा तो उनमें पायाम उपादेय भाव न हो सकेगा, क्योंकि उस स्थिति में घट के अन्य कारणों में मुहिम में कोई विशेष न होने से 'वही घट का उपादान है और अन्य कारण केवल निमिल है' यह अथधारण वृघंट होगा । जैसे उक्त निक्षेपों के अनुसार नाम-स्थापना और तथ्य घर है उसी प्रकार भावनिक्षेपको दृष्टि घटपयोग या घटाकार ज्ञान तथा घटनक्रिया प्रथम जलाहरणक्षम घट ही मुख्य घट है, क्योंकि यही दुस्याएं घट को अर्थक्रिया का जनक है, क्योंकि घराकारमान तथा ज्ञाहरणविश्रनुकूल घरा
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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