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________________ [ मात्रा . स. एलो २१ मानमेव' इस वापस मैं एव' पद से प्रत्यक्ष में मानायव पबच्छेद की अनुपपत्तिरूप दोष नहीं हो सकता"--तो यह ठीक नहीं है. क्योंकि 'मानस्पेन मानयोभर्य म' इस प्रतीति से मानस्वारण्डिनमानसामान्यनिष्ठप्रतियोगिताक प्रभाव भी सिम है । यदि उसकी व्यावृत्ति के लिये यह कहा जाय कि-"मानरमावछिन्नमानसामान्यमाय मिष्ठप्रतियोगिताक अभाव त प्रतीतियों से मित्र नहीं है। पता उसका वन्येव सम्भव होने से उक्त वोष नहीं हो सकता"- तो यह भी ठीक महीं है क्योंकि प्रत्यक्षघटीम मानम्' इस प्रप्तीति से प्रत्यक्षघटोमयस्वावदेवेन प्रश्पक्ष में भी मानस्वपर्याप्तावस्थेबकताकनिरुपितमानसामान्यमिठप्रतियोगिताक प्रभाव सिम है-अतः उसका भी व्यवच्छेद नहीं हो सकता। यदि यह कहा जाय कि-'प्रत्यक्षस्वामिप्राधिकरणताक उक्त अभाव व्यवस्था है और वह 'प्रस्यमघटौ न मानम्' इस प्रतीति से सिद्ध नहीं है, पतः उसका पदाव हो सकता है-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि उस ममाष सिद्धिअतितिको विकल्पों से पराहत होने के कारण उसका व्यवमोद अशक्य है। आशय यह है कि पषि 'प्रत्यक्ष ममानम्' ऐसी प्रतीति प्रामाणिक हो तो उससे प्रत्यक्षत्वावच्छिन्नाधिकरणताक मानसामाग्यभेद सिद्ध होगा और जब वह प्रत्यक्ष में सिद्ध है तो प्रत्यक्ष में उसके व्यवच्छेद के प्रति उसको सिद्धि हो बाधक हो जायगी। यदि उक्त प्रसीति के प्रमाणिक न होने से प्रत्यक्षत्वायचित्राधिकरणाताक मानसामान्यमेव प्रसिद्ध है तो 'प्रत्यक्षमेव मानम्' इस वाक्य में एक्कार से उसके व्यवस्छद का बोधा नहीं हो सकता पयोंकि प्रसिद्ध प्रतियोगिक अभाव अमान्य है। [मानसामान्यभेद में तइन्यत्व के निवेश का प्रतिक्षप ] यदि यह कहा माय कि-'भ्रमप्रत्यक्ष न मानम्' एवं 'प्रत्यक्षघटौ न मानम् इस्पादि प्रतीलियों से प्रत्यक्ष में श्रमत्वविशिष्ट प्रत्यक्षात्यावच्छिन्नाधिकरणताक एवं प्रश्वमघटोभमत्यरूप ध्यासव्यत्तिय. विभिन्नाधिकरणसाक मानसामान्य मेव प्रत्यक्ष में प्रप्रपात हो तो मानसामान्यमेव में ताशाधिकरणतास मन्यस्य का निवेश कर ताशाधिकरणताका-यमानसामान्यभेट मा व्यवच्छेव माना का सकता है. क्योंकि एवम्भूत मानसामाग्यमेव प्रत्यक्ष में प्रसिद्ध है" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि य एवं लदे वलयभाव: स एवं स्वपपंतपो-जो बहनभाव लवत्यावधिनाधिकरणताक है यही हपर्वतोभयावावछिन्नाधिकरणताक है' इस प्रतोति से ध्यासण्यतिविभिन्नाधिकरणलाक और अध्याय. असिधवचिचाधिकरणताक अभाय में ऐक्य सिद्ध है । अत: वैशिष्टय म्यासस्यसि धर्मावच्छिनाधिकरणताक मानसामान्य मेर एवं 'घटो न मानम् प्रत्यापि प्रतीप्ति से सिद्ध घटस्वाच्चित्राधिकरणप्ताक मानसामान्मभेव में एक्य होने से वैशिष्टय व्यासज्यतिनिधियनप्रतियो। साफ मामलामा मेव अहासिस है । अतः जसका व्यवस्थेव नहीं हो सकता। उसके अतिरिक्त सकी शत यह है कि 'प्रत्यक्ष घटस्वेन न मानम्' अथवा 'अनुमानत्वेन न मानमत्यादि प्रतीति से प्रत्यक्ष में स्पधिकरणवर्भावबिनाधिकरणताफ मानसामान्यमेव सिम है। अतः हो शिष्टपव्यालम्पत्तियविन अधिकरणसाकाय मान सामान्यभेव हो जायगा और वह तो प्रत्यक्ष में नि है शप्त एव उसका मो व्यव. च्थेव आयम है। __ यदि यह कार जाय कि-समधिकरणधर्माधानाधिकरणलाक मानसामान्य मेव शुशारिकरगसाकस्व-निरपसिनाधिकरणताकस्से विशिष्ट विदोषरगतासम्बन्ध से मानसामाग्यमेव प्रत्यक्ष में सिद्ध नहीं है । अत एवं उक्त विशेषगतासम्बन्ध से प्रत्यक्ष में मानसामाग्यमेव का व्यवसव हो साता
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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