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[पासवाला
पो०१४-१५
कारिका के उत्तरार्ध में यह यत दी ह arura, लाय और धौम्य इन में अग्यातर के मभाव में सोमों का अभाव हो जाता है। यत: उत्पाद व्यय धौम्य में एक का अभाव होने पर सीमों का अभाव असत होता है, अतः एक काल में एक बस्तु में स्पावावित्रयमों अमाम्य होगा? कहने का अपाय यह है कि वस्तु अपने पूरे काल में एक साथ हो उत्पावपयनौम्प नितयात्मक होता है। अर्थात जो वस्तु अंशत: अतोतकाल में उत्पन्न हो चुकी है वही वर्तमान में किसी पंश से उस होती है और बहो कि श्रम से भविष्य में भी उत्पन्न होती रहती है। एवं जो वस्तु अतीत में किसी प्रकार में नष्ट हो चुका है वही वस्तु वतमान में किसी मंश से नष्ट होती है और भविष्य में किसी अंश से मष्ट होती होगी। इसीप्रकार को बस्तु किसी क्ष में भूतकाल में अवस्थित थी वही किसो अंश से वतमान में अवस्थित होती है और यही किसी बम में भविष्य में अबस्थित होती रहेगी ॥११॥
१४ वो कारिका में वस्तु की उत्पाद प्यष प्रौप्यरूपता के सम्बन्ध में अब तक किये गये विचारों का उपसंहार किया पया है ..
इदमेवोपसंहरनाइमूलम्-एकत्रैकवैधतविस्थं प्रयमपि स्थितम् ।
न्याम्पं भिन्ननिमित्तावासदमे न पुज्यते ॥ १४ ॥ एकत्रैष अधिकृतघटाइयस्तुनि एकवैध पियतिकाले, एतत् अयम् उत्पाद-व्ययधौव्यलक्षणम् , इत्पम्-उक्तरीत्या, मिन्ननिमित्तावालभिन्नापेशत्वाद , अभूतभवन-भूताऽमवन-तदुभाधारसभावल्य भेदादिति रा न्याययंवटमानम् , तदर्मरेनिमिसाऽभेदे न पुज्यत एकत्र पयम् , मिनापेक्षाणामेकापेक्षन्वाऽयोगाद , एकस्य भेदाऽयोगाद वेति भावः ॥१४॥
[निमितभेद से उत्पादादित्रय का एकत्र सहारस्थान ] घटादि एकवस्तु में एककाल में उत्पाब, उपम और प्रोग्य तीनों उक्त प्रकार के निमितभेद से उपपन्न होते है । निमित्तमेव का अर्थ है अपेक्षामेव अपवा खत तीनों का कम से अभूतमनन-भूताश्मन और समुभय का आधाररूप स्वभावमेव । प्राय यह है कि एक ही वस्तु एकही काल में किसी अपेक्षा से जापान, किसी अपेक्षा से विनष्ट और किसी अपेक्षा से स्थिर होती है। अथवा एकही वस्तु अभूतमान स्वभाव से उत्पन्न, मूसामवन स्वभाव से नष्ट और अभयाभावस्वभाव से स्थिर होती है। निमितमेव के अभाव में उत्पावाविषम फा एकवस्तु में एफकालिक अवस्थाम प्रमुफ्त है। क्योंकि निमिसभेव-अपेक्षाभेष से सम्भवित रूपों में एकापेक्षिता नहीं हो समसी । और न स्वभावभेव के बिना एक यस्तु में परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्मों का एकत्र एक काल में सम्मव को हो सकता है ॥१४॥
कुछ विज्ञाम् उक्त वस्तुस्थिति का अनुभव करते हुए भी उस का निषेध करते है. उनका यह कार्य प्रभाममूलक है। यह बात १५ वी कारिका में प्रतादी गई है
परे पुनरिन्थमनुभयन्तोऽपि प्रतिक्षिपन्तीति सेपामशानमायिकृर्षभाइ-- मूलम्-इष्यते च परमोहात्तरक्षणस्थितिधर्मणि ।
अभावेऽन्यतमस्यापि तवं न यावेत् ।। १५ ।।