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________________ १४० [ शास्त्रात तरलो. २१ [चित्रपट में 'अयं नील एवं' यह प्रयोग क्यों नहीं होता! ] स्थास पब के प्रयोग में लचिपासको का उ पाय चित्र पठ में मध्याप्पत्ति अनेकपसमावेगा पक्ष में 'अयं नोल एच' या प्रयोगयों नहीं होता। यदि यह कहा जाय कि-"पल पाक्य में एक्कार से नीलाम्पसमधेसरव ग्यवच्छेध है और यह चित्र घट में बाधित है, अतः यह वोष मही झोसमाता"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मामले पर 'गगनं नीलमेव' इस प्रयोग को मापत्ति होगी क्योंकि गगन में नीलामसमवेतत्वाभाष है। यदि यह कहा जाय कि'उक्त वाक्य में नीलाग्यसमवेतस्वाभाव के साथ नीलसमवेतस्वकी मी प्राप्तीति होती है, अतः ममम में नोससमवेसाव नसोने से 'गगनं मीलमेव' इस प्रयोगही भापसि नहीं हो सकती"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उत्तप्रकार का अबलम्बन करमे पर भी 'रूप नीसमेव' इस प्रयोग की मापत्ति होगी, क्योंकि मीलात्मकरूप में नीलाग्यसमवेतत्वामाव और समवेतस्प बोनों अबाधित है। परि पहबहा बाय कि रूप नौलमेव अस माय से रूपल्यावस्थेवेन नीलसमवेतःव को ही प्रतीति हो सकती है, किन्तु रूपावापपछेवेन नीलसमवेतत्व न होने से इस प्रयोग को आपति नहीं हो सकती'-सो यह भी ठोक नहीं है, क्योंकि 'नीनं नीलमेष' इसप्रकार के प्रयोग की आपत्ति फिर भी होगी। यदि यह कहा जाय कि-'मलं मोलमेव' यह प्रयोग इष्ट हो है-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि गुणपरक नीलपद के साथ यह प्रयोग गा है । उस्मपरक नीलपर के साथ यह प्रयोग इष्ट नहीं है और भाषसि द्रध्यपरक नोलपत्र के साथ अभिमत है, क्योंकि वध्यमानीवपतममियात एवं' पर से नीलान्पहामवेतत्व का व्यवच्छेद होता है तथा मीलतमयताव की प्रतीति होती है और पे बीमों मीलगुण में विद्यमान है अतः नीलगुणपरक प्रथममीलपवं पौर नीलमपरक द्वितीयमोल पव को लेकर 'नीलं भीलमेघ' इस प्रयोग को मापति का वारण अगषय है। यदि यह कहा जाय कि. “मलस्यपरक नीलपर में नीलपर और एषपच का समभिन्याहार जिE वाक्य में होता है उस पाक्य से नौलसमवेत सध्यत्व की मी प्रतीति होती है। अलः नीलगुण में नीलसमवेत प्रव्यस्व माक्षित होने से उस आपत्ति नहीं हो लसतो" तो यह तक नहीं है क्योंकि अन्यत्र 'नील एव' इस वाक्य से ऐसा प्रयोग करमे पर 'एव' पद से अनीलत्वका व्यवधेशमाघमीप्रतीत होता है। अपः उक्त बास्यों में नीलान्यसमवेतश्यके व्यवच्छेद और नीलसमवेत द्रव्यः पावि की प्रतील मानना उचित नहीं है। इसके अतिरिक्त दूसरा दोष यह है कि बहपाका नोलाषयव में तात्पर्य अमे पर चित्रघट में भी यह मील एवं' मह प्रतीति होती है किन्तु उक्त प्रकार से उक्त प्रयोगों का व्याख्यान करमे पर 'हनोल एवम प्रतीप्ति के अमाप का प्रसंग होगा क्यों कि निवघर में नीलान्यसमवेसस्त्र का प्रभाष बाधित है। अतः सावधानी के साथ विचार करने पर महो मानना उचित प्रतीत होता है कि किसी भी वाक्य से ससरकारन और सत्तद्देश और तलवंश की अपेक्षा से ही किसी विधि या पवटको प्रतीति होती है, अतः उस प्रकार की प्रतीति की उपपत्ति के लिये उचित अपेक्षा के लाभ के लिये वस्तुस्वरूपयोधक प्रत्येक वाक्य में स्यातपरप्रयोग आवश्यक है ।। २१ ।। २२ वी कारिका में ऐसे व्यक्ति को शिक्षा प्रदान किया गया है जिसका. रक्षता का दुरुपपोग करते हुये यह कहना है कि प्रत्यक्ष का प्रत्यक्षात्मना प्रमाणत्व पही अनुमामात्मना अप्रमाणस्व है। असा पनुमानात्मना अप्रमाण होने पर भी प्रत्यक्ष के सर्वथा मानव का मन नहीं होता
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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