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________________ स्याका टीका एवं हिन्दी विवेचन प्रतीति सकलमानापेक्ष न होकर देवल प्रत्यक्षापेक्ष होती है, प्रतः उन धर्मों के सलमानरूप अपेक्षा को विषय न करने से उक्त प्रप्तोति में अप्रामाण्य अपरिहार्य है, क्योंकि जो वस्तु जिसे सापेक्ष होता है उस अपेक्षा को विषय न कर उस वस्तु को विषय करनेवाली प्रतीहि अप्रमाण होती है। क्योंकि यदि स्यात्-पब से अप्रटिस प्रयोग को भी प्रमाण माना जाएगा तो पाक से रक्त घर में अर्थ श्याम एक' यह प्रयोग स्यों नहीं होता और इसके सर्वसम्मत अप्रामाण्य की उपपत्ति किस प्रकार झोगी ?इन प्रश्नों का कोई उत्तर महो सकेगा। कारण, महो ऐसा नहीं कहा जा सकता कि पाकात पर में श्यामस्थामाव पपवा स्यामाम्यस्य का व्यवच्छंच नहीं है क्योंकि स्पामापरव पदि अम्पायति है तो पाकपूर्वकाल में घर में उसका व्यवसाय निर्वाध है। यदि पास्यत्ति है तो निवियाव घट में उसका व्यबोध है पयोंकि उसके ग्यारयवृतिपक्ष में यह पाक रक्त घट में नहीं रह सकता क्योंकि प्राक्काल में उसमें श्यामस्व विद्यमान था। [ श्यामान्यरूपवान को ध्यवच्छेद्य मानने में आपत्ति ] यदि यह कहा जाट कि-'श्रयं इया ए मा में एमका से यात्रामात्र प्रया पामा प्रव का व्यवच्छेद धभिमल नहीं है किन्तु श्यामान्यरूपवान् व्यवस्छेध है। अर्थात् श्यामान्यरुपयत का अन्योन्याभाव बोध्य है और वह पाप्यवृत्ति होने से पाकरत घट में नहीं है अतः कोई दोष नहीं हो सकता-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि एषकार से इपामान्यरूपक्वमेव को रोष्य मानने पर 'प्राकव्याम एव' इस प्रयोग में असाघुस्यापत्ति होगी क्योंकि अन्योन्याभाव के ग्याप्यवृत्तित्व मत में ग्यानात्यरूपवमेव घर में पाकपाककाल में भी नहीं रहेगा। सहि प्रयामाग्यरूपवस्व को व्यवजोग माना जायमा सो पाकरक्तघट में 'मयं पयाम एवं इसमें साधुरवापत्ति अनिवार्य होगी क्योंकि पाकर घर में भी चामान्यरूप का अभाव प्राककाल में। यदि यह कहा जाय कि 'यामास वाश्य से एसियामाभ्यहप में एतत्कालवृत्तित्व के अभाय का सक्षणाबि द्वारा एबकार से बोध होने से रक्त प्रयोग अप्रमाण है क्योंकि एसअसिायामान्यरूप में एतरकाल'तत्व का अभाव याधिस है, और 'प्राक पयाम एव' यह प्रयोग प्रामाणिक होगा क्योंकि एतात्तिश्यामान्यरूप में प्राककालतिरवका अभाव प्रचाधित है"-तो यह मी ठीक नहीं है, क्योंकि पाकरक्तघट में 'अयं श्याम एवं' इस प्रयोग में अप्रामाण्य का व्यवहार स्वार सिक है। प्रल: उसे प्रतीति विशेष के अभिप्रायमात्र से अप्रमाण बताना उचित नहीं है। कथं च चित्रे' घटेऽव्याप्यतिनानारूपसमायेशवादिनाम् 'अयं नील एव' इति न प्रयोगः १ । 'नीलान्यसमवेतत्वस्यवान व्यवच्छेद्यत्वाप नायं दोप' इति चेत् । न, 'गगनं नीलमेव' इति प्रसङ्गात् । 'नीलसमवेतन्यमप्यत्र प्रतीयत' इति चेत् ? न. तथापि रूपं नीलमेव' इति प्रसङ्गात् । 'रूपत्वावच्छेदेन नीलसमवेत्वाभावाद न दोप' इति येन १ ग, तथापि नीलं नीलमेव' इति प्रसङ्गात् ।- जायत एव-नील नीलमेवेति" इति चेच ? यदि जायते तदा गुणनिना नीलपदेन, न तु द्रन्यवृत्तिना अपात्रते तु वृध्पवृनिना तेनेति । नीलसमवेमद्रव्यत्तमप्यत्र प्रतीयत' इति धेन् ? न, अपन नील एव' इत्यतोऽनीलत्वच्यरच्छेदमात्रस्येव प्रत्ययात, प्रकृतेऽपि नीलाग्यवमधिकृत्य इह नील एत्र' इत्यप्रत्ययप्रसजान्छ | तस्मान् तत्तत्काल-देशाग्रंशापेक्षय शिधिव्येचछेदो वा प्रतीयते, इति सम्यगनहितः परिमावनीयम् ।। २१ ।।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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