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[ शास्त्रमा सलोपर
[प्रपंच शब्दमाम की अवस्था विशेषरूप नहीं है ] इसप्रकार यामारणों का यह काम कि-"जैसे पीपी-युददे और फेम जल ले पनुषिद्ध होता है। अत एव जल ही उसका सार ताश्विकरूप होता है उसीप्रकार स्थलारद और अर्थ उपाएमक जगत् शब्दब्रह्म से मनुविद है अत एच. शाम्ब्रह्म ही उसका सार सास्विकरूप है ।"-पह असंगत है। क्योंकि सीधी बुददे और फल सारभूत जल की सत प्रवस्थाविशेष होते हैं । अतः सारभूत मल अपने में उन्हें तिरोहित कर सकता है किन्तु असतू माना TRI प्रसारभूत शम्दमा का अवस्थाविशेषरूप नहीं हो सकता, प्रस: समयका उसे अपने स्वरूप में तिरोहित नहीं कर सकता । यदि यह कहा जाय कि-'प्रपत्र शबनम से अभिन्न अपवा भिररूप में अनिर्वाश्य है और यह अविद्यावशा में भासित होता है - किन्तु अविद्या का विलम हो जाने पर भासित नही होसार कप में अद्वितीय मसाका निश्चय होता है"- सो यह कहना भी नहीं है, क्योंकि यह मित्राय किसे होता है इस प्रश्न का उत्सर यही हो सकता है कि उक्त निश्चय योगी को होता है। इस स्थिति में योगी मेहोस संविग्ध विषम के बारे में पूछा जा सकता है कि यह लगव को कावासयमात्ररूप में देखता है ? अषया विचित्ररूप में देखता है । क्योंकि इस विषय में कुछ कहने का अधिकारी षही है।
किश्च, अविधा ग्रह्मणो भिन्ना, अभिमा बा! | मिन्ना चेव ? वस्तुभूना अवस्तुभृता बा! न तावदवस्तुभूता, अक्रियाकारितात , अमवन । न च नार्थक्रियाकारित्नमप्यरूपाः, तिमिरवद् प्रमजनकल्याऽभिधानात , अवस्तुमाहात्म्यात् वस्तुनोऽन्यथाभावेऽतिग्रसक्तेः । वस्तुभूता चेन् ? तदा वन अविद्या घेति तमापनम् । अभिमा येत १ ब्रह्मवन' मिथ्याधीनिमित्त म स्थात् । नस्मादिदानी शब्दब्राह्मण आत्मज्योतीरूपेणाप्रकाशनं नाविधार्मिभृतत्वात् , किन्तु तथाऽसयादेवेति प्रतिपत्तथ्यम् । एवं चास्य बैंग्वयादिवार मेदकल्पनमपि न युज्यते, एक-दयास्मकतस्यानुपगमे भेदपरिंगणनस्याऽशक्यत्वात् ।
[प्रपंच के मूल अविद्या का ब्रह्म से भेद पक्ष में विकल्प] इसके अतिरिस यह मो विचारणीय है कि यदि प्रपश्च का भान अविद्यामूलक है सोह अविधा शवब्रह्म से भिन्न है या प्रमिमा पनि भिन्न है तो बह वस्तु भूत है या अवस्तुभूत? भिन्नता पक्ष के इन विकल्पों में द्वितीयविकल्प के अनुसार अबरतुभूत अविधा नहीं मानी जा सकती क्योंकि यह प्रपत्र के प्रयभाशरूप प्रक्रिया का जनक है। अत: ये अधिष्ठानरूप में प्रपत्रावभासरूप अकिपा का अमक होने से ब्रह्म अवस्नुभूत नहीं होता उसी प्रकार प्रपश्चावनासरूप अर्यक्रिया में निमिस होने से अविश्वा भी अवस्तु भूत नहीं हो सकती। उक्त आपत्ति के भय से अविद्या में अर्थक्रियाकारित्व कोही न मामना ठीक नहीं है क्योंकि तिमिर के समान विद्या को भ्रमजनक कहा जा चुका है। सघ.बात सो.मह कि.मविद्या को अवस्तु भान कर उसके बस से शम्बयामरूप वस्तु का प्रपञ्चरूप में अन्यथामा माना भी नहीं जा सकता, पयोंकि मवस्तु से वस्तु का आयथाभाव मानने पर किसी व्यवस्थित रूप से हो अन्यथा न होणार अन्य रूप है भी उसके अन्यथाभाष की प्रसारित होगी। जबकि प्रपा का व्यवस्थित रूप में ही मस्तिस्क स्वीकार्य है। यदि उक्त.आपछि