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[शास्त्रमा स्तर को २१
सकलसिद्धम् । न पत्र न श्यामत्याभावस्प श्यामाम्यस्वस्य वा व्यवच्छेदः, श्यामान्यत्वस्याऽव्याप्यक्तित्वेऽपि प्राक् तदभारान् , व्यायवृत्तित्वे च मुतराम् ।।
'श्याम एय' इत्पत्र श्यामान्यरूपवान् स्पबच्छेधा, व्यवच्छेदश्वानान्योन्याभावः, स वाऽव्याप्यतिरिति न दोष" इति चेत् । न, 'प्राक् श्याम एम' इत्यस्य साधुत्वारपतेः । श्यामान्यरूपवश्वस्य व्यक्छेघरपे च साधुत्यापत्तिरेर 'अयं श्याम एवं इस्यस्य । नचातइतिश्यामान्यरूपे एतत्कालतित्वष्यवच्छेद लक्षणादिना प्रतियतोऽप्रामाण्यम् , अन्यस्य तु प्रामाण्यमेवेति वाच्यम्, स्वरसत एव तत्राप्रामाण्यव्यवहारान् ।
['स्यान' पदघटित वाक्यप्रयोग का औचित्य ] इस सम्बन्ध में अब तक के सम्पूर्ण विचारों का निष्कर्ष यह है कि यतः पातु ससपेक्षा से तसबनेकपर्यायों से करमित होती है प्रत एव प्रामाणिक बिवर्ग वस्तु का तातपर्याय के रूप में बोध कराने के लिये तत्तस्पर्याय की सत्ता के प्रयोजक तत्तवपेक्षा के नाम के लिये सबंध 'स्या' पद में घटित ही धाक्य प्रयोग करते हैं। विस्मातकारयटित प्रयोग की अपेक्षा को लायगो तो सभी वाय मिराकाक्ष-अपेक्षाशून्य हो आयेंगे । अर्थात किसी भी वाक्य से वस्तु के किसी भी स्वरूप का सापेक्ष बोध म हो सकेगा । यदि यह कहा जाय कि 'समभिस्याहार विशेष से अपेक्षा का लाभ हो सकता है. जसे 'घोऽस्ति इस पायम में घर पद में अस्तिपक्ष का समभिपाार होने से जिस अपेक्षा घर में अस्तिष है उस अपेक्षाका लाम हो मायगा पप्रपेक्षालाम के लिपे स्याह पद का प्रयोग अनावश्यक है"--तो यह ठीक नहीं है क्योंकि 'स्मात्' पप से भिन्न पत्र के समभिग्याहार से दास्या के किसी एक अपेक्षा का लाभ सम्भव होने पर भी तत्तव मय और सस निक्षेप मावि में अनुगप्त पदार्थ को अपेक्षा का 'स्मास' पब के समभियाशार के बिना लाभ नहीं हो सकता । कहने का तात्पर्य यह है कि'स्याच वटोऽस्ति' यह कहे धिना यदि केवल 'घटोऽस्ति ना मात्र कहा जायगा तो इस वाक्य में घरपा बस्य निक्षेस प्रथा पर्यावाधिकतय से अभिमत अमं के तात्पर्य से नियुक्त है अथवा नामाविनिक्षपों में प्रमुक निक्षेप विशेष को अपेक्षा अभिमत अयं के तात्पर्ष से प्रयुक्त है इसका निश्चम नहीं हो सकेगा। किन्तु स्मात् पद का प्रयोग होने पर बसा प्रयोग के प्रमित्राय का चिन्तन करने से प्रकृत घदपक का प्रयोग वक्ता ने किस अभिप्राय से किया है उसका अवधारण सम्भय हो सकता है।
[स्यात् प्रत्यक्ष मानमेव' इसी प्रयोग का औचित्य ] इस प्रकार यही उचित प्रतीत होता है कि प्रत्यक्ष मानमेव' यह प्रयोग न कर 'स्यात् प्रत्यक्ष माममेष' स्यादन माममेव' मुस प्रकार 'स्यात' पद घटित ही प्रयोग करना चाहिये। क्योंकि स्यात् पद अनेकाम का चोसक.मलः उससे त्यात प्रत्यक्षं मा.मेव' इसमें जिस अपेक्षा अमानश्व व्यवच्छेच है, तथा स्यात् न मानमेव' इस पावप में जिस अपेक्षा से मामस्य व्यवच्छेध है उन अपेक्षाओं की उपस्थिति हो सकती है। यदि स्यात पद का प्रयोग न कर केवल 'प्रत्यक्ष मानमेव' यह प्रयोग किया जायेगा तो उस वाक्य से को मानत्व और मानापश्वव्यवस्व में केवल प्रत्यक्षापेक्षया अपृयाभाव की प्रतीति होती है वह मप्रमाण हो जायगी। क्योंकि मानत्व और मामास्यत्व-उमर समस्तमानरूपक्किमों से अपथामृत है, अत एव सकलमानापेक्ष है, शि उक्त प्रतीति में उन धमों की