SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्या १० टीका एवं हिम्मो विवेचन ] १४१ यस्तु दुर्विदग्धः 'प्रत्यक्षस्य स्वमानत्वमेवाऽनुमानन्वेनाऽमानत्यमिति न सर्वथा मानत्वदतिः' इत्याह,- शिक्षयितुमाइ मूलम्-न स्वसत्त्वं पराऽसवं मवसच विरोधतः । स्थसस्थाऽसत्ववन्यापान चबास्स्पेव तत्र तत् ।। २२ ।। दह सर्वभावानामेव न स्वसव पराऽसन्त्रम् , कि तर्हि ? कश्चिदन्यव , कुतः १ इत्याईतवसस्वविरोधता=अमिननिमित्तत्ये सत्यम्यवाऽसत्त्वविरोधात् , भित्रनिमित्त्वे तु कशि भिन्नमुभपमेकरूपतामासादयेदपि, यथैकापल्याण्वेवापरापेक्षया महदिति । पदवदाम प्रतीत्यसन्याधिकारे भाषारहस्ये- [ गाथा-२६] "भिमनिमितणशो पा य सेसि हंदि ! भण्णा विरोहो । वंजय-घडपाईअं होइ णिमित्तं पिच १॥" हरि [ स्व का सम्म और पराऽसन्ध दोनों एक नहीं है ] अनेकान्सवाव में समाप्त वस्तुओं का स्वसत्त्व ही परासश्व नहीं है-किस्तु परासत्व, स्वसस्य से कवि भिन्न है। क्योंकि अभिननिमित्तक-एकनिमिसापेक्ष सस्वाऽतस्व का परस्पर विरोष होता है। भिन्ननिमित्तक यानी विभिन्नापेक्ष सश्वासस्व अपेक्षामेव से भिन्न होते हुये आश्रयात्मना एकरूप होता है । प्रस: स्वअपेक्षा से सर और परापेक्षा से भसत्त्व स्व-पर रूप अपेक्षाभेव से मिज है, किन्तु एकाश्यनिष्ठ होने से आधाराषेष में एकान्तः भेव म होने के कारण भिन्न है। सत्वाऽसव की यह कविता और अभिन्नता एक व्य में एकही अपेक्षा प्रतीयमानणाव और प्रत्यकी अपेक्षा प्रतीयमान महत्व को, अपेक्षाब से भिन्न होते हुये मी आश्रमात्मना मभिन्नता, के समान सिट है। अंसा कि व्यापाकार ने स्वनिमित भाषाशयप में 'प्रतीत्यसत्य' भाषा के अधिकार में प्रति 'प्रस्थय स यतिकपण के प्रकरण में इस तथ्य की चर्चा का उल्लेख करते हुये कहा है कि-"विलक्षणरूप में प्रसीव होने पाले मात्र भिन्न मिमित्तक होते हैं-अतः उनमें विरोध कसे कहा जा सकता है। यह अवश्य है कि विलक्षण प्रतीति के विषमभूस भावों का निमित्त अनेक प्रकार का होता है। जैसे कोई व्यञ्ज निमित्त होता है और कोई घटक निमित्त होता है । उवा० एकाध्य में अस्ष मोर महत्व को प्रतीति के समावेश का निमित्त कम से सनिहित महान और अणु प्रध्यान्तर, ये उपजक निमित्त होता है और एक वस्तु में सरव और असत्व की प्रतीति के समावेश का निमित्त स्वाव्यक्षेत्रकालभाव और पराप्यक्षेत्रकालमा घटक मिमित होता है अखि स्वाध्यामि का और परमष्यादि प्रसव का तटस्प ग्यासक हो नहीं होता अपितु उसका घटक होता है, वमोकि उसके बिना वस्तु का सरख और असत्व उपपन्न नहीं हो सकता। अन्ये त्वाः-दृष्टान्त एवायमसिद्धा, मिन्नापेक्ष योरणुत्व-महश्चयोरेवाभावात् , महत्यपि * भिनारमिनश्वतो न च तेषी हुन्त [ मण्यते विरोधः । व्या घटकादिकं भवति निषिप्तमपीह चित्रम् ।।१।।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy