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________________ प्पा-टीका एवं हिन्दी विवेचन । इथं च "ये यद्भावं प्रत्यनपेक्षास्ते तावनियताः, यथाऽन्त्या कारणासामग्री स्वकार्योत्पादने, विनाशं प्रत्यनपेक्षाश्च मावा इति विनाशनियतास्ते" इति परेषामभिधानमपि न प्रकृतसाधकम् प्रत्युतानुकूलमेव, मावस्योत्तरपरिणाम प्रस्पनपेचतया तावनियसस्वोपपचे, पूर्वक्षणस्य स्वयमेत्रोत्तरीभवतोऽपरापेक्षाऽभावतः क्षेपाऽयोगात , उत्पन्नस्य चोत्पत्ति-स्थितिविनाशेष कारणान्सरानपेक्षस्य पुनः पुनरुत्पत्ति-स्थिति-विनाशत्रयमवश्यंभाथि, अंशेनोत्पमस्पांशान्तरेण पुनः पुनरुत्पत्तिसंभवात् । इति सिद्धमेकदैऋत्र त्रयम् । [ये यात्रा इत्यादि नियम से त्ररूप्य की उपपत्ति ] इस तथ्य के बाधकरूप में बौखों का यह कहना कि-"जो बस्तु जिस स्वरूप के प्रति अन्य निरपेक्ष होती है वह वस्तु जप्त स्वरूप से सम्पन्न हो होती है। जैसे किसी कार्य की अन्तिम कारणसामग्री उस कार्य के उत्पावन में अश्य मिरपेक्ष होने से उस कार्य की उत्पादक होती ही है। इसी प्रकार बस्तु विनाया के प्रति अन्मनिरपेक्ष होती है अत एष वह विनाशानुगत ही होती है। अत: वस्तु के विनाशानुगताः मी तिति होने रामा कन्ना या गाभर भी वस्तु की उत्पाबाक्षि यरूपता में बाधक नहीं है बल्कि अनुकलशो है। श्योंकि वस्तु अग्रिमपरिणाम प्रति निरपेक्ष हो है, अतः उक्त नियमानुसार उसे अग्रिम परिणाम से सम्पन्न होना न्यायप्राप्त है. पयोंकि पूर्वक्षण मय स्वमं ही उत्तर आण में परिणत होता है तो उस परिणाम में किलो सम्प की अपेक्षा न होने से उसमें विलम्ब पसंभव है । इस प्रकार उत्पन्न वस्तु को उपसि स्थिति और बिना में अन्य कारण की अपेक्षा न होने से उत्पन्न का पुनः पुनः उत्पाब, पुनः पुनः अवस्थान, तथा पुनः पुनः विनाश मवर्षमावी है, क्योंकि एक अंश से उत्पन्न का प्राय अंशों में पुनः पुनः उत्पात्र सम्भव है। इस प्रकार एक काल में एक बहतु में उत्पाद-स्थिति और ना सीमों की सिद्धि निष्कंटक है। ये त्वादुः-'घटोत्पादकाले घटनाशाभ्युपगमे 'घटो नष्ट': इति प्रपोगः स्यात् , अन्यनाशे च घटस्योत्पायकान्त एव' इति--तेयतात्पर्यज्ञाः, स्यादपस्यन्दनेन द्रव्यार्थतया घटपदस्य तथाप्रयोगसंष्टत्यात , अंशे तत्प्रतियोगित्वम्य, अंशे नदाधारत्वस्य च संभवात , विरोधस्यापि वीपार्थावरुद्धण्याल्पप्रतिरुदत्वात् । न खलु निक्षेपतरवदिना वचन कापि प्रयोगव्यवहाराघश्ययस्था। सदिदमुवाच पाचकमुख्या-"नाम-स्थापना-द्रश्य-भावतस्तन्यासः" [त. सू० १-५] इति । 'घरः' इत्पभिधानमपि पट एव, "अर्थाऽभिधान-प्रत्ययास्तुस्थनामधेयाः" इति पचनान् , याच्य-वाचायोमें दे प्रतिनियनशयत्यनुपपनेव । इति नामनिःोपः । घटाफारोपि घर' एक, तुल्यपरिणामत्वान'; अन्यथा तयायोगात् , मुरुयार्थमात्रामावादेव तत्पनिकृतित्योपपत्तः । इति स्थापनानिक्षिपः । मूस्पिण्डादिद्रव्यघटोऽपि पट एत्र, अन्यथा परिणामपरिणाम भात्रानुपपत्तेः । इति द्रष्यनिक्षेपः । चटोपयोगः, घटनक्रियेव वा घटा, वस्यैव स्वार्थक्रियाकारित्राव । इति भावनिक्षेपः । एतद्विपयविस्तरस्तु विशेषाचश्यकादौ ।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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