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________________ १५२ [ शास्त्रमात तो २२ । महत्तमादणुव्यवहारस्यापकष्टमहत्यनियन्धनत्वेन भातत्त्रात् , नित्यानिन्ययोग्णुत्वयोः परमाणुन्यणुकयोरेष मापादिति । "जुटाव विश्रामा नास्त्येवाणुत्यस् । त्रुटौ चापट महत्त्वमेवाणुत्व व्यवहारनिवन्धनम् । तच्च नित्यमेव | गगनमहत्त्वावधिकस्त्वपकों न बहुवजन्यतारच्छेदकः, त्रुटिमहत्यायधिकोस्कपण साकापश्या तस्थानुगतस्याभावात , टिमहत्वावधिकोत्कस्य तज्जन्यतावच्छेदकस्यात् , गगनमहमवादेरपि जन्यत्वापातात् । व्यंजकन्यं च जातिविशेषेण शक्तिविशेषेण बा, इति नेन्षनादिसंसर्गिणा सूक्ष्मत्र यादीनां महतो सतामन्त्रकारे इन्धनादिव्यजकत्वापत्तिः," इति तु मीमांसकानुसारिणः । [अणु और महत स्वतंत्र परिमाण होने की आशंका ] इस संदर्भ में अन्य विद्वानों नेमयिकों का यह कहना है कि-"स्वसत्व और परासरव के कथमिमन्त्रि होते हुये एकरूपता के साधन के लिये जो अणुत्व और महस्वरूप हाटान्त प्रस्तुत किया गया है वह असिम है। क्योंकि विभिन्नापेक्ष मणत्व और महत्त्व का अस्तित्व ही नहीं है। क्योंकि मम् मध्य में भी महसम हप की अफे!! बहार होता हैस में मिलावहार अपकृष्टमहस्वमूलक होने से औपचारिक है। वस्तुस्थिति यह है कि अणुरव में महत्व का समानाघिकरण्य ही नहीं है, केवल उसफे वो मेब ह नित्य और अनिरय, जो हम है परमाणु और अणक में [अणु जैसा कोई परिमाण ही नहीं है मीमांसक ) मोमोमामतामुसारी द्धिामों का यह कहना है कि अवयवधायका विनाम त्रुरि-प्रसरेण में ही होता है अत एवं भगुपरिमाण का अस्तित्व ही नहीं है । प्रसरेण में जो अवश्यवहार होता है बम का निमित्त प्रसरेणुगतापकृष्ट महत्व हो है और वह नित्य है। यदि यह कहा जाय कि-गगनमहत्वापेक्षया अपकृष्टपरिमाण के प्रति अवयवगत करव काम होता है अतः अवयवचस्व का सम्यतावपछेदक होने से प्रसरेण को निरषयव मामने पर उसके परिमाण में अपकर्ष मानना प्रसार है। असः उसमें होनेवाले अगुस्य व्यवहार को उपपत्ति के लिये उपमें प्रणुरुष का अभ्युपगम अावश्यक है"-तो यह टीम नही है गोंकि असरेणुगत महस्वाधिक उत्कर्ष के साथ सांकर्य होने से अपकर्ष को महश्वगत जाति नहीं माना जा सकता । अत एक बहुत्य के जन्मताबकछवाहप में उसकी कल्पना अशक्य है। दूसरी बात यह कि यदि गगनमहरवाधिकापकर्ष अवयमस्व का अन्यतावच्छेदक माना जायगा तो त्रुटिंगत महत्वावधिकोस्कर्ष को भी विनियमनाविरह से असमवगतवतबका सभ्यतावच्छेवक मारमा होगा और ऐसा मानने पर आकाशगत महत्वावि में मी मम्मत्य को प्रापति होगी। अतः धुटि में अपकृष्ट महरष को मानने में कोई बाधा न होने से उसी से उस में अस्वष्यवहार की उपपत्ति सम्भव होने के कारण अगनिमाण को तिलिमही हो सकती । अस एकत्र अणुत्व और महत्व को प्रतीति का समावेश सिद्ध न होने से उक्त स्टान्त द्धि है। [मम अग्निकणमंसूष्ट इन्धन के अन्धकार में प्रत्यक्ष का प्रतिक्षेप] यि यह कहा जाय कि अणुपरिमाण न मानने पर अन्धकार में इन्धनादि से संसष्ठ सूक्ष्म
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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