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________________ २३८ [शास्त्रवाहित०७श्लो.५८ में प्रधानरूप से मेद का भान नहीं होता। ज्ञान में प्रधान और अप्रधानभाष की उपपत्ति तत्तद्विषयक शान के हेतुभूत क्षयोपशम के भेद से होती है । इस सन्दर्भ में कुछ लोगों का यह कहना है कि- "जैसे वस्तु का पृथम् भूत एक भाग में स्वरूप विरोध न होने के कारण नानात्व नहीं होता, उसी प्रकार किसी भी एक बस्तु में नानात्व नहीं हो सकता, एवं बुद्धि रूपभेद से अनेक होती है, और अंशतः रूप से अभिन्न होने से एक होती है। ऐसा मानने पर नाना रूप धुद्धि से प्राह्य होने के कारण 'वस्तु में नामात्य ही होता है, एकरव नहीं होता है यह सिद्ध होता है"-किन्तु यह सच बात अनायास निरस्त हो जाती है क्योंकि उक्त रीति से एकभनेक रूप प्रत्यभिज्ञा से एक-अनेक रूप हो वस्तु का प्रहण होना युक्तिसिद्ध है ।। ५७ ।। एतदेव भावयतिमूलम् --एकान्तैक्ये न नाना यनानात्वे कमप्यः। अतः कथं नु तावस्तदेतदुभयात्मकम् ॥ ५८ ।। एकान्तैक्ये पूर्वा-उपरयोः न नाना यत्-यस्मात् कथंचिदपि, नानात्वे च सर्वथा एकमप्यदो 'न' इति वतेच, अतः अस्माद्धतीः, कथं नु इति थिये सभासदेवेदम्' इति प्रत्यभिज्ञोपपत्तिः १ ततस्तत्-प्रत्यभिज्ञेयं वस्तु, उभयात्मकम् नाना ऽनानास्वभावम् । प्रस्तुत ५५वीं कारिका में एक अनेक रूप प्रत्यभिज्ञा से एक-अनेक रूप वस्तु के ग्रहण होने का उपपावन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-पूर्ववर्ती और परवर्ती वस्तु में सर्वथा ऐक्य होने पर उनमें किसी भी प्रकार अनेकत्व नहीं हो सकता और उन्हें सर्वथा भिन्न मानने पर उनमें एकत्व भी नहीं हो सकता; फिर ऐसी स्थिति में किसी वस्तु की 'तदेव इदम्' इस रूप में प्रत्यभिज्ञा कैसे हो सकेगी? किन्तु इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा होती हैं अतः यह सिद्ध है कि उसकी विषयभूत वस्तु एक-अनेक उभयात्मक है। इदमिह हार्दम्-यैः पूर्वा-ऽपरकालीनघटादेरेकत्यमेव स्वीक्रियते तेषां स्वरूपतो विशिष्टभेदे, कालविशेषारच्छिन्नभेदे, श्याम-रक्तादिरूपावच्छिन्नभेदे वा कथं प्रत्यभिज्ञा ? । 'तव्यक्तिस्वावच्छिन्नभेदाभावरूपस्यैकत्वस्य प्रत्यभिज्ञायमानस्याऽयाधान नानुपपत्तिरिति चेत् ? न, परमाणु-द्वयणुकादिदेशविगमेन खण्ड घटादिगंभावनया तदनिश्चयात , खण्डघटादिनिश्चयेऽपि तथा प्रत्यभिज्ञानाच्च । 'खण्डवटादी तद्वृत्तिवटत्वावच्छिन्न भेदाभाव एक प्रत्यभिज्ञायत' इति चेत् ? न. तद्वृत्तिघटत्यस्य घटत्वापेक्षया गुरुत्वेन भेदप्रतियोगितानवच्छेदकत्वात् , घटत्यावच्छिन्नभेदाभावसंबन्धेन तस्यान्वये च व्यक्त्यन्तरेऽपि तथाप्रत्यभिज्ञाप्रसङ्गात् । 'शुद्धब्यक्त्यभेदेनेव तत्यदार्थस्येदंपदार्थे भावाद् व्यक्त्यन्तरे 'सोऽयम्' इति प्रत्यभिज्ञा भ्रान्तैवेति चेत् १ 'व्यक्तिभेद एवं देशभने न तु रूपमङ्ग' इत्यत्र किं मानम् ? श्याम-रक्तादिदशयोरिव खण्डाऽखण्डदेशयोरपि विशिष्ट भेदस्य सुवचत्वात् , विशिष्टनाशोत्पादरूपधर्म्यस्यापि तद्वदेवात्र शुद्धव्यत्यभेदाऽविरोधित्वात् ? इति ।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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