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________________ मा० क० टोका एवं हिम्बी विवेचन ] fer, शन्दार्थयोरेकान्ताभेदे खड्गादिशब्दोच्चार बदनविदारणमपि वैयाकरणस्य प्रसज्येत । यत्नेन मुखे निवेश्यमानस्य खड्गभागस्येव खड्गशब्दस्यावस्थाविशेषात् न बदनविदारकत्वमिति व १ न, अद्वैतेऽवस्था भेदस्यैवाऽसिद्धेः । स्वयमेव विचित्रस्यमा शब्दजोति प्रत्यवस्थं मेदोपपत्तिः, स्वातिरिक्त भेदकाभावाच्च नाद्वैतव्याघात' इति चेत् : इन्स तर्हि जगद्वैचित्र्यस्यैव 'शब्द' इति नामान्तरकीर्तनमायुष्मतः । [ खद्गादिशब्द से सुखछेदनापचि ] केस में यह के शब्द और अर्थ में एकान्त प्रमेव मानने पर गादिशश्व का उपचारण करने पर व्याकरण मत में मुखविदारण की आपति होगी। यदि यह कहा जाय कि 'सावधानी से मुख में खड्ग का संनिवेश करने पर जैसे खड़ को उस अवस्था से व का विवरण नहीं होता उसीप्रकार खड्गशब्द के अवस्था विशेष से भी मुखविवारण की प्रालि नहीं हो सकती ।" तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि शब्दाद्वयपयन में अवस्थाभेद ही प्रसिद्ध है। यदि यह कहा जाम कि - "ब्रह्म स्वयं ही विचित्रस्वभाव है अतः प्रवस्यामेव से उसमें भेद की उपपत्ति हो सकती है किन्तु यह मेव स्व से पतिरिक्त मेदक से न होकर स्वयंकृत होता है अतः उससे अस का व्याघात नहीं होता। " तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि इस कथन से यह पर्यवसित होता है कि जगत् का निश्य कर्तृ निरपेक्ष है और चिरंजीवी वैयाकरण ने उसी को 'शब' यह नामान्तर प्रवान किया है। 'विकः सकलो भेदानुपानी प्रपञ्चः इति तच्वतोऽभिभमेव शम्रो ति चेत् १ एवं तहिं द्विचन्द्रादिवदसन् प्रपञ्च इति तत्प्रकृतित्वं शब्दज्ञह्मणो न स्यात् । न हि सतोऽसकृ तित्वं नाम । एवं "अनुरूपत्वाद्बीच नयत् । वाचः सारमपेक्षन्ते शब्दाऽयम् ॥" [ 1 -इत्यभिधानमयुक्तं स्यान, सारजलस्य स्वावस्थाविशेषबुदबुदादितिरोभावक्षमन्येऽपि शब्दह्मणः स्वावस्थानाकान्तप्रपचतिरोभावानमात् 'अविद्याशार्या शब्दब्रह्मणस्वायत्या *यामनुपाख्यः प्रपञ्चो भागते, तद्विलये तु न इत्यद्वितीयवसाय' इति चेड् कस्यायमीगवसायः ९ । 'योगिन' इति चेत् ? स एव तर्हि संशयपथं पृच्छयताम् किमस शब्दा यमानं जगत् पश्यति स्येति । [ प्रपश्य की अविद्यामूलकता का खण्डन ] i= यदि यह कहा जाय कि भिश्राप से अवभासमान सम्पूर्ण प्रश्न प्राधिक= श्रविद्यामूलक है असदश्य सात्विक दृष्टि से है तो यह क नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर जैसे ि होने से असर होता है उसीप्रकार आवश्यक प्रपश्य भी असर होगा और उस स्थिति में शव्यब्रह्म उसकी प्रकृति यानी उपादान न हो सकेगा क्योंकि सत्वार्थ असद को प्रकृति नहीं बन सकता ।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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