________________
स्वा. टीका ए हिन्दी विचन ]
को परिहारार्थ अविद्या को बस्तुभूत मामा जायगा तो शबनम और अविद्या न दो वस्तु का अभ्युपगम होने से वंस की भापति होगी।
अविद्या प्रससे साभिन्न है यह प्रथम गोकानांकन माविष्ट बह्म से भिन्न होगी तो उसी के समान पहा मिथ्यामान का मिमित न हो सकेगी अतः यह मानना उचित है कि संसार पशा में शवना का प्रारमण्योति-स्वप्रकाशरूप में बोनाम नहीं होता इसका कारण मह महीं कि वह प्रषिक्षा से अभिमुस है अपितु इसका कारण यह कि स्वयंज्योति रूप में शाब्बतख का अस्तित्व ही नहीं है।
शवाय बार मानने पर माकने बखरी आदि भेषों की कल्पना भी युक्तिसंगत नहीं हो सकती, पोंकि एकानेकात्मक तश्व न मानकर केवल एकात्मक तत्त्व मानने से मेव का उपपावन किसी प्रकार से माय नहीं हो सकता।
___ सस्मान् द्रव्य-भावभेदाद् द्विविधा वाक् । तत्राद्या द्विविधा-द्रध्यात्मिका, पर्यायात्मिका च । तत्र शब्दपुद्गलरूपा द्रव्यात्मिका, श्रोग्रामपरिणामापमा च सेव पर्यायारिमका । तामन्ये 'स्वरी' इति परिभाषन्ते । झिनीयापि द्विविधा-व्यक्तिरूपा, शक्तिरूपा च । आधा सविकल्पिका धीरन्तर्जल्पाकारप्रतिनियनशब्दोल्लेखजननी । सामन्ये 'मध्यमा' इत्यध्ययस्यन्ति । द्विसीया च सविफस्यद्धयापारककर्मचयोपशमशक्तिरूपा तामन्ये पापन्तीमायक्षप्त इति दिक् । तस्मादुल्पादश्ययाऽभावे धौव्यस्याप्यसंमय इति युस्तमुक्तम्-'अन्यथा त्रितयाभार' इति । मस्तस्मात् कारणात , एकदैकय कि नोत्पादादित्रयम् ।। यदेव अत्यन्नं तदेव कश्चित्पचते, उत्पत्स्यते च । यदेव नष्टं तदेव नश्यति नष्पन्यति च । यदेवारस्थित सदेवावनिहत, अवस्थास्यते चेनि ॥ १३ ॥
[जैन मत में खरी-मध्यमा-पश्यन्ती बाप का ताधिक स्वरूप ] अतः पाक के सम्बन्ध में वस्तुस्थिति यह है कि वाक के वो भव है-सण्यसाक और भावधाक । इन में द्रव्यबा के वो प्रकार है अध्याःमक वाक और पर्यायात्मक याक । शव के रूप में परिणत होने योग्य जो भाषावगंणा के पुद्गल है उन्हें दध्यात्मक पाक कहा जाता है, वही वाकयोधमानपरिणाम को प्राप्त होती है सब उसी को पर्यायवाफ कहा जाता है, बसो बाफ्को बंयाकरणों द्वारा 'बखरो' शबद से परिभाषित किया गया है।
भाषाक के मो धो मेष है। पक्ति (वृद्धि रूप मोर जातिाप बम में पहली बाक् सपिकरूपकनिरूप है जो अन्तर्जरूपाकार होती है तथा प्रतिनियतशय के पल्लेख का जनक होती है । उसे हो याकरण लोग 'मध्यमा' रूप में जानते हैं। द्वितीय भाषवाक सविकल्पकबुद्धि के आधारकको के क्षयोपशम सम्प्रापर होने वाली आत्मशक्तिरूप है जिसका बंधाकरण लोग 'पायसी' शबद से ध्यवहार करते हैं।
[ उन्पादादिलप्य समर्थन का उपसंहार ] ___ इसप्रकार उक्त रीति से उ.पार व्यपरहित केवल ध्र स्वरुप पान्ध को मान्यता का निराकरण हो जाने से यह सर्वया सिड है कि उत्पावण्यय के प्रभाव में प्रौप भी सम्भवहीं है । अस. १३ नो