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________________ [ नास्त्रमा सलो . १९ [उत्पादव्यय के विना क्षणिता दुपट ] बौद्ध के अभिप्रायामुप्तार-"क्षणस्थायी मानी गई वस्तु भावमात्र है। उसमें उससे अतिरिक अणस्थितिकत्वरूप कोई धर्म महों है ।" किन्तु यह कथन अतिसयत नहीं है क्योंकि बस्तुको भावमात्र सगस्पितिरूप मानने पर वस्तु निविशेषण हो जाती है। प्रतः 'वस्तु का क्या स्वरूप है यह निश्चय अब तक उसे महो । अतः उक्त रीति से बौद्ध के अभिप्राय का वर्णन उसके अज्ञान का सूचक है। यदि वस्तुको क्षणस्थितिमात्ररूप न कहकर क्षस्थितिस्वभाष कहा जायेगा तो निम्रित ही यह स्वभाव उत्पाद और व्यय के बिना अनपपन्न है क्योंकि क्षण के प्रमतर अस्थिति की अपेक्षा से ही मरिमा सामको उपसशि हो । श्राशय यह है कि वस्तु क्षणस्थितिक तभी हो सकती है जब उस क्षण में उसकी उत्पत्ति चोर अग्रिमण में उसका व्यय हो । क्योंकि बस्तु उस क्षण के पूर्व में असद है। मत: उस क्षण में उत्पन्न हये बिना उस क्षण में स्थिति नहीं हो सकती प्रौर अपिमक्षण में उसकाम्ययन मामले पर अग्रिमक्षरण में भी उसको अवस्थिति सम्भव होने से भो उसका क्षणस्थितिमात्र स्वभाव मही सिब हो सकता ॥१६॥ १७ वो कारिका में बचनमात्र से वस्तु के क्षणस्थितिकत्वस्वभाव का मायुपगम करने में बोच बताया गया है। वाङ्मात्रेण तथाभ्युपगमे त्याहमूलम् - सविस्थंभूनमेधेति द्वाम्नमस्तो जातुधित् । भूत्वाऽभावश्च नाशोऽपि तवति न लौकिकम् ॥ १७ ।।। "मविश्वंभूतमेय-मणस्थितिकमेव, स्वभावात , न विनायध्यपेत्तयेति भावः" इनि चेत् ! जानुचित कदाचित्र , दाफः शीघ्रम् , परिणामिकारणं बिना, नमस्ता-आकाशात उपपपत्ते, प्रमाणाभावान , नभस्त एवं वा न ययनिष्ठते । भूत्वाऽभावथ माशोऽपि तदेव भावमात्र मेत्र 'तदेव न भवती वि प्रतीतेः, इति न लाँकिफमेतत् , किन्तु प्रामाणिकम् । एवं च भावाभावरूपत्वान वस्तुनो भित्रकाले स्त्रकाले चोत्पादादित्रयात्मकत्वमेव | [वस्तु की क्षणिकता निरपेक्ष नहीं हो सकती ) बौद्ध की ओर से यदि यह कहा जाय कि-''वस्तु स्वभाव से हो मणस्थितिक होती है। उसे क्षणस्थितिक होने के लिये कोई अन्य अपेक्षा नहीं होती"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वस्तु गोत्र परिणामी कारण के बिना आकाश में कभी भी उत्पन्न नही हो सकती क्योंकि परिणामकारण के अभाव में वस्तु को उत्पत्ति में कोई प्रमाण नहीं है। इसी प्रकार विना कारण प्राकाण से ही उसकी प्रवस्थिति अयश अस्तित्व लाभ के अमनार अस्तित्यच्युति रूप विनाश भी बिना कारण प्राकाश से सम्भव नहीं हो सकता, क्योंकि वस्तु माषमात्ररूप ही नहीं है, क्योंकि "जो वस्नु तरमण में भावाएमक होती है वही वस्तु परिक्षण में नहीं होती" ऐसी प्रतीति सर्वमान्य है। ये सम बाल अर्थात कारण के विना कार्य को उत्पत्ति-स्थिति और माश का न होमा केवल लोकोक्तिमात्र नहीं है अपितु प्रमाणसिद्ध है । अत: उक्त प्रकार से वस्तु के भावाभावात्मक होने से भिखकाल तथा स्वकाल में उसकी उत्पावादिषितयरूपता अपरिहार्य है।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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