________________
स्वा० क० टीका एवं हिदी विवेचन ]
·
·
इष्यते च अनुभूयते च परे: - सांगतैः, मोहात अज्ञानात तत् उत्पादादित्रयम, क्षणस्थितिधर्मणि वस्तुन्यभ्युपगम्यमाने । कथम् ? इत्याह-अभावेऽन्यत्तमस्याप्युत्पादादीनां मध्ये, तवस्तुनि, तक्षणस्थितिफत्वम् यद्=यस्मात् न भवेत् । तत्त्वले भवनादुत्पम् अग्र मचणेऽभत्रनान नष्टस्, तदावस्थितेश्व gane हि क्षण स्थितिस्वभावमुच्यमानं पर्यवस्यैदिति, अग्रिमऽन्यस्याsara deन्ययाभावाभावे क्षणिकत्वन्यापातादित्युपपादितश्वर ( पूर्व ) म् । एवं परंस्यात्मकं वस्त्रनुभूयमाना श्यात्मकमन नाभ्युपगम्यते । तत्र च श्यात्मकत्वं विना स्वाभ्युपगमान्यथानुपपत्थैव व्यात्मकत्वं बलादेष्टव्यमिति भावः ॥ १५ ॥
२७
[ मौद्धमत में भी त्रैरूप्य का स्त्रीकार ]
ata वस्तु को क्षणमात्रस्यायो मामते हैं और ऐसा मानने पर उसमें उत्पाद-यय- प्रथ्य सोमों जान में भी अपगत हो जाते हैं। क्योंकि उक्त तीनों में किसी एक का भी अभाव होने पर वस्तु में refer को उपपत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि जिसे क्षणमात्रस्थितिक कहा जाता है वह लरक्षण में प्रस्तित्व प्राप्त करने से उत्पन्न, उत्तरक्षण में अस्तित्वहीन होने से नष्ट और तरक्षण में अवस्थित होने से ध्रुवस्वरूप सिद्ध होता है। क्योंकि यदि वस्तु को अग्रिमक्षण में स्तिमशीन म माना जायगा तो उसका श्रन्यथामा रूपान्तरगमन न होने से उसके क्षणिकरण का उपाधात होगा । इस प्रकार यदि लक्षण में वस्तु को अस्थि का लाभ न मामा आपगा तो वह अन्वक्षण के समान उस क्षण में भी असत् होगा । एवं यदि उस अरण में अवस्थित न होगा तो उस क्षण में अस्तित्वयुक्क न हो सकेगा, क्योंकि संरक्षण में अस्तित्व रक्षण में अवस्यितश्व का व्यापक है। पावक का अभाव होने पर व्याप्य का अभाव भी अनिवार्य होगा। यह सब से पहले ही कहा जा चुका है। इस प्रकार बौद्ध वस्तु को उत्पाद व्यय धौम्य त्रितयष अनुभव करते हुये भी उसे जितात्मक नहीं मानते किन्तु जैसा ऊपर बताया गया है कि वस्तु को सित्मक माने विनर बौद्ध का 'वस्तु क्षणिक होती है' यह अपना सिद्धान्त भी नहीं उपपद्म हो सकता । तदनुसार क्षणस्थिति वस्तु को इच्छा न होते हुए मी त्रियात्मक मानना अनिवार्य है ।।१५।।
१६ वीं कारिका में उक्त कथन के विरुद्ध बौद्ध के अभिप्राय को शंका रूप में प्रस्तुत कर उसका परिहार किया गया है
पराभिप्रायमाशय परिहरति-
मूलम् - भावमानं तदिष्टं वेशदित्यं निर्विशेषणम् ।
क्षणस्थितिस्वभावं तु न पाद-व्ययौ त्रिना ।। १६ ।।
'भावमात्रं तत् वस्तु क्षणस्थितिक मिष्टम्, न तु क्षणस्थितिकत्वमपि तत्र तदतिरिक्त
मस्ती' विवेत् ? इत्थं तद् वस्तु निर्विशेषणं जातम् । एवं च 'किंरूपं तत्' इति निषयोऽद्यापि देवानांप्रियस्य | क्षणस्थिविस्वभावं तु तदुच्यमानं द्वि-निर्थितम् उत्पाद-व्ययौ विना न युक्तम्, क्षणोमस्थित्यपेक्षयेत्र ऋण स्थितिस्वभावत्वव्यवस्थितैः ॥ १६ ॥
,