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________________ स्पा० ० टीर एवं हिस्बो विवेचन ] १३७ है - सो यह मो ठीक नहीं है क्योंकि उक्त विशेषणतासम्बन्ध से प्रत्यक्ष में मानान्यस्य घट में भी नहीं अत एव घट में भी उसका व्ययच्छेव सम्भव होने से 'मानवेन घटो मानमेव' इस प्रयोग का प्रसंग बाधवाय यह कहा अन्य कि- 'घट में मानसामात्यम से घटस्थापनाधिकरणाकश्य विशिष्टविशेषणता सम्बन्ध से है उसीप्रकार शुद्धाधिकरणाकश्य विशिष्ट विशेषणता सम्बन्ध से भी है। क्योंकि घर में मानव के न होने से उसमें सभी प्रकार मानाभ्यश्व का सद्भाव निर्वाध है। प्रत घट में उक्त विशेषणतासम्बन्ध से मानान्यत्व का व्यवच्छेव सम्भय न होने से उक्त प्रयोग का प्रसंग नहीं हो सकता' तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि सामान्यश्व को विशेषणता मानान्यत्वस्वरूप होने से सर्वत्र एक ही है। अतः यति घटाषि में सामान्यत्यविशेषणता में मिरवािधिकरण तामस्य है तो वही विशेषता प्रत्यक्ष में भी विद्यमान होने से प्रत्यक्ष में भी निरवािधिकरणाकविशिष्ट विशेषणतासम्बन्ध से सामान्यस्य सम्भव होने के कारण उसमें उक्त समय से भी मानान्यत्व का व्यवच्छे नहीं हो सकता । उतः 'प्रत्मक्षं मानमेव' इस वाक्य में एवकार से मानाम्पत्य के व्यवच्छेम की अनुपपत्तिरूप वोध सववस्थ है । सम्बन्ध में तदधिकरणवृत्तित्म का प्रन्तर्भाव करके यह कहा जाय कि प्रत्यक्षवृत्तिस्यामच्छेवेन रिवािधिकरणका विशिष्ट विशेषणता सम्बन्ध से माता का व्ययभव हो सकता है क्योंकि मानान्यस्व की विशेषणता में निश्वनिरषिकः सातरल्य घटाविवृलिए है। प्रत्यक्षवृतिस्पेन निरवधिनाधिकरणत्व अनुमानमेवाषि को विशेषणता में है-मानसामान्य मेद को विशेष में नहीं है अतः उक्त विशेषणता सम्बन्ध से प्रत्यक्ष में मागसामान्यमेव का व्ययव हो सकता है, क्योंकि जिस विशेषणता में प्रत्यक्ष सिवाय छेवेन निश्वािधिकरणसाकव है उस सम्बन्ध से मानसामान्यभेव नहीं रहता" तो इस कथन से भी मायिक को अभिगतसिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि उसका अभिमन है भाषा प्रभावक एफबस्तु का निराकरण जो उपर्युक्त रीति से नहीं सम्पन होता है, क्योंकि उक्त सम्बन्ध से मानान्यश्व का व्यवच्छे होने पर भी शिष्टघानाधिकरणareer एवं व्यायव्यवृतिधर्मावच्छिनाधिकरणतत्व तथा व्यधिकरणयमविच्छिनाधिकरणतलाक विशिष्टविशेषण सम्बन्ध से प्रत्यक्ष में मानान्यत्व का निषेध नहीं हो सकता। इसलिये एवम्भूत विशेषण सम्बन्ध से मानान्यश्व और उक्त विशेषलतासम्बन्ध से मामान्यश्व का इन दोनों सेविका अभ्युपगम नेयायिक के अपने कपन से ही सिद्ध हो आता है । तस्मा दपेक्षा गर्भ तदनेकपर्शयकरम्बितल्या वस्तुनस्तथा तथा प्रयोगं ततदपेक्षालाभार्थं स्यात्कारमेव प्रयुञ्जते सर्वत्र प्रामाणिकाः, अन्यथा निराशमेव सर्व वाक्यं प्रसज्येत । न च समभिव्याहारविशेषाय पेक्षालाथः इतरसमभिव्याहारवलात् किञ्चिद्राक्यार्थापैशाला मेऽपि तसम्म निःश्रेयाद्यनुगतपदार्थापेक्षायाः पात्कारसमभिव्याहारं विनाऽलाभात् । · इत्थं च 'स्यात्प्रत्यक्षं मानमेव ' 'स्याद् न मानमेच' इत्याद्येव प्रयुज्यमानं शोभते, अनेकान्तयोतन स्यात्पदेन तत्तदपेक्षोपस्यितेः अन्यथा मानवस्य मानान्यत्वव्यवच्छेदस्य सकलमान व्यक्त्य पृथग्भूतस्य सापेक्षप्रत्यचाऽपृथग्भावप्रतीतौ तदपेक्षाऽविषयत्वरूपाऽप्रामाण्यापातात् 1 न चेदेवम्, पाकरकते घटे 'अयं श्याम एव' इति कुतो न प्रयोगः ? कथं चैतदप्रामाण्यं
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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