SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वा.क. दोका एवं हिम्यो विवेचना १४३ वह्नि आदि से इन्धन आदि के प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी क्योंकि मणपरिमाण के अनम्युपगमपक्ष में सूक्ष्मबल्लि माविका परिमाण भी मह परिमाण ही होगा और महत्वपरिमाणविष्टि लि आदि निषमतः इन्धनावि का अभिभ्यम्बक होता है। तो यह कीक नहीं है क्योंकि पल्लि मावि महापरिमापवान् होने से संसष्ट वस्तु के व्यग्नक नहीं होते अपितु जातिविशेष अथवा पाक्तिविशेष का मामय होने से व्यस्मक होते हैं। इन्धनादि से ससष्ट बलि भादि में उस जातिविशेष या माविमापन रहने से उससे धनावि के प्रत्यक्ष को भापत्ति नहीं हो सकती।। ने भ्रान्ताः, 'अयमितो महान , इतश्चागुः' इति वृद्धथै फत्र भिन्नापेक्षयोरणुत्व-मह क्ययो विलक्षणयोरेवानुभवात् । 'इतोऽणुः' इति प्रयोग 'एतदपकृष्टमहत्ववान्' इत्युपचारेण पिल्यैतदपेक्षाणुत्वपर्यायापलापे 'इती महान' इयाप 'एतदपकृष्टाणुत्ववान' इति विकृत्य समर्थयतो महत्त्वमेव चापलपतः का प्रतीकारः। महसमपेक्षा विनव स्वरसतोऽनुभूपत' इति चैन ? सोऽयं स्वरसः परस्परमस्वरसग्रस्तः । परिमाणमात्रमेव निरपेझमनुभूयते महन्या-ऽणुत्वे तु सापेक्षे एवेति पुनरनेशन्तेऽनुभवसिद्धो विवेकः । अथ-महत्यापलापे तदाश्रयम्य प्रत्यक्षत्वं दुर्घटम् , महदुतरूपचन्द्रश्यस्यैव वासुपस्यनियमान , अणुत्वापनापे तु न किचिद बाधकमिति घेत ? न, लाघवाइद्भतापुत्वस्पैब ट्रव्यचाक्षपईतुत्वात् । उत्कर्पा-ऽपकवियि परस्यापेक्षिकाणुत्वमहत्वातिरिको दुर्वचौ, मौकर्येण जातिरूपयोम्तयोक्तुमशक्यत्वात् । [अणु-महत स्वतन्त्र परिमाणवादी को अनुभववाध ] ध्यास्थाकार ने भगुल्य में महत्त्स के सामानाधिकरण्य का प्रत्यायान करने वाले नयायिक विद्वानों को यह महते हुए भ्रान्त कहा है कि 'प्रय मिती महान नाणः = यह इस बग्य सेतो महान है किन्तु इस द्रव्य से अणु है इस बुमि से एकवस्तु में अपेक्षामेव से परस्परविलक्षण हो अगुत्व और महस्व का अनुभव होता है। यदि यह कहा जाय कि-"यह इस इश्य को अपेक्षा प्रण है-इसका अर्थ है यह इसको अपेभा अपकृष्ट महत्व का आश्रय है। अतः स प्रतीति से एतत्सापेक्षा अणुत्व की सिनि महीं हो सकती तो यह ठीक नहीं है क्योंकि किधिवधिक पपकर्ष विशिष्ट महत्व से परि सापेक्ष अण-व का अपलाप किया जायगा तो 'इत्तो महान-यह ठप अमुक दम से महान् हैं इस प्रतीति का भी यह इस्य इस प्रव्य को अपेक्षा अपकृष्टाणत्ववान् है' यह अर्थ करके किधियिक अपराध विशिष्ट अणुत्व से महत्व का भी अपलाप किया जा सकता है जिस का कोई प्रतिकार मणस्वापलापी द्वारासम यदि यह कहा जाए कि 'महत्व का अनुभव स्वारसिक होता है उसमें किसी को अपेक्षा नहीं होती' सो यह स्वरस परस्पर सस्यरस से प्रस्त है अर्थात यह भी कहा जा सकता है कि 'मगुत्व का अनुमब स्वारसिक है उसमें किसी की अपेक्षा नहीं होती। इस प्रकार अणुव अपलापी और महत्त्वापलापी बोनो का स्वरस एकदूसरे के अस्वरस से प्रस्त होने के कारण सापक नहीं हो सकता । अतः अनुभवसिद्ध विक इस अनेकान्त पक्ष में ही सिक होता है कि केवल परिमाणसामान्य काही अनुमय निरपेक्ष होता है। सिग्तु महत्व तथा अणुक का मनुभव तो सापेक्ष ही होता है।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy